शीत लहर ये आ-आकर ना जाए
कांच-सी चमकती है झील नीली
मन के अलाव पर तप रहीं
यादों की हथेली
बर्फीले हवाएँ सोख गईं
तपन अगन की
बेचैन मनवा चैन ना पाए
शीत लहर ये आ-आकर ना जाए
धुंध भरी आँखें बावरी
कुरेंदतीं बुझी राख को
विद्रूप अँधेरा कांपती धूप
मुंगफली के छिलकों सा
कुरमुरा गया पत्तों का रूप
भूखी गिलहरी वह अब
कैसे राह भटक-भटक ना जाए
शीत लहर ये आ-आकर ना जाए
बूढ़े जादूगर ने
घुमाई फिर जादू की छड़ी
जम गए फल फूल कली-कली
बर्फ की ठंडी चादर तले
पूरी प्रकृति जब सो जाए
शीत लहर ये आ-आकर न जाए
शैल अग्रवाल
सर्दी
कुहरे की झीनी चादर में
यौवन रूप छिपाए
चौपालों पर
मुस्कानों की आग उड़ाती जाए
गाजर तोड़े
मूली नोचे
पके टमाटर खाए
गोदी में इक भेड़ का बच्चा
आँचल में कुछ सेब
धूप सखी की उँगली पकड़े
इधर-उधर मँडराए
– निदा फाज़ली
भूखी चिड़िया ने पलटे फिर फिरके सूखे पत्ते
और थकी गिलहरी सो गई डाल पे भूखी ही
सर्द हवाओं ने कहा तभी कुछ यूँ पलट-पलटकर
नहीं है यह कोई इस सृष्टि का अंत
शिशिर के बाद ही तो, देखो
आ पाता है फिर बसंत… ”
-शैल अग्रवाल
पलभर नहीं टिकती कहीं
भागती ही जाती है
कभी आंगन कभी मुडेर
कभी बरगद की छैयां
जाड़े की धुप जैसे नन्हीं गौरैया
तेल मलें दादाजी
बैठे दालान में
मचिया ले खदेड़ रही
दादीजी धुप को
बाह छुड़ा भाग रही
धुप की परछाइयाँ
जाड़े की धुप जैसे नन्हीं गौरैया
कभी इधर कभी उधर
खेलती है दौड़ धुप
कूक रही कुहू कुहू
कोयल अमरैया
जाड़े की धुप जैसे नन्हीं गौरैया
सरसों के फूलों पर
भवरे मद्लायें
फूलों का रस चूसे
फूल सुंघनी चिरैया
जाड़े की धुप जैसे नन्हीं गौरैया
बड़ी भली लागे है
रजाई की गरमाई
शीतल जल लागे जैसे
काटे ततैया
जाड़े की धुप जैसे नन्हीं गौरैया
कुसुम सिन्हा
सुबह भिंची-भिंची आखों से
खिड़कियों के पर्दे हटाते हुए
बाहर देख
अवाक् रह गई !
शिल्पकार ने
पूरे बगीचे में
पारदर्शी काँच के वृक्ष
औ’ झाड़ियां जड़ दी थीं !
रिमझिम फुहार
सारी रात गाती रही
तापमान गिरने से
बर्फ बन गुनगुनाती रही !
तभी शायद
पाइन , टीक औ’ पाम के
वृक्षों को शिल्पी घड़ता रहा
रूप नया देता रहा.
ऐसा लगा
काँच बगीचा है मेरा
एक -एक पत्ती
मैग्नोलिया की एक -एक पंखुड़ी
कुशल शिल्पी की कृतियाँ हैं !
काँच की घास
निहार तो सकतीं हूँ …..
पाँव नहीं रख सकती …….
-सुधा ओम धींगरा
ठंड
दरवाज़ा खोला
तो ठंड दरवाज़े पर,
बाँहें खोले –
आगे बढ़,
भेंटने को तैयार।
हवा घबराई-सी
इधर उधर पत्ते बुहारती,
ख़बरदार करती
घूम रही थी।
निकलूँ न निकलूँ का असमंजस फलाँग
मैं जैसे ही आई
ठंड के आगोश में
एक थप्पड़ लगा
झुँझलाई हुई हवा का –
“मना किया था न!”
और सूरज –
बादलों को भेद,
मुसकुरा उठा!
-इला प्रसाद
दिन ठंडा है
आओ, तापें
जरा देर सूरज को चलकर
कमरे में बैठे-बैठे
हो रहे बर्फ हम
सँजो रहे हैं
दुनिया भर के साँसों के गम
बहर देखो
हुआ सुनहरा
धूप सेंककर चिड़िया का घर
ओस-नहाये
खिले फूल को छूकर तितली
अभी-अभी
खिड़की के आगे से है निकली
सँग कबूतरी के
बैठा है
पंख उठाये हुए कबूतर
उधर घास पर ओस पी रही
चपल गिलहरी
देखो, कैसे
धूप पीठ पर उसके ठहरी
चलो
संग उसके हम बाँचें
लिखे जोत के जो हैं आखर
-कुमार रवीन्द्र
कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में
रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह
कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में
आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर
कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में
कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है
कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में
कुमार रवीन्द्र
रात-भर हम
रहे सूरज के भरोसे
सुबह तो वह आयेगा ही
पर सुबह ने ठगी की
वह धुंध ओढ़े हुए आई
बावरे आकाश ने भी
बर्फ की चादर बिछाई
और हम
बैठे रहे इस बात में ही
धूप का देवा कभी मुस्काएगा ही
ओस की बूँदें जमी हैं
पत्तियों पर
घास पर भी
रहा गुमसुम-मौन जंगल
और सूना देवघर भी
सोचते हम –
गाँव का बूढ़ा भिखारी
अभी कबिरा का भजन तो गाएगा ही
घोसले में दुबककर
बैठा हुआ है सगुनपाखी
नदी भी थिर दे रही
अंधे समय की मूक साखी
याद आई
दुआ हमको पूर्वजों की
कभी तो यह समय भी कट जाएगा ही
कुमार रवीन्द्र
कोहरा
घर, खेत, सड़क, पहाड़
किनारों तक सरककर
समुन्दर में
कूदने को तैयार
एक आदाज पक्षी
अपने ही पंखों के
विस्तार में भटका
पहचान ढूँढता—
जाने कब खोल पाए
आकाश के ढक्कन से
ढकी धरती की
बन्द यह डिबिया।
–शैल अग्रवाल
धुँध में
अजीब मौसम है
यह आँसुओं सा
उमड़ता-जमता
धरती के सीने से
आह बन
उठता जो धुँआ
धरती के सीने पर ही
कहर-सा बरसता
धुँध बनकर
जम गए हैं सपने
आँखों के नम काँच पे
और फैलता गया
अँधेरा रातभर –
फिसल-फिसल
काँपती उँगलियों के
ठँडे बेजान पोरों से
पर सूखी-नंगी मनकी
नादान ये टहनियाँ
करती रहीं इन्तजार
आज भी
जाने किसका
यूँ एड़ियों पे देखतीं
उचक-उचक।
-शैल अग्रवाल
अपराजेय हैं हम
शीत का कितना प्रकोप
बर्फ का दुशाला ओढ़ आए हैं पेड़
उनपर इक्की-दुक्की आ बैठी हैं चिड़िया
कटीली बेरियों से भूख मिटाती
पहाड़ियों की चोटियों पर
योगी से एक टांग पर खड़े देवदार
आकाश को एकटक रहे निहार
बर्फीली हवाओं में भी इनके तन
रहते हैं हरे भरे
दुन्दुभी साहस की देते
हंँस-हँसकर ये कहते-
‘ अपराजेय है हम‘
-शैल अग्रवाल
ये सर्द मौसम,
ये सर्द मौसम,
ये शोख लम्हे
फ़िजा में आती हुई सरसता,
खनक-भरी ये हँसी कि जैसे
क्षितिज में चमके हों मेघ सहसा।
हुलस के आते हवा के झोंके
धुऍं के फाहे रुई के धोखे
कहीं पे सूरज बिलम गया है
कोई तो है, जो है राह रोके,
किसी के चेहरे का ये भरम है
हो जैस पत्तों में सूर्य अटका।
नई हवाओं की गुनगुनाहट
ये खुशबुओं की अटूट बारिश,
नए बरस की ये दस्तकें हैं
नए-से सपने नई-सी ख्वाहिश
नया जनम ले रही है चाहत
मचल रहे हैं दिल रफ्ता रफ्ता।
चलो कि टूटे हुओं को जोड़ें,
जमाने से रूठे हुओं को मोड़ें
अँधेरे में इक दिया तो बालें
हम ऑंधियों का गूरूर तोड़ें,
धरा पे लिख दें हवा से कह दें
है मँहगी नफरत औ प्यार सस्ता।
नए जमाने के ख्याल हैं हम
नए उजालों के मुंतजिर हम,
मगर मुहब्बत के राजपथ के
बड़े पुराने हैं हमसफर हम,
अभी भी मीलों है हमको चलना
अभी भी बाकी है कितना रस्ता।
अपन फ़कीरी में पलने वाले
मगर हैं दिल में सुकून पाले
थके नहीं हैं हम इस सफर में
भले ही पॉवों में दिखते छाले,
अभी उमीदें हैं अपनी रोशन
अभी है माटी में प्यार ज़िन्दा।
-ओम निचल
” सुरमई सर्दी!”
1
गुलाबी जाडा
सूरज अलाव में
पिघलता सा
2
कांपे कोहरा
जाड़ों की दुपहरी
सूर्य ना आया
3
ओस कलम
सर्द धरा पर
रेखा उकेरे
4
ठिठुरा दिन
सर्द धरा पे ओढ़
जाड़े का शाल
5
हवा उडाये
कोहरे की रुई को
सर्दी की भोर
6
हेमंती दिन
शिशिर हिमकण
विहग मूक
7
श्वेत हिम पा
सूरज का अलाव
उष्ण होते से
8.
सोई घाटी में
सर्द हवाएं बोले
डरे पाखी सी
9
सर्दी की धूप
मुंडेर पर बैठी
सूरज पीती
10
चतुर्दिशायें
अलाव की आंच से
गर्मी है पाती
१1
खिड़की पर
कतरा कतरा सी
सर्दी थी जमी
-सरस्वती माथुर
” बर्फ हवाएं !”
सर्द सी धूप
पहाड़ों पे उतरी
धरा पे रुकी
फूलों को सहला के
पाखी सी उड़ गयी
2
सर्द सा सूर्य
धरती पे उतरा
सुर मिला के
चिड़िया संग डोला
सागर जा उतरा
3
बर्फ हवाएं
सर्द धरती पर
धूप रस पी
तितली बन घूमें
नर्म फूलों को चूमें !
-डॉ सरस्वती माथुर
जाड़े की धूप–
धूप दरख्तों में हंस-हंस कर, घुटने-घुटने बैठ गयी
पत्तों से चांदी सी छनकर ,घुटने-घुटने बैठ गयी
धता बता कर कोहरे को , जब सूरज ने खोली आँखें
आगत के स्वागत में नम कर, घुटने-घुटने बैठ गयी
खेतों की लज्जा को ज्योंही ,सरसों ने हंस कर ढांपा
चादर सी हर ओर पसर कर, घुटने-घुटने बैठ गयी
शिशु -उजाले ने प्राची का पहला -पहला दूध पिया
माँ के आँचल सी हंस-हंस कर, घुटने-घुटने बैठ गयी
माघ-पूस की रात तापते, देखा बडी उमरिया को
अलस्सवेरे चुप्प ठिठुरकर , घुटने-घुटने बैठ गयी
मुट्ठी दाना , अंजुरी पानी,गाना चंद पाखिओं का
नरम-गरम सी धूप मचल कर, घुटने-घुटने बैठ गयी
–प्रवीण पंडित