शरद गीतः लेखनी संकलन

शरद चांदनी

शरद चाँदनी!
विहँस उठी मौन अतल
नीलिमा उदासिनी!

आकुल सौरभ समीर
छल छल चल सरसि नीर,
हृदय प्रणय से अधीर,
जीवन उन्मादिनी!

अश्रु सजल तारक दल,
अपलक दृग गिनते पल,
छेड़ रही प्राण विकल
विरह वेणु वादिनी!

जगीं कुसुम कलि थर् थर्
जगे रोम सिहर सिहर,
शशि असि सी प्रेयसि स्मृति
जगी हृदय आह्लादिनी!
शरद चाँदनी!

-सुमित्रा नन्दन पंत

भोर शरद की

भोर शरद की
उतर रही है
धरती पर धीरे धीरे
मानो कोई नव परिणीता
पति-गृह में सकुचाती आती ।

किरणों की डोली में बैठी
जिसके कहार ये तारक सारे
और आसमान का बूढ़ा चाँद
करुण दृष्टि से ताक रहा है
पर घर जाती निज दुहिता को ।
तुहिन पट आवृत्त छलकती आँखे
अंतर में है छिपा एक कौतूहल ,
जिसमे भय है, विस्मय भी ।
अब आलोक निखर आया है
पंछी गाते मंगल गान
इस समष्टि का हो कल्याण ।
नाच रही है सारी धरणी
विहंस रही है यह पुष्करिणी
घर से निकले सब नर नारी
शुचिस्मिता के अभिनन्दन में
आओ,आओ,आओ
शरद सुहागिन आओ ।
– डॉ बच्चन पाठक ‘सलिल’

शरद गीत

शरद की शुभ्र गन्ध फैली,
खुली ज्योत्सना की सित शैली।

काले बादल धीरे-धीरे,
मिटे गगन को चीरे-चीरे,
पीर गई उर आए पी रे,
बदली द्युति मैली।

शीतावास खन्नों ने पकड़े,
चह-चह से पेड़ों को जकड़े,
यौवन से वन-उपवन अकड़े
ज्वारों की लटकी है थैली।

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘ निराला ‘

चारु चंद्र की चंचल किरणें,
खेल रहीं थीं जल थल में।
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,
अवनि और अम्बर तल में।
पुलक प्रकट करती थी धरती,
हरित तृणों की नोकों से।
मानो झूम रहे हों तरु भी,
मन्द पवन के झोंकों से।

— मैथिलीशरण गुप्त (पंचवटी)

चांदनी

नीले नभ के शतदल पर
वह बैठी शारद-हासिनि,
मृदु करतल पर शशि-मुख धर
नीरव, अनिमिष एकाकिनि।

वह स्वप्न-जड़ित नत-चितवन
छू लेती अग-जग का मन,
श्यामल, कोमल चल चितवन
जो लहराती जग-जीवन!

वह फूली बेला की वन
जिसमें न नाल, दल, कुड्मल
केवल विकास चिर निर्मल
जिसमें डूबे दस दिशि-दल!

वह सोई सरित-पुलिन पर
साँसों में स्तब्ध समीरण,
केवल लघु-लघु लहरों में
मिलता मृदु-मृदु उर-स्पन्दन!

अपनी छाया में छिपकर
वह खड़ी शिखर पर सुन्दर,
है नाच रही शत-शत छवि
सागर की लहर-लहर पर!

दिन की आभा दुलहिन बन
आई निशि-निभूत शयन पर
वह छवि की छुई-मुई-सी
मृदु मधुर लाज से मर-मर

जग के अस्फुट स्वप्नों का
वह हार गूँथती प्रतिपल,
चिर सजल, सजल करुणा से
उसके ओसों का अंचल!

वह मृदु मुकुलों के मुख में
भरती मोती के चुम्बन,
लहरों के चल करतल में
चाँदी के चंचल उडुगण!

वह लघु परिमल के घन-सी
जो लीन अनिल में अविकल,
सुख के उमड़े सागर-सी
जिसमें निमग्न उर-तट-स्थल!

वह स्वप्निल शयन-मुकुल-सी
है मुँदे दिवस के द्युति-दल,
उर में सोया जग का अलि
नीरव जीवन-गुँजन कल!

वह नभ के स्नेह श्रवण में
दिशि का गोपन-सम्भाषण,
नयनों के मौन मिलन में
प्राणों का मधुर समर्पण!

वह एक बूँद संसृति की
नभ के विशाल करतल पर
डूबे असीम सुषमा में
सब ओर-छोर के अन्तर!

झंकार विश्व जीवन की
हौले-हौले होती लय
वह शेष, भले ही अविदित,
वह शब्द-युक्त शुचि आशय!

वह एक अनन्त प्रतीक्षा
नीरवसअनिमेष विमोचन
अस्पृश्य, अदृश्य, विभा वह,
जीवन की साश्रु-नयन क्षण!

वह शशि-किरणों से उतरी
चुपके मेरे आँगन पर,
उर की आभा में कोई,
अपनी ही छवि से सुन्दर!

वह खड़ी दृगों के सम्मुख
सब रूप, रेख, रंग ओझल
अनुभूति मात्र-सी उर में
आभास-शान्त, शुचि उज्जवल!

वह है, वह नहीं, अनिर्वच,
जग उसमें, वह जग में लय,
साकार चेतना-सी वह
जिसमें अचेत जीवाशय!
-सुमित्रानन्दन पंत


नौका-विहार

शांत स्निग्ध, ज्योत्सना धवल!
अपलक अनंत, नीरव भूतल!

सैकत शय्या पर दुग्ध-धवल,
तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस बाला गंगा, निर्मल,
शशि-मुख में दीपित मृदु करतल
लहरे उर पर कोमल कुंतल!
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर,
लहराता तार तरल सुन्दर
चंचल अंचल सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर,
शशि की रेशमी विभा से भर
सिमटी है वर्तुल, मृदुल लहर!

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर
हम चले नाव लेकर सत्वर!
सिकता की सस्मित सीपी पर,
मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो पाले चढ़ी, उठा लंगर!
मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर,
लघु तरणि हंसिनी सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर!
निश्चल जल ले शुचि दर्पण पर,
बिम्बित हो रजत पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर!
कालाकाँकर का राजभवन,
सोया जल में निश्चित प्रमन
पलकों पर वैभव स्वप्न-सघन!

नौका में उठती जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर!
विस्फारित नयनों से निश्चल,
कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर नभ का अंतस्तल!
जिनके लघु दीपों का चंचल,
अंचल की ओट किये अविरल
फिरती लहरें लुक-छिप पल-पल!
सामने शुक्र की छवि झलमल,
पैरती परी-सी जल में कल
रूपहले कचों में ही ओझल!
लहरों के घूँघट से झुक-झुक,
दशमी की शशि निज तिर्यक् मुख
दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक!

अब पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार!
दो बाहों से दूरस्थ तीर
धारा का कृश कोमल शरीर
आलिंगन करने को अधीर!
अति दूर, क्षितिज पर
विटप-माल लगती भ्रू-रेखा अराल,
अपलक-नभ नील-नयन विशाल,
माँ के उर पर शिशु-सा, समीप,
सोया धारा में एक द्वीप,
ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप,
वह कौन विहग? क्या विकल कोक,
उड़ता हरने का निज विरह शोक?
छाया की कोकी को विलोक?

पतवार घुमा, अब प्रतनु भार,
नौका घूमी विपरीत धार!
ड़ाड़ो के चल करतल पसार,
भर-भर मुक्ताफल फेन स्फार,
बिखराती जल में तार-हार!
चाँदी के साँपो की रलमल,
नाचती रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं की खिच तरल-सरल!
लहरों की लतिकाओं में खिल,
सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल!
अब उथला सरिता का प्रवाह;
लग्गी से ले-ले सहज थाह
हम बढ़े घाट को सहोत्साह!

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार,
उर में आलोकित शत विचार!
इस धारा-सी ही जग का क्रम,
शाश्वत इस जीवन की उद्गम
शाश्वत लघु लहरों का विलास!
हे नव जीवन के कर्णधार!
चीर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन-नौका विहार!
मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान,
जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व दान!
-सुमित्रानन्दन पंत

द्रुत झरो

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र!
हे स्त्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण!
हिम ताप पीत, मधुमात भीत,
तुम वीतराग, जड़, पुराचीन!!

निष्प्राण विगत युग! मृत विहंग!
जग-नीड़, शब्द औ\’ श्वास-हीन,
च्युत, अस्त-व्यस्त पंखों से तुम
झर-झर अनन्त में हो विलीन!

कंकाल जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर,-पल्लव लाली!
प्राणों की मर्मर से मुखरित
जीव की मांसल हरियाली!

मंजरित विश्व में यौवन के
जगकर जग का पिक, मतवाली
निज अमर प्रणय स्वर मदिरा से
भर दे फिर नव-युग की प्याली!

-सुमित्रा नंदन पंत

शरद ऋतु

शरद ऋतु की सर्द हवाएँ भिगो गयीं मेरा आँचल
तन भी भीगा मन भी भीगा भीगगया सारा आँगन
कोपलें खिलीं प्रष्फुटित हो गयीं नन्ही कलियां बागों में
पायल की रुनझुन करती वो आ पहुँची मेरे आँगन में

हरियाली का आँचल ओढ़े बूटे बूटे पुलक उठे
झूम उठे हैं पात पात और फल भी आने को मचले
पत्ती पत्ती डाली डाली झूम उठी मानो ऐसे
शरद ऋतु की सर्द हवा ने अमृत पिला दिया जैसे

शरद ऋतु की सर्द हवाएँ भिगो गयीं मेरा आंचल
भिगो गयीं मेरा आँचल ।
-मीरा

शरद

सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी
गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब
ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी

बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली
शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते
झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली

बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती

मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!

साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया
हार का प्रतीक – दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!
किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है
प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!

-अज्ञेय

ग्रीष्म में तपते
साये ,जलते मन
सुलगती हवाएं
शरद ऋतू के आगमन पे
हर्षित हो जायें
गुलाबी ठण्ड की
आहट लिए
प्रकृति का करता सिंगार
शरद ऋतू की सुषमा
है शब्दों से पार
श्वेत नील अम्बर तले
नव कोपलें फूटतीं
कमल कुमुदनियों
की जुगल बंदी से
मधुर रागनी छेड़ती
भास्कर की मध्यम तपिश
सुधा बरसाती चांदनी
धरती के कण कण में
प्रेम रस छलकाती
मौसम की ये अंगडाई
विरह प्रेमियों के ह्रदय में
टीस सी उठाती …

-रचना श्रीवास्तव

शारदी हवा

छू जाती देह जब शारदी हवा
जन जन है खोजता तब एक ही दवा
गोरी गोरी अप्सरा सी चांदनी
डोल रही बन कर उन्मादिनी
रोम रोम फूट रहे रक्त के जवा
छू जाती देह जब शारदी हवा ।

बादलों से शून्य हुआ आज आसमान
सरिता की लहरों से फूट रहा गान
चांदनी शरद की पिया नहीं पास
सारा वन प्रांतर है लगता उदास
चन्दन सा चाँद ज्यों तप्त हो तवा
छू जाती देह जब शारदी हवा ।
— डॉ बच्चन पाठक ‘सलिल’

दिवस शरद के

मुग्ध कमल की तरह
पाँखुरी-पलकें खोले,
कन्धों पर अलियों की व्याकुल
अलकें तोले,
तरल ताल से
दिवस शरद के पास बुलाते
मेरे सपने में रस पीने की
प्यास जगाते !

-केदार नाथ अग्रवाल


शरद का यह नीला आकाश

शरद का यह नीला आकाश
हुआ सब का अपना आकाश

ढ़ली दुपहर, हो गया अनूप
धूप का सोने का सा रूप
पेड़ की डालों पर कुछ देर
हवा करती है दोल विलास

भरी है पारिजात की डाल
नई कलियों से मालामाल
कर रही बेला को संकेत
जगत में जीवन हास हुलास

चोंच से चोंच ग्रीव से ग्रीव
मिला कर, हो कर सुखी अतीव
छोड़कर छाया युगल कपोत
उड़ चले लिये हुए विश्वास

-त्रिलोचन

शरद

जा चुका बालापन
यौवन की दहलीज पर है शरद
नहीं पूनो, चौदस की रात
हवा में हल्की-सी ख़ुनकी
प्यार का जग रहा
जैसे पहला एहसास।

नन्द किशोर आचार्य


शरद की सांझ के पंछी

ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ

उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने –
कहीं किसी ने – गाये ।

किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ –
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ

जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।

यह लो :
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।

-अज्ञेय

विह्वल प्रेम

धवल चांदनी में
पुलकित सुरभित
पात पात
जैसे कान्हा ने
रचाया हो रास
हवा की धुन पर
चांद तक जा उड़ा है
पंछियों का एक जोड़ा
और विहसित कलियों पर
सिहर सिहर रातभर बरसेगा
अब विह्वल प्रेम।

-शैल अग्रवाल

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