वन्दे मातरम् / लेखनी संकलन

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा

ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा

परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा

यूनान-ओ-मिस्र-ओ- रोमा, सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा

‘इक़बाल’ कोई महरम, अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहाँ हमारा

सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसताँ हमारा
मोहम्मद इकबाल


झंडा ऊँचा रहे हमारा

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
प्रेम सुधा सरसाने वाला
मातृभूमि का तन मन सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।१।

लाल रंग बजरंगबली का
हरा अहल इस्लाम अली का
श्वेत सभी धर्मों का टीका
एक हुआ रंग न्यारा-न्यारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।२।

है चरखे का चित्र संवारा
मानो चक्र सुदर्शन प्यारा
हरे रंग का संकट सारा
है यह सच्चा भाव हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।३।

स्वतंत्रता के भीषण रण में
लखकर जोश बढ़े क्षण-क्षण में
कांपे शत्रु देखकर मन में
मिट जायें भय संकट सारा,झण्डा ऊँचा रहे हमारा।४।

इस झण्डे के नीचे निर्भय
ले स्वराज्य का अविचल निश्चय
बोलो भारत माता की जय
स्वतंत्रता है ध्येय हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।५।
आओ प्यारे वीरों आओ
देश धर्म पर बलि-बलि जाओ
एक साथ सब मिलकर गाओ

प्रयारा भारत देश हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा।६।
शान न इसकी जाने पाये
चाहे जान भले ही जाये
विश्व विजय करके दिखलायें
तब होवे प्रण पूर्ण हमारा,झण्डा उँचा रहे हमारा ।७।
श्यामलाल ‘ पार्षद ‘

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम
ऐ अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।
तेरे उर में शायित गांधी, ‘बुद्ध औ’ राम,
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हिमगिरि-सा उन्नत तव मस्तक,
तेरे चरण चूमता सागर,
श्वासों में हैं वेद-ऋचाएँ
वाणी में है गीता का स्वर।
ऐ संसृति की आदि तपस्विनि, तेजस्विनि अभिराम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हरे-भरे हैं खेत सुहाने,
फल-फूलों से युत वन-उपवन,
तेरे अंदर भरा हुआ है
खनिजों का कितना व्यापक धन।
मुक्त-हस्त तू बाँट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम।
मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

प्रेम-दया का इष्ट लिए तू,
सत्य-अहिंसा तेरा संयम,
नयी चेतना, नयी स्फूर्ति-युत
तुझमें चिर विकास का है क्रम।
चिर नवीन तू, ज़रा-मरण से –
मुक्त, सबल उद्दाम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

एक हाथ में न्याय-पताका,
ज्ञान-द्वीप दूसरे हाथ में,
जग का रूप बदल दे हे माँ,
कोटि-कोटि हम आज साथ में।
गूँज उठे जय-हिंद नाद से –
सकल नगर औ’ ग्राम, मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

– भगवती चरण वर्मा

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम सारा।।

लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए
समझ नीड़ निज प्यारा।।

बरसाती आँखों के बादल
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की
पाकर जहाँ किनारा।।

हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब
जग कर रजनी भर तारा।।

– जयशंकर प्रसाद

ऐ मेरे वतन के लोगों

ऐ मेरे वतन के लोगों
तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का
लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर
वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो –
जो लौट के घर न आये –

ऐ मेरे वतन के लोगों
ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

जब घायल हुआ हिमालय
खतरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लड़े वो
फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा
सो गये अमर बलिदानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

जब देश में थी दीवाली
वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में
वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो आपने
थी धन्य वो उनकी जवानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

कोई सिख कोई जाट मराठा
कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पर मरनेवाला
हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत पर
वो खून था हिंदुस्तानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

थी खून से लथ-पथ काया
फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा
फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त-समय आया तो
कह गये के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों
अब हम तो सफ़र करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने
क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

तुम भूल न जाओ उनको
इस लिये कही ये कहानी
जो शहीद हुए हैं उनकी
ज़रा याद करो क़ुरबानी

जय हिन्द… जय हिन्द की सेना
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द।

रामचंद्र द्विवेदी “प्रदीप”

तन तो आज स्वतंत्र हमारा

तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है
सचमुच आज काट दी हमने
जंजीरें स्वदेश के तन की
बदल दिया इतिहास बदल दी
चाल समय की चाल पवन की

देख रहा है राम राज्य का
स्वप्न आज साकेत हमारा
खूनी कफन ओढ़ लेती है
लाश मगर दशरथ के प्रण की

मानव तो हो गया आज
आज़ाद दासता बंधन से पर
मज़हब के पोथों से ईश्वर का जीवन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

हम शोणित से सींच देश के
पतझर में बहार ले आए
खाद बना अपने तन की-
हमने नवयुग के फूल खिलाए

डाल डाल में हमने ही तो
अपनी बाहों का बल डाला
पात पात पर हमने ही तो
श्रम जल के मोती बिखराए

कैद कफस सय्यद सभी से
बुलबुल आज स्वतंत्र हमारी
ऋतुओं के बंधन से लेकिन अभी चमन आज़ाद नहीं है।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

यद्यपि कर निर्माण रहे हम
एक नयी नगरी तारों में
सीमित किन्तु हमारी पूजा
मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारों में

यद्यपि कहते आज कि हम सब
एक हमारा एक देश है
गूंज रहा है किन्तु घृणा का
तार बीन की झंकारों में

गंगा ज़मज़म के पानी में
घुली मिली ज़िन्दगी़ हमारी
मासूमों के गरम लहू से पर दामन आज़ाद नहीं है ।
तन तो आज स्वतंत्र हमारा लेकिन मन आज़ाद नहीं है।

गोपाल दास ‘नीरज’

आग की भीख

धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।

आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।

ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।

-रामधारी सिंह दिनकर

मेरा देश जल रहा

घर–आँगन सब आग लग रही
सुलग रहे वन–उपवन
दर–दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर–छाजन

तन जलता है¸ मन जलता है
जलता जन–घन–जीवन
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बन्धन।
दूर बैठकर ताप रहा है¸ आग लगाने वाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बंटवारा
एक अकड़ कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगे
और दूसरा कहता
तिल भर भूमि न बँटने देंगे
पंच बना बैठा है घर में¸ फूट डालने वाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी
किन्तु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी
दानों को मोहताज हो गए
दर–दर बने भिखारी
भूख¸ अकाल¸ महामारी से
दोनों की लाचारी
आज धार्मिक बना¸ धर्म का नाम मिटाने वाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

होकर बड़े लड़ेंगे यों
यदि कहीं जान मैं लेती
कुल – कलंक – संतान
सौर में गला घोंट मैं देती
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता
मैं न बँधनों में सड़ती
छाती में शूल न गड़ता
बैठी यही बिसूर रही माँ¸ नीचों ने धर डाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

भगतसिंह अशफाक¸
लालमोहन¸ गणेश बलिदानी
सोच रहे होंगे हम सब की
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद¸ खून से सींचा
अंकुर लेते समय¸ उसी पर
किसने जहर उलीचा
हरी भरी खेती पर ओले गिरे¸ पड़ गया पाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

जब भूखा बंगाल¸ तड़प
मर गया ठोंक कर किस्मत
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ–बहनों की अस्मत
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख–बिलख नर–नारी
कहाँ गई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी
तब अन्याय का गढ़ तुमने क्यों न चूर कर डाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी¸
राम–मुहम्मद की सन्तानो
व्यर्थ न मारो शेखी¸
सर्वनाश की लपटों में
सुख–शान्ति झोंकने वालो
भोले बच्चों¸ अबलाओं के
छुरा भोंकने वालो
ऐसी बर्बरता का इतिहासों में नहीं हवाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

घर घर माँ की कलख
पिता की आह¸ बहन का क्रन्दन
हाय¸ दुधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख गुलामों का यह ढंग निराला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

जाति – धर्म – गृह–हीन
युगों का नंगा–भूखा–प्यासा
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा
ये छल–छंद शोषकों के हैं
कुत्सित¸ ओछे¸ गन्दे
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फन्दे
तेरा एका¸ गुमराहों को राह दिखाने वाला
मेरा देश जल रहा¸ कोई नहीं बुझाने वाला।

शिवमंगलसिंह -“सुमन”

स्वतंत्रता का दीपक

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो,
आज द्वार द्वार पर यह दिया बुझे नहीं।
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता दिया,
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो,
आज गंगधार पर यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है!

यह अतीत कल्पना, यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना, यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो, युद्ध, संधि क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं!
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है!

तीनचार फूल है, आसपास धूल है
बाँस है, बबूल है, घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर से, फूँक दे, झकोर दे,
कब्र पर, मजार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह किसी शहीद का पुण्य प्राणदान है!

झूमझूम बदलियाँ, चूमचूम बिजलियाँ
आँधियाँ उठा रहीं, हलचलें मचा रहीं!
लड़ रहा स्वदेश हो, शांति का न लेश हो
क्षुद्र जीतहार पर, यह दिया बुझे नहीं!
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है!

– गोपालसिंह नेपाली

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