गीत और ग़ज़लः साहिर लुधियानवी

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औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा धुत्कार दिया
 
 
तुलती है कहीं दीनारों में, बिकती है कहीं बाज़ारों में
नंगी नचवाई जाती है, ऐय्याशों के दरबारों में
ये वो बेइज़्ज़त चीज़ है जो, बंट जाती है इज़्ज़तदारों में
 
मर्दों के लिये हर ज़ुल्म रवाँ, औरत के लिये रोना भी खता
मर्दों के लिये लाखों सेजें, औरत के लिये बस एक चिता
मर्दों के लिये हर ऐश का हक़, औरत के लिये जीना भी सज़ा
 
जिन होठों ने इनको प्यार किया, उन होठों का व्यापार किया
जिस कोख में इनका जिस्म ढला, उस कोख का कारोबार किया
जिस तन से उगे कोपल बन कर, उस तन को ज़लील-ओ-खार किया
 
मर्दों ने बनायी जो रस्में, उनको हक़ का फ़रमान कहा
औरत के ज़िन्दा जल जाने को, कुर्बानी और बलिदान कहा
क़िस्मत के बदले रोटी दी, उसको भी एहसान कहा
 
संसार की हर एक बेशर्मी, गुर्बत की गोद में पलती है
चकलों में ही आ के रुकती है, फ़ाकों में जो राह निकलती है
मर्दों की हवस है जो अक्सर, औरत के पाप में ढलती है
 
औरत संसार की क़िस्मत है, फ़िर भी तक़दीर की हेती है
अवतार पयम्बर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है
ये वो बदक़िस्मत माँ है जो, बेटों की सेज़ पे लेटी है

 

 

 

 

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मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली

तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं

पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको

मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं

चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं

उमर् भर के लिए आज़ार हुई जाती है

जिन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी

अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में

तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है

कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है

कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी

तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं

तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें

उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन

मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं

तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम

तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं

तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक

तैरती रहती है एहसास की पहनाई में

ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको

सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर

ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो

तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम

दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो

कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है

क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है

दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें

देखते देखते अंजान भी हो जाती है

मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के

मुज्महिल ख्वाब की ताबीर बता दे मुझको

तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी

मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

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