शौर्य और पराक्रम की भूमि चित्तौड़ गढ़-गोवर्धन यादव

शौर्य और पराक्रम की भूमि चित्तौड़गढ़

संपूर्ण राजस्थान अपने शौर्य, देशभक्ति एवं बलिदान के जगप्रसिद्ध है. यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणॊं का उत्सर्ग किया. वहीं राजपूत विरांगनाओं ने अनेकानेक अवसरों पर अपने बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेशकर एक आदर्श स्थापित किया. यही कारण है कि संपूर्ण राजस्थान न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व में एक प्रेरणा का स्त्रोत बन चुका है.
चित्तौड़गढ़ का अपना एक सुनहरा इतिहास है. यहाँ के रणबांकुरों ने आक्रमणकारी मुगलों से जमकर लोहा लिया और अपने जीवित रहते हुए न तो उनकी गुलामी स्वीकार की और न ही हार मानी, भले ही उन्हें कितनी की कष्टदायक स्थिति से क्यों न गुजरना पड़ा हो.
महाराना सांगा से लेकर महाराणा प्रताप की शूरवीरता के अनेकों किस्से बचपन में पढ़ने और सुनने को मिले, जिन्हें सुनते हुए मन गर्व से भर जाता था. महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हल्दीघाटी में हुए युद्ध, और हार के बाद जंगल में परिवार सहित रहते हुए प्रतीज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक भूमि पर ही सोउंगा. एक वक्त ऎसा भी आया जब उनके बच्चों को घास के बीजों की रोटी खाने पर विवश होना पड़ा था. एक किस्सा तो ऎसा भी पढ़ने को मिला कि एक बिलाव उनके बच्चों की रोटी चुरा कर भाग गया और उन्हें भूख का सामना करना पड़ा. इस घटना को सुनकर दिल दहल गया था. आँखों से आँसू झरझरा कर बह निकले थे. इतना सब कुछ होते हुए भी उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके. देशभक्त महाराणा की इस भूमि को देखने की इच्छा बलवती हो उठी थी. कालान्तर में वह अवसर भी आया, जब मैं शूरवीरों की भूमि के दर्शन प्राप्त कर सका था.
मेरे साहित्यिक अवदान को देखते हुए वर्ष 2008 में आखिल भारतीय बालसाहित्य संगोष्ठी एवं सम्मान समारोह मंच भीलवाड़ा (राज) ने मुझे सम्मानीत करने का मानस बनाया और आमंत्रण-पत्र प्रेषित किया. इस सम्मान समारोह में डा. मधु भारती, महेश सक्सेना, महेन्द्र प्रताप पाण्डॆ”नंद”, ललित उपाध्याय, देनेश विजयवर्गीय, महावीर रंवाल्टा, डा. देशबंधु शाहजहांपुरी, डा.शेषपाल,नीरजकुमार, श्रीकृष्ण शर्मा, कु.नेहा. डा.हूंदराज बलवानी, गोविन्द शर्मा, शिव मृदुल, डा.रमेश मयंक,डा.ताराचंद “निर्विरोध”,राधेश्याम मेवाड़ी, पं.नंदाकिशोर निर्झर, डा.रविन्द्रकुमार, ए.बी.सिंह, विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी, डा.सरस्वती बाली, डा.शाकुन्तला कालरा,कृष्णकुमार अष्ठाना,फ़तहसिंह लोढ़ा, मनोहर चण्डालिया, शिवदानसिंह राणावत, डा.दिनेश चमोला, काशीनाथ शर्मा, सत्यनारायण”सत्य”, डा,रामनिवास मानव,राजकिशोर सक्सेना,उदय किरोला,श्यामसुन्दर राजानी सहित अनेकानेक साहित्यकार/गणमान्य नागरिकों की गरीमामय उपस्थिति में राजस्थान साहित्य अकादमी की तत्कालीन निदेशक श्रीमती अजीत गुप्ताजी के हस्ते सम्मान-प्राप्त किया.

इस भव्य और रंगारंग कार्यक्रम के दूसरे दिन डा. श्री भैंरुलाल गर्ग जी से मैंने निवेदन किया कि मेरा मन राज्स्थान के उस भूभाग को जिसे शूरवीरों की धरती चित्तौड़गढ़ के नाम से जाना जाता है, देखने की प्रबल इच्छा है. दो दिवसीय कार्यक्रम के समापन के बाद वैसे ही वे थकान से चूर थे, बावजूद इसके उन्होंने अपनी स्टेशन वैगन निकाला और इस तरह मैं गाजियाबाद के मित्र श्री महेश सक्सेना, डा.मधु सक्सेना के साथ चित्तौड़गढ़ के लिए रवाना हुए.
अजमेर से खण्डवा जाने वाअली ट्रेन के द्वारा रास्ते के बीच स्थित चित्तौड़गढ़ जंक्शन से करीब दो किमी. उत्तर-पूर्व की ओर एक अलग पहाड़ी पर भारत का गौरव, राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का
किला बना हुआ है. समुद्र सतह से १३३८ फ़ीट ऊँची भूमि पर स्थित ५०० फ़ुट ऊँची एक पहाड़ी पर निर्मित याह दुर्ग लगभग ३ मील लंबा और आधा मील तक चौड़ा है. पहाड़ी का घेरा ८ मील है. यह किला लगभग ६०९ एकड़ भूमि पर बसा है.
इस विशाल किले के अन्दर पद्मिनी महल, कालिका माता मन्दिर, गोमुख, समिद्धेश्वर महादेव मन्दिर, कीर्ति स्तंभ,मीरा का मंदिर, गोमुख के अलावा एक-दो महलों को छॊड़कर शेष खण्डहर में तब्दील हो चुके हैं.
पद्मिनी महल.. एक झील के किनारे रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के महल बने हुए हैं. एक छॊटा महल पानेदे के बीच में बना हुआ है जो जनाना महल के नाम से जाना जाता है, व किनारे के महल मरदाने महल कहलाता है. मरदाना महल के एक कमरे में एक विशाल दर्पण इस तरह से लगा है कि यहाँ से झील के मध्य बने जनाना महल की सीढ़ियों पर खड़े किसी भी व्यक्ति का स्पष्ट प्रतिबिंब दर्पण में नजर आता है. परन्तु पीछे मुड़कर देखने पर सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को नहीं देखा जा सकता. संभवतः अलाउद्दीन खिलजी ने यहीं खए होकर रानी पद्मिनी का प्रतिबंब देखा था.
काली माता का मन्दिर- पद्मिनी महल के उत्तर में बाईं ओर कालिका माता का सुन्दर विशाल मन्दिर है. मूल रुप से यह सूर्य मन्दिर था. गर्भगृह के बाहरी दीवर के ताकों (आलों) में स्थापित सूर्य की मूर्तियाँ इसका प्रमाण है. मुसलमानों के आक्रमण के दौरान इसे तोड़ दिया गया था. बरसों सूना पड़ा रहने के बाद इसमें कालिका की मूर्ति स्थापित की गई. तभी से यह कालिका मन्दिर के नाम से जाना जाता है.
कीर्तिस्तम्भ गार्ड
गमहाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलाजी को १९४० ई. में प्रथम बार परास्त कर उसकी याद में अपने इष्टदेव श्री विष्णु के निमित्त यह कीरिस्तंभ बनवाया था. स्तम्भ अपनी वास्तुकला की दृष्टि से अपने आप मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतर प्रकाश बना रहता है.इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों तथा ब्रम्हा, शिव, भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती तथा आधा शिव का), उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रम्हासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शिव का), हरिहर पितामह (ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्र), दिक्पाल तथा रामायण तथा महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हैं। प्रत्येक मूर्ति के ऊपर या नीचे उनका नाम भी खुदा हुआ है। इस प्रकार प्राचीन मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का विश्लेषण के लिए यह भवन एक अपूर्व साधन है। कुछ चित्रों में देश की भौगोलिक विचित्रताओं को भी उत्कीर्ण किया गया है। कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंजिल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है। बिजली गिरने से एक बार इसके ऊपर की छत्री टूट गई थी, जिसकी महाराणा स्वरुप सिंह ने मरम्मन करायी थी.

श्री कृष्ण की दीवानी भक्त मीरा बाई का भव्य मन्दिर देखने लायक है. इसकी नक्काशी भावविभोर कर देती है. कहते हैं कि राणा की मृत्यु के पश्चात मीरा राजभवन छॊड़कर इसी स्थान पर रहकर अपने आराध्य श्रीकृष्णजी की भक्ति में लीन रहती थी. पहले गर्भगृह में कोई मुर्ति नहीं थी, बाद में किसी ने श्रीकृष्णजी के आदमकद तस्वीर यहाँ रख दी है. इसी मन्दिर के सामने मीराजी के गुरु संत रैदास जी का एक छॊटा सा मन्दिर स्थापित है. इस मन्दिर में मीरा के गुरु रैदासजी के चरणचिन्ह अंकित हैं.
रैदासजी के चरणचिन्ह अंकित हैं.है.ष्णजी की भक्ति में लीन रहती थी. पहले गर्भगृह में कोई मुर्ति नहीं थी

महासती स्थल के पास ही गौमुख कुण्ड है। यहाँ एक चट्टान के बने गौमुख से प्राकृतिक भूमिगत जल निरन्तर एक झरने के रुप में शिवलिंग पर गिरती रहती है। प्रथम दालान के द्वार के सामने विष्णु की एक विशाल मूर्ति खड़ी है। कुण्ड की धार्मिक महत्ता है। लोग इसे पवित्र तीर्थ के रुप में मानते हैं। कुण्ड के निकट ही उत्तरी किनारे पर महाराणा रायमल के समय का बना एक छोटा सा पार्श्व जैन मंदिर है, जिसकी मूर्ति पर कन्नड़ लिपि में लेख है। यह संभवतः दक्षिण भारत से लाई गई होगी। कहा जाता है कि यहाँ से एक सुरंग कुम्भा के महलों तक जाती है। गौमुख कुण्ड से कुछ दूर दो ताल हाथी कुण्ड तथा खातण बावड़ी है।

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