सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर
” तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!
मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी
कल्याण कलित इस मग के।
-जयशंकर प्रसाद
( सृजन)
(वर्ष 8- अंक 87)
इस अंक में: शताब्दी स्मरणः प्रजाकवि कालोजी नारायणरावः प्रस्तुति डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा। कविता धरोहरः शिव मंगल सिंह सुमन। माह विशेषः विमलेश त्रिपाठी। गीत और ग़ज़लः मंजरी पांडे। कविता आज और अभीः शैल अग्रवाल, मोतीलाल राउरकेला, दामोदर लाल जांगिड़, पंखुरी सिन्हा, लालित्य ललित, पवन करण, स्वाति मृगी। माह के कविः डॉ. मंगलेश डबराल । बाल कविताः दुष्यंत कुमार यादव ।
कविता में इन दिनों: ओम निश्चल।
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अपनी बात
वियोगी होगा पहला कवि से लेकर आजतक बहुत कुछ लिखा और सोचा गया है सृजन पर। लेखनी का यह मई और जून संयुक्तांक इसी सृजन और सृजनधर्मिता पर है, इसकी निष्ठा और दीवानगी पर है। क्या कला सिर्फ कला के लिए ही है या कोई समाजिक जिम्मेदारी भी है सृजनकर्ता की? सत्यम् और सुन्दरम् के साथ-साथ शिवम् का समावेश भी अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक क्यों है इसमें! दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब किसी विधायक ने कला के लिए पैसों में कटौती की बात उठाई तो चर्चिल ने पलटकर पूछा-‘ तो फिर हम यह लड़ाई लड़ किसलिए रहे हैं?’ वाकई में सोचने की बात है -बस ‘जी’ तो जानवर भी लेते हैं!
अक्सर ही सोचती हूँ क्या है यह कला और क्यों इसकी अमिट दीवानगी…क्या है इसकी उपयोगिता ! क्यों सृजन का पल और उसकी प्रसव वेदना इतना विवश कर देती है कि सबकुछ भूल-भुलाकर कृति को जन्म दिए बगैर गुजारा ही नहीं कवि या शिल्पी का। क्या यह भी एक मानसिक विकार है, मन और मस्तिष्क का एक रासायनिक लोचा मात्र है , नशा है शराब-सा जिसकी लत पड़ जाती है? नहीं, इस दीवानगी के आवेग को समझने के लिए हमें उस कोमल अंकुर की ताकत को समझना होगा जो धरती की छत फोड़कर जनमता है, पत्थरों की दरारों में बैठा मुस्कुराता है। कल्पना की यह उड़ान खुले आकाश की उड़ान है, वह भी एक ऐसे जीव द्वारा जो नश्वर है और धरती पर एक निश्चित काल के लिए ही जीता-बसता है पर जिसने कल्पना की आंखों से सब कुछ जान और पा लिया है…धरती के रंगों के साथ-साथ न सिर्फ आकाश को भी जाना है अपितु महसूस भी किया है क्योंकि इसके अंधेरे-उजाले… इंद्रधनुषों ने उसका मन लुभाया है और अब वह इस सौंदर्य को…इसकी सारी आग और पानी को, अपने शब्दों में, अपने रंगों में, हावभावों में कैद करके सबके साथ बांटने को ललायित है। परन्तु सिर्फ आत्म-मुग्धता और आत्म सुख ही तो सृजन की एकमात्र जरूरत नहीं, कभी-कभी परिस्थितियाँ और आसपास के दबाव भी तो विष्फोटक का काम करते हैं।
फिर भी सृजन एक सकारात्मक सोच है। इसका जन्म, रचने की चाह या फिर अलौकिक आनंदानुभूति से ही होता है। विकार और विनाश या दुख और क्रोध से उत्पन्न हो तो सृजन नहीं, तोड़ फोड़ या सृजन से पहले पटल साफ करने का प्रयास मात्र है।
तो क्या एक कलाकार का सृजन जीवन और प्रकृति से भिन्न है ? एक रचना का जन्म एक फूल के खिलने जैसा नहीं ! सृष्टि-संरचना या आकाश में बिखरे अनगिनित तारों और उल्कापात सा नहीं ! खेत में उग रही गेंहू की बाल से फूली-फूली रोटी का भूख की थाली तक पहुँचने का सफर नहीं!
हो सकता है भावावेग के उस पल में कलाकार भी आसपास और अंतर्मन के घटित को उसी तीव्रता से महसूस करे कि भावों पर नियंत्रण न रख पाए, परन्तु सृजन अवचेतन होते हुए भी एक सुनियिजित और सोद्देश्य़ प्रक्रिया ही है जबकि मन कितना भी निर्बाध व निरंकुश क्यों न हो। और यह द्वंद्व व कमजोरी ही किसी भी कृति को शक्ति व उसका शाश्वत सौंदर्य देती है।
संदर्भ में अपना एक हायकू बांटना चाहूंगी- ‘ओस-सा मन/ हवा की छुअन से / सिहरे गात।‘
सोचिए कितना कठिन है इस सिहरन…हर हावभाव को, उन्माद व चिंता को , मन की सारी उथल-पुथल को शब्दों, रंगो या भाव-भंगिमाओं में हूबहू बांध पाना…यह निर्झरणी तो खुद ही फूटती भी है और अपनी दिशा भी खुद ही चुनती है। संवेदन-शील व नाजुक मन भी प्रस्फुटन के वक्त एक नदी या झरने की तरह ही है…लबालब और बहने को आतुर !
सृजन प्रकृति में, मन में, जीवन में, पल-पल होता रहता है परन्तु कालजयी सृजन वह है जो सार्वभौमिक हो, देश और काल की सीमा को लांघते हुए सबके मन को छुए, भविष्य की आहटों को पहचाने। आंद्रे ब्रेंता ने कहीं लिखा है कि कोई कलाकृति तभी मूल्यवान होती है, जब भविष्य की आहटें उसमें मौजूद हों। और भविष्य को पहचानने के लिए वर्तमान को जानना जरूरी है, अतीत को याद रखना जरूरी है, ताकि हम अपनी ही रौ में न बहते चले जाएं…अपने आसपास और सहजीवियों से भी जुड़े रहना जरूरी है, गत् अनुभवों या इतिहास व पुराण से सीखना जरूरी है । भाषा और संवाद…साहित्य का, हर सामाजिक कला का विकास भी शायद इसी जोड़ने और जुड़ने की चाह से ही हुआ होगा कभी और आज हजारों आन्दोलनों और परिवर्तनों के बाद भी, इनकी मुख्य जरूरत स्वान्तः सुखाय के बाद, यही है…।
एक नव विहग जब आँखें खोलता है धरती पर तो अचंभित होता है ईश के इस अद्भुत सृजन से, पर जब वह खुद तिनके-तिनके जोड़कर घोंसला बनाता है, तो खुद सर्जक हो जाता है, ईश्वर से जुड़ जाता है। यही वजह है कि भगवान ने अपनी दुनिया में छोटे-से-छोटे जीव को भी सृजन से जोड़े रखा। सृजनशीलता उसकी सृष्टि में निरंतरता की प्रमुख शर्त बनी। झरते पर्ण की जगह नए रचते रहते हैं और जीवन की हरितिमा बनी रहती है, फिर मानव के पास तो आज विकसित सभ्यता का भंडार है। तरह-तरह के ज्ञान-विज्ञान हैं।
दैनिक जीवन के ये अनुभव और रंग-रूप के अहसास सार्वभौमिक हैं और सबको होते हैं, पर उन अनुभूतियों और अनुभवों को अविस्मरणीय शब्दों की लड़ियों में पिरोना, नया आकार, एक नया रूप देकर, यादगार कलाकृति और दस्तावेज में परिवर्तित कर पाना आसान नहीं। भावुक मन और साथ-साथ एक शिल्पकार की पैनी नजर और सक्षम औजार, कई चीजों का संगम हो, तब कहीं जाकर एक अमर रचना जन्म ले पाती है…ऐसी रचना जो गीता और कुरान की तरह पूरे समाज की दिशा बदल सकती है, वेदवाक्य बन सकती है। शरद् चन्द्र ने कहीं लिखा था कि नारी मन एक ऐसे स्वच्छ शीशे के समान है, जिसमें जो छाया पड़ती है, वही उसके अंतर्मन में जा बसती है पर क्या हर कवि, हर कलाकार, हर चित्रकार के साथ ही ऐसा नहीं? फिर भी कला मन की हर अभिव्यक्ति, हर श्वास-उच्छवास का हूबहू छायांकन नहीं। हर नर-नारी, हर मन के साथ ऐसा होता है कि छाया पड़ती हैं और छाप छोड़ती हैं पर उन्हें बांटने की अभिव्यक्त करने की कला ही आदमी को कलाकार बनाती है। कवि और लेखकों की तो विशेषतः अनुभूतियाँ और मूर्त-अमूर्त छवियां ही मुख्य सहेलियां और प्रेरणा होती हैं। साधारण में असाधरण को ढूँढ पाना और फिर असाधारण को बहुत ही साधारण तरीके से कह जाना, यही कला की सहजता और ग्राह्यता है। कालीदास के शब्दों में कहूँ तो साधारण शब्द भी भावों के धागों में बिंधे अनमोल मोती बन जाते हैं, जब कवि इन्हें कविताओं में पिरो देता हैं।
कला के उद्देश्य के संदर्भ में चर्नीशेव्स्की (१८२७-१८८९) की टिप्पणी कला को इतिहास से अलगाती है। वह कहता है कला या सृजन का मूल उद्देश्य जीवन में मानव की दिलचस्पी की हर चीज को पुनः मूर्त करना है। अर्थात कला कांटती-छाँटती है। चयन करती है। अनावश्यक को हटाते हुए सत्य,शिव और सुंदर को लेकर चलने का प्रयास करती है। फलतः कभी कभी बहुधा जीवन का स्पष्टीकरण और उसकी परिणतियों का गुण-दोष विवेचन भी काव्यात्मक कृतियों में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लेता है जो एक कृति को बोझिल कर सकता है और एक कुशल शिल्पी को इसका ध्यान रखना चाहिए।
प्राकृतिक उष्मा हो या भावात्मक आलोड़न साहित्य हमें दैनिक जीवन से ऊपर ले जाता है। आम को अमर कर पाना सिर्फ कलाकार के ही बस की बात है।
लेखनी का हर अंक समर्पित रहा है ऐसे ही युगों-युगों से शब्द-बृह्म की अथक साधना में रत् सृजन-धर्मियों को, उनके एक-एक शब्द और हर अभिव्यक्ति को…यह अंक भी अपवाद नहीं। यह बात दूसरी है कि इसबार एक बेहद दुविधाजनक और पीड़ादायक समस्याओं से जूझती लेखनी आप तक पहुँच रही है । पिछले तीन हफ्तों से मन पर एक बोझ था। काम ठीक से न कर पाने की बेचैनी और पीड़ा थी। पर आज हारकर ऐसे ही आधी अधूरी लेखनी आप तक पहुँचा रही हूँ। जबतक समस्या सुलझती नहीं, उम्मीद है लेखनी के इस रूप को भी आप स्वीकारेंगे।
अंक में हम आपके लिए शिवमंगल सिंह सुमन, जयशंकर प्रसाद और मैक्सिम गोर्की जैसे अमर रचनाकारों की रचनाएँ लेकर आए हैं, साथ में कई समकालीन लेखक व कवियों की खूबसूरत रचनाएँ हैं। एकतरफ जहाँ कालोजी नारायण राव की कविताएँ वैचारिक आंदोलन के धरातल पर ले जाती हैं वहीं मंगलेश डबराल की कविताएं मन के द्वार थपथपाती हैं। जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडे’ एक ऐसी कहानी है जिसे भुलापाना आसान नहीं। विविध और रोचक कविता, कहानी, लेख और हास्य-व्यंग्य से भरा यह अंक अब आपके हाथों में है ; कैसा लगा बताएंगे तो अच्छा लगेगा।
-शैल अग्रवाल
वियोगी होगा पहला कवि से लेकर आजतक बहुत कुछ लिखा और सोचा गया है सृजन पर। लेखनी का यह मई और जून संयुक्तांक इसी सृजन और सृजनधर्मिता पर है, इसकी निष्ठा और दीवानगी पर है। क्या कला सिर्फ कला के लिए ही है या कोई समाजिक जिम्मेदारी भी है सृजनकर्ता की? सत्यम् और सुन्दरम् के साथ-साथ शिवम् का समावेश भी अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक क्यों है इसमें! दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जब किसी विधायक ने कला के लिए पैसों में कटौती की बात उठाई तो चर्चिल ने पलटकर पूछा-‘ तो फिर हम यह लड़ाई लड़ किसलिए रहे हैं?’ वाकई में सोचने की बात है -बस ‘जी’ तो जानवर भी लेते हैं!
अक्सर ही सोचती हूँ क्या है यह कला और क्यों इसकी अमिट दीवानगी…क्या है इसकी उपयोगिता ! क्यों सृजन का पल और उसकी प्रसव वेदना इतना विवश कर देती है कि सबकुछ भूल-भुलाकर कृति को जन्म दिए बगैर गुजारा ही नहीं कवि या शिल्पी का। क्या यह भी एक मानसिक विकार है, मन और मस्तिष्क का एक रासायनिक लोचा मात्र है , नशा है शराब-सा जिसकी लत पड़ जाती है? नहीं, इस दीवानगी के आवेग को समझने के लिए हमें उस कोमल अंकुर की ताकत को समझना होगा जो धरती की छत फोड़कर जनमता है, पत्थरों की दरारों में बैठा मुस्कुराता है। कल्पना की यह उड़ान खुले आकाश की उड़ान है, वह भी एक ऐसे जीव द्वारा जो नश्वर है और धरती पर एक निश्चित काल के लिए ही जीता-बसता है पर जिसने कल्पना की आंखों से सब कुछ जान और पा लिया है…धरती के रंगों के साथ-साथ न सिर्फ आकाश को भी जाना है अपितु महसूस भी किया है क्योंकि इसके अंधेरे-उजाले… इंद्रधनुषों ने उसका मन लुभाया है और अब वह इस सौंदर्य को…इसकी सारी आग और पानी को, अपने शब्दों में, अपने रंगों में, हावभावों में कैद करके सबके साथ बांटने को ललायित है। परन्तु सिर्फ आत्म-मुग्धता और आत्म सुख ही तो सृजन की एकमात्र जरूरत नहीं, कभी-कभी परिस्थितियाँ और आसपास के दबाव भी तो विष्फोटक का काम करते हैं।
फिर भी सृजन एक सकारात्मक सोच है। इसका जन्म, रचने की चाह या फिर अलौकिक आनंदानुभूति से ही होता है। विकार और विनाश या दुख और क्रोध से उत्पन्न हो तो सृजन नहीं, तोड़ फोड़ या सृजन से पहले पटल साफ करने का प्रयास मात्र है।
तो क्या एक कलाकार का सृजन जीवन और प्रकृति से भिन्न है ? एक रचना का जन्म एक फूल के खिलने जैसा नहीं ! सृष्टि-संरचना या आकाश में बिखरे अनगिनित तारों और उल्कापात सा नहीं ! खेत में उग रही गेंहू की बाल से फूली-फूली रोटी का भूख की थाली तक पहुँचने का सफर नहीं!
हो सकता है भावावेग के उस पल में कलाकार भी आसपास और अंतर्मन के घटित को उसी तीव्रता से महसूस करे कि भावों पर नियंत्रण न रख पाए, परन्तु सृजन अवचेतन होते हुए भी एक सुनियिजित और सोद्देश्य़ प्रक्रिया ही है जबकि मन कितना भी निर्बाध व निरंकुश क्यों न हो। और यह द्वंद्व व कमजोरी ही किसी भी कृति को शक्ति व उसका शाश्वत सौंदर्य देती है।
संदर्भ में अपना एक हायकू बांटना चाहूंगी- ‘ओस-सा मन/ हवा की छुअन से / सिहरे गात।‘
सोचिए कितना कठिन है इस सिहरन…हर हावभाव को, उन्माद व चिंता को , मन की सारी उथल-पुथल को शब्दों, रंगो या भाव-भंगिमाओं में हूबहू बांध पाना…यह निर्झरणी तो खुद ही फूटती भी है और अपनी दिशा भी खुद ही चुनती है। संवेदन-शील व नाजुक मन भी प्रस्फुटन के वक्त एक नदी या झरने की तरह ही है…लबालब और बहने को आतुर !
सृजन प्रकृति में, मन में, जीवन में, पल-पल होता रहता है परन्तु कालजयी सृजन वह है जो सार्वभौमिक हो, देश और काल की सीमा को लांघते हुए सबके मन को छुए, भविष्य की आहटों को पहचाने। आंद्रे ब्रेंता ने कहीं लिखा है कि कोई कलाकृति तभी मूल्यवान होती है, जब भविष्य की आहटें उसमें मौजूद हों। और भविष्य को पहचानने के लिए वर्तमान को जानना जरूरी है, अतीत को याद रखना जरूरी है, ताकि हम अपनी ही रौ में न बहते चले जाएं…अपने आसपास और सहजीवियों से भी जुड़े रहना जरूरी है, गत् अनुभवों या इतिहास व पुराण से सीखना जरूरी है । भाषा और संवाद…साहित्य का, हर सामाजिक कला का विकास भी शायद इसी जोड़ने और जुड़ने की चाह से ही हुआ होगा कभी और आज हजारों आन्दोलनों और परिवर्तनों के बाद भी, इनकी मुख्य जरूरत स्वान्तः सुखाय के बाद, यही है…।
एक नव विहग जब आँखें खोलता है धरती पर तो अचंभित होता है ईश के इस अद्भुत सृजन से, पर जब वह खुद तिनके-तिनके जोड़कर घोंसला बनाता है, तो खुद सर्जक हो जाता है, ईश्वर से जुड़ जाता है। यही वजह है कि भगवान ने अपनी दुनिया में छोटे-से-छोटे जीव को भी सृजन से जोड़े रखा। सृजनशीलता उसकी सृष्टि में निरंतरता की प्रमुख शर्त बनी। झरते पर्ण की जगह नए रचते रहते हैं और जीवन की हरितिमा बनी रहती है, फिर मानव के पास तो आज विकसित सभ्यता का भंडार है। तरह-तरह के ज्ञान-विज्ञान हैं।
दैनिक जीवन के ये अनुभव और रंग-रूप के अहसास सार्वभौमिक हैं और सबको होते हैं, पर उन अनुभूतियों और अनुभवों को अविस्मरणीय शब्दों की लड़ियों में पिरोना, नया आकार, एक नया रूप देकर, यादगार कलाकृति और दस्तावेज में परिवर्तित कर पाना आसान नहीं। भावुक मन और साथ-साथ एक शिल्पकार की पैनी नजर और सक्षम औजार, कई चीजों का संगम हो, तब कहीं जाकर एक अमर रचना जन्म ले पाती है…ऐसी रचना जो गीता और कुरान की तरह पूरे समाज की दिशा बदल सकती है, वेदवाक्य बन सकती है। शरद् चन्द्र ने कहीं लिखा था कि नारी मन एक ऐसे स्वच्छ शीशे के समान है, जिसमें जो छाया पड़ती है, वही उसके अंतर्मन में जा बसती है पर क्या हर कवि, हर कलाकार, हर चित्रकार के साथ ही ऐसा नहीं? फिर भी कला मन की हर अभिव्यक्ति, हर श्वास-उच्छवास का हूबहू छायांकन नहीं। हर नर-नारी, हर मन के साथ ऐसा होता है कि छाया पड़ती हैं और छाप छोड़ती हैं पर उन्हें बांटने की अभिव्यक्त करने की कला ही आदमी को कलाकार बनाती है। कवि और लेखकों की तो विशेषतः अनुभूतियाँ और मूर्त-अमूर्त छवियां ही मुख्य सहेलियां और प्रेरणा होती हैं। साधारण में असाधरण को ढूँढ पाना और फिर असाधारण को बहुत ही साधारण तरीके से कह जाना, यही कला की सहजता और ग्राह्यता है। कालीदास के शब्दों में कहूँ तो साधारण शब्द भी भावों के धागों में बिंधे अनमोल मोती बन जाते हैं, जब कवि इन्हें कविताओं में पिरो देता हैं।
कला के उद्देश्य के संदर्भ में चर्नीशेव्स्की (१८२७-१८८९) की टिप्पणी कला को इतिहास से अलगाती है। वह कहता है कला या सृजन का मूल उद्देश्य जीवन में मानव की दिलचस्पी की हर चीज को पुनः मूर्त करना है। अर्थात कला कांटती-छाँटती है। चयन करती है। अनावश्यक को हटाते हुए सत्य,शिव और सुंदर को लेकर चलने का प्रयास करती है। फलतः कभी कभी बहुधा जीवन का स्पष्टीकरण और उसकी परिणतियों का गुण-दोष विवेचन भी काव्यात्मक कृतियों में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लेता है जो एक कृति को बोझिल कर सकता है और एक कुशल शिल्पी को इसका ध्यान रखना चाहिए।
प्राकृतिक उष्मा हो या भावात्मक आलोड़न साहित्य हमें दैनिक जीवन से ऊपर ले जाता है। आम को अमर कर पाना सिर्फ कलाकार के ही बस की बात है।
लेखनी का हर अंक समर्पित रहा है ऐसे ही युगों-युगों से शब्द-बृह्म की अथक साधना में रत् सृजन-धर्मियों को, उनके एक-एक शब्द और हर अभिव्यक्ति को…यह अंक भी अपवाद नहीं। यह बात दूसरी है कि इसबार एक बेहद दुविधाजनक और पीड़ादायक समस्याओं से जूझती लेखनी आप तक पहुँच रही है । पिछले तीन हफ्तों से मन पर एक बोझ था। काम ठीक से न कर पाने की बेचैनी और पीड़ा थी। पर आज हारकर ऐसे ही आधी अधूरी लेखनी आप तक पहुँचा रही हूँ। जबतक समस्या सुलझती नहीं, उम्मीद है लेखनी के इस रूप को भी आप स्वीकारेंगे।
अंक में हम आपके लिए शिवमंगल सिंह सुमन, जयशंकर प्रसाद और मैक्सिम गोर्की जैसे अमर रचनाकारों की रचनाएँ लेकर आए हैं, साथ में कई समकालीन लेखक व कवियों की खूबसूरत रचनाएँ हैं। एकतरफ जहाँ कालोजी नारायण राव की कविताएँ वैचारिक आंदोलन के धरातल पर ले जाती हैं वहीं मंगलेश डबराल की कविताएं मन के द्वार थपथपाती हैं। जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडे’ एक ऐसी कहानी है जिसे भुलापाना आसान नहीं। विविध और रोचक कविता, कहानी, लेख और हास्य-व्यंग्य से भरा यह अंक अब आपके हाथों में है ; कैसा लगा बताएंगे तो अच्छा लगेगा।
-शैल अग्रवाल
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शताब्दी स्मरण -डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा
[प्रसिद्ध तेलुगु कवि पद्मविभूषण डॉ. कालोजी नारायणराव का बीसवीं शताब्दी के तेलुगु साहित्य में वही महत्व है जो हिंदी साहित्य में बाबा नागार्जुन का है. अपनी साफगोई और अक्खड़ता में वे कबीर की परंपरा के कवि हैं तो राष्ट्रीय चेतना की दृष्टि से उनकी कविताएँ बार-बार दिनकर की याद दिलाती हैं. तेलुगु के इस महान रचनाकार की जन्मशताब्दी के अवसर पर यहाँ प्रस्तुत है उनकी ग्यारह कविताओं का हिंदी अनुवाद.
स्वतंत्रता सेनानी, जनपक्षधर कवि कालोजी का जन्म 9 सितंबर 1914 को कर्नाटक राज्य के बीजापुर जिले के रट्टिहल्ली नामक गाँव में हुआ. कालोजी आरंभ से आर्य समाज के सिद्धांतों से प्रभावित रहे. उन्हें तेलुगु कविता में गांधीवाद के उन्नायक के रूप में भी जाना जाता है. उन्होंने 1930 में ‘पुस्तकालय आंदोलन’ चलाया और गाँव-गाँव में पुस्तकालयों की स्थापना कराई. ‘आंध्र महासभा आंदोलन’ से भी जुड़े रहे. उन्होंने ‘जय तेलंगाना’ आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था. उनकी कविताओं में स्वतंत्रता आंदोलन, हैदराबाद मुक्ति संघर्ष और तेलंगाना आंदोलन की अनुगूँजें बार-बार सुनाई पड़ती हैं. वे सामाजिक और राजनैतिक चेतना संपन्न स्वतंत्रचेता कवि थे. स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की निरंतर अनदेखी और दलगत राजनीति के नाम पर व्यक्ति केंद्रित राजनीति की स्थापना से उनका कवि हृदय अत्यंत विचलित था. यही कारण है कि उनकी कविताओं में आमूलचूल राजनैतिक परिवर्तन की कामना करने वाला विद्रोही तेवर दिखाई देता है. वस्तुतः कालोजी केवल शब्दकर्मी ही नहीं थे बल्कि निरंतर सक्रिय सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे. उन्हें अनेक बार जेल यात्रा भी करनी पड़ी.
कालोजी की मुख्य कृतियाँ हैं – अणाकथलु (1941), ना भारत देश यात्रा (1941, मेरी भारत यात्रा, ब्रेइल फोर्ड की पुस्तक ‘रेबल इंडिया’ का अनुवाद), कालोजी कथलु (1943, कालोजी की कहानियाँ), पार्थिव व्ययमु (1946, पार्थिव संवत्सर का व्यय), ना गोडवा-1 (1953, मेरी आवाज, भाग-1), इदि ना गोडवा (1955, यह मेरी आवाज है – आत्मकथा), बापू! बापू! बापू! (1955), तुदि विजयम मनदि निजम (1962, अंतिम विजय अपना सच), ना गोडवा पराभव वसंतम (1966, पराभव वसंत में मेरी आवाज), ना गोडवा पराभव ग्रीष्मम (1966, पराभव ग्रीष्म में मेरी आवाज), ना गोडवा पराभव वर्षा (1966, पराभव वर्षा ऋतु में मेरी आवाज), ना गोडवा पराभव शरत (1966, पराभव के शरत ऋतु में मेरी आवाज), ना गोडवा पराभव हेमंतम (1966, पराभव हेमंत में मेरी आवाज), ना गोडवा पराभव शिशिरम (1967, पराभव शिशिर में मेरी आवाज), जीवन गीता (1968, ख़लील जिब्रान की पुस्तक ‘द प्रोफेट’ का अनुवाद), तेलंगाना उद्यम कवितलु (1969-70, तेलंगाना आंदोलन की कविताएँ), ना गोडवा – युव भारती (1974), ना गोडवा (1975-77, मेरी आवाज), कालोजी कथलु (2000, कालोजी की कहानियाँ) आदि.
कालोजी को व्यापक लोकप्रियता और समर्थन हासिल हुआ. अन्य अनेक सम्मान-पुरस्कारों के अतिरिक्त 1992 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया. तेलंगाना लेखक संघ, आंध्र प्रदेश साहित्य अकादमी और आंध्र सारस्वत परिषद से तो वे संबद्ध रहे ही, 1958 से 1960 तक आंध्र प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी रहे. कालोजी का निधन 13 नवंबर 2002 को वरंगल में हुआ. – गु. नी.]
प्रजाकवि कालोजी नारायणराव की तेलुगु से अनूदित ग्यारह कविताएँ
एक और महाभारत
कन्याकुमारी का गृहप्रवेश ही
बुनियाद है कश्मीर की
समुद्र की बाष्प से
आरंभ होता है गंगा का जीवन.
साड़ी के आँचल में आग लगे तो
आपादमस्तक हाहाकार
जूड़े को पकड़कर खींचने से
पाँव अंगारों पर पड़ने की पीड़ा,
अत्याचारी के दृष्टि संकेत पर
शीलवती की आँखों में
शिव के त्रिनेत्र की ज्वाला
सैरंध्री जब जब अपमानित होगी
तब तब कीचक वध निश्चित है
द्रौपदी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाने पर
दुर्योधन की जंघा का टूटना निश्चित है
दुःशासन के वक्ष का चिरना निश्चित है
अनेकों बार कीचक का वध होने पर भी
दुःशासन का वक्ष चीरे जाने पर भी
दुर्योधन की जंघा टूटने पर भी
कर्ण का रथचक्र धरती में धँसने पर भी
कृष्ण के दूत बन जाने पर भी
एक और महाभारत निश्चित है
फिर से, फिर फिर से, कीचकों को सुदेष्णा का प्रोत्साहन
दुःशासनों को दुर्योधनों का आदेश
दुर्योधनों की दुराशा और दुरभिमान
कर्णों की प्रतिशोध की भावना
फिर से कृष्णों का दूत कर्म अनिवार्य है
और एक महाभारत निश्चित है.
फिर से, फिर फिर से, भीष्म-द्रोण का मौनव्रत
धृतराष्ट्र के अंधे प्रेम का व्यामोह
शकुनि मामा के पासे का गोरखधंधा
फिर से द्रौपदी का अपमान
फिर से महाभारत.
फिर से, फिर फिर से
सैंधवों को वरदान
आचार्यों का चक्रव्यूह
योद्धाओं का षड्यंत्र
फिर से अभिमन्यु की नृशंस हत्या
फिर से महाभारत
फिर से, फिर फिर से, कश्मीर पर दुराक्रमण
यू.एन.ओ. का समझौता
सीज़ फायर का समझौता
समझौतों का उल्लंघन
भारत के धर्मराजों की सहनशक्ति
माओ त्से तुंग का षड्यंत्र
अयूब दुर्योधन दुराशा दुरभिमान
भुट्टो दुःशासन का दुरावेश
फिर से दुर्योधनों की जंघा का टूटना निश्चित है
दुःशासनों का वक्ष चीरा जाना निश्चित है
फिर से कुरुक्षेत्र निश्चित है
एक और महाभारत निश्चित है.
*
इच्छा
मेरी है एक इच्छा
कि मेरी आवाज तुझे लिखे हुए खत के समान हो
पढ़नेवालों को कविता लगे
भावुक को मस्तिष्क के समान लगे
मेधावियों को हृदय-सा लगे
तार्किकों को करुणा उत्पन्न करने वाला लगे
भोले भालों को खतरे की पहचान सा लगे
दाँत दिखानेवाले ओछे लोगों को गंभीर लगे
गंभीरता ओढ़ने वालों को मुस्कान पैदा करनेवाला लगे
लुप्त हो रही दोस्ती को संजीवनी लगे
जलती आँखों को ठंडक पहुँचाने वाला लगे
भटके हुए सांड को गले में बंधा गलगोड्डा-सा लगे
हवा में फैलने वाली सुरभि-सा लगे
दूध देने के लिए तैयार स्तनों की तरह लगे
माँ की आँखों की तरह लगे
किसान को रखवाले की तरह दिखे
निस्पृह हृदय को दिलासे की तरह लगे
जीवन के लिए सहारा लगे
काल को पाश की तरह लगे
रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह लगे
बर्फ को अंगीठी सा लगे
राष्ट्र को नीति सा लगे
शत्रु को भीति सा लगे
सरहद को रक्षा सा लगे
शिबि के शरीर सा लगे
बलि के त्याग सा लगे
सैनिकों के प्राण सा लगे
अमरों के हार सा लगे
वेदना के वेद सा लगे
गंगा को जीवन सा लगे
जीवन को किनारा सा लगे
पाताल को ऊपर खींचने वाला लगे
स्वर्ग को भूमि पर उतारने वाला लगे
धरती को धरती की तरह बनाए रखने वाला लगे
मनुष्य को मनुष्य बनाने वाला लगे
मेरी है एक इच्छा
18.1.67
*
विडंबना
रोगों को देख डर रही हैं दवाइयाँ
अपमानजनक है गुंडों के हाथों पुलिस की पिटाई
टिकट चेकर कर रहे हैं सलाम बेटिकटों को
इनविजिलेटर दे रहे हैं प्रश्नपत्रों के समाधान
लिखे हुए उत्तर पर कितने अंक लुटाएँ – पूछ रहे हैं परीक्षक
कंडक्टर को देख डर रहे हैं पैसेंजर
गुंडों को देख डर रही है सरकार,
जनता खरीद रही है दैनंदिन सुरक्षा
स्थानीय बाहुबलियों से
1966
*
साजिश
चालीस लोगों ने या चार नक्सलियों ने
अत्यंत गोपनीय ढंग से
रची साजिश,
असल में भूमिगत – प्रकट में रहस्य !
साजिश !
प्रधानमंत्री इंदिरा की सरकार को
जड़ से उखाड़ फेंकने की साजिश!
सरेआम सशस्त्र संघर्ष चलाने की साजिश!
फिर भी गाय-बछड़े की सरकार के
जासूसों ने सूँघ ही लिया
षड्यंत्र.
दर्ज किया कोर्ट में केस
गवाह हैं पाँच सौ;
पाँच सौ गवाहों के समक्ष
रहस्यमय साजिश !
भयंकर खतरनाक साजिश !
पाँच सौ गवाह;
कैसी साजिश ! सरकारी साजिश
झूठे मुक़दमे की सुनवाई
चल सकती है कोर्ट में चार-पाँच सालों तक.
मृत्युदंड या उम्रकैद की धाराओं के तहत
दोष का अभियोग.
क्या कुछ लोगों को हो नहीं सकती फाँसी –
और कुछ को उम्रकैद की सजा –
बाकी के बरी हो जाने पर भी
धाराओं के तहत चार पाँच बरस का कारावास तो तय है.
भयंकर साजिश – सरकारी साजिश का मुकदमा
प्रजाहित के लिए – साजिश !
श्रेष्ठ राज्य के लिए – साजिश !!
(1973 : प्रगतिशील रचनाकार वरवरराव और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ सरकार द्वारा ‘सिकंदराबाद का झूठा मुकदमा’ दर्ज किए जाने की प्रतिक्रिया में रचित)
*
वोटों का क्या कहना
कहाँ कहाँ घूमे? क्या क्या किया?
कितने बरसों बाद घर वापस लौटे?
बहुत चालाकी से अपने हिस्से को स्वाहा कर
पुराना उधार चुकाने के वक्त भाग खड़े हुए क्या?
चोरी के माल को चोरी से बेचकर
नकदी अपनी पत्नी के नाम जमा कर ली क्या?
हाथ में कौड़ी नहीं, बस में चढ़ने की औकात नहीं
कारों में घूमनेवाली चमेली तुम्हारे पास कैसे?
भूल गई जनता – अब कैसा डर,
यह सोच तुम आज उम्मीदवार बन प्रकट हो गए?
ठगे गए थे कल – ठगे जाएँगे न आज
हर बार तुम्हारा खेल नहीं चलेगा.
दुष्कर्मी! वोटों का क्या कहना
जूतों की, लातों की कमी नहीं रहेगी!
(1949 : हैदराबाद पुलिस एक्शन के बाद स्टेट कांग्रेस के संस्थागत चुनाव के समय अपराधी तत्वों द्वारा चुनाव लड़ने के संदर्भ में रचित)
*
झूठी प्रशंसा
अहो भाग्य
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
युद्ध से बहुत दूर
उत्तर कुमार की प्रज्ञाएँ.
विप्लव के लिए हो या सर्वोदय के लिए
दृढ़ हृदय चाहिए.
कदम कदम पर हैं
तलवारों के पुल.
जिस तरफ भी कदम रखो योद्धा ही योद्धा हैं
डर के मारे स्तंभित हो गए
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है
आँय-बाँय बोले तो आँय-बाँय
कितना भी गा सकते हैं.
चबूतरे पर बैठकर
प्रशस्ति गाइए या निंदा कीजिए
कलम की लच्छेदार कविता
सबको वश में कर सकती है
गांधी के लिए हो या माओ के लिए
झूठी प्रशंसा तो झूठी प्रशंसा ही है
झूठी प्रशंसा से तारे जमीन पर नहीं आते
स्तुति-गायन से इमली तक नहीं गिरती.
परिस्थितियों की आड़ में
अपने सच्चे जीवन क्षेत्र में
नित्य गुलाम रहकर
तरह तरह की घास चबाकर
तलुवे चाटकर
बापू ! बापू ! कहो
माओ ! माओ ! कहो
सर्वोदय कहो
विप्लव कहो
क्रोध क्रोध कहो
शांति कहो या क्रांति
भूसी फटकने से भी
आसान है प्रशंसा करना.
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
तुम्हारा निमंत्रण मिला –
मुझे बुलाया
तुम्हारे स्थान पर,
तुम्हारी सलाह मानी,
मुझे वह करने के लिए कहा
जो तुम करते हो
यह कैसी दुविधा !
निरर्थक निमंत्रण, सलाह !
दोनों एक ही स्थान पर हैं
कुछ भी नहीं कर रहे हैं
अहो भाग्य !
भाग्य का क्या, कुछ भी लिखा जा सकता है !
(1971 : मित्र मंडली के ‘विप्लव गीत’ पर परिचर्चा की प्रतिक्रयास्वरूप रचित)
*
मुझे क्या हुआ?
क्या हुआ? मुझे क्या हुआ?
अत्याचार को देशीय समझ
दया की क्या मैंने?
अंग्रेजों का विरोध कर
काले लोगों की सेवा करना
किसलिए? क्या हुआ?
मुझे क्या हुआ?
उस समय के रजाकारों को
मिटाने की तरह मैं
आज के रजाकारों का
‘नायक’ बन आया हूँ
क्यों? क्या हुआ? मुझे क्या हुआ?
हृदय बकरी, चित्त लोमड़ी,
मन भेडिया.
कुत्ते की तरह जी रहा हूँ
क्यों? मुझे क्या हुआ?
इससे भला
कोई और पशु होता
तो अच्छा होता.
(1974 : सत्तालोलुप राजनीति से समझौता करने वाले सवतंत्रता सेनानियों को देख कर दुःख से रचित)
*
इस देश की क्या दशा
इस देश की क्या दशा है
सबके दिमाग को क्या हुआ
प्रजातंत्र का संवैधानिक
प्रशासन क्या यही है ?
एमपी का प्रिविलेज है यह
इंदिरा की नीति और न्याय है यह
सम्माननीय हैं सब
गणपति गुणरहित
खुद मुर्गियों को निगलकर
शिष्यों को अंडों से दूर रख रहे हैं.
पार्टी नेताओं को, जनसाधारण को
एमपी को, एमएलए को
कितना भरोसा कितना भरोसा
इंदिरा पर कितना भरोसा
क्या कहा इंदिरा ने आखिर
अभी तक ‘नार्मल्सी’ नहीं आई
‘नार्मल्सी’ आ गई है
उन्हें तो इस बात पर यकीन ही नहीं है.
उनके विश्वास को जनता में
स्थान मिला ही नहीं
समग्रवादी दुस्साहसी हैं
अपने अपने प्रांतों में जाकर
पाँचसूत्री क्रायक्रम को
फैलाने के लिए समय चाहिए.
प्रतिपक्ष के साथ मिलकर
घोषित किया गया जनमत तो
सबके लिए गलत और जोखिम भरा हुआ ही
होगा न.
अगले चुनाव तक
देश में कुछ भी हो
जीती हुई पार्टी की नेता
जो चाहे, वही होगा.
प्रतिपक्ष का क्या मत है
पार्लियामेंट के पिंजरे में
उसी की हवा है
पार्टी के नेता तो तोते हैं
जो कहा जाता है वही बोलते हैं.
‘गरीबी हटाओ’ का नारा
वोट फँसाने का चारा है
अगले चुनाव तक
झेलना ही पडेगा.
उनके शासन के तीन वर्ष
पूरे होने के दिन तक
प्रतिपक्ष ज़िंदा रहता तो
तब भी रस्साकशी
इसीलिए तो उनकी हर बात
न्याय बन गई, उपचार भी
परिवर्तन, योगदान और रद्द करने का
मंत्र तंत्र भी
कांग्रेसी पार्टीव्रती हैं
अन्य दलों के सदस्य केवल सदस्य
‘एक देश एक दल
एक ही नेता’ है कांग्रेस का नारा.
प्रतिपक्ष के जन-आंदोलन की
योजना को कुचल दिया
भुजबल से, धनबल से
बहुत कुछ को वश में कर लिया.
बांग्लादेश में याहिया खान द्वारा
खुल्लमखुल्ला अपनाए गए
मार्शल लॉ के हथियार को ही
छद्म रूप से प्रयोग किया.
मीठे मीठे नारों के
शहद का लेप लगाया इंदिरा ने;
सूखे और अकाल के लिए तो
जिम्मेदार भगवान है.
करोड़ों लोगों की पुकार को
बना दिया असामाजिक तत्वों का आंदोलन
प्रगति मार्ग का व्यवधान
प्रतिपक्ष का कुचक्र.
मुखिया है विषनाग
जिसके फन में विष है.
भूमिगत दल बन गए
राइट रिएक्शन का षड्यंत्र.
लेफ्ट एडवेंचरिज्म
बुराई का नटखट व्यवहार.
कांग्रेस, सी पी आई
के सिवा और कौन !
हृदय से देश की भलाई
चाहने वाले देशीय और कौन !!
दोनों के आलिंगन बद्ध होने पर
कही गई बात एक है
अपने अपने दल में
शामिल होकर कही जाने वाली बात और एक है.
प्रस्ताव और वार्तालाप
तरीका एक है, बात और एक है
राग, ताल, पल्लवी
का लक्षण एक, रस और एक है.
देश दोगली निष्ठा के लिए है क्या
देश एकनिष्ठता का है
पार्टी के नाम पर दोगली निष्ठा
पालने का व्रत और एक है;
एक देश एक दल
एक नेता एक नारा.
सत्तारूढ़ दल के
हाथों में है देश,
दल की शक्ति
दल की नेता के हाथों में.
नेता का अर्थ है सर्वशक्तिमान
नेता का अर्थ है भगवान
नेता के संकल्प को साकार करने को
तैयार है पूरा दल.
प्रचलन में जो सिक्का है
उसकी ताकत और कीमत की कमी नहीं
सी पी आई और कांग्रेस
सिक्के के दो पहलू हैं.
बाकी सब कुछ हैं बेकार
गिनती में न आने वाले सिक्के.
आज का महाभारत है
कौरव सभा का वर्णन है.
भीष्माचार्य, द्रोण,
शकुनि, दुःशासन,
कर्ण, अश्वत्थामा,
कृपाचार्य और जयद्रथ.
राष्ट्रपति धृतराष्ट्र हैं.
भव्य, बहुत भव्य लोग हैं.
बलवान बहुत बलवान हैं.
गौरव सभा का वर्णन है
यह आज का महाभारत है
इंदिरा दरबार की शान है.
*
बीस सूत्रों की दांडी यात्रा
बीस सूत्रों की दांडी;
इंदिरा की योजनाओं के लिए
मुख्यमंत्री कठपुतलियों के समान
कह रहे हैं – हाँ, शाबाश
हम अमल में लाएँगे.
दीन जन के उद्धार के
संकल्प के लिए
प्रधानमंत्री गांधी के घोषित
सूत्र कहाँ तक
लागू होंगे?
देखेंगे इंतजार करके
सरकार द्वारा प्रारंभ किए गए
समृद्धि के सूत्र
लागू होने में
बाधक प्रतिपक्ष के
‘नियंत्रण’ में रहते ही
दीन जन का उद्धार हो गया
तो प्रसन्नता की बात है.
जयप्रकाश भी संतोषपूर्वक
रह सकते हैं डिटेंशन में
प्रतिपक्ष के शिकार होने पर भी,
भारत में हो
दीन जन का उद्धार
अच्छी बात है.
झूठ होने पर भी
प्रतिपक्ष द्वारा व्यवधान की
अपनी बात को साबित करेंगी !
दीन जन का उद्धार
कर दिखाएँ.
इंदिरा इस बार
ऐसा न कर पाईं तो
उनकी सब बातें झूठी हो जाएँगी
उनका खेल नाटक बन जाएगा
इंदिरा के भक्तों को बहुत कष्ट होगा
फिर भी उस दिन तक
भ्रम में रहने वाले सब
जाग जाएँ तो अच्छा हो.
उस दिन की इमर्जेंसी
इंदिरा को भी
सहारा नहीं दे पाई.
गद्दी से लात मारकर
जनता नीचे नहीं उतारेगी क्या !
तनिक ठहर कर देखो तो सही
होगा क्या !
सुप्रीम कोर्ट में अपील का फैसला
आएगा इस बीच
तब क्या कहेंगी इंदिरा;
देखेंगे ज़रा;
सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी
इलाहाबाद हाईकोर्ट की तरह हो तो
सेंट्रल कैबिनेट में प्रवेश करेंगे
वी.पी.राजु, मर्रि, डीपी मिश्रा – सब,
भ्रष्टाचार के उपाधिधारी ही
हमारी केंद्र सरकार के
मंत्री मंडल में शामिल होने के
काबिल होंगे !
(4.7.75 : इंदिरा गांधी द्वारा इमर्जेंसी को दीन जन के उद्धार का कार्यक्रम बताने पर प्रतिक्रयास्वरूप रचित)
*
शर्म करो, मुख्यमंत्री
राज्यों के विभाजन के लिए
संविधान राजी है
राज्यों के विभाजन के लिए
रीति-नीति कायम है.
राज्यों के विभाजन के लिए
जनमत का समर्थन है
राज्यों के विभाजन के लिए
पूरी तैयारी है.
राज्यों के विभाजन के लिए
प्रजाशक्ति का रास्ता है
राज्यों के विभाजन के लिए
पार्लियामेंट का समर्थन है
तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की
स्वीकृति है
तत्कालीन मुख्य मंत्रियों की
स्वीकृति है
तत्कालीन अखिल भारतीय कांग्रेस अध्यक्षों की
स्वीकृति है
तत्कालीन निजलिंगप्पा की
स्वीकृति है
राज्यों को विभाजित करने पर
यदि कोई कहे कि
भारत की एकता भंग होगी
तो वह सरासर झूठ है
जनता को ठगते हैं
गिरोह के बलबूते पर गिद्ध;
राज्यों के विभाजन के लिए समझौता करके
‘फज़ल अली’ कमीशन लागू करने की
जिम्मेदारी को भूलकर
आज केंद्र सरकार
किलकारी मार रही है
‘अलग तेलंगाना
दक्षिण पाकिस्तान’
कह रहे हैं एक महाकवि
पाप शांत हो,
तेलंगाना विभाजन को
‘आत्महत्या सदृश’
बता रहे मुख्यमंत्री महोदय.
लंबी पगड़ी बाँधकर
प्रदेश में उग रही
विभाजन-विरोधी पार्टियाँ
(‘पार्टीव्रत’ है उनका)
इसलिए
अलग तेलंगाना का
का प्रश्न ही नहीं उठता –
कहती हैं प्रधानमंत्री ‘श्रीमती’ इंदिरा
नेहरु की लाडली
‘इंदिरा प्रियदर्शिनी’
प्रदेश में उग रही पार्टियों से
प्रधानमंत्री को
बहुत लगाव है
कितने सालों के बाद? कितने सालों के बाद?
पिता के पत्रों में पुत्री के नाम
कही गई बातें
विश्व इतिहास की झलक
भूल रही हैं समय के साथ
प्रधानमंत्री पद को शाश्वत समझ
लालची हो रही हैं
गुटबंदी की बंदिनी हो
डींगें हाँक रही हैं
एक देश एक दल
विवाद की ओर श्रद्धा से
दल को देश मान
हौवा खड़ा कर रही हैं.
प्रजातंत्र के लक्षण को
दरकिनार कर चल रही हैं
आंध्र के मुख्यमंत्री के धमकाने पर
घबराकर झुक जाती हैं
केंद्रीय मंत्री परिषद में
‘कैबिनेट रैंक’ है शान,
दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिह्न को
ए.पी., एम.पी. में से
किसी ने भी नहीं वोट दिया तो देख लेना –
कहते हैं ब्रह्मानंद
दल के दादा के समान
है वह मुख्यमंत्री – शर्म की बात है.
लोकतंत्र का संविधान
खंड खंड होने पर
किस सूत्र का अनुसरण करें?
किस संहिता का अनुकरण करें?
केंद्रीय मंत्री परिषद में
दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिह्न से
ए.पी., एम.पी. में से
कोई नहीं है तो
राज्य को न्याय नहीं मिलेगा
कर रहा है आरोप ब्रह्मानंद;
प्रजातंत्र का संविधान
किस सूत्र का अनुकरण करे?
केंद्रीय मंत्री परिषद में
शामिल होकर पूजनीय बन गए हैं
महामहिम, महनीय
समस्त भारतवर्ष की मंगलकामना न करके
सोचने के लिए मौक़ा दे रही है सरकार
कि प्रांत के आधार पर पक्षपात है.
लोकतंत्र का संविधान
भ्रष्ट है या नहीं ?
प्रादेशिक पार्टियाँ
(दो बैलों की जोड़ी के चुनाव चिह्न के अलावा)
बड़ी शान से
चला रही हैं शासन, ब्रह्मानंद !
‘शांति सुरक्षा’ कायम
न करने वालों को
प्रांतों की रक्षा न करने वालों को
न्याय पालन न करने वालों को
एक क्षण के लिए भी
गद्दी पर बैठने का हक नहीं.
अयोग्य घोषित करने वाले
अविश्वास प्रस्तावों को
गंभीरता से क्यों नहीं ले रहे हो?
आंध्रप्रदेश राज्य का गठन हुए
पुष्कर बीत गया,
कल ही तो
‘विवाह निमंत्रण’ के नाम पर प्रधानमंत्री ने
तिरुमल गिरि का आरोहण कर
तेलंगाना की जनता की बातों को
फुरसत से सुनकर
ब्रहमानंद को बुलाकर
पूछताछ की
‘तेलंगाना पहले की तरह
पिछड़ी हुई दुःस्थिति में
क्यों है? क्यों है जी?’
सुनते ही जल्दी जल्दी
मुख्यमंत्री ब्रह्मानंद ने कहा
‘पता चला, अब पता चला
प्रधानमंत्री के कहने पर कि
तेलंगाना पिछड़ी हुई
दुःस्थिति में है –
अब से निश्चित रूप से
आंध्रप्रदेश राज्य विधान
तेलंगाना की अभिवृद्धि के
अनुरूप होगा.’
कितनी दूरदृष्टि, दया?
कितनी ईमानदारी, सचाई
कितना भोलापन, ममता
कितनी राजनीति, समता?
*
पराभव निश्चित है
प्रभुता के मद में
राजनीतिज्ञ झूम रहे हैं
अधिकारी संपत्ति स्वाहा कर
सत्यवान बन घूम रहे हैं
जनहित के जीवन-आदर्श
उनके बोझ तले टूटकर कराह रहे हैं
जनतंत्र का परदा खिसक गया है
निरंकुशता ने फन फैला दिया है,
फिर भी नित्य पूजा चल रही है
नागपंचमी जैसी !
सत्यवान विषपान करके
तत्वों का मंथन कर रहे हैं,
पराभव निश्चित है !
पाप का मद पक गया है
सत्तालोलुप राजनीति बन गई है
मदांध कसरत.
जुड़वाँ पिशाचों के दत्तक
चाल पर चाल चलकर
एक दूसरे को गिरा रहे हैं
लूट के माल के लिए.
काम के भूत की सोहबत;
पराभव निश्चित है !
(1966)
————————————————————————————–
अनुवाद एवं प्रस्तुति : डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, सह संपादक ‘स्रवन्ति’, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004, neerajagkonda@gmail.com
——————————————————————————————————-
कविता धरोहर -शिवमंगल सिंह सुमन
सूनी सांझ
बहुत दिनों में आज मिली है
सांझ अकेली
साथ नहीं हो तुम!
पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली!
साथ नहीं हो तुम!
कुलबुल-कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह-चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली!
साथ नहीं हो तुम!
जागी-जागी सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली!
साथ नहीं हो तुम!
ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा जैसे मुझ पर
बीती, झेली
साथ नहीं हो तुम!
यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली ऑंखमिचौनी
खुलकर खेली
साथ नहीं हो तुम!
*
पथ ही मुड़ गया था
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था
गति मिली मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना था
राह अनजानी, अजाना देश संगी अनसुना था
चाँद-सूरज की तरह चलता
न जाना रात-दिन है
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है
तन न आया मांगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था
देख मेरे पंख चल गतिमय लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छुपाये मुख कली भी मुस्कुराई
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बन कर
आ गयी आंधी सबल-दल
डाल झूमी पर न टूटी
किन्तु पंछी उड़ गया था
——————————————————————————————————-
माह विशेष विमलेश त्रिपाठी के प्रेम कविताएं…
जिसे अब तक लिखा नहीं
प्रेम लिखना है
आओ मेरे होंठ पर एक वर्ण आंक दो
समंदर नहीं लिखना पहाड़ नहीं लिखना
गांव की वह नदी लिखनी है
जो अब सूखने के कगार पर है
आओ मेरी देह पर बारिश की बूंद की तरह झरो
अन्न नहीं लिखना खेत नहीं लिखना
किसान लिखना है
जिसके घर का चुल्हा चार दिन से उदास
मृत्यु ही जिसके लिए एक आत्मीय आगोश
आओ मेरी त्वाचा पर जीवन की तरह बहो
छन्द नहीं लिखना गीत नहीं लिखना
दुख लिखना है
जो इस देश की मिट्टी में ठहर गया है कहीं
आओ मेरी स्याही में चुपचाप घुल जाओ पिघल कर
कविता नहीं
एक स्त्री का नाम लिखना है अपने नाम के उपर
और सदियों से खड़े
इतिहास के एक पवित्र किले को ध्वस्त कर देना है
आओ मेरे हृदय में मशाल की तरह जलो
अंत में
एक लंबी चिट्ठी लिखनी है
अपने गांव अपने पितरों के नाम
आओ मेरे खुरदरे-कांपते हाथ गहो
और मेरी शक्ल में तुम
तुम भी लिखो वह
जिसे अब तक लिखा नहीं
किसी इतिहासकार कवि दार्शनिक या किसी ने भी
वह
जो किसी भी काम से अधिक जरूरी।
*
इस तरह एक धुन
एक बात जो होते-होते रह गई थी
एक गीत का हर्फ
जो हवा में गुम गया था कहीं
वह आज मिल गया एक जंगल में
फूल की तरह खिला हुआ
उसने मुझे देख मुस्कुरा दिया
और इस तरह फिर से
एक नई धुन पूरे जंगल में बज उठी।
*
लेकिन तुम
पेड़ पेड़ ही रहें
मिट्टी मिट्टी ही रहे
चूल्हे की आग आग की तरह ही
अन्न की गंध अन्न की तरह
हवा की तरह हवा
पानी पानी की तरह ही रहे
और समय के साथ
बदलना अगर बहुत जरूरी
तो सब कुछ बदले
लेकिन तुम ‘तुम’ की तरह
और
मैं ‘मैं’ की तरह ही रहे।
*
मुझसे इतर
सेमल की रूई-से उड़ते सफेद बादलों के जंगल में
बारिश की बूंदो-सा अटका रहता है प्यार
कितने जन्मों से बादलों के जंगल में चला जाता मैं
और भीग-भीग जाती
पूरी देह (जो सिर्फ माटी है)
थक जाता मेरा रचनाकार
तुम्हारा नाम याद करते
और नहीं मिलता कोई वर्ण
कि संकेत कोई कहीं
मेरे खून के साथ जम गया-सा भी
नहीं मिलता कहीं कोई निशान
जिसे तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा कह सकूं
मुझसे इतर और
पूरी दुनिया में शहर की तरह फैलता जाता प्यार
और साथ उसके
गझ्झिन अंधेरे की एक मुलायम परत
अनवरत।
*
अतवार नहीं
आंगन में आज
कनेर के दो पीले फूल खिले हैं
दो दिन पहले
तुम लौटी हो इक्किस की उम्र में
मुझे साढ़े इक्किस की ओर लौटाती
समय को एक बार फिर
हमने मिलकर हराया है
सुनो
इस दिन को मैने
अपनी कविता की डायरी में
अतवार नहीं
प्यार लिखा है।
*
तुमसे संबंध
लिखता नहीं कुछ
कहता नहीं कुछ
तुम यदि एक सरल रेखा
तो ठीक उसके नीचे खींच देता
एक छोटी सरल रेखा
फिलहाल इसी तरह परिभाषित करता
तुमसे अपना संबंध।
*
वही प्यार
बहुत पुरानी किताब में
सूखे फूलों के गुलदस्ते के बीच
एक पीली चिट्ठी
तु्म्हारे हाथों से लिखे कांपते अक्षरों जैसा
एक समय
जिसमें भय
सन्नाटा और देह में घुले सदियों के मंत्र
बेड़ियों की तरह
आंसू जिसकी कीमत जानती
वह खिड़की जिससे कभी
धूप के फूल झरते चमकीले
गवाह उसके चटकने की जिसे ईश्वर कहती
इस देश की बहुत पुरानी पोथियां
वह प्यार
वही प्यार।
—————————————————————————————————–
गीत और गज़ल – मंजरी पाण्डे
1)
है हंसी रात बस चले आओ
बहके जज़्बात बस चले आओ!
उसने वादा किया वफ़ा देंगे
दे रहा घात बस चले आओ!
ज़िन्दगी हो गई है आवारा
क्या सवालात बस चले आओ !
ठंडे पानी में भी बदन जलता
ये है बरसात बस चले आओ !
“मञ्जरी अब सहा नही जाता
अरज़े हालात बस चले आओ ।
2)
राहे वफ़ा मे कांटे ज़ियादा हैं फूल से
जो चल पडे तो कांटे ही लगते हैं फूल से ।
सच है ये के वो तोलता है बोलता नही .
कम उसको कहीं से भी समझना ना भूल से ।
ये राह मोहब्बत की उसको ही है बस मिली
जो उफ़ भी न करता है चल के राह-ए शूल से ।
मुट्ठी मे बंद आसमां भी छूट जाता है
मिलता उसे मकां जो गुज़रता है धूल से॥
खंजर वो मेरे हाथ मे देकर चला गया
क्या “मञ्जरी” को काम ये खंजर त्रिशूल से।
——————————————————————————————————-
कविता आज और अभी
बेचैन तूलिका
बेचैन तूलिका ठहरे ना थमे
रंगों के मटमैले पानी में
जैसे आग और पानी उमड़े
बादलों के घुमड़ जाने पे
जैसे सूखे पत्ते तैरे न डूबे
झील के नम किनारों पे
जैसे आँसू और मुस्कान
एक तुम्हारी याद के
आने और जाने पर…
-शैल अग्रवाल
शब्द बनकर…
शब्द बनकर बह चले
मेरे चन्दा और तारे
बहुत जतन से जो मैंने
अपनी चूनर पर थे टांके
पक्की गांठ लगाकर
टांका वह जोड़ा था
सूंई तो बहुत नुकीली थी
धागा ही कुछ छोटा था…
-शैल अग्रवाल
बूंद बूंद
बूंद-बूंद बरसते हैं लब्ज आसमां से
और लहरों की साजिश में डूब जाते हैं
जैसे बगीचे में बैठा पत्थर का बुद्धा
हिलता नहीं आँधी और तूफानों में
जैसे नभ के बदलते रंग ये तारे औ फूल
खिलते और बुझते रहते अनदेखे नज़ारों में जैसे जंगल और जीवन का नियम नहीं भटकते रहते फिर भी किस किस चाह में
कल एक कविता जन्मी तो थी रात अंधेरे
जी न सकी पर मन के गहन वीराने में…
-शैल अग्रवाल
फूल, आकाश व नदी
मैं फूलों को छूता भर हूँ
बस छूता भर हूँ
बहुत हुआ तो सूंघ लेता हूँ
बड़े आहिस्ते से
तोड़ने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं आकाश को देखता हूँ
बस देखता भर हूँ
बहुत हुआ तो खो जाता हुँ
बड़े आहिस्ते से
अंतरिक्ष युद्ध की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं नदी को सुनता हूँ
बस सुनता भर हूँ
बहुत हुआ तो जल क्रीड़ा करता हूँ
बड़े आहिस्ते से
उनको बांधने की इच्छा तो कभी नहीं हुई ।
मैं लोगों को देखता हुँ
सुनता हूँ
छू भी लेता हूँ
यही महसूस होता है
वे लोग भाग रहे हैं
एक दूसरे को धकियाते हुए ।
उनके लिए
कोई फूल, आकाश या नदी
कोई मायने नहीं रखता
उनके पैरों तले
हर दिन कुचला जाता है
फूल, आकाश और नदी
ऐसे में
मैं जब तलाशता हूँ उन्हें
सिवा शून्य के कुछ भी तो नहीं मिलता ।
-मोतीलाल / राउरकेला
* मो. 09931346271
संपर्क: बिजली लोको शेड , बंडामुंडा
राउरकेला – 770032 ओडिशा
कलम बेखौफ हो के लिख
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है।
दिखा बेबाकियों के हौसले अब भी सलामत है॥
भले ही व्याकरण हर वाक्य पर ऐतराज करती हो।
शिल्प चाहे इसे सर्जन अगर कहते झिझकती हो॥
समी{kक इसको साहित्य अगर माने नहीं माने ।
वहीं समसामयिक होने तक के सुनने पड़े ताने ॥
नहीं हो व्यंजना, अभिधा, लक्षणा छंद रस इसमें ।
कथ्य खुद ही अलंकारों का करदे काम बस जिसमें ॥
न हो गेय लय प्रवाह कवित्व जैसा कुछ इसमें ।
सभी साहित्य दोषों की वही भरमार हो जिसमें॥
न अंदाजेबयां हो इसमें ना नुक्ताशिनानी ।
पढ़े उसको लगे जैसे उसी की ही कहानी हो ॥
उठाने दे उन्हें फिर अंगुलियां उनकी तो फितरत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
कलम उलझी कभी रुमानियत के rw तिलिस्म में।
हंसी हो वस्ल में तू और रोयीे हिज्र के गम में ॥
कभी दुनिया की बेरहमी पे भी कागज किये काले।
वफाई बेवफाई पर कई औराक भर डाले ॥
कहर सय्याद के तो आहें बुलबुल रकम की हैं।
मौसमों के बदलने की भी चर्चा बकलम की है ॥
मुकद्दर से किया शिकवा खुदा भी शिकायत की।
नहीं मौजू मिला हालात के रुख मजम्मत की ॥
कभी फुर्सत मिले तो फिर यहीं लौट आना तू।
जंचे जी में तुम्हारे वो खुशी से लिखते जाना तू॥
अभी तो गौर कर कि आज क्या भारत की हालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
दिखावा देश सेवा का सियासतदान करते हैं।
गरीबों का निवाला छीन वो घर अपने भरते हैं॥
नुमाइन्दे सब रिआया के दरीन्दों के मुलाजिम हैं।
ग़ज़ब इस दौर का आलम कि हर शोबे में मुजरिम हैं॥
यहां जम्हूरियत तब बेबसी में हाथ मलती है।
इशारों पर किन्हीं के मुल्क की सरकार चलती हैं॥
जहां देखो वहीं पर आज भ्रष्टाचार पसरा है।
लिखना ही पड़ेगा मुल्क को किस किस से खतरा है ॥
ग़रीबों और कमजोरों की आहों को अयां करना।
वतन के दुश्मनों की साजिशों को तू बयां करना॥
नहीं मुन्सिफ यहां कोई नहीं कोई अदालत है।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
समस्याएं यहां इतनी,न कोई कर सके गिनती।
नई पैदा हुई हैं पर न हल होती कोई लगती ॥
अजब जम्हूरियत तो जात और मजहब हैं मगनी।
सही हाथों में अपने मुल्क की सत्ता नहीं लगती॥
अमूमन शाहों की तारीफ से फुर्सत नहीं पाती ।
मुडी है उस तरफ कलमें जिधर दौलत मज़र आती॥
वक्त ऐसी तनाफिस को कभी न माफ करता हैं।
चले न साथ जो उसके,उसे ठाकर पे रखता हैं॥
तुम्हारा फर्ज हैं इसको तुम्हें हरगिज निभाना हैं।
चुभे जो भी उसे ही अक्षरशः लिखते ही जाना हैं॥
नहीं तोहमद कोई तसदीक कर लेना हकीक़त हैं।
कलम बेखौफ हो के लिख वही जिसकी जरुरत है॥
-दामोदर लाल जांगिड़
कल्पना
जानकर,
बल्कि जानते पहले से,
कि बोतलें तक चुराईं हैं,
मेरे इत्र कि उन्होने,
क्या तुम कल्पना नहीं कर सकते,
कि कितना खुशबूदार होगा,
मेरी बाहों का तुम्हारे चारो ओर लिपटना,
मेरे चिबुक का यों तुम्हारे ऊपर झुक जाना,
मेरा यों फूल की तरह खिल जाना,
कि कभी नहीं मुरझायेगा प्यार हमारा,
मेरा और तुम्हारा ?
हाँ, केवल मेरा और तुम्हारा,
मुमकिन है, ये भी जानते,
कि मेरी इत्र की बोतल चुराने वालों में,
तुम्हारे भी लोग हैं,
जबकि जानते कि कितनी भयानक है,
युद्ध की विभीषिका,
चारो ओर मेरे,
यही गुज़ारिश की दुहरायूँ मैं,
लगातार उनकी हत्या के कारनामे,
घुमाऊँ तुम्हे उन गालियों में,
जहां ताज़ी है रक्तपात की गंध,
और जहां अब भी लड़ी जा रही है,
जाने किसके नाम की लड़ाई?
-पंखुरी सिन्हा
जादू के फूल
फिर ये भी मंज़र आया,
ये भी मकाम,
कि कहने लगा वो मुझसे,
कि जान बूझ कर बिछाये ये जाल उसने,
कि निकलना नहीं था मुझे बाहर,
कि पर्दा करना था मुझे केवल,
जाना नहीं था उसके फूलों में,
बगीचों में उसके,
औरत थी मैं,
जान बूझ कर भरमाया उसने,
जान बूझकर बहकाया उसने,
और कहा उसने कि तोडे क्यूं जादू के फूल?
फूल तोडे कि जाल गिरा?
किया क्यूं सवाल तुमने,
कि तोड़ लूँ ये फूल?
-पंखुरी सिन्हा
स्वप्न
मैं एक ऐसा स्वप्न हूं
जिसे हासिये के नीचे धकेल दिया गया है
हासिये के नीचे बहुत अंधेरा रहता है
इतना कि वहां बहुत देर तक पड़े रहने के बाद
खुद को खुद सूझना शुरू होता है
वहां ठंड और भूख बहुत लगती है
हासिये के नीचे के अंधेरे में
जहां मैं जमीन को बमुश्किल टटोल पाता हूँ
चिथडे़, जूठन, सिगरेट के ठूँठ
और बुझने के लिये तीलियां फैकी जाती हैं
लगातार सड़ते जाते हुए भी
मैं कभी मरता नहीं हमेशा
हाशिये को ही हथियार बनाने की
कोशिश में जुटा रहता हूं
-पवन करण
अनुभूति यह भी
मैं तुम्हें समझता हूँ
और
तुम
मुझे
फरक इत्ता कि
तुम तुम हो
और
मैं… मैं…
हवा बहने लगी
अनायास
अरे
पत्तियां भी
झरने लगी
सायास
-ललित मंडोरा
एक पतझड़ है जो अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
कच्ची सी ठण्ड को पक्की, गर्म तहों में लपेट ,
जन्मों से बिखरे हर हर्फ़ को समेट,
कुछ सूखे फूलों को बक्से में धर , कि
एक बादल को अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
एक पतझड़ है जो अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
ओ री सखि, तुझे डर है पीले पत्तों के झड़ने का ?
देख यहाँ इस हरसिंगार तले, कुछ पीले पत्ते,
शोर नहीं करते, सुगबुगाते नहीं , झड़ते वक़्त — कि
एक प्रेम की लकुटी को अपने संग लिए चलती हूँ मैं!
एक पतझड़ है जो अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
‘वो’ ‘तेरा सनम’, कभी मेरा हुआ करता था,
उसकी आँखों में ‘मेरी’ शामों का बसेरा हुआ करता था
आहत उसकी बेवफ़ाई से ये दिल, फिर भी जिंदा हूँ कि -,
एक ‘काबिलइज्ज़त शख्स -ए -‘ को अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
एक पतझड़ है जो अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
एक पतझड़ है जो अपने संग लिए चलती हूँ मैं !
मुर्दा यादों के बीच ज़िंदगी को गले लगाये चलती हूँ मैं ….
-स्वाति – मृगी
मुझे याद करना
मुझे याद करना गर
तो इस तरह करना
फूलों को,
तितलियों को,
समंदरों को ,
एक साथ बाँहों में भर लेना —
हवाओं के माथे को चूम कर ,
घटाओं को आवारा बना देना …
किसी बच्चे की किलकारियों संग
हँसना – मुस्कुरा देना …
मुझे याद करना गर
तो इस तरह करना …
-स्वाति – मृगी
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माह के कवि– मंगलेश डबराल
आँखें
आँखे संसार के सबसे सुंदर दृश्य हैं
इसीलिए उनमें दिखने वाले दृश्य और भी सुंदर हो उठते हैं
उनमें एक पेड़ सिहरता है एक बादल उड़ता है नीला रंग प्रकट होता है
सहसा अतीत की कोई चमक लौटती है
या कुछ ऐसी चीज़ें झलक उठती हैं जो दुनिया में अभी आने को हैं
वे दो पृथ्वियों की तरह हैं
प्रेम से भरी हुई जब वे दूसरी आंखों को देखती हैं
तो देखते ही देखते कट जाते हैं लंबे और बुरे दिन
यह एक पुरानी कहानी है
कौन जानता है इस बीच उन्हें क्या-क्या देखना पड़ा
और दुनिया में सुंदर चीज़ें किस तरह नष्ट होती चली गईं
अब उनमें दिखता है एक ढहा हुआ घर कुछ हिलती-डुलती छायाएं
एक पुरानी लालटेन जिसका कांच काला पड़ गया है
वे प्रकाश सोखती रहती हैं कुछ नहीं कहतीं
सतत आश्चर्य में खुली रहती हैं
चेहरे पर शोभा की वस्तुएं किसी विज्ञापन में सजी हुई ।
तुम्हारे भीतर
एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार
एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश
और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार
एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए
तुम्हारी देह नहीं गई बेकार
एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा
रोशनी दिखी इधर-उधर
एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर ।
तुम्हारा प्यार
(एक पहाड़ी लोकगीत से प्रेरित)
तुम्हारा प्यार लड्डुओं का थाल है
जिसे मैं खा जाना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक लाल रूमाल है
जिसे मैं झंडे-सा फहराना चाहता हूँ
तुम्हारा प्यार एक पेड़ है
जिसकी हरी ओट से मैं तारॊं को देखता हूँ
तुम्हारा प्यार एक झील है
जहाँ मैं तैरता हूँ और डूब रहता हूँ
तुम्हारा प्यार पूरा गाँव है
जहाँ मैं होता हूँ ।
बची हुई जगहें
रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की किस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था उसका याद न रहना भूल गया
माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं खुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नही है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है
चीज़ें खो जाती हैं लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बांध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है मेरा शहर एक खालीपन है
घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन जहां वे जगहें बनी रहती हैं जहां वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलतीं हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गया हैं और हमने क्या खो दिया है।
माँगना
जब भी खुद पर निगाह डालता हूँ
पलक झपकते ही माँ स्मृति में लौट आती है
मैं याद करता हूँ कि उसने मुझे जन्म दिया था
कभी-कभी लगता है वह मुझे लगातार जनमती रही
पिता ने मुझ पर पैसे लुटाये और कहा
शहरों में भटकते हुए तुम कहीं घर की सुध लेना भूल न जाओ
दादा ने पिता को नसीहत दी
जैसा हुनरमंद मैंने तुम्हें बनाया उसी तरह अपने बेटे को भी बनाओ
दोस्तों ने मेरी पीठ थपथपायी
मुझे उधार दिया और कहा उधार प्रेम की कैंची नहीं हुआ करती
जिससे मैंने प्रेम किया
उसने कहा मेरी छाया में तुम जितनी देर रह पाओ
उतना ही तुम मनुष्य बन सकोगे
किताबों ने कहा हमें पढ़ो
ताकि तुम्हारे भीतर ची़जों को बदलने की बेचैनी पैदा हो सके
कुछ अजीबो़गरीब है जीवन का हाल
वह अब भी जगह-जगह भटकता है और दस्तक देता है
माँगता रहता है अपने लिए
कभी जन्म कभी पैसे कभी हुनर कभी उधार
कभी प्रेम कभी बेचैनी।
नये युग में शत्रु
अंततः हमारा शत्रु भी एक नये युग में प्रवेश करता है
अपने जूतों कपड़ों और मोबाइलों के साथ
वह एक सदी का दरवाज़ा खटखटाता है
और उसके तहख़ाने में चला जाता है
जो इस सदी और सहस्राब्दी के भविष्य की ही तरह अज्ञात है
वह जीत कर आया है और जानता है कि अभी पूरी तरह नहीं जीता है
उसकी लड़ाइयां बची हुई हैं
हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहां भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊंची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें
वह अपने को कंप्यूटरों टेलीविजनों मोबाइलों
आइपैडों की जटिल आंतों के भीतर फैला देता है
किसी महंगी गाड़ी के भीतर उसकी छाया नज़र आती है
लेकिन वहां पहुंचने पर दिखता है वह वहां नहीं है
बल्कि किसी दूसरी और ज़्यादा नयी गाड़ी में बैठ कर चल दिया है
कभी लगता है वह किसी फ़ैशन परेड में शिरक़त कर रहा है
लेकिन वहां सिर्फ़ बनियानों और जांघियों का ढेर दिखाई देता है
हम सोचते हैं शायद वह किसी ग़रीब के घर पर हमला करने चला गया है
लेकिन वह वहां से भी जा चुका है
वहां एक परिवार अपनी ग़रीबी में से झांकता हुआ टेलीविजन देख रहा
जिस पर एक रंगीन कार्यक्रम आ रहा है
हमारे शत्रु के पास बहुत से फोन नंबर हैं ढेरों मोबाइल
वह लोगों को सूचना देता है आप जीत गये हैं
एक विशाल प्रतियोगिता में आपका नाम निकल आया है
आप बहुत सारा कर्ज़ ले सकते हैं बहुत सा सामान ख़रीद सकते हैं
एक अकल्पनीय उपहार आपका इंतज़ार कर रहा है
लेकिन पलट कर फोन करने पर कुछ नहीं सुनाई देता
हमारा शत्रु कभी हमसे नहीं मिलता सामने नहीं आता
हमें ललकारता नहीं
हालांकि उसके आने-जाने की आहट हमेशा बनी रहती है
कभी-कभी उसका संदेश आता है कि अब कहीं शत्रु नहीं है
हम सब एक दूसरे के मित्र हैं
आपसी मतभेद भुलाकर
आइए हम एक ही थाली में खायें एक ही प्याले से पियें
वसुधैव कुटुंबकम् हमारा विश्वास है
धन्यवाद और शुभरात्रि।
नुकीली चीज़ें
(हिन्दी कवि असद ज़ैदी और चेक कवि लुडविक कुंडेरा के प्रति आभार सहित)
तमाम नुकीली चीज़ों को छिपा देना चाहिए
कांटों-कीलों को वहीं दफ्न कर देना चाहिए जहाँ वे हैं
जो कुछ चुभता हो या चुभने वाला हो
उसे तत्काल निकाल देना चाहिए
जो चीज़ें अपनी जगहों से बाहर निकली हुई हैं
उन्हें समेट कर अपनी जगह कर देना चाहिए
फूलों को कांटों के बीच नहीं खिलना चाहिए
धारदार ची़जें सि़र्फ सब्जी और फल काटने के लिए होनी चाहिए
उन्हें उस स्त्री के हाथ में होना चाहिए
जो एक छोटी सी जगह में धुएं में घिरी कुछ बुनियादी कामों में उलझी है
या उस डॉक्टर के हाथ में होना चाहिए
जो ऑपरेशन की मेज पर तन्मयता से झुका हुआ है
तलवारों बंदू़कों और पिस्तौलों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए
खिलौना निर्माताओं से कह दिया जाना चाहिए
कि वे खिलौने को पिस्तौल में न बदलें
प्रतिशोध हिंसा हत्या और ऐसे ही समानार्थी शब्द
शब्दकोशों से हमेशा के लिए बाहर कर दिये जाने चाहिए
जैसा कि हिंदी का एक कवि असद ज़ैदी कहता है
पसलियों में छुरे घोंपनेवालों को उन्हें वापस खींचना चाहिए
और मरते हुए लोगों को वापस लाकर उन्हें उनकी बैठकों
और काम की जगहों में बिठाना चाहिए
हत्यारों से कहा जाना चाहिए
कि एक भी मनुष्य का मरना पूरी मनुष्यता की मृत्यु है
दुनिया को इस तरह होना चाहिए
जैसे एक चेक कवि लुडविक कुंडेरा
पहली बार मां बनने जा रही एक स्त्री को देखकर कहता है
कि पृथ्वी आश्चर्यजनक ढंग से गोल है
और अपने तमाम कांटों को झाड़ चुकी है।
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कविता में इन दिनो: मंगलेश डबराल
-ओम निश्चल
मंगलेश डबराल हिंदी के उन चुनिंदा कवियों में हैं जिनकी कविताओं में जीवन के उल्लास के स्थान पर नागरिक जीवन की विफलताएं निराशाएं व्यंजित होती हैं। ‘पहाड़ पर लालटेन’ शीर्षक कविता संग्रह से उन्होंने कविता की दुनिया में प्रवेश किया था। रणवीर सिंह विष्ट के बनाए निरलंकृत आवरण के साथ संग्रह की अंतर्वस्तु से जीवन के जद्दोजहद की झलक मिलती थी। मंगलेश डबराल ने कविता में कभी नैरेटिव को जरूरत से ज्यादा तरजीह नहीं दी जैसा उनके समकालीन विष्णु खरे देते आए हैं। बल्कि कम से कम में बात को कह देने की कला में मंगलेश डबराल को महारत है। उनकी कविता के सांचे में कभी इतनी रद्दोबदल नहीं दीख पड़ी कि उसे उनकी कविता यात्रा में एक नई विशिष्टता या मोड़ के रूप में चिहनित किया जाए। बल्कि उनकी कविताएं इतनी सुगठित और मार्मिक लगती हैं कि वे आम आदमी की पीड़ा का काव्यात्मक आख्यान बन कर सामने आती हैं।
अपने दूसरे संग्रह ‘घर का रास्ता’ में वे कहते हैं, ‘’मैं भूल नहीं जाना चाहता था घर का रास्ता।‘’ लेकिन उनकी कविताओं से यह लगता है कि छूट गयी अतीत की दुनिया ने उनके कवि चित्त पर गहरा असर डाला है। ‘हम जो देखते हैं’ और ‘आवाज भी एक जगह है’ की कविताओं में वे राजनीतिक सत्ताओं के निरंकुश व्यवहार और ताकत के बलबूते मनुष्यता को पराजित करने वाली शक्तियों को संशय की दृष्टि से देखते हैं। मंगलेश डबराल दूर से राजनीतिक कवि नहीं लगते पर उनकी कविताओं में राजनीति के गिरते मूल्यों के प्रति एक बारीक चिंता नजर आती है। विचारधारा उनकी कविताओं की अस्थिमज्जा में ऐसे रची बसी दिखती है जैसे फूल में सुगंध। विचारधारा की कीमत पर वे कविता के क्राफ्ट से समझौता नहीं करते बल्कि वे यह समझते हैं कि कविता अपनी अंतर्वस्तु की सघनता और कथ्य की मार्मिकता के कारण ही महान बनती है केवल विचारधारा की शक्ति के कारण नहीं। बहुत प्रतीक्षा के बाद उनका नया संग्रह ‘ नए युग में शत्रु’ हाल ही में आया है जो उत्तर भूमंडलीकरण के पश्चात विश्व और भारत में होते परिवर्तनों, आक्रामक प्रभावों को अपनी सूक्ष्म काव्यात्मक आंखों से निहारता है। नए अर्थतंत्र और तकनीक व पूँजी के गठजोड़ से नव्य भव्य होती भौतिक दुनिया में आम आदमी किस कदर अकेला हुआ है, किस तरह वह कर्ज के मोहक जाल में बिंधा है, किसान आत्महत्याओं के मोड़ पर खड़े हैं, मंगलेश की कविताएं इस निर्मम होती दुनिया का बारीक जायज़ा लेती हैं।
‘लेखनी’ की इस लेखमाला के अंतर्गत नंद किशोर आचार्य, अरुण कमल, वर्तिका नंदा, भगवत रावत, विनोद कुमार शुक्ल, ओम भारती, प्रतापराव कदम, संजय कुंदन, तजिन्दर सिंह लूथरा, पुष्पिता अवस्थी, ज्ञानेन्द्रपति, नरेश सक्सेना, अशोक वाजपेयी, एकांत श्रीवास्तव,सवाईसिंह शेखावत, सविता भार्गव व लीलाधर जगूड़ी,प्रभात त्रिपाठी,अरुण देव, सविता सिंह, ज्योति चावला और पवन करण के बाद हाल ही में प्रकाशित मंगलेश डबराल के कविता संग्रह ‘’ नए युग में शत्रु” पर डॉ.ओम निश्चल का आलेख।
कविता संग्रह
अपने भीतर की नमी को छुओ
ओम निश्चल
कवि: मंगलेश डबराल,
प्रकाशक: राधाकृष्ण प्रकाशन
7/31, अंसारी रोड, दरियागंज,
नई दिल्ली-110002
मूल्य: 195 रुपये
अपने भीतर की नमी को छुओ
एक लंबी प्रतीक्षा के बाद आया मंगलेश डबराल का संग्रह ‘नये युग में शत्रु’ इस बात से प्रथमद्रष्ट्या आश्वस्त करता है कि वे कविता की क्रीज पर यथावत् टिके ही नहीं हैं बल्कि वे उसे अनुभव और संवेदना की नई जलवायु से समृद्ध भी कर रहे हैं। ‘आवाज़ भी एक जगह है’ के बाद समय काफी बदला है। बाजार के घटाटोप और बहुराष्ट्रीय निगमों की आक्रामक पैठ ने हमारी चेतना को ढँक लिया है; सत्ता और अर्थव्यवस्था आम आदमी की नियति बदल पाने में निरुपाय दिखती है, उनकी दिलचस्पी अमीर होते जाते लोगों में है। ताकत और तकनीक के गठजोड़ ने इस दुनिया को नई तरह से अपनी गिरफ्त में लिया है। हर हाथ में इलेक्ट्रानिक गजेट्स की उपलब्धता ने संपर्क की त्वरित सुविधा के बावजूद जिस तरह का आभासी समाज रचा है उसने एक-दूसरे को अजनबी-सा बना दिया है। दुनिया अपने में खोई और मशगूल दिखती है। पारंपरिक बैंकों के दिन लद गए हैं। वे हाशिए में हैं तथा नई चाल और तकनीक के बैंक परिदृश्य पर छा गए हैं, जो कर्ज की चार्वाक परंपरा के सूत्रधार-से दिखते हैं और कर्ज-अदायगी में विफल रहने वाले किसानों को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं। आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है, न केवल ध्वस्त होती पारिस्थितिकी ने जीवन के लिए जरूरी प्राणवायु पर संकट पैदा किए हैं बल्कि भाषा में भी आक्सीजन लगातार घट रही है। राजनीति ने सांप्रदायिकता और धार्मिकता की बेल को सतत सींचने और संवधित करने का काम किया है। ऐसे में नये युग में शत्रु कवि की उस विक्षुब्ध मन:स्थिति की ओर इशारा करता है जो इसी क्रूर, अमानवीय और पूँजीवादी होते समय की फलश्रुति है।
हालांकि मंगलेश डबराल की कविता किसी राजनैतिक पाठ के लिए अनिवार्य रूप से प्रतिश्रुत नहीं दिखती तथापि उनकी तमाम कविताएं राजनीतिक पाठ के आलोक में पढी जा सकती हैं। ‘पृथ्वी का रफूगर’ में देवीप्रसाद मिश्र ने अपने बाबा पर लिखी कविता में लिखा था, ‘उसके रहते शासक यह दावा नहीं कर सकते थे कि उन्होंने देश को ठीक से चलाया।’ मंगलेश की तमाम कविताएं व्यवस्था, राजनीति, गैर बराबरी, असंतुलित विकास और ऊपरी चाकचिक्य के नेपथ्य में बजबजाते यथार्थ से मुँह फेरे गवर्नेंस पर संयत प्रतिरोध दर्ज करती हैं। ये कविताएं केवल नए युग के शत्रुओं को ही चिह्नित नहीं करतीं बल्कि आधुनिक सभ्यता की पैकेजिंग के इस युग में कुछ ही दिनों बाद सूखी हुई पपड़ी जैसे विगलित सत्व और सत्य की खबर भी लेती हैं। मंगलेश डबराल की ये कविताएं भूमंडलीकरण की फलश्रुति, ताकत की दुनिया, आधुनिक सभ्यता के विकारों और तकनीक की शक्ल में छाते जा रहे नए युग के नए शत्रुओं के नवाचारों को कविता का मुद्दा बनाती हैं। जिस दौर में संवेदना का सबसे ज्यादा अवमूल्यन हो, कविता की जलवायु में भाषा की आक्सीजन लगातार घट रही हो, शब्दों की सांस उखड़ रही हो, ऐसे समय कवियों के लिए चुनौती-भरे होते हैं।
कितनी विडंबना है कि यह दौर नई सभ्यता के लिए चाहे जितना मुफीद हो, आदिवासियों, ग़रीबों, मजलूमों व प्राकृतिक संसाधनों के लिए संकट का समय है। अचरज नहीं, कि हमारे समय के बड़े कवियों में आज सबसे ज्यादा फिक्र पारिस्थितिकी के असंतुलन और आदिवासियों के उजड़ने को लेकर है। कुंवर नारायण अभी हाल की लिखी एक कविता में आदिवासियों की ओर से कहते हैं, ‘मुझे मेरे जंगल और वीराने दो।’ विनोद कुमार शुक्ल ने ‘कभी के बाद अभी’ में तमाम कविताएं आदिवासियों पर केंद्रित की हैं। मंगलेश भी ‘आदिवासी’ कविता में इसी चिंता के साथ सामने आते हैं। उनका मानना है, नदियां इनके लिए केवल नदियां नहीं, वाद्ययंत्र हैं, अरण्य इनका अध्यात्म नहीं, इनका घर है। पर आज हालत यह है कि इनके आसपास के पेड़ पत्रहीन नग्नगाछ में बदल गए हैं। उन्हें उनके अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है। उनके अपने कोयले और अभ्रक से दूर। वे एक बियाबान होते हरसूद और जलविहीन टिहरी की ओर धकेला जा रहे हैं। उनके वंशी और मादल संकट में हैं। कैसी विडंबना है कि जैसे ही वे मस्ती में अपनी तुरही मांदर और बांसुरी जोरों से बजाने लगते हैं, शासक उन पर बंदूकें तान देते हैं।
क्या यह आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता की ओर बढ़ती हुई दुनिया इतनी असह्य हो चली है कि आज भी ‘शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी’ है। यह दौर लुटेरों हत्यारों बमों मिसाइलों का है। कवि चिंता में यथार्थ इन दिनों इससे भी भयावह यथार्थ है जहॉं मुर्दे जीवितों से ज्यादा बोलते हुए दिखते हैं। जीवितों में वह आवाज़ ही कहॉं ? इन दिनों राजनीति जैसी है वैसी मूल्यहीन पहले कभी न थी। राजनीति कहते हुए शायद कीचड़ से भी ज्यादा गर्हित तत्व का आभास होता है। शासकों का व्यवहार अपनी प्रजा से कितना नकली हो चुका है। संवेदना की घड़ियॉं भी राजनीति की तुला पर तुलती हुई ठिठक जाती हैं। दंगे, सामूहिक मौतें, प्राकृतिक आपदाएं, नरसंहार–राजनीतिज्ञों के लिए इनके अलग अलग पाठ हो सकते हैं—पर कवियों के लिए नहीं। वह तो ‘जागै अरु रौवै’ वाले कबीर का वंशज है। ‘हमारे शासक’, ‘यथार्थ इन दिनो’, ‘नए युग में शत्रु’ आदि कविताओं से ऐसी ही आहट आती है। ‘निरंकुशा: हि कवय:’ कहते हुए प्रतिपक्ष में खड़े कवि की जैसी छवि बनती है, वैसी क्या ‘निरंकुशा: हि शासका:’ से बनती है। निरंकुश होते ही शासक अपनी संवेदना खो देता है, जबकि निरंकुश होते ही कवि सचाई का पहरुआ बन जाता है। कबीर, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल और अदम गोंडवी ऐसे ही निरंकुश कवियों में हैं जो किसी सत्ता की चाबी से नहीं चलते, अपनी चाल और राह खुद बनाते हैं। मंगलेश का कवि इसी चाल और राह का कवि है—अपने संयत, संतप्त और अप्रतिहत स्वरों में गुलामों, गुलामी, शासकों की निरंकुशता,प्रबंधन, तकनीक व बाजार की चाबी से चलने वाले मनुष्य की निरीहता को पहचानता हुआ।
मंगलेश डबराल का यह पांचवा संग्रह है। फिर भी कविता लिखते हुए उन्हें किराना घराने के गायक अब्दुल करीम खां की बात याद आते ही हाथ सहसा रुक जाता है जिन्होंने सातों सुर साध लेने के बारे में पूछे गए अपने शागिर्द के एक सवाल पर कहा था बेटा अभी तो केवल पंचम को थोड़ा समझ पाया हूँ और अब इस उम्र में भला क्या कर पाऊँगा। कविता सच्ची साधना मांगती है। यह किसी त्रिकाल संध्या की फसल नहीं है जिसे आज लोग फेसबुक पर आठो पहर टॉंक रहे हैं। शब्दों के इस मेले में सच्ची कविता तो आज भी कहीं ठिठकी हुई है। उसे आज भी सच्चा कवि अपने करघे पर किसी एकांत में बुन रहा है। जिस तरह की शक्ति संपन्नों की यह दुनिया बन रही है, आम आदमी फिर एक बार मुहावरा बन रहा है। उस अदृश्य रुपक को भुनाने की लगातार कोशिशें चल रही हैं। वह आम आदमी जिसके लिए कभी उमाकांत मालवीय ने लिखा था, जनता की भूमिका यही जूठन से भात कुछ बिने। ऐसे समय मंगलेश जैसा कवि यही कामना करता है कि ‘सोने से पहले मैं कहता हूँ/ नींद मुझे दो एक ठीक-ठाक स्वप्न(सोने से पहले) और स्पर्श की लुप्त होती चेतना पर कहता है: ‘ अपने भीतर जाओ और एक नमी को छुओ/देखो वह बची हुई है या नहीं इस निर्मम समय में’ तथा भूमंडलीकरण की खुशी से लबरेज़ मनुष्यों से कटाक्ष में कहता है: जब तुम बहुत कम मनुष्य रह जाओगे/ तो इस खेल के अंत में तुम्हें मिलेगा एक बड़ा-सा पुरस्कार।'(भूमंडलीकरण) हालांकि यहां नमी के पहले ‘एक’ जोड़ने से कुछ खटकता-सा प्रतीत होता है।
मंगलेश के यहां मनुष्यता को लगातार दुर्बल बनाती हुई सांप्रदायिकता, हिंसा और उसे एक यांत्रिक और परोपजीवी बनाती हुई ताकतों के प्रति गहरा विक्षोभ है। ‘गुजरात के मृतक का बयान’ अपने समय की चर्चित मार्मिक कविता यहां है तो ‘अंजार’, ‘भूलने के विरुद्ध’, ‘पशु पक्षी कीट पतंग’ और ‘राक्षसो क्या तुम भी’। ‘शहर के एकालाप’ तो जैसे शहरी सभ्यता के बजबजाते नेपथ्य का अनावरण है। इससे पहले के और इस संग्रह में भी कई कविताएं कवियों कलाकारों पर हैं, करुणानिधान, शमशेर, मुक्तिबोध, मोहन थपलियाल, असद जैदी आदि को लेकर तथा कुछ कविताएं संगीत पर, रागों पर भी उपनिबद्ध हैं जिनमें मंगलेश डबराल की गहरी दिलचस्पियां रही हैं। इस संग्रह में खुशी का पाठ, जीवन का पाठ और प्रेम का पाठ जैसी कविताएं भी हैं पर सर्वाधिक ध्यातव्य ‘दुख का पाठ’ है जो किसी कविता का शीर्षक-भर नहीं है, बल्कि वह सारी कविताओं की अस्थि-मज्जा में द्रष्टव्य है और एक कविता संयोग से ‘रोने की जगह’ पर भी है। किसी शायर ने कहा था, ‘घर की तामीर चाहे जैसी हो/इसमें रोने की एक जगह रखना।’ आधुनिकता और तकनीक के इस चाकचिक्य में रोने की जगहें अब भला कहां बची हैं, ‘ए रूम आफ वन्स ओन’ तक नहीं; ऐसे में कविताएं ही हैं जो रोते हुए व्यक्ति के आंसू पोछती हैं उन्हें रोने का भी एक सही ठिकाना उपलबध कराती हैं।
मंगलेश डबराल की ये कविताऍं लोकतंत्र की विफलता का पाठ भी निर्मित करती हैं जहॉं जीवन और खुशियां कम हैं, आपदाएं ज्यादा हैं। उनकी ही एक कविता को रूपक के रूप में स्मरण करते हुए कहें तो ‘खुशी कैसा दुर्भाग्य !’ और ‘ताकत की दुनिया’ में तो वे जिस अपरिग्रह की मिसाल सामने रखते हैं, वह निरंतर पूँजीवादी और जमाखोर होती दुनिया पर एक तमाचा है। उनकी कविता के सॉंचे में कोई ज्यादा तब्दीली भले नहीं आई हो पर कठिन और दुर्वह होते समय के साथ उनकी कविताओं का यथार्थ उत्तरोत्तर गाढ़ा और सॉवला हुआ है। तभी तो वे कहते हैं: ‘यथार्थ इन दिनों बहुत ज्यादा यथार्थ है।’ यह ‘वह जो यथार्थ था’ से बहुत आगे का कवि-समय है।
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डॉ.ओम निश्चल
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