सोच और संस्कारों की सांझी धरोहर
” तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!
मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी
कल्याण कलित इस मग के।
-जयशंकर प्रसाद
~ सृजन ~
अंक 87-वर्ष 8
मंथनः गोवर्धन यादव। परिचर्चाः डा.वी.रमापद्मजा। विमर्षः अज्ञेय। शब्द चित्रः शैल अग्रवाल। कहानी धरोहरः जयशंकर प्रसाद। कहानी समकालीनः इन्दिरा वासवानी/ अनुवाद: देवी नागरानी । कहानी समकालीनः गोवर्धन यादव। धारावाहिकः शैल अग्रवाल। यत्र तत्र सर्वत्रः हरिहर झा। हास्य-व्यंग्यः राघवेन्द्र अवस्थी। संस्मरणः रूपसिंह चन्देल। समीक्षाः डॉ बच्चन पाठक ‘सलिल’। चांद परियाँ और तितलीः बाल कहानीः शैल अग्रवाल।
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मंथन
प्रतीक-कविता में नए अर्थ भरता है -गोवर्धन यादव
(1)प्रतीक का अर्थ है” चिन्ह” किसी मूर्त के द्वारा अमूर्त की पहचान. यह अभिव्यक्ति का बहुत सशक्त माध्यम है. अमूर्त का मूर्तन अर्थात जो वस्तु हमारे सामने नहीं है, उसका प्रत्यक्षीकरण प्रतीकों के माध्यम से होता है. मनुष्य अपने सूक्ष्म चिंतन को अभिव्यक्त करते समय इन प्रतीकों का सहारा लेता है. इस तरह ““मनुष्य का समस्त जीवन प्रतीकों से परिपूर्ण है.
(२)अथवा-किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ठ चिन्ह को प्रतीक कहते हैं, जो संबंध सादृष्य या परम्परा द्वारा किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है. उदाहरण- एक लाल कोण, अष्टकोण (औकटागौन), रुकिए( स्टाप) का प्रतीक हो सकता है. सभी भाषाओं में प्रतीक होते है, व्यक्तिनाम, व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीक होते हैं.
प्रयोगवाद के अनन्त समर्थक अज्ञेय ने अपने चिंतन से कविता को नयी दिशा दी. उन्होंने परम्परागत प्रतीकों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शब्दों मे नया अर्थ भरने की बात की. उनकी वैचारिकता से बाद के अशिकांश कवियो ने दिशा ली.और कविताओं में नए रंग भरने लगे. (इससे पूर्व महादेवी वर्मा ने अपनी कविता में “दीपक” को प्रतीक बनाया और एक नए चिंतन, नए आयाम, नए क्षितिज रचे थे.
प्रयोगवाद के के अनन्य समर्थक अज्ञेय की एक छोटी से कविता की बानगी देखिए
उड गई चिडिया
कांपी
स्थिर हो गई पाती
चिडिया का उडना और पत्ती का कांपकर स्थिर हो जाना बाहरी जगत की वस्तुएँ है. परन्तु कवि इस बात को कहना नहीं चाहता. वह इसके माध्यम से कुछ और ही कहना चाहता है. जैसे- किसी के बिछुडने पर मन के आंगन में मची हलचल, बैचेनी, घबराहट, असुरक्षा का भाव आदि का होना. फ़िर मन की हलचलों के शांत हो जाने के बाद की प्रतिक्रिया को वे बाहरी वस्तु जगत की वस्तुयों को लेकर एक प्रतीक रचते हैं.
यथार्थ के धरातल पर यदि हम चीजों को देखें तो लगता है कि कहीं जडता सी आ गयी है. हमारी अनुभूतियां, संवेदनाएं, यदि यथार्थपरक भाषा में संप्रेषित हो रही हैं, तो सपाटबयानी सा लगता है. दरअसल हम जो कहना चाहते हैं वह पूरी तरह से संप्रेषित नहीं हो पा रहा है…कुछ आधा-अधूरा सा लगता है. यदि वही बात हम “प्रतीक” के माध्यम से कहते हैं तो वह उस बात को नए अर्थों में खोलता सा नजर आता है. दूसरे शब्दों में कहें कि मनुष्य अपने सूक्ष्म चिंतन को अभिव्यक्त करते समय प्रतीकों का सहारा लेता है. इस तरह मनुष्य का समस्त जीवन प्रतीकों से परिपूर्ण है. और वह प्रतीकों के माध्यम से ही अपनी बात को सोचता है. वैसे भी भाषा के प्रत्येक शब्द किसी न किसी वस्तु का प्रतीक-चिन्ह ही होते हैं. सामान्य शब्द का अर्थ जब तक वह सार्थक एवं प्रचलित रहता है- विभिन्न व्यक्तियों एवं विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न हो जाता है. “प्रतीक” की विवेचना करते हुए डा. नगेन्द्र कहते हैं कि, ”प्रतीक” एक प्रकार से रुढ उपमान का ही दूसरा नाम है, जब उपमान स्वतंत्र न रहकर पदार्थ विशेष के लिए रुढ हो जाता है तो “प्रतीक” बन जाता है. इस प्रकार प्रत्येक प्रतीक अपने मूल रुप में उपमान होता है. धीरे-धीरे उसका बिम्ब-रुप संचरणशील न रहकर स्थिर या अचल हो जाता है. डा. नामवरसिंहजी भी मानते हैं कि, बिम्ब पुनरावृत्त होकर “प्रतीक” बन जाता है.
उदाहरण स्वरुप= प्रयोगवाद के अनन्य समर्थक अज्ञेय की की एक कविता “सदानीरा” सादर प्रस्तुत है.
“सबने भी अलग-अलग संगीत सुना
इसको वह कृपा वाक्य था प्रभुओं का
उसको आतंक/मुक्ति का आश्वासन
इसको/वह भारी तिजोरी में सोने की खनक
उसे/बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सौंधी खुशबु
किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल ध्वनि
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी
एक किसी जाल-फ़ांसी मछली की तडपन
एक ऊपर को चहक मुक्त नभ में उडती चिडिया की
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल,ग्राहकों की अस्पर्धा भरी व
चौथे को मंदिर की ताल युक्त घंटा-ध्वनि
और पांचवे को लोहे पर- सधे हथौडॆ की सम चोंटें,
और छटे की लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक
बटिया पर चमरौंधों की संघी चाप सातवें के लिए
और आठवें की कुलिया की कटी मेंड से बहते जल की
इसे नमक…की एडी के घुंघरु की
उसे युद्ध का ढोल
इस संझा गोधूली कर लघु-चुन-दुन
उसे प्रलय का डमरुवाद
इसको जीवन की पहली अंगडाई
असाध्य वीणा में बिम्ब और प्रतीकों की जो गहन गहराती ध्वनि है वह बाद की कविता में दुर्लभ होती गई है.. इस देश की पूरी परम्परा और रीति-रिवाजों का और इस देश के भूभाग का विस्तृत अध्ययन अगर आपको करना हो तो यह कविता आपको वह सब बतला सकती है, जो बडॆ-बडॆ साहित्यकारों, इतिहासकारों और नृत्तत्वशास्त्रियों के बस का नहीं है,.देश केवल भौगोलिक मानचित्र पर बना देश नहीं होता, वह उस देश के असंख्य जीव-जंतुओं का भी होता है.
अज्ञेय की एक नहीं बल्कि अनेक कविताएं–मसलन-रहस्यवाद, समाधिलेख, हमने पौधे से कहा, देना जीवन, जितना तुम्हारा सच है, हम कृती नहीं है, मैंने देखा एक बूंद, नए कवि से, दोनो सच है, कविता की बात, पक्षधर, इतिहास बोध, आदि कविताएं हैं, जिनमें दर्शन या विचार अनुभूति की बिम्बभाषा में पूरी तरह आत्मसात हो जाते हैं.
अज्ञेय की एक कविता “कलगी बाजरे की’ की बानगी देखिए
“अगर मैं तुमको ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता
या शरद के भोर की नीहर-न्हायी-कुंई
टटकी कली चम्पे की वगैरह तो
नही कारण कि मेरा हृदय उथलाया कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है
बल्कि केवल यही
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है.
(२) नदी के द्वीप
हम नदी के द्वीप हैं
हम नहीं कहते कि हमको छॊडकर स्त्रोतस्विनी बह जाए
वह हमें आकार देती है
हमारे कों,गलियाँ, अंतरीप,उभार,सैंकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढी हैं
माँ है वह ! है उसे से हम बने हैं……मातः उसे फ़िर संस्कार तुम देना
यह पूरी कविता बिम्बों और प्रतीकों से सम्प्रेषित कविता है… एक विचार है. इससे पहले हिन्दी में एक रुढ मान्यता यह रही है कि आधुनिक काव्यभाषा बिम्बधर्मा होती है और वक्तव्य उससे अकाव्यात्मक चीज है, लेकिन नई कविता के शीर्ष कवि और सिद्धांतकार अज्ञेय ने महज इस कविता में ही नहीं बल्कि अपनी अनेक कविताओं में प्रतीक-बिम्ब और वक्तव्य की परस्पर अपवर्ज्यता को अमान्य किया है. कई दौरों में लिखी गई कविताएँ=जैसे= रहस्यवाद, समाधि-लेख, सत्य तो बहुत मिले, हमने पौधे से कहा, देना जीवन, अकवि के प्रति कवि, हम कृती नहीं है, मैंने देखा एक बूंद ,नए कवि से, चक्रांत-शिला, पक्षधर, कविता की बात आदि कविताओं में निःसन्देह कुछ ऎसी कविताएं है, जिनमे दर्शन, अनुभूति की बिम्बभाषा अपनी संपूर्णता के साथ समाए हुए हैं.
अपनी विचार-कविता (भवन्ती-१९७२) में वे लिखते हैं
“विचार कविता की जड में खोखल यह है कि विचार चेतन क्रिया है जबकि कविता की प्रक्रिया चेतन और अवचेतन का योग है, जिसमें अवचेतन अंश अधिक है और अधिक महत्वपूर्ण है……”विचार कविता” का समर्थक यह कहे कि उसमें एक स्तर रचना सर्जना का है, साथ ही दूसरा स्तर है जिसमें कल्पना से प्राप्त प्राक-रुपों बिम्बों में चेतन आयास से वस्तु या अर्थ भरा गया है, तो वह उस प्रकार की कविता को अलग से पहचानने में योगदान देगी, पर यह आपत्ति बनी रहेगी कि यह दूसरा स्तर तर्क-बुद्धि का स्तर है, रचना का नहीं. अर्थात “विचार कविता” कविता नहीं, कविता विचार है और ऎसी है तो उसकी “कविता” पर विचार करने के लिए “उसके विचार” को अलग देना होगा या [रसंगेतर मान लेना होगा.”
देश और प्रदेश के ख्यातिलब्ध कवि श्री चन्द्रकांत देवतालेजी ने जातीय जीवन में व्याप्त क्रूरता और निरंकुशता को महसुस करके लिखी गई कविता “उजाड में संग्रहालय” की अन्तिम कविता का शीर्षक है=”यहाँ अश्वमेघ यज्ञ हो रहा है”. आज के घटित यथार्थ से मुठभेड की कविता. इसमें अश्वमेघ का घोडा और घण्टाघर की सार्वजनिक घडी “प्रतीक” बनकर वातावरण और ज्यादा तनावपूर्ण बनाते हैं. बरसों पहले मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” भी एक शोभा यात्रा का वृतांत आया था, यहाँ भी है
जिस शोभा यात्रा में पिछलग्गुओं की भीड थी कित्ती
उसी का तो उत्तरकाण्ड इस महापंडाल में
नहीं,नहीं इस महादेश में भी
हर तरफ़ “अंधेरे में” का उत्तरकाण्ड
तब तो बस एक था डॊमाजी उस्ताद
अब तो देखो जिसे वही वही वही…
हर दूसरा काजल के बोगदे में
तीसरा तस्कर मंत्र-जाप करता
चौथा आग रखने को आतुर बारुद के ढेर पर
और पहला कौन है क्या सत्तासीन अथवा बिचौलिया
बिका हुआ सज्जन
पाँचवा-छठा-सातवां फ़िर गिनती के बूते के बाहर संख्या में
शामिल होते हैं अन्दर जाते हैं—बाहर जाते हैं
पवित्र गन्ध से आच्छादित है नगर का आकाश
जिसका नगर कोई नहीं जानता
यहाँ अश्वमेघ यज्ञ हो रहा है (पृ.१५०)
विश्व विख्यात कवि श्री विष्णु खरे की एक कविता सिलसिला (“सब की आवाज के पर्दे में” संग्रह से)
कहीं कोई तरतीब नहीं
वह जो एक बुझता हुआ सा कोयला है
फ़ूँकते हुए रहना है उसे
हर बार राख उडने से
जिससे भौंहे नहीं आँख को बचाना है
वह थोडा दमकेगा
जलकर छॊटा होता जाएगा
लेकिन कोई चारा नहीं फ़ूँकते रहने के सिवा
ताकि जब न बचे साँस
फ़िर भी वह कुछ देर तक सुलगे
उस पर उभर आई राख को
यकबारगी अंदेशा हो लम्हा भर तुम्हारी साँस का
अंगारे को एक पल उम्मीद बँधे फ़िर दमकने की
इतना अंतराल काफ़ी है
कि अप्रत्याशित कोई दूसरी साँस जारी रखे यह सिलसिला
इस कविता में कोयला एक प्रतीक है. उसमें धधकती आग को जलाए रखना जरुरी है ताकि उस पर रोटियाँ सेकी जा सके. देश में व्याप्त गरीबी-मुफ़लिसी-बेहाली-तंगहाली को बयां करती यह कविता अन्दर तक उद्वेलित कर देती है.
विश्व विख्यात कवि श्री लीलाधर मंडलोई की कविता की बानगी देखिए
पहले
माँ चाँवल में से कंकर बीनती थी
अब
कंकड में से चाँवल बीनती है.
यहाँ कंकड गरीबी का और चाँवल अमीरी का प्रतीक है. घर में जहां कभी सम्पन्नता थी, अब वहाँ गरीबी का ताण्डव है. दोनो ही परिस्थितियों को उजागर करती यह कविता आत्मा को हिलाकर रख देती है.
अपनी कविताओं में प्रतीक का उपयोग करने श्री अरुणचंद्र राय की एक कविता की बानगी देखिए.
“शर्ट की जेब/होती थी भारी/ सारा भार सहती थी/ कील अकेले
नए बिम्बों के प्रयोग में संदर्भ में इस कविता को देखें. उन्होंने कील को प्रतीक के रुप में लिया है. कील का विशिष्ठ प्रयोग यहां एक मानवीय संवेदना की प्रतिमुर्ति बनकर सजीव हो उठी है. जड-बेजान कील यहां कील न रहकर सस्वर हो जाती है.- एक नए अर्थ से भर उठती है. अपनी अर्थवत्ता से विविध मानसिक अवस्थाओं –आशाओं, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मृति, पीडा व विषाद आदि के मार्मिक चित्र उकेरती है.
कविता को पढते ही एक चित्र हमारी आंखों के सामने थिरकने लगता है. कील पर जो पिता की कमीज टंगी है, उस टंगी कमीज में निश्चित ही जेब भी होगी. और जेब है तो उसमें पैसे भी होंगे. वे कितने हो सकते है, कितने नहीं, इसे बालक नहीं जानता. संभव है वह खाली भी हो सकती है लेकिन उसके मन में एक आशा बंधती है कि जेब में रखे पैसों से चाकलेट खरीदी जा सकती है, पतंग खरीदी जा सकती है. और कोई खिलौना भी लिया जा सकता है. यह एक नहीं अनेक संवेदनाओं को एक साथ जगाता है. लेकिन बच्चा नहीं जानता कि उस जेब के मालिक अर्थात पिता को कितनी मुश्किलों का सामना करना पडा होगा, अनेक कष्टॊ को सहकर उसने कुछ रकम जुटाई होगी और तब जाकर कहीं चूल्हा जला होगा और तब जाकर कहीं वह अपने परिवार का उत्तरदायित्व संभाल पाया होगा.
अपने आशय को साफ़ और सपाट रुप में प्रस्तुत करने के बजाय कवि ने सांकेतिक रुप से उस मर्म को, बात की गंभीरता.को मूर्त जगत से अमूर्त भावनाओं को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया है.
शाश्वत सत्य की व्यंजना प्रस्तुत करना हो तो वह केवल और केवल प्रतीकों के माध्यम से की जा सकती है. ऎसा किए जाने से अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्तरीयता की संभावनाएं बढ जाती है
शंकरानन्द का कविता संग्रह “दूसरे दिन के लिए” एक नए तरह के प्रतीक और बिम्ब के जरिए प्रभावित कर देने वाला काव्य-लोक है. छोटी-छॊटी कविताएं अपने विन्यास में भले ही छोटी जान पडॆ, पर अपनी प्रकृति में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ, चेतना को स्पर्ष करती है और बेचैन भी. बानगी देखिए
माँ चुल्हा जलाकर बनाती है रोटी
या छौंकती है तरकारी
कुछ भी करती है कि
उसमें गिर जाता है पलस्तर का टुकडा
फ़िर अन्न चबाया नहीं जाता
पलस्तर एक दुश्मन है तो
उसे झाड देना चाहिए
मिटा देना चाहिए उसे पूरी तरह
डा रामनिवास मानव की काव्य रचनाओं में, वे कविता, दोहा, द्विपदी, त्रिपदी, हायकू आदि में से चाहे किसी भी विधा की क्यों न हो, प्रतीकों का सुदृढ एवं सार्थक प्रयोग करते हैं. प्रतीकों के माध्यम से वे ऎसा बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, जिनमे यथार्थ हो, प्रतिभासित हो ही जाता है. पाठक की कल्पना भी अपना क्षेत्र विस्तृत करने के लिए विवश हो जाता है. उनकी एक जानदार कविता है-“शहर के बीच”. इसकी बानगी देखिए
जब भी निकलती है बाहर
कोई चिडिया घोंसले से
बाज के खूनी पंजे
दबोच लेते हैं उसे.
यहां बाज और चिडिया का प्रयोग बहुआयामी है. बाज-प्रशासक, शोषक या आतंकवादी कोई भी हो सकता है. चिडिता- जनता शोषित या आतंकवाद का शिकार, कुछ भी हो सकता है.
इनकी काव्य रचना में दिन-रात, घटा-बिजली, बाघ-भेडिये, बन्दर-भालू, कौवे-बगुले, गिद्द-गिरगिट, फ़ूल-कांटे अदि न जाने कितने प्रतीक आते है और पूरी अर्थवत्ता के साथ आते हैं.
एक बानगी देखिए- कौवे,बगुले,गिद्द यहाँ हैं/ सारे साधक सिद्ध यहाँ है
डा. मानव की एक और रचना देखिए जिसमें प्रेमचंदजी का गाँव है. गाँव है तो उसमे होरी है, गोबर है. गरीबी है, मुफ़लिसी है, अभाव है, भूख है, मजबूरियां है. इतनी सारी बातें मात्र तीन लाइन मे कवि अपने अन्तरमन की बात,- अपने मन की पीडा कम से कम शब्दों में “प्रतीकों” के माध्यम से कह जाता है.
प्रेमचंद के गाँव मे
भाग्य खिचता डोरियाँ
पडी है आज भी बेडियाँ
होरी तडपे भूख से
है होरी के पाँव में
गोबर ढोता बोरियाँ
देश में नेताओ, दलालों, अफ़सरों आदि के कारनामे और व्ववस्था में आई गिरावट और विसंगतियों को देखकर वे लिखते हैं
(1) धूर्त भेडिये/ और रंगे सियार/करते राज
(२) भालू के बाद बन्दर की बारी है तभी देश समूचा /लगे जंगल राज / राजनीति के मंच पर घटिया प्रदर्शन जारी है.
मंगलेश डबराल की एक कविता (स्मृति से साभार)
रात भर हम देखते हैं
पत्थरों के नीचे
पानी के छलछला का स्वप्न
यहाँ पत्थर कठोरता, पानी का छलछलाना करुणा का प्रतीक है.
श्रीकांत वर्मा “हस्तिनापुर” से साभार
संभव हो
तो सोचो
हस्तिनापुर के बारे में
जिसके लिए
थोडॆ-थोडॆ अंतराल में
लडा जा रहा है महाभारत.
(यहाँ हस्तिनापुर प्रतीक है सत्ता का)
मंगलेश डबराल की एक कविता की बानगी देखिए.
मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाईट में होते हैं
हमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी।
एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दो
पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैं
दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की जरूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस खामोश रहे देर तक।
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक
इसमें टार्च केवल एक प्रतीक भर है, लेकिन इसके भीतर से कितने कोलाज बनते हैं और एक नया अर्थ यहां देखने को मिलता है,
(२)
चाहे जैसी भी हवा हो /यदि हमें जलानी है अपनी आग/ जैसा भी वक्त हो/ इसी में खोजनी है अपनी हँसी/ जब बादल नहीं होंगे/ खूब तारे होंगे आसमान में / उन्हें देखते हम याद करेंगे/ अपना रास्ता.
यहाँ हवा परिस्थितियों की प्रतीक है, आग क्रांति की और बादल परेशानियों का.
गोवर्धन यादव की एक कविता (शेरशाह सूरी के घोडॆ से साभार)
पत्र पाते ही खिल जाता है
उसका मुरझाया चेहरा
और बहने लगती है एक नदी हरहराकर
उसके भीतर.
(इसमे पत्र प्रतीक है जो उजाड और नीरस जीवन में खुशियां लाते है और जिनके आते ही वह प्रसन्नता से भर उठती है
(२)
मेरे अन्तस में बहती है एक नदी
ताप्ती
जिसे मैं महसूसता हूँ अपने भीतर
जिसका शीतल, पवित्र और दिव्य जल
बचाए रखता है,मेरी संवेदनशीलता
खोह,कन्दराओं,जंगलों और पहाडॊं के बीच
बहती यह नदी
बुझाती है सबकी प्यास
और तारती है भवसागर से पापियों को
इसके तटबंधों में खेलते हैं असंख्य बच्चे
स्त्रियाँ नहाती हैं
और पुरुष धोता है अपनी मलीनता
इसके किनारे पनपती हैं सभ्यताएँ
और, लोकसंस्कृतियाँ लेती है आकार
लोकगीतों और लोकधुनों पर
मांद की थापों पर
टिमकी की टिमिक-टिमिक पर
थिरकता है लोकजीवन
(यहाँ नदी एक प्रतीक के रुप में आती है)
पुलिस महानिदेशक श्रीविश्वरंजनजी की एक कविता की बानगी देखिए
वह लडकी नही पूछती है
यह सब अब
उसने खुद को बचा रखा है
वह आँखें नीची रखती है
बडॆ-बुजुर्गों के आदेशानुसार
वह लडकी सचमुच बडी हो गई
हर भारतीय कस्बे की लडकी की तरह
बहुत अंदर से हार गई है.
(२) आसमान से बाजारी शमशीर
खतरनाक तरीके से
काट रही थी हवा को
ऊर्जारहित, शक्तिहीन,तेजस्वितारहित
वह एक भारी झूठ-सा गडा रहा दलदल में
आदिम बलि के लिए/ बाजार की मार झेलने के लिए/वह बेचारा आदमी
(३) मैं जानता हूँ बहुत गरीबी है / और मैं जानता हूँ बहुत मुफ़लिसी है, यहाँ दर्द है,तडपन है..
चलो बाहों में बाहें डाल अपने अपने न बोले जाने वाले सत्यों और अनुभूतियों के/ साथ घूम आयें क्षितिजों से पार
डा.बलदेव कि कविता की एक बानगी
पॆड
छायादार, पेडॊं की संख्या में एक पेड और
बच्चा पूछ रहा- माँ कहाँ है ?
वृक्ष में तब्दील हो गयी, औरत के बारे में
मैं क्या कहूँ, कैसे कहूँ, वह कहाँ है
युवा कवि रोहित रुसिया की कविता की एक बानगी
सहेज लेना चाहता हूँ
अपने पिता की तस्वीर के साथ
थोडा सा धान और कुछ गेहूँ की बालियाँ
कि भरपूर हाईब्रीड के जमाने भी
मेरी आने वाली पीढियाँ महसूस कर सकें
अपनी जडॊं की महक
जब मिलेंगे हम दोनो
किसी ने कुछ भी नहीं कहा
तुम आयीं, बहने लगा झरना
तुम मुस्कुरायीं
खिल गए सारे फ़ूल
मैं चुपचाप महसूस करता रहा
वसन्त अपने भीतर
उपरोक्त कविताओं के माध्यम से हमने देखा की “प्रतीक” के माध्यम से हम अपने आशय को साफ़- सपाट रुप में प्रस्तुत करने की जगह सिर्फ़ सांकेतिक रुप में अर्थ की व्यंजना करते हैं तो हमारे कहन में अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्तरीयता बढ जाती है और साथ ही कविता का सौंदर्य भी. बस यहाँ ध्यान दिए जाने की जरुरत है कि कि कविता की विशिष्ट लय बाधित नहीं होनी चाहिए.
संपर्क-
103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.) 480001 09424356400
संयोजक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,
जिला इकाई,छिन्दवाडा (म.प्र.)
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विमर्ष
कला का स्वभाव और उद्देश्य -अज्ञेय
एक बार एक मित्र ने अचानक मुझसे प्रश्न किया-’कला क्या है?’
मैं किसी बड़े प्रश्न के लिए तैयार न था। होता भी, तो भी इस प्रश्न को सुन कर कुछ देर सोचना स्वाभाविक होता। इसीलिए जब मैंने प्रश्न के समाप्त होते-न-होते अपने को उत्तर देते पाया, तब मैं स्वयं कुछ चौंक गया। मुझे अच्छा भी लगा कि मैं इतनी आसानी से इस युग-युगान्तर के मसले पर फतवा दे गया।
पीछे लाज आयी। तब बैठकर सोचने लगा, क्या मैंने ठीक कहा था?
क्रमश: सोचना आरम्भ किया; कला के विषय में जो कुछ एक अस्पष्ट और अर्धचेतन विचार अथवा धारणाएँ मेरे मन में थीं, जिनसे मैं अनजाने ही शासित होता रहा था और कला सम्बन्धी विवादों के वातावरण में रहकर भी आश्वस्त भाव से कार्य कर सका था, वे विचार और धारणाएँ चेतन मन के तल पर आयीं; एकाधिक कोणों से जाँची गयीं। आज मैं दुबारा उस दिन कही हुई बात को कह सकता हूँ-कुछ हिचक के साथ, लेकिन फिर भी अनाश्वस्त भाव से नहीं। कुछ इस भावना से कि यह एक प्रयोगात्मक स्थापना है-सम्पूर्ण सत्य इसमें नहीं होगा, लेकिन इसकी अवधारणा सत्य के अन्वेषण और पर्यवेक्षण पर हुई है, अत: उसकी अ-सम्पूर्णता भी वैज्ञानिक है।
पहले सूत्र, फिर व्याख्या यह भारत की शास्त्रीय प्रणाली है। इसी के अनुकूल चलते हुए पहले सूत्र रूप से अपनी स्थापना उपस्थित की जाए। परिभाषा वह नहीं है, लेकिन परिभाषा उसमें निहित है, और व्याख्या में लक्ष्य हो सकेगी।
कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह-है।
इस स्थापना की परीक्षा करने के पहले कल्पना के आकाश में एक उड़ान भरी जाए। आइए, हम उस अवस्था की परिकल्पना करने का यत्न करें जिसमें पहली-पहली कलात्मक चेष्टा हुई-जिसमें कला का जन्म हुआ।
काव्य-कला के बारे में आपने वाल्मीकि की कथा सुनी है-क्रौंच-वध से फूटे हुए कविता के अजस्र निर्झर की बात आप अवश्य जानते हैं। वह कहानी सुन्दर है, और उसके द्वारा कविता के स्वभाव की ओर जो संकेत होता है-कि कविता मानव की आत्मा के आत्र्त-चीत्कार का सार्थक रूप है-उसकी कई व्याख्याएँ की जा सकती और की गयी हैं। लेकिन हम इसे एक सुन्दर कल्पना से अधिक कुछ नहीं मानते। बल्कि हम कहेंगे कि हम इससेअधिक कुछ मानना चाहते ही नहीं। क्योंकि हम यह नहीं मानना चाहते कि कविता ने प्रकट होने के लिए इतनी देर तक प्रतीक्षा की! वाल्मीकि का रामचन्द्र का काल, और अयोध्या जैसी नगरी का काल, भारतीय संस्कृति के चरमोत्कर्ष का काल चाहे न भी रहा हो, यह स्पष्ट है कि संस्कृति की एक पर्याप्त विकसित अवस्था का काल था, और हम यह नहीं मान सकते-नहीं मानना चाहते-कि मौलिक ललित कलाओं में से कोई एक भी ऐसी थी जो इतने समय तक प्रकट हुए बिना ही रह गयी थी।
अतएव हम जिस अवस्था की कल्पना करना चाहते हैं, वह वाल्मीकि से बहुत पहले की अवस्था है। वैज्ञानिक मुहावरे की शरण लेकर कहें कि वह नागरिक सभ्यता से पहले की अवस्था होनी चाहिए, वह खेतिहर सभ्यता से और चरवाहा (nomadic) सभ्यता से भी पहले की अवस्था होनी चाहिए-वह अवस्था जब मानव करारों में कन्दराएँ खोदकर रहता था, और घास-पात या कभी पत्थर या ताँबे के फरसों से आखेट करके मांस खाता था।
उस समय के मानव-समाज-(उस प्रकार के यूथ को ‘समाज’ कहना हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन ‘समाज’ का मूल-रूप यही विस्तारित कुटुम्ब रहा होगा) की कल्पना कीजिए और कल्पना कीजिए उस समाज के एक ऐसे प्राणी की, जो युवावस्था में ही किसी कारण-सर्दी खा जाने से, या पेड़ पर से गिर जाने से, या आखेटक में चोट लग जाने से-किसी तरह कमजोर हो गया है।
समाज के प्रत्येक व्यक्ति का समाज के प्रति कुछ दायित्व होता है। समाज जितना ही कम विकसित हो, उतना ही वह दायित्व अधिक स्पष्ट और अनिवार्य होता है-अविकसित समाज में विकल्प की गुंजाइश कम रहती है। इसी बात को यों भी कहा जा सकता है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति का एक निश्चित धर्म (function) होता है, और जितना ही समाज अविकसित होता है, उतना ही वह धर्म रूढ़ और अनिवार्य। इसलिए, जहाँ आज के समाज में व्यक्ति स्कूल भी जा सकता है और बाजार या नाचघर या खेत पर भी, वहाँ हमारी कल्पित अवस्था में नित्यप्रति समाज के सभी सदस्य सबसे पहले अपने-अपने अस्त्र लेकर खाद्य सामग्री की खोज में निकलते होंगे। फिर वे आवश्यकतानुसार खोह बनाते या साफ करते होंगे, इत्यादि। इस धर्म में रुचि-वैचित्र्य के कारण कोई अदल-बदल भी हो सकता है, यह उनकी कल्पना के बाहर की बात होगी।
स्पष्ट है कि हमने जिस ‘किसी कारण कमजोर’ व्यक्ति की कल्पना की है, वह अपने समाज का यह धर्म निभा न सकता होगा। अतएव सामाजिक दृष्टि से उसका अस्तित्व अर्थ-हीन होता होगा। कौटुम्बिक स्नेह, मोह या ऐक्य-भावना के कारण कोई उस व्यक्ति को कुछ कहता न भी हो, तो भी मूक करुणा का भाव, और उसके पीछे छिपा हुआ उस व्यक्ति के जीवन की व्यर्थता का ज्ञान, समाज के प्रत्येक सदस्य के मन में होता ही होगा।
और क्या स्वयं उस व्यक्ति को इसका तीखा अनुभव न होता होगा? क्या बिना बताये भी वह इस बोध से तड़पता न होगा कि वह अपात्र है, किसी तरह घटिया है, क्षुद्र है? क्या उसका मुँह इससे छोटा न होता होगा और इस अकिंचनता के प्रति विद्रोह न करता होगा?
यहाँ तक उसकी अनुभूति की बात है, और आशा की जा सकती है कि आपको वह कल्पना अग्राह्य नहीं होगी। अब तनिक सोचा जाए कि यह अनुभूति उसे प्रेरणा क्या देगी-किस कार्य की मूल प्रेरणा बनेगी।
यह कहना कठिन है कि इस अपर्याप्तता के ज्ञान से एक ही प्रकार की प्रेरणा मिल सकती है। यह वास्तव में व्यक्ति के आत्मबल पर निर्भर करता है कि उसमें क्या प्रतिक्रिया होती है। वह आत्महत्या भी कर सकता है और शत्रु से लडऩे जाने का विराट प्रयत्न भी कर सकता है। लेकिन सब सम्भाव्य प्रतिकियाओं की जाँच यहाँ अप्रासंगिक होगी। हम ऐसे ही व्यक्ति को सामने रखें, जिसमें इतना आत्मबल है कि इस ज्ञान की प्रतिक्रिया रचनात्मक (positive) हो, न कि आत्म-नाशक।
ऐसे व्यक्ति के अहं का विद्रोह अनिवार्य रूप से सिद्धि की सार्थकता के Justification की खोज करेगा। वह चाहेगा कि यदि वह समाज का साधारण धर्म निबाहने में असमर्थ है, तो वह विशेष धर्म की सृष्टि करे, यदि समाज के रूढिग़त जीवन के अनुरूप नहीं चल सकता है तो उस जीवन को ही एक नया अवयव दे जिसके ताल पर वह चले।
यह चाहना शायद चेतन नहीं होगी, तर्कना द्वारा सिद्ध करके नहीं पायी गयी होगी। सिद्धि की इच्छा अहं का तर्क द्वारा निर्धारित किया हुआ धर्म नहीं है, वह उसका मौलिक स्वभाव है। अतएव यह चाहना तर्कना के तल पर न आने से भी कमजोर नहीं हुई होगी, बल्कि अधिक दुर्निवार ही होगी-वैसे ही जैसे समुद्र की सतह की छालियों से कहीं अधिक दुर्निवार प्रवाह नीचे की धाराओं (Currents) में होता है।
तो इस चाहना द्वारा अज्ञात-रूप से प्रेरित होकर-वैसे ही, जैसे कस्तूरी-मृग अपने ही गन्ध द्वारा उन्मादित होता है-व्यक्ति क्या करेगा? अपना-अपना धर्म संपादित करते हुए व्यक्तियों से घिरे हुए अपर्याप्तता के बोध के उस निविड़ अकेलेपन में, वह किसी तरह अपने मर्म की रक्षा करता होगा?
हमारी कल्पना देखती है कि जब उस समाज के समर्थ और बलिष्ठ अहेरी अपने-अपने अस्त्र सँभालते हैं, तब वे पाते हैं, उनके अस्त्रों के हत्थों पर शिकार की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, जिनमें अपनी सामथ्र्य का प्रतिबिम्ब देखकर उनकी छाती फूल उठती है; कि जब वे दल बाँध कर खोहों से बाहर निकलते हैं, तब शिकार के रण नाद और घमासान के तुमुल स्वर न जाने कैसे एक ही कंठ के आलाप में रणरंगित हो उठते हैं, कि जब वे लदे हुए कन्धों पर थके और श्रमसिंचित मुँह लटकाए खोहों की ओर लौटते हैं तब पाते हैं कि खोहों का मार्ग पत्थर की बुकनी से आँकी गयी फूल-पत्तियों से सजा हुआ है; कि जब वे दाम्पत्य जीवन की द्विगुणित एकान्तता में प्रवेश करते हैं तब सहसा पाते हैं कि उस जीवन की चरमावस्था सहचरी के वक्ष पर किसी फल के रस से गोद दी गयी है!
तब वे विस्मय से भरकर कहते हैं, ‘अमुक है तो बिचारा, लेकिन उसके हाथ में हुनर है।’
हमारे कल्पित ‘कमजोर’ प्राणी ने हमारे कल्पित समाज के जीवन में भाग लेना कठिन पाकर, अपनी अनुपयोगिता की अनुभूति से आहत होकर, अपने विद्रोह द्वारा उस जीवन का क्षेत्र विकसित कर दिया है-उसे एक नई उपयोगिता सिखायी है-सौन्दर्य-बोध! पहला कलाकार ऐसा ही प्राणी रहा होगा, पहली कलाचेष्टा ऐसा ही विद्रोह रही होगी, फिर चाहे वह रेखाओं द्वारा प्रकट हुआ हो, चाहे वाणी द्वारा, चाहे ताल द्वारा चाहे मिट्टी के लोंदों द्वारा।
कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न-अपर्याप्त के विरुद्ध विद्रोह-है।
(2)
यहाँ पाठक कह सकता है, कल्पना तो अच्छी है, लेकिन जो स्थापना उसके सहारे की गयी है वह कोई निश्चित अर्थ नहीं रखती। क्योंकि ‘समाज’ से क्या मतलब? और अपर्याप्तता का क्या अभिप्राय? मान लीजिए कि व्यक्ति रहता ही है अकेला, उसके आस-पास कोई और व्यक्ति या व्यक्तियों का समुदाय है ही नहीं, तब क्या वह कलाकार हो ही नहीं सकता? और आधुनिक युग में, जब समाज का संगठन ऐसा है कि ‘कमजोर’ व्यक्ति भी पद या धन की सत्ता के कारण समर्थ हो सकता है, तब अपर्याप्तता का अनुभव कैसा?
‘समाज’ से अभिप्राय है वह परिवृत्ति जिसके साथ व्यक्ति किसी प्रकार अपनापन महसूस करे। वह मानव-समाज का एक अंश भी हो सकती है, और मानव-समाज की परिधि से बाहर बढक़र पशु-पक्षियों (जीव-मात्र) को भी घोर सकती है; बल्कि (चरमावस्था में) मानव-समाज को छोडक़र पशु-पक्षियों और पेड़-पत्तों तक ही रह जा सकती है। समाज की इयत्ता अन्ततोगत्वा समाजत्व की भावना पर ही आश्रित है। यदि किसी कारण हम अपनी परिवृत्ति से सामाजिक सम्बन्ध नहीं महसूस करते तो वह हमारा समाज नही हैं, यदि किसी दूसरी परिवृत्ति से वैसा सम्बन्ध मानते हैं, तो वह हमारा समाज है। इस सम्बन्ध की अनुभूति के कारणों का विश्लेषण यहाँ प्रासंगिक नहीं है।
‘अपर्याप्तता’ का आधुनिक अर्थ भी इसी प्रकार समझना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति धन की, या पद की, या किसी दूसरी सत्ता के कारण अपने को अपने अहं के सामने प्रमाणित कर लेता है, तो अपर्याप्तता की भावना उसमें नहीं होगी, न उसके विरुद्ध विद्रोह करने की ललकार ही उसे मिलेगी। अन्तत: कन्दरावासी कलाकार और आधुनिक कलाकार में कोई विशेष भेद नहीं रहता; दोनों ही में एक अपर्याप्तता चीत्कार करती है। यह अनिवार्य नहीं है कि उसके ज्ञान से सदा कला-वस्तु ही उत्पन्न हो, वह परास्त भी कर सकती है परन्तु उससे हमारी यह स्थापना झूठी नहीं होती कि प्रत्येक कला-चेष्टा की जड़ में एक अपर्याप्तता की भावना काम कर रही होती है।
पाठक की इन प्रारम्भिक शंकाओं के शान्त हो जाने पर अन्य शंकाएँ खड़ी होंगी-पाठक के मन में नहीं तो स्वयं कलाकार के मन में। हमारा साहित्यकार शायद जोर-शोर से इस स्थापना का खंडन करेगा, क्योंकि इससे उसकी ‘कमजोर’, उसकी अपूर्णता अथवा हीनता ध्वनित होती समझी जा सकती है। लेकिन इसे इस दृष्टि से देखना उसकी भूल होगी। एक तो इसलिए, कि यह वास्तविक अपूर्णता नहीं, यह एक विश्ेाष दिशा में असमर्थता है। समाज का साधारण जीवन जिस दिशा में जाता है, जिन लीकों में चलता है, उन दिशाओं और उप लीकों में चलने की असमर्थता तो इससे ध्वनित होती ही है, लेकिन क्या यही वास्तव में अपूर्णता या हीनता (Inferiority) है? नहीं। समाज के साधारण जीवन में अपना स्थान न पाकर तो वह प्रेरित होता है कि वह स्थान बनाये; अतएव पुरानी लीकों पर चलने की असामथ्र्य ही नई लीकें बनाने की सामथ्र्य को प्रोत्साहन देती हैं। दूसरे यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि लेखकों में-बल्कि साधारणतया कलाकार समुदाय में, जो एक विशेष प्रकार की असहिष्णुता, अहम्मन्यता, एक दुर्विनीत श्रेष्ठता की भावना दीखा करती है, वह भी एक आत्म-रक्षा का कवच है-किसी मौलिक अपूर्णता या अपर्याप्तता के ज्ञान को अपने अहं के आगे से हटा देने की चेष्टा है। जो पाठक या लेखक आधुनिक मनोविज्ञान की स्थापनाओं से परिचित हैं वे जानेंगे कि इस प्रकार की क्षतिपूरक क्रियाएँ मानव-जीवन में कितना महत्त्व रखती हैं।
(3)
उपर्युक्त अवधारणा एक प्रकार की कल्पना ही है। फिर भी वह उससे कुछ अधिक है। उससे हम एक स्थापना पर पहुँचते हैं और वह कला की परिभाषा न भी करे तो उसके स्वभाव की कुछ व्याख्या अवश्य करती है। लेकिन कोई भी व्याख्या सार्थक नहीं है; फलवती नहीं है यदि वह विषय को स्पष्ट करने के अतिरिक्त कुछ प्रदर्शन नहीं करती, निर्देश नहीं करती। क्या हमारी व्याख्या इस दृष्टि से कुछ अर्थ रखती है?
हमारा अनुमान है कि ‘यदि कला कैसे उत्पन्न होती है?’ इस प्रश्न का हमारा दिया हुआ उत्तर ठीक है, तब ‘कला किसलिए है?’ इस प्रश्न का उत्तर भी इसी में निहित होना चाहिए। क्षणभर जाँच करके देखें, तो हम पाएँगे कि यह अनुमान गलत नहीं है, अर्थात इस कसौटी पर हमारी परिभाषा खरी उतरती है। कस्मै देवाय हविषा विधेम, का समुचित उत्तर हमें इस परिभाषा से मिल जाता है।
हमने कहा कि कला एक अपर्याप्तता की भावना के प्रति व्यक्ति का विद्रोह है। इसका अभिप्राय क्या है? कला सम्पूर्णता की ओर जाने का प्रयास है, व्यक्ति की अपने को सिद्ध प्रमाणित करने की चेष्टा है। अर्थात वह अन्तत: एक प्रकार का आत्मदान है, जिसके द्वारा व्यक्ति का अहं अपने का अक्षुण्ण रखना चाहता है, सामाजिक उपादेयता यद्यपि भौतिक उपादेयता से श्रेष्ठ ढंग की उपादेयता का अनुभव करना चाहता है। अतएव अपनी सृष्टि के प्रति कलाकार में एक दायित्व भाव रहता है-अपनी चेतना के गूढ़तम स्वर में वह स्वयं अपना आलोचक बनकर जाँचता रहता है कि जो उसके विद्रोह का फल है, जो समाज को उसकी देन है, वह क्या सचमुच इतना अन्त्यन्तिक मूल्य रखती है कि उसे प्रमाणित कर सके, सिद्धि दे सके? इस प्रकार कलावस्तु-रचना का-एक नैतिक मूल्यांकन निरन्तर होता रहता है। इस क्रिया को हम यों भी कह सकते हैं कि ‘सच्ची कला कभी भी अनैतिक नहीं हो सकती’ और यों भी कह सकते हैं कि ‘प्रत्येक शुद्ध कला-चेष्टा में अनिवार्य रूप से एक नैतिक उद्देश्य निहित है’ अथवा ‘सच्चौ कलावस्तु अन्तत: एक नैतिक मान्यता (Ethical value) पर आश्रित है, एक नैतिक मूल्य रखती है।’ हाँ यह ध्यान दिला देना आवश्यक होगा कि हम एक श्रेष्ठतर नीति (Ethics) की बात कह रहे हैं, निरी नैतिकता (Morality) की नहीं।
यह एक पक्ष है कि कला समाज के द्वारा समाज के इस या उस अंग के लिए नहीं है, पर उद्देश्यहीन सौन्दर्यपासना, निरा उच्छ्वास भी नहीं है, एक नैतिक उद्देश्य से अन्त:सलित है।
किन्तु यह एक पक्ष ही है। दूसरा पक्ष भी एक है। ऊपर कहा गया है कि कला एक प्रकार का आत्मदान है, जिसके द्वारा व्यक्ति का अहं अपने को सिद्ध प्रमाणित करना चाहता है। अगर इस वाक्य के पूर्वार्ध पर आग्रह था, अब उसके उत्तरार्ध पर विचार किया जाए। ‘आत्मदान’ अहं को ही पुष्ट करने के लिए है, क्योंकि अहं को छोटा करके व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं रह सकता, बल्कि शायद जी भी नहीं सकता। इस प्रकार कलाकार का आत्मदान केवल एक नैतिक मान्यता के लिए ही नहीं होता, सच्चे अर्थ में ‘स्वान्त:सुखाय’ भी होता है, और वह सुख अपनी सिद्धि पा लेने का, समाज को उसके बीच रहे होने का प्रतिदान दे देने का सुख है। ‘कला कला के लिए’ झूठ नहीं है, वह अत्यन्त सत्य है, लेकिन एक विशेष अर्थ में। यदि ‘कला कला के लिए’ का अर्थ है, निरे ‘सौन्दर्य’ की खोज-किन्हीं विशेष सिद्धान्तों के द्वारा एक रसायनिक सौन्दर्य की उपलब्धि, तब वह कला और कलाकार को कोई भी सुख नहीं दे सकती-न आत्मदान का न आत्मबोध का, वह कला वन्ध्या है।
कला के इस दुहरे उत्तरदायित्व को समझ कर ही अपने कलाकार अपने और अपने समाज और यदि उसकी आत्मा इतनी विशाल है कि ‘समाज’ के अन्तर्गत समूचे मौलिक जगत को खींच सकती है, तब वह अपने संसार के सम्बन्ध को फलप्रद बना सकता है, सिद्ध हो सकता है, अर्थात सच्चा कलाकार हो सकता है।
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शब्द चित्र–शैल अग्रवाल
एक निजी समझ – कोई जोड़ नहीं असलियत से। वही देखतीं जो मन चाहे। …
प्यारः
मन के अंधेरों में दबा नन्हा बीज – जो रोशनी में आते ही, फलते-फूलते ही, नजर पड़ते ही टूटेगा; रूपरंग और स्वाद के लिए तो कभी बस यूँ ही कौतूहल या ईर्षावश्। …
मनः (1)
पंक्षी नहीं , पर गलत होगा कहना कि उड़ता नहीं। असलियत तो यह है कि उड़ना आता ही नहीं इसे; स्वप्न के पंखों को भी तो आखिर साहस का आकाश चाहिए। ….
मनः (2 )
कबाड़ाना- प्रिय अप्रिय यादें मीत और शत्रुओं की, टूटे फूटे अहसास और अन्तहीन खट्टी-मीठी बातों की संचित निधिः जो खो चुका, खोएगा या फिर खोना निश्चित, उसे ही सहेजने और संभालने की बेवजह जिद पर जिद।…
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कहानी धरोहर
गुंडा-जयशंकर प्रसाद
वह पचास वर्ष से ऊपर था | तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था| चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं| वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था | उसकी चढ़ी हुई मूंछ बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों के आँखों में चुभती थीं | उसका सांवला रंग सांप की तरह चिकना और चमकीला था | उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमी किनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता | कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीप की मूंठ का बिछुआ खुंसा रहता था| उसके घुंघराले बालों पर सुनहरे पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता | ऊंचे कंधे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गंड़ासा, यह थी उसकी धज ! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं | वह गुण्डा था |
ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में वही काशी नहीं रह गई थी, जिसमे उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे | गौतम बुद्ध और शंकराचार्य के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्रायः बंद हो गए थे | यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उस विश्रृंखलता में नवागंतुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देख कर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था | उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विछिन्न और निराश नागरिक जीवन ने; एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की | वीरता जिसका धर्म था, अपनी बात बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा मांगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वंदी पर शस्त्र न उठाना, सताए निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिए घूमना, उसका बाना था | उन्हें लोग काशी में ‘गुण्डा’ कहते थे |
जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वंचित होकर जैसे प्रायः लोग विरक्त हो जाते हैं ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित ज़मींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुण्डा हो गया था | दोनों हाथों से उसने अपनी संपत्ति लुटाई | नन्हकूसिंह ने बहुत सा रुपया खर्च करके जैसा स्वांग खेला था, उसे काशीवाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके |वसंत ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छश्रृंखलता की आवश्यकता होती थी | एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आंख में काजल, एक कान में हज़ारों के मोती तथा दूसरे कान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक में जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करनेवाली प्रेमिका के कंधे पर रखकर गाया था- “कही बैंगनवाली मिले तो बुला देना|”
प्रायः बनारस के बाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था | कभी-कभी जुआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रंगीली वेश्याएं मुस्कुराकर उसका स्वागत करतीं और दृढ़ शरीर को सस्पृह देखतीं | वह तमोली की ही दुकान पर बैठकर उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाता था | जुए की जीत का रुपया मुट्ठियों में भर-भरकर, उनकी खिड़की में वह इस तरह उछालता कि कभी-कभी समाजी लोग अपना सर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हंस देता | जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता |
वह अभी वंशी के जुआखाने से निकला था | आज उसकी कौड़ी ने साथ न दिया | सोलह परियों के नृत्य में उसका मन न लगा | मन्नू तमोली की दुकान पर बैठे हुए उसने कहा-”आज सायत अच्छी नहीं रही, मन्नू|”
“क्यों मालिक! चिंता किस बात की है | हमलोग किस दिन के लिए हैं | सब आप ही का तो है |”
“अरे बुद्धू ही रहे तुम ! नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर जुआ खेलने लगे उसी दिन समझना वह मर गए | तुम समझे नहीं कि मैं जुआ खेलने कब जाता हूँ? जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता; उसी दिन नाल पर बहुंचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दांव आता भी है | बाबा कीनाराम का यह वरदान है|”
“तब आज क्यों मालिक?”
“पहला दांव तो आया ही, फिर दो-चार हाथ बदने पर सब निकल गया | तब भी लो, यह पांच रुपये बचे हैं | एक रुपया तो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे | हाँ, वही एक गीत-“विलमी विदेश रहे|”
नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गांजे की चिलम पर रखने के लिए अंगारा चूर कर रहा था, घबराकर उठ खड़ा हुआ | वह सीढ़ियों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया | चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी; पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ | उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ति न भूली थी, जब इसी पान की दुकान पर जुएखाने से जीता हुआ, रुपये से भरा तोड़ा लिए वह बैठा था | दूर से बोधीसिंह की बारात का बाजा बजता हुआ आ रहा था | नन्हकू ने पूछा-”यह किसकी बारात है?”
“ठाकुर बोधीसिंह के लड़के की|” – मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के होंठ फड़कने लगे | उसने कहा-”मन्नू! यह नहीं हो सकता | आज इधर से बारात न जाएगी | बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से ले जा सकेंगे |”
मन्नू ने कहा-”तब मालिक, मैं क्या करूं?”
नन्हकू गंड़ासा कंधे पर से और ऊंचा करके मलूकी से बोला-”मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे, कि बाबू नन्हकूसिंह आज यहीं लगाने के लिए खड़े हैं | समझकर आवें, लड़के की बारात है|” मलुकिया कांपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया | बोधीसिंह और नन्हकू में पांच वर्ष से सामना नहीं हुआ है | किसी दिन नाल पर कुछ बातों में कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था | फिर सामना नहीं हो सका | आज नन्हकू जान पर खेलकर अकेले खड़ा है | बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे | उन्होंने मलूकी से कहा-”जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबूसाहब वहां खड़े हैं | जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है |” बोधीसिंह लौट गए और मलूकी के कंधे पर तोड़ा लादकर बाजे के आगे के आगे नन्हकूसिंह बारात लेकर गए | ब्याह में जो कुछ लगा, खर्च किया | ब्याह कराकर तब, दूसरे दिन इसी दुकान तक आकर रुक गए | लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया |
मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन | फिर नन्हकूसिंह की बात सुनकर बैठे रहना और यम को न्योता देना एक ही बात थी | उसने जाकर दुलारी से कहा- ”हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर आता है |” “बाप रे, कोई आफत आई है क्या बाबू साहब? सलाम |” -कहकर दुलारी ने खिड़की से मुस्कराकर झाँका था कि नन्हकूसिंह उसके सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आनेवाले को देखने लगे |
हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुंह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफ़ेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी; छकलिया अंगरखा और साथ में लैंसदार परतवाले दो सिपाही | कोई मौलवी साहब हैं | नन्हकू हंस पड़ा | नन्हकू की ओर बिना देखे ही मौलवी ने एक सिपाही से कहा-”जाओ,दुलारी से कह दो कि आज रेजीडेंट साहब की कोठी पर मुजरा करना होगा, अभी चले, देखो तब तक हम जानअली से कुछ इत्र ले रहे हैं |” सिपाही सीढ़ी चढ़ रहा था और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि नन्हकू ने ललकार कर कहा- ”दुलारी! हम कब तक यहाँ बैठे रहें | क्या अभी सरंगिया नहीं आया?”
दुलारी ने कहा-”वाह बाबूसाहब ! आपही के लिए तो मैं यहाँ आ बैठी हूँ, सुनिए न | आप तो कभी ऊपर…” मौलवी जल उठा | उसने कड़ककर कहा_”चोबदार! अभी वह सूअर की बच्ची उतरी नहीं | जाओ, कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहो कि मौलवी अलाउद्दीन कुबरा ने बुलाया है | आकर उसकी मरम्मत करें | देखता हूँ तो जब से नवाबी गई, इन काफ़िरों की मस्ती बढ़ गई है |”
कुबरा मौलवी! बाप रे-तमोली अपनी दुकान सँभालने लगा | पास ही एक दुकान पर बैठकर ऊंघता हुआ बजाज चौंककर सर में चोट खा गया | इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से साढ़े-तीन सेर चींटी के सर का तेल माँगा था | मौलवी अलाउद्दीन कुबरा ! बाज़ार में हलचल मच गई | नन्हकूसिंह ने मन्नू से कहा-”क्यों चुपचाप बैठोगे नहीं |” दुलारी से कहा-वहीँ से बाई जी! इधर-उधर हिलने का काम नहीं | तुम गाओ | हमने ऐसे घसियारे बहुत से देखे हैं | अभी कल रमल के पासे फेंककर अधेला-अधेला मांगता था, आज चला है रोब गांठने |”
अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देखकर कहा-”कौन है यह पाजी!”
“तुम्हारे चाचा बाबू नन्हकूसिंह!”- के साथ ही पूरा बनारसी झापड़ पड़ा | कुबरा का सर घूम गया | लैस के परतले वाले सिपाही दूसरी ओर भाग चले और मौलवी साहब चौंधियाकर जानअली की दुकान पर लड़खड़ाते, गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गए | जानअली ने मौलवी से कहा-”मौलवी साहब! भला आप भी उस गुण्डे के मुंह लगने गए | यह तो कहिये उसने गंड़ासा नहीं तौल दिया |” कुबरा के मुंह से बोली नहीं निकल रही थी | उधर दुलारी गा रही थी “….विलमि रहे विदेस…” गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नहीं | तब नन्हकूसिंह धीरे-धीरे टहलता हुआ, दूसरी ओर चला गया | थोड़ी देर में एक डोली रेशमी परदे से ढंकी हुई आई | साथ में एक चोबदार था | उसने दुलारी को राजमाता पन्ना की आज्ञा सुनाई |
दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी | डोली धूल और संध्याकाल के धुंए से भरी बनारस की तंग गलियों से होकर शिवालय घाट की ओर चली |
श्रावण का अंतिम सोमवार था | राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजा कर रही थीं | दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही थी | आरती हो जाने पर,फूलों की अंजलि बिखेरकर
पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया | फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा | उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए कहा-”मैं पहले ही पहुँच जाती | क्या करूं, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर रेजीडेंट की कोठी पर ले जाने लगा | घंटों इसी झंझट में बीत गया, सरकार!”
“कुबरा मौलवी! जहाँ सुनती हूँ उसी का नाम | सुना कि उसने यहाँ भी आकर कुछ…”-फिर न जाने क्या सोचकर बात बदलते हुए पन्ना ने कहा-”हाँ, तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकी?”
“बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गए |” मैंने कहा-”सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को जाना है और यह जाने नहीं दे रहा है | उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि उसकी हेकड़ी भूल गई | और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आने की छुट्टी मिली |”
“कौन बाबू नन्हकूसिंह?”
दुलारी ने सर नीचा करके कहा- ”अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम! बाबू निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी, जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुंवर ने ही तो उस दिन हमलोगों की रक्षा की थी |”
राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया, फिर अपने को संभालकर उन्होंने पूछा- ”तो बाबू नन्हकूसिंह उधर कैसे आ गए?”
दुलारी ने मुस्कराकर सर नीचा कर लिया | दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की ज़मींदारी में रहनेवाली वेश्या की लड़की थी | उसके साथ कितनी ही बार झूले-हिंडोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी |
वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी | सुंदरी होने पर चंचल भी थी | पन्ना जब काशिराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी | राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ ही करता | महाराज बलवंतसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्यक अंग था | हाँ, अब प्रेम-दुःख और दर्द भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक रूचि न थी | अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था | राजमाता पन्ना का वैधव्य से दीप्त शांत मुखमंडल कुछ मलिन हो गया | बड़ी रानी का सापत्न्य ज्वाला बलवंतसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी | अंतःपुर कलह का रंगमंच बना रहता, इसी से प्रायः पन्ना काशी के राजमंदिर में आकर पूजापाठ में अपना मन लगाती |
रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता | नई रानी होने के कारण बलवंतसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्यथित किया करता | उसे अपने ब्याह की आरंभिक चर्चा का स्मरण हो आया |
छोटे से मंच पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्यमनस्क होकर देखने लगी | उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह लुप्त हो गई हो; सोचने का कोई कारण नहीं | उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं; परन्तु मानव स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कह बैठता है, ” कि यदि वह बात हो गयी होती तो?” ठीक उसी तरह पन्ना भी राजा बलवंतसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनाई जाने के पहले की एक सम्भावना सोचने लगी थी | सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन लेनेपर | गेंदा मुंहलगी दासी थी | वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवंतसिंह की प्रेयसी हुई | राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा मिला करता | और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी | उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिए कुछ कहना आवश्यक समझा |
“महारानी! नन्हकूसिंह अपनी सब ज़मींदारी स्वांग, भैंसों की लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर अब डाकू हो गया है | जितने खून होते हैं, सबमें उसी का हाथ रहता है| जितनी….” उसे रोककर दुलारी ने कहा-”यह झूठ है | बाबूसाहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं | कितनी विधवाएं उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढंकती हैं | कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है | कितने सताए हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है |”
रानी पन्ना के हृदय में एक तरलता उद्वेलित हुई | उन्होंने हंसकर कहा-” दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैं न ?इसी से तू उनकी बड़ाई…| ”
“नहीं सरकार! शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा |”
राजमाता न जाने क्यों इस अद्भुत व्यक्ति को समझने के लिए चंचल हो उठी थीं | तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी दृष्टि से देखा | वह चुप हो गई | पहले पहर की शहनाई बजने लगी | दुलारी छुट्टी मांगकर डोली पर बैठ गई | तब गेंदा ने कहा-”सरकार! आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी है | दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं | सैंकड़ो जगह नाल पर जुए चलने के लिए टेढ़ी भौवें कारण बन जाती हैं| उधर रेजीडेंट साहब से महाराजा की अनबन चल रही है |” राजमाता चुप रहीं |
दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेजीडेंट मार्कहेम की चिट्ठी आई, जिसमे नगर की दुर्व्यवस्था की कड़ी आलोचना थी | डाकुओं और गुंडों को पकड़ने के लिए उनपर कड़ा नियंत्रण रखने की सम्मति भी थी | कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेख था | उधर हेस्टिंग्स के आने की भी सूचना थी | शिवालय घाट और रामनगर में हलचल मच गई | कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी लोहांगी, गंड़ासा, बिछुआ और करौली देखते, उसी को ही पकड़ने लगे |
एक दिन नन्हकूसिंह सुम्भा के नाले के संगम पर, ऊंचे-से टीले की हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छान रहे थे | गंगा में उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बंधी थी | कथकों का गाना हो रहा था | चार उलांकी इक्के कसे-कसाए खड़े थे |
नन्हकूसिंह ने अकस्मात कहा- ” मलूकी! गाना जमता नहीं है | उलांकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ |” मलूकी वहां मंजीरा बजा रहा था | दौड़कर इक्के पर जा बैठा | आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ा था | बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं | एक घण्टे में दुलारी सामने आ गयी | उसने मुस्कराकर कहा-”क्या हुक्म है बाबूसाहब?”
“दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है |”
“ इस जंगल में क्यों?” उसने सशंक हंसकर कुछ अभिप्राय से पूछा |
“तुम किसी तरह का खटका न करो |”-नन्हकूसिंह ने हंसकर कहा |
“यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आई हूँ |”
“ क्या किससे ?”
“राजमाता पन्नादेवी से”- फिर उस दिन गाना नहीं जमा | दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की ऑंखें तर हो जाती हैं | गाना-बजाना समाप्त हो गया था वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था | मंदिर के समीप ही छोटे से कमरे में नन्हकूसिंह चिंता में निमग्न बैठा था | आँखों में नींद नहीं | और सबलोग तो सोने में लगे थे, दुलारी जाग रही थी | वह भी कुछ सोच रही थी| आज उसे अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल हो कर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली आई | कुछ आहट पाते ही दौड़कर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली | तब तक हंसकर दुलारी ने कहा- ”बाबूसाहब,यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवार चलायी जाती है |”
छोटे से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकर नन्हकू हंस पड़ा | उसने कहा- ”क्यों बाई जी! क्या इसी समय जाने की पड़ी है | मौलवी ने फिर बुलवाया है क्या?” दुलारी नन्हकू के पास बैठ गई |
नन्हकू ने कहा-”क्या तुमको डर लग रहा है?”
“नहीं,मैं कुछ पूछने आई हूँ |”
“क्या?”
“क्या..यही कि..कभी तुम्हारे हृदय में…”
“उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझकर तो उसे हाथ में लिए फिर रहा हूँ | कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता ! मर जाने के लिए सबकुछ तो करता हूँ पर मरने नहीं पाता |”
“मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है |आपको काशी का हाल क्या मालूम ! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाए |उलट-पलट होनेवाला है क्या, बनारस की गलियां जैसे काटने को दौड़ती हैं |”
“को नई बात इधर हुई है क्या?”
“कोई हेस्टिंग्स आया है | सुना है उसने शिवालयघाट पर तिलंगों की कंपनी का पहरा बैठा दिया है | राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीँ हैं | कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर कलकत्ता भेजने…”
“क्या पन्ना भी….रनिवास भी वहीँ है”- नन्हकू अधीर हो उठा था |
“क्यों बाबूसाहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखों में आंसू क्यों आ गए?”
सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा | उसने कहा-”चुप रहो, तुम उसको जानकर क्या करोगी?” वह उठ खड़ा हुआ | उद्विग्न की तरह न जाने क्या खोजने लगा | फिर स्थिर होकर उसने कहा-” दुलारी! जीवन में आज यह पहला ही दिन कि एकांत रात में एक स्त्री मेरे पलंग पर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार! अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैंकड़ों असत्य,अपराध करता फिर रहा हूँ | क्यों ?तुम जानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना!…किन्तु उसका क्या अपराध ! अत्याचारी बलवंतसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका | किन्तु पन्ना! उसे पकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे ! वहीं….|”
नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था | दुलारी ने देखा, नन्हकू अंधकार में ही वटवृक्ष के नीचे पहुंचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी- उसी घने अंधकार में | दुलारी का हृदय कांप उठा |
१६ अगस्त सन १७८१ को काशी डांवाडोल हो रही थी | शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेंट स्टाकर के पहरे में थे | नगर में आतंक था | दुकानें बंद थीं | घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे- ”माँ आज हलुए वाला नहीं आया | ”वह कहती- ”चुप बेटे!….” सड़कें सूनी पड़ी थीं | तिलंगों की कंपनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी आता-जाता दिखाई पड़ता था | उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बंद हो जाती थीं | भय और सन्नाटे का राज्य था | चौक में चिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बंद किए कोतवाल का अभिनय कर रही थी | उसी समय किसी ने पुकारा- ”हिम्मतसिंह!”
खिड़की में से सिर निकालकर हिम्मतसिंह ने पूछा-”कौन?”
“बाबू नन्हकूसिंह!”
“अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?”
“पागल!राजा क़ैद हो गए हैं | छोड़ दो इन सब बहादुरों को ! हम एक बार इनको लेकर शिवालयघाट जाएँ |”
“ठहरो”-कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले | नन्हकू की तलवार चमक उठी | सिपाही भीतर भागे | नन्हकू ने कहा- ” नमकहरामों चूड़ियाँ पहन लो |” लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया | कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया |
नन्हकू उन्मत्त था | उसके थोड़े से साथी उसकी आज्ञा पर जान देने के लिए तुले थे | वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध है | उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े से साथियों को फाटक पर गडबड मचाने के लिए भेज दिया | इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिड़की के नीचे धारा काटते हुआ पहुंचा | किसी तरह निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर, उस चंचल डोंगी को उसने स्थिर किया और बन्दर की तरह उछल कर खिड़की के भीतर हो रहा | उस समय वहां राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहारसिंह कह रहे थे- ”आपके यहाँ रहने से हमलोग क्या करें, यह समझ नहीं आता | पूजापाठ समाप्त करके आप रामनगर चली गयी होतीं तो यह…”
तेजस्विनी पन्ना ने कहा-”अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊं?”
मनिहारसिंह दुखी होकर बोले-”कैसे बताऊँ?मेरे सिपाही तो बंदी हैं |”
इतने में फाटक पर कोलाहल मचा | राज-परिवार अपनी मंत्रणा में डूबा था कि नन्हकूसिंह का आना उन्हें मालूम हुआ | सामने का द्वार बंद था | नन्हकूसिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा- उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी | वह प्रसन्न हो उठा | इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था | उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा- ”महारानी कहाँ हैं?”
सबने घूमकर देखा-एक अपरिचित वीर मूर्ति! शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव |
चेतसिंह ने पूछा-”तुम कौन हो?”
“राजपरिवार का एक बिना दाम का सेवक!”
पन्ना के मुंह से हलकी सी एक साँस निकलकर रह गयी | उसने पहचान लिया | इतने वर्षों बाद ! वही नन्हकूसिंह |
मनिहारसिंह ने पूछा-”तुम क्या कर सकते हो?”
“मैं मर सकता हूँ | पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए | नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं | फिर बात कीजिए |”_मनिहारसिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दारोगा एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ खिड़की से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है | उन्होंने पन्ना से कहा-”चलिए, मैं साथ चलता हूँ |”
“और….”चेतसिंह को देखकर पुत्रवत्सला ने संकेत से एक प्रश्न किया, उसका उत्तर किसी के पास न था | मनिहारसिंह ने कहा- ”तब मैं यहीं?” नन्हकू ने हंस कर कहा- ”मेरे मालिक आप नाव पर बैठें | जब तक राजा भी नाव पर न बैठ जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है |”
पन्ना ने नन्हकू को देखा | एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था | फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था | नन्हकू ने उन्मत्त हो कर कहा- ”मालिक जल्दी कीजिए |”
दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकूसिंह फाटक पर स्टॉकर के साथ | चेतराम ने आकर चिट्ठी मनिहारसिंह के हाथ में दी | लेफ्टिनेंट ने कहा-”आपके आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं | अब मैं अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता |”
“मेरे सिपाही यहाँ कहाँ है साहब?” मनिहारसिंह ने हंसकर कहा | बाहर कोलाहल बढ़ने लगा |
चेतराम ने कहा-”पहले चेतसिंह को क़ैद कीजिए|”
“कौन ऐसी हिम्मत करता है?” कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहारसिंह ने तलवार खींच ली | अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहां आ पहुंचा |यहाँ मौलवी की कलम नहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे |उन्होंने कहा- ”देखते क्या हो चेतराम?!”
चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि नन्हकू के सधे हुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी | स्टॉकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे | नन्हकू ने देखते-देखते स्टॉकर और उसके कई साथियों को धराशाई किया | फिर मौलवी साहब कैसे बचते!
नन्हकूसिंह ने कहा-”क्यों बे!! उस दिन के झापड़ ने तुमको समझाया नहीं? पाजी!” -कहकर ऐसा साफ़ जनेवा मारा कि कुबरा ढेर हो गया | कुछ ही क्षणों में यह भीषण घटना हो गई, जिसके लिए कोई प्रस्तुत न था |
नन्हकूसिंह ने ललकारकर कहा- ”आप क्या देखते हैं? उतरिये डोंगी पर!” -उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे | उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे | चेतसिंह ने खिड़की से उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है | नन्हकू के चट्टान सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारा बह रही है | गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा | वह काशी का गुण्डा था !
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सिन्धी कहानीः मूल: इन्दिरा वासवानी/ अनुवाद: देवी नागरानी
जुलूस
आज़ादी के दिन ही बाबा का सुबह सवेरे देहान्त हुआ, वैसे उसके पहले दिन उनकी तबीयत इतनी ख़राब न थी । ख़राब क्या, बिलकुल कुछ भी न था, पर अचानक ही बाबा ने आधी रात को बेचैनी महसूस की थी । दादा, ताऊ दोनों ने बिना समय गँवाए उन्हें हॉस्पिटल में दाख़िल करा दिया । ताऊ ने मारुती इतनी तेज़ चलाई कि हॉस्पिटल पहुँचने में चार मिनट से ज़्यादा न लगे । डॉक्टरों ने जाने कितने प्रयास किये, सुइयाँ लगाईं, पर बाबा को बचाने में हर कोशिश नाकामियाब रही।
ताऊ की जान-पहचान का विस्तार वैसे भी बड़ा है, दादा तो है ठंडे घड़े की तरह, धूप में रखो या छाँव में, पानी हमेशा ठंडा रहता। ताऊ ऐसे नहीं ! वक़ालत के काम में काफ़ी निपुण हैं और राजनीति के खेल में भी माहिर हो रहे हैं । वह भी जबसे सरकारी पार्टी में उनका एक ख़ास मुकाम बना है उनकी बहुत चलने लगी है ।
बाबा के देहान्त पर माँ शांत ही रही, दादा की आँखों के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे, बाक़ी ताऊ ने ख़ुद पर ज़ाब्ता रखने की भरपूर कोशिश जारी रखी ।
कितनी ग़ुरबत में दिन गुज़ारे थे । टूटी हुई चप्पल और सिलाई की हुई कमीज़ पहनकर ताऊ स्कूल जाते थे । ताऊ जितने ही पढ़ने में होशियार थे, उतने ही बात करने में भी रहे । कभी-कभी स्कूल में भी विषयों पर बहस में भागीदारी लिया करते थे । इनाम भी जीते थे, इसलिये मास्टरों का भी वह प्रिय शागिर्द बन गया था ।
एक कमरे वाला घर था जिसमें सभी रहते थे । घर के बाहर ही एक छोटी कैबिन में बाबा ज़रूरत की चीज़ें रखकर बेचते थे। माँ सुबह उठकर कभी चने, कभी मूँग तो फिर कभी चौली पकाकर उन्हें थाल में भरकर देती, जो दो-तीन घंटों में ही बिक जाते थे। उन्हीं पैसों से वह घर की ज़रूरत की चीज़े लेकर, खाने का जुगाड़ करती । ‘लाओ तो खाओ’ वाला हिसाब था, पर बाबा ने कभी दिल को मायूस होने नहीं दिया। वे दुखों को ज़िन्दगी की सुन्दरता मानते थे और कहा करते थे कि इन्सान कभी एक-सी अवस्था में नहीं रहता । यही ज़िन्दगी जो बिताई उससे वे काफ़ी संतुष्ट थे। यही कारण था कि आगे चलकर ताऊ की अच्छी कमाई के बावजूद भी वे इस एक कमरे वाले पुराने मकान को छोड़कर नए बड़े घर में जाने को तैयार न थे ।
दुख के दिन बीत गए, ताऊ सबसे आगे निकल गए । वकालत के धंधे में धन व शोहरत दोनों कमाए । अपने लिये पढ़ी-लिखी, नौकरी करती हुई लड़की ढूँढ़कर उससे ब्याह कर लिया । अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में दाख़िला दिलाई । घर की व्यवस्था सब ठीक ही चल रही थी । अपने बड़े घर में एक हिस्सा दादा और छोटे भाई को दिया। बाक़ी एक भाई पुराने एक कमरे वाले घर में ही रहा । ताऊ ने बाबा से कहा था – ‘‘अब यह कैबिन बन्द करके घर में आराम करो ।’’
बाबा ने कहा – ‘‘बेटा जब तक जिन्दा हूँ तब तक इस कैबिन से निभाऊँगा । मेरे मरने के बाद जैसे चाहो वैसे कर लेना ! कमाई के लिये धंधा नहीं करता हूँ, बस वक़्त कट जाता है । वैसे भी बड़ी उम्र में शरीर से काम लेना ही चाहिए, नहीं तो हड्डियाँ जम जाती है।’’
ताऊ के मनचाहे विषय थे हिन्दी और राजनीति, राजनीति का उन्हें शौक रहा और अच्छा अभ्यास भी करते थे । एक बार आज़ाद उम्मीदवार के तौर चुनाव में खड़े रहे । सरकारी पार्टी की तरफ़ से बहुत पैसे देकर उनका हाथ ऊपर करवाया, बाद में उसी पार्टी का सदस्य बनकर काम करते रहे । सामाजिक काम, नौकरी लेकर देना, छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाने के लिये मशहूरी भी मिली । हालाँकि शुरुवाती दौर में उसके दुश्मन भी बहुत थे । धीरे-धीरे पानी में ठहराव आते गया और उनके हिमायती बढ़ते गए ।
बाबा सुबह गुज़रे, ताऊ को झंडे की सलामी के लिये जाना ही था, पर उसके बाद एक दुकान का महूरत भी करना था । झंडे की सलामी के लिये असेम्बली मेंम्बर आने वाला था । सुबह ही उसने शास्त्री जी को अपने पिता के देहान्त की ख़बर दी थी । उसने कहा सलामी का काम पूरा करके आपके पास आऊँगा । ताऊ को पता चला कि डिप्टी मिनिस्टर भी अपने गाँव आया हुआ है । यहाँ से २५-३० मील के फासले पर ही वह गांव था । ताऊ ने उसे भी फ़ोन के द्वारा यह जानकारी दी । डिप्टी मिनिस्टर ने कहा – ‘मैं भी समय पर पहुँच जाऊँगा, फिर भी कुछ देर हो सकती है !’
‘नहीं साहब ! ऐसे कैसे होगा ! यहाँ तो बड़ा जुलूस निकलेगा, जिसका मार्गदर्शन
आपको ही करना है’ ताऊ ने जोर देते हुए कहा ।
वज़ीर साहब कुछ कह नहीं पाए । उन्हें पता था कि उस इलाके के वोटों पर ताऊ का बड़ा कब्ज़ा है । आख़िर आने का वक़्त तय हो गया । ताऊ के चेहरे पर मुस्कान थी, खेल को जीतने जैसी। उसने बाहर आकर हाथ जोड़ते हुए सबको बताया – ‘नायब मंत्री महोदय ख़ुद आकर इस जुलूस का मार्गदर्शन करेंगे और पूरे दस बजे यहाँ पहुँचेंगे, तब तक और भी लोग झंडे की सलामी से फ़ारिग़ हो जाएँगे । इसलिये आख़री सफ़र का वक़्त दस बजे रखते हैं ।’
लोगों में खुशी की लहर फैल गई । जिनकी ताऊ से नहीं बनती थी उनके चेहरे उतर गए । एक ने कहा – ‘बाप की मौत पर मंत्री महोदय आ रहे हैं, अरे लगता है पगला गया है ।’ दूसरे ने कहा – ‘पागल नहीं है बस सब वोटों का खेल है ।’ तीसरे ने अक्लमंदी दिखाते हुए कहा – ‘भाई ! पार्टी का ज़ोर है । आज अगर उसके घर का कुत्ता भी मरता तो नायब मंत्री आते । ये नेता होते ही स्वार्थी है । इसलिए तो वो गधे को भी बाप बना लेते हैं ।’ दो-तीन लोगों ने उन्हें होठों पर उँगली रखने की हिदायत दी यह कहते हुए कि ‘दीवारों को भी कान होते हैं ।’
ताऊ का उत्साह बढ़ गया । दो-तीन लोग लगवाकर उन्हें घर के सामने सफ़ा ई करने की हिदायत दी। वीडियो-कैसेट निकलवाने का बंदोबस्त किया । फोटोग्राफर तो पहले ही आ चुका था । बताशे और नारियल का ऑर्डर भेज दिया । सब उसके काम में हाथ बँटा रहे थे । अब ताऊ फ़कत सोफ़ा पर बैठ कर फ़ोन कर रहे थे । खादी का कुर्ता-पाजामा पहन कर तैयार हो गए । उनका सारा ध्यान बाहर था कि कब मोटर का हॉर्न बजता है और कब पुलिस का यूनिट आता है । इस बीच में ज़िला के एस.पी. तालुक के डिप्टी कलेक्टर, शहर के पी. आइ के फ़ोन आ चुके थे । पुलिस की जीप पहुँचते ही इर्द-गिर्द खाकी वर्दी वाले बहुत ख़बरदारी से यहाँ-वहाँ आँखे फिरा रहे थे । ऐसे मौकों र उनमें काफ़ी फुर्ती आ जाती है, ख़ास करके आजकल, जब नेताओं के पीछे उनके विरेाधी दल के आदमी हाथ धोकर पड़े रहते हैं ।
अर्थी की पूरी तैयारी हो चुकी थी । अन्दर से औरतों के रोने की आवाज़ ज़ोर-ज़ोर से आ रही थी । जहाँ-जहाँ कैमरा फिर रहा था उसी तरफ़ लोगों के चेहरे भी फिर रहे थे… कोई अपनी नाक साफ़ कर रहा, कोई अपने आँसू पोंछने के लिये रूमाल का इस्तेमाल कर रहा, तो कोई अपना सिर पीटे जा रहा था, कुछ तो चीखने-चिल्लाने में व्यस्त थे ।
नायब मंत्री और उनके साथ शहर के कुछ मुख्य आदमी आए, तो बैठे हुए लोगों में हलचल मच गई । ताऊ उन्हें ले आने के लिये आँखों पर रूमाल रखकर आगे बढ़े । नायब मंत्री ने अपनी बाहें उसके गले में डालते हुए उसके काँधों को थपथपाना शुरू किया ।
लोगों ने मंत्री को घेर लिया । कुछ उसके पाँव छूने लगे, कुछ हाथ बांधे खड़े रहे, दादा उन्हें हाथ पकड़कर अर्थी की तरफ़ ले गए । सेक्रेटरी ने मंत्री को लाये हुए फूल दिये जो उन्होंने अर्थी पर अर्पण करके हाथ जोड़े । कैमरा फिरता रहा ।
‘मंत्री महोदय की जय, मंत्री महोदय की जय ।’ अर्थी को कंधा देने के लिये बेइंतिहा भीड़ हो गई थी ।
आख़िर पहले चार बेटों ने कंधा दिया ‘राम नाम सत्य है, वाहगुरु संग है !’ आहिस्ते-आहिस्ते कंधे बदलते रहे । अर्थी को एक श्रृंगारी गई ट्रक में रखा गया । कितने ही ठेकेदारों ने अपने ट्रकें लाई थीं, कुछ मोटरें, कुछ स्कूटर लाये थे ।
‘बाबा जी अमर रहे ! मंत्री महोदय की जय बाबा जी की जय, राम नाम संग है, हरी नाम सत्य है, मंत्री महोदय की जय ! बाबा अमर रहे ।’ बताशे फूल और सिक्के फेंके जाने लगे । ताऊ मंत्री महोदय के साथ उसकी कार में जा बैठे । कैमरे का फ़ोकस अब उस तरफ़ था । आगे पुलीस की जीप थी, उसके पीछे मंत्री की कार और उसके पीछे पुलीस, फिर अर्थी वाली ट्रक और बड़े आदमियों की मोटरें और स्कूटर…।
जुलूस काफ़ी बड़ा था । पाँच मिनट के पश्चात् नायब मंत्री की कार रुकी और उसने ताऊ से इजाज़त ली । ताऊ ने उनका शुकराना माना और लौटकर अपनी कार में बैठ गए। उसके चेहरे पर संतोष की रेखाएँ ज़ाहिर थीं ।
मंत्री की कार के साथ कितनी मोटरों व स्कूटरों ने रुख़ बदला । इसके बावजूद भी शमशान भूमि तक जुलूस में बहुत आदमी थे । अर्थी शमशान भूमि में पहुँच गई थी । लोगों की बातचीत का सिलसिला जारी था ।
‘बाबा की आत्मा को यह सब देखकर कितनी शांति मिलती होगी?’ दूसरे ने कहा – ‘बाबा अच्छा इन्सान था, कोई घमंड नहीं था ।’ तीसरे ने कहा – ‘कल तक भी उन्होने से कैबिन में बैठकर गोलियाँ बेचीं ।’
किसी ने कहा – ‘कभी-कभी बच्चों को मुफ़्त में चीज़ें दिया करते थे । भाई जिसने खुद ग़रीबी में दिन बिताये, उसको ही ग़रीबों की क़द्र होगी ।’
एक और ने कहा – ‘ताऊ के दिमाग़ में भी अभी कुछ ग़ुरूर बैठा है ।’
‘आहिस्ते बोलो, आहिस्ते बोलो, पहले तो वह भी अपनी ग़रीबी के गुण गाया करता था । भाई फिर भी और नेताओं से बहतर है, किसी को लूटता तो नहीं है । ग़रीबों की पीड़ा तो महसूस करता है । बाक़ी है ग़रीबों का ख़ानदान।’
‘यह तो अच्छा है कि ताऊ पढ़-लिख गए, अच्छे वकील बने और तरक़्क़ी कर ली । और ऊपर से सरकारी पार्टी के नेता ! वर्ना क्या मुझ जैसे के पास मंत्री आते ? या इतनी भीड़ साथ होती ?’
अर्थी से आग के शोले निकलने लगे । लोगों ने धीरे-धीरे पीछे हटते हुए वापस लौटना शुरू कर दिया था । कुछ एक की तो अन्दर की आग भी बाहर निकली – ‘अरे भाई ये तो उनकी चमचागिरी करनी है ।’
‘पर बाबा की आत्मा भी क्या याद करेगी ।’ किसी ने व्यंग कसा ।
ताऊ जब घर लौटे तो उसके चेहरे पर फ़ख्र वाली जीत थी । इस इलेक्शन में उसे जीतने की संभावना थी, फिर… ऐसे जुलूसों में उसे भी…!
अनुवाद: देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, एक अंग्रेज़ी, 2 भजन-संग्रह, 2 अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मानित , न्यू जर्सी, न्यू यॉर्क, ओस्लो, तमिलनाडू अकादमी व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। महाराष्ट्र साहित्य अकादमी से सम्मानित / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ फोन:9987928358
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कहानी 15: जुलूस
इन्द्रा वासवाणी (१९३६-२०१२)
मीरपुर ख़ास, सिंध (पाकिस्तान) । तीन कहानी संग्रह प्रकाशित । वर्षों से अच्छी कविताएँ भी प्रकाशित हो रही हैं । बहुत ही निकट परिवेश के पात्र इनकी कहानी में सजीव अनुभूतियाँ बुनते हैं । नवें दशक में लेखन करके, संवेदनशील ‘सहज’ कहानी में, ‘बदलाव’ को अंकित करती लगातार सक्रिय । ‘बेस्ट-टीचर’ के तौर पर राष्ट्रपति से सम्मानित । गुजरात सिंधी साहित्य अकादमी के गौरव पुरस्कार – २००४ एवं अ.भा.सि.बो.सा. सभा, जयपुर – २००८ द्वारा भी सम्मानित ।
पता : टी.एच.एक्स. – २३, आदीपुर – ३७० २०५ (कच्छ)
(फोन : ०२८३६-२६०६२९)
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कहानी समकालीन-गोवर्धन यादव
चन्द्रमुखी
”चन्द्रमुखीऽऽऽ“ देव ने पुकारा।
वह विचारों की गहरी अंधेरी गुफा में उतरकर अपने प्रश्नों के उत्तर खोज रही थी। यही कारण था कि वह उत्तर नहीं दे पाई। अपनी पीठ पर एक शीतल-सुखद स्पर्श पाकर उसकी चेतना लौटी और उसने पीछे मुड़कर देखा। देव मुस्करा रहे थे। उसने अभिवादन करना चाहा पर पीठ पर हथेली का तनिक अधिक दबाव इस बात का इशारा था कि वह यथावत्ï बैठी रहे।
”चन्द्रमुखी ….. ये क्या हाल बना रखा है। तुम्हारा शरीर तप रहा है, चेहरा निस्तेज हो आया है तथा तुम्हारे केश-कुन्तल बुरी तरह से आपस में उलझे हुए हैं, पारिजात के सुवासित पुष्पों से अपना सिंगार भी नहीं किया है। बात-बात में खिलखिला कर हंस देने वाली सुमुखी … तुम्हें अचानक क्या हो गया है? ” देव ने कहा।
”क्षमा करें देव, आज न जाने क्यों मेरा मन अशान्त हो उठा है। भोगविलास हास-परिहास सब व्यर्थ से जान पड़ रहे हैं।“ चन्द्रमुखी ने कहा।
”सुमुखी …. जब तक तुम अपने मन की पीड़ा मुझे नहीं सुनाओगी, तब तक तो उसका निदान संभव नहीं, नि:संकोच होकर अपने मन की व्यथा कथा सुनाओ।”
”फुर्सत के क्षणों में हम सब सखियां विलास बाग में इकठ्ठी हुईं, शांत झील के किनारे बैठी हम सब बतिया रही थीं। एक सहेली को न जाने क्या सूझा उसने अपने वस्त्र उतार फेंके और झील में जा उतरी। बड़ी देर तक वह जलक्रीड़ा करती रही और फिर अंजुली भर-भरकर अन्य सहेलियों पर उछालने लगी। फिर क्या था। हम सभी ने अपने-अपने वस्त्र उतार फेंके और पानी में उतर पड़ी। बड़ी देर तक चुहलबाजियां चलती रहीं। मदांध देवी तिलोत्तमा ने तो हद कर दी। उन्होंने पुरुषोचित्त हरकतें शुरू कर दीं और अन्यों के अंग-प्रत्यंगों से छेड़छाड़ करने लगी। यौवनजनित क्रीड़ाओं में प्राय: सभी ने खुलकर भाग लिया। काफी देर तक मदनोत्सव का सा माहौल बना रहा। जब हम थककर चूर हो गए तो एक विशाल वृक्ष के नीचे हरी-हरी मखमल सी दूब के कालीन पर आकर पसर गए।”
”फिर …. फिर क्या हुआ देवी? ”
”देवी तिलोत्तमा ने हास-परिहास अब भी जारी रखा था। वे मेरी कमर में हाथ डाले निर्वसन पड़ी थी। अपनी बातों का रुख धरती के इंसानों की तरफ अचानक मोड़ते हुए कहने लगी थी— ‘सखी, हम चौबीसों पहर भोग-विलास की मस्ती में मस्त रहती हैं। अपने आपको खूब सजाती संवारती हैं और स्वर्ग में रह रहे देवों को अपने यौवन की अग्नि में पिघलाती रहती हैं। इस कार्य में मैं कोई नवीनता भी नहीं देखती हूं। यहां रहने वालों को न तो भूख सताती है और न ही प्यास, हर पल, हर जगह उजाला ही उजाला बिखरा पड़ा रहता है। शारीरिक मानसिक परिताप भी नहीं होता। भविष्य की न तो चिंता है और न ही अतीत को लेकर कोई उलझन। बस हरदम, हर घड़ी भोग-विलास में आकंठ डूबी रहो। इस उद्यान के न तो फूल झरते हैं, न ही खिलते हैं, सब चित्र लिखे से दिखाई देते हैं। न तो यहां आंधी आती है और न ही तूफान, न यहां तेज गरमी पड़ती है और न ही ठंड सताती है। मंद-मंद समीर चौबीसों घंटे चलायमान रहता है। धरती पर ऐसा नहीं होता। वहां कल-कल करती नदियां उछलते-कूदते रहती हैं। साल में तीन बार मौसम बदलता है। वर्षा होती है, ठंड पड़ती है और उसके बाद भीषण गर्मी भी। खुलकर भूख लगती है और प्यास भी। आदमी अपनी प्रियतमा का काफी ख्याल रखते हैं। उन्हें सुख भी प्राप्त होता है और दुख भी, पर वे आपस में बराबर-बराबर बांट लेते हैं। भावपक्ष वहां प्रधान होता है। सेवा-दया-प्रेम-करुणा-त्याग-धैर्य-परोपकार-लाड़-दुलार पृथ्वीवासी खूब जानते हैं। सभी जनों के हृदय में नवरसों का संचार बराबर होता रहता है। जबकि हम केवल एक ही रस में डूबी रहती हैं।”
तिलोत्तमा बराबर बोलती ही चली जा रही थी। मैंने बीच में टोकते हुए पूछ ही लिया— ‘दीदी इतना सब आप उन लोगों के बारे में कैसे जानती हो? इतनी अच्छी और इतनी गहरी बातें तुम्हें किसने बताईं? क्या तुम कभी धरती पर गई थीं? क्या तुमने मनुष्य जाति से संसर्ग किया था? ”
तरह-तरह के प्रश्नों का पहाड़ मैंने उनके आगे खड़ा कर दिया था। तो और भी गंभीर होकर बताने लगी।
”हाँ – चन्द्रमुखी – एक बार की बात है। धरती पर विश्वामित्र नामक एक तपस्वी तपकर रहे थे। उनका मनोरथ स्वर्ग पर आरूढ़ होना नहीं था। वे तो जनकल्याण के लिए बड़ा तप कर रहे थे। देवेन्द्र को तो तुम अच्छी तरह जानती हो। स्वर्ग में भी वे कुछ न कुछ षड्ïयंत्र रचते ही रहते हैं। उनके अवचेतन मन में शंका का एक बीज उग आया सो उन्होंने मेनका को आदेश दिया कि वह धरती पर जाए और विश्वामित्र का तप भंग कर दे। गर्वीली मेनका धरती पर उतरी। उसका साथ प्राय: सभी ने दिया। जिस जगह पर ऋषि तप कर रहे थे, वहां का माहौल अति कामुक बना दिया गया। हम अप्सराओं ने वस्त्र पहने अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। मेनका ने ऋषि के मन में कामना जगा दी। उसे उस समय तक केवल इतना ही ध्यान था कि ऋषि की तपस्या भंग होनी चाहिए। देव-प्रमुख का मनोरथ पूरा होना चाहिए। उनकी तपस्या तो खैर भंग हो गई पर देवी मेनका धरती से वापिस न आ पाई। वह वहीं की होकर रह गई।”
”वो कैसी दीदी? ” मैंने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
”हम अप्सराओं को देवों से मिलने वाला परिरमन कल्पना मात्र होता है। मन में कामना की नहीं कि उसकी पूर्ति हो गई। न तो उससे कोई विशेष भाव जागता है और न ही कभी विद्यमान रहता है। पर मृत्युलोक में ऐसा नहीं होता। मन में चाहत की एक तड़प पैदा होती है। अपने प्रिय को देखकर अनेकानेक भावनाएं मन को गुदगुदाने लगती हैं। पिया मिलन की कल्पना न जाने कितने दिवास्वप्न दिखा जाती है। मिलन के अलावा जुदाई भी होती है, जो दोनों को तिल-तिलकर जलाती है। यौवन जब मचल जाता है तो अपने प्रिय का सामीप्य पाने के लिए वह अपना सर्वस्व न्यौछावर भी कर देता है। जब सब कुछ समर्पित हो जाता है तो शेष रह जाता है शुद्ध-प्यार, दिल की गहराइयों से भी गहरा प्यार और यही प्यार मेनका के मन में भी अंगड़ाई लेने लगा। जब वह ऋषि की बांहों में समाई तो भूल गई स्वर्ग को, हम सभी को, फिर मेनका ने कभी भी स्वर्ग की कामना नहीं की। उसे ऐसा लगने लगा था जैसे वे कभी स्वर्ग से आई ही नहीं थी। काफी समय बीत गया, मेनका स्वर्ग नहीं लौटी। देवराज को ज्ञात हो गया था ऋषि की तपस्या भंग की जा चुकी है। उनका मनोरथ पूरा हो गया। जब उन्हें यह पता चला कि मेनका अब तक वापस नहीं लौटी है तो वे बेचैन हो उठे। उन्होंने अपने दूत धरती पर भेजे और कहा कि वे उनकी ओर से मेनका को प्यार जताएं और कहें कि वह स्वर्ग लौट आए। इन्द्र अपने दूतों की वापसी का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहा था। जानती हो क्या हुआ। दूत खाली हाथ वापिस लौट आए। मेनका ने आने से इंकार कर दिया। स्वर्ग में खलबली-सी मच गई। कई दिनों तक मातम छाया रहा।”
”देव, सखी तिलोत्तमा की कहानी सुनकर ही मेरा ये हाल हुआ है, यदि आप बुरा न मानें तो मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि हम भी धरती पर चलें। उस स्थान को मैं देखना चाहती हूं जहां देवी मेनका ने अपना घर बसाया था तथा जिन अलौकिक सुखों का बयान तिलोत्तमा ने किया है, मैं उनका उपभोग करना चाहती हूं। यहां की ठहरी हुई जिंदगी में कुछ हलचल जगाना चाहती हूं, मुझे पूरा विश्वास है कि आप मेरी याचना पर विशेष ध्यान देंगे।”
”प्रिये, जानती हो तुम क्या कह रही हो। और मुझसे क्या अपेक्षाएं रख रही हो। तुम भली-भांति जानती हो कि मैं तुम्हें प्राणपण से चाहता हूं, तुम्हारा तनिक-सा भी वियोग मुझे कितना कष्टकारक लगता है। यदि तुम धरती पर गई तो फिर वापिस न आने पाओगी तब मेरा यहां क्या हाल होगा तनिक सी कल्पना तो करो।”
”देव, आप विश्वास रखें मैं भी आपके बगैर पल भर जीवित नहीं रह सकती। हम साथ ही धरती पर जाएंगे, धरती के कथित सुखों का उपभोग करेंगे और फिर वापिस आ जाएंगे। हमारी ये यात्रा गोपनीय ही रहेगी। किसी को कानोंकान पता नहीं चलेगा कि हम धरती पर गए थे।”
”देवी तुम जानती हो, उन सुखों का उपभोग तुम यूं ही नहीं उठा पाओगी। तुम्हें उनके जैसा ही बनना पड़ेगा। यह योनि तुम्हें छोड़नी पड़ेगी तब जाकर तुम वहां के कथित सुखों का उपभोग कर पाओगी। तुम्हें अपना सर्वस्व खोना पड़ेगा चन्द्रमुखी।”
”देव मेरे प्यार का विश्वास रखें। आप चाहें तो क्या नहीं कर सकते। आपमें असीम शक्ति है। होनी को अनहोनी और अनहोनी को होनी में बदल सकते हैं। यह सामर्थ्य आपमें है। आप खुद नहीं तो मुझे ही मनुष्य योनि दे दें। मैं उस योनि में रहकर कुछ समय व्यतीत करूंगी और जब मन भर जायेगा तो लौट पड़ूंगी या फिर आप जब चाहें अपना वरदान वापिस ले लें। मैं पुन: अप्सरा के रूप में प्रकट होऊंगी और आपके साथ वापिस हो लूंगी।”
”देवी, तुम्हारी इस याचना ने मुझे अन्दर तक झंझोड़ दिया है। यदि तुम्हारा कहना न मानूं तो तुम्हारा दिल टूट जायेगा और यदि मान लूं तो मेरा। बड़ी विचित्र परिस्थिति पैदा कर दी है तुमने। मैं निर्णय नहीं ले पा रहा हूं कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। एक तरफ खाई है तो दूसरी तरफ बावली। यदि कहीं देवराज को पता चल गया तो खैर नहीं। धरती पर बिखरे पड़े नौ रसों के आस्वादन करने की तुम्हारी प्रबल इच्छा ने इतना अंधा बना दिया है कि तुम्हें आने वाली विपत्ति का तनिक भी भय नहीं लग रहा है।”
”देव, मुझे तनिक भी परवाह नहीं है। इसका मात्र एक कारण है कि मेरे मन में इन रसों का आस्वादन करने के लिए, इनका उपभोग करने के लिए उद्दाम कामनाएं हलचल मचा रही हैं।”
”देवी, यह सच है कि मुझमें इतनी शक्ति तो है कि मैं तुम्हें देव योनि से मनुष्य योनि में भेज सकता हूं, फिर भी मैं चाहूंगा कि तुम इस शक्ति का गलत प्रयोग करने के लिए नहीं कहोगी।”
(निराश होकर) ”एक काम करें देव। धरती पर केवल नौ रस ही तो हैं। मुझे केवल नौ मास तक ऐसा करने की अनुमति दे दें। ठीक दसवें माह मैं वापिस हो लूंगी। हम धरती पर चलते हैं। अपनी पसंद के किसी युवक के साथ रहूंगी और एक निश्चित समय तक उसका उपभोग करूंगी। अब तो ठीक है न! ”
”ठीक है। इस शर्त पर मैं तैयार हूं।”
स्वर्ग की अनन्त ऊंचाइयों से होते हुए, दो दिव्य आत्माएं धरती की ओर उतर चलीं। अनेकों भूभागों को एवं आश्चर्यजनक दृश्यावलियों को देखकर अप्सरा चन्द्रमुखी गद्ïगद्ï हो उठी। धरती पर रह रहे अनेकानेक मानवों के विभिन्न रीति-रिवाजों को भी उन्होंने जांचा परखा और फिर अंत में उन्होंने अपना रुख भारत की ओर मोड़ा। नगाधिराज हिमालय गंगा-मे कलसुता से होकर कन्याकावेरी तक एवं गुजरात से कलकत्ता तक की यात्राएं कीं और अंत में ऋषि विश्वामित्र की वह तपस्थली भी खोज निकाली जहां कभी स्वर्ग से उतरकर मेनका ने रहना अंगीकार किया था।
वनों से आच्छादित पर्वतश्रेणियों के समीप ही एक सुंदर शांत झील पर नजर पड़ी। झील के किनारे एक नवयुवक कठोर पाषाण पर छेनी-हथौड़ी से मूर्तियां गढ़ रहा था। छेनी पर पड़ती हथौड़ी की चोट से एक विशेष नाद पैदा होता। साथ ही उसकी बलिष्ठ एवं कसी हुई भुजाओं में एक आकर्षण था। उसे देखकर चन्द्रमुखी ने अपना निर्णय देव को कह सुनाया कि अब वह इसी युवक के साथ नौ मास रहेगी।
देव की असीम कृपा से अपना निज खोते हुए उसने मनुष्य योनि में प्रवेश किया। नौ माह तक नौ रसों का आस्वादन करते हुए उसने महसूस किया कि देवी तिलोत्तमा के कथन में कितनी सच्चाई थी।
निर्धारित समय से पूर्व उसने उस युवक से कहा, ”आर्य इतने लंबे समय तक मैं आपके सानिध्य में रही। तुम्हारी सहायता से मैंने नौ रसों का भरपूर उपभोग किया जो स्वर्ग में सर्वथा अनुपलब्ध थे। समर्पण में कहां क्या नहीं मिलता। मैं अपना रहस्य अब तुम पर उजागर करती हूं। दरअसल मैं एक सामान्य स्त्री न होकर स्वर्ग में रहने वाली अप्सरा हूं, इस धरती के रहस्यों को, यहां के निवासियों के त्याग, आश्चर्य, सेवा, दया, प्रेम, करुणा, परोपकार एवं दुलार से ओतप्रोत भावनाओं को नजदीक से देखने के लिए, उन्हें समझने के लिए अपनी जिद के कारण अपना मूल रूप छोड़कर एक सामान्य स्त्री के रूप में आकर और तुम्हारा सामीप्य पाक र उन सभी सुख दुखों को भोगा है। अब मैं कुछ समय पश्चात्ï अप्सरा के रूप में परिवर्तित हो जाऊंगी। अपने धाम को वापिस जाने से पूर्व मेरा एकमात्र निवेदन है कि हमने जो कुछ भी यहां भोगा है, उन सभी को अपनी छेनी-हथौड़ी के माध्यम से इन शिलाखण्डों पर उकेरो। मेरे स्वर्ग चले जाने एवं तुम्हारे स्वयं के स्वरूप को खोने के बाद एक शून्य एक महाशून्य उपस्थित हो जायेगा। कोई भी नहीं जान पायेगा कि कभी चन्द्रमुखी तुम्हारे प्यार में पागल हुई थी। तुम्हारे और समर्पण पाने को मैं कभी स्वर्ग से धरती पर आई थी। अपनी छेनी-हथौड़ी से तुम जो गढ़ोगे वह हमारे प्यार के अमिट हस्ताक्षर होंगे। युगों-युगों तक लोग यहां खिंचे चले आएंगे और हमारे प्यार के मंदिर को देखकर अपने को कृतार्थ समझेंगे।“
चन्द्रमुखी के लौट जाने के बाद उस युवक के मन में तनिक भी विषाद नहीं हुआ और न ही उसने अपना विवेक खोया। अपनी कुटिया में आकर वह छेनी-हथौड़ी उठा लाया और पत्थरों पर प्यार की इबारत लिखने लगा।
उसने एक विशाल चबूतरे का निर्माण किया। उसने चबूतरे के पत्थर पर हाथियों की शृंखला, कहीं कमलदल तो कहीं वाद्य बजाते वृंदजन को उकेरा।
चबूतरे पर फिर प्यार के मंदिर का स्वरूप रचने लगा। वाद्य यंत्र बजाती चन्द्रमुखी, तो कहीं शृंगार करती तो कहीं अपने प्रिय के साथ आलिंगनबद्ध, तो कहीं नूपुर झंकारती, कभी आईना देखती, कभी अपने पांवों में माहुर रचाती, तो कहीं अपने प्रिय के साथ विभिन्न मुद्राओं में मैथुनरत। कलाकार ने अपनी कला का भरपूर उपयोग किया। मंदिर के कंगूरों तक में विभिन्न-विभिन्न मुद्राओं में उसने अपने प्रेयसी को ला उतारा।
जब मंदिर का निर्माण पूरा हो गया तो उसने छेनी-हथौड़ी एक तरफ रख दिया। अपनी कुटिया में गया और बांसुरी उठा लाया। शांत झील के समीप ही एक विशाल खण्ड पर बैठ गया और तन्मय होकर बांसुरी से खेलने लगा।
बांसुरी की मधुर तान सुनकर चन्द्रमुखी ऊंचाइयों से उतरकर नृत्य करने लगती, विभिन्न मुद्राओं में नृत्य करती चन्द्रमुखी थककर चूर हो जाती तो वह उसके पास उसी शिलाखण्ड पर आकर बैठ जाती। अपने प्रिय को अपनी बांहों में समेट लेती। वह आंखें बंद किए अपनी साधना में तल्लीन रहता। अपनी प्रेयसी का सामीप्य पाकर जब वह आंख खोलता तो चन्द्रमुखी शर्माती, लजाती और जब वह उसे बांहों में भरने को आतुर होता तो वह छिटककर फिर मंदिर के कलशों पर जाकर बैठ जाती।
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धारावाहिकः मिट्टी– शैल अग्रवाल
भाग-12
कमरे में मरघटे-सी शांति थी। बात कैसे और कहाँ से शुरु की जाए, कोई नहीं समझ पाया…
नीतू ने कितना ही उसे स्मार्ट समझा हो, दिशा को राजेश हमेशा से ही सीधा-सादा, साधारण व घरेलु किस्म का ही लगा- कुछ-कुछ अपरिपक्व, बात-बात पर उत्तेजित और भावनाओं में बह जाने वाला, जो गलती तो कर सकता है, पर गुनाह नहीं।
‘ यही तो मुश्किल है, दिशा।‘ नीतू अब पूरी तरह से बिफर चुकी थी। ‘ लोग खून करके भी बिना किसी दाग-धब्बे के बच निकलते हैं और इस घामड़ को देखो, मौज-मजे लेता, कुछ करता-धरता तो बात और थी, मात्र वक्ष छूने के आरोप में जेल जाएगा यह…वह भी एक डॉ. होकर जिसका काम ही है सीने और छातियों की जांच करना। ‘
राजेश अभी भी चुप सिर झुकाए ही बैठा था। कितना भी पूछो, एक शब्द नहीं निकल रहा था उसके मुंह से, मानो बहुत शरमिंदा हो इस घटना से, उसकी वजह से उत्पन्न इस परेशानी और शर्मिंदगी …इस जिल्लत से।
‘मेरे ख्याल से तो दिशा, हम दोनों को चलकर उन लड़कियों से मिलना चाहिए जिन्होने राजेश पर यह आरोप लगाया है। शायद बात यहीं खतम हो जाए। राजेश कह रहा था कि जब वह उस फ्लैट में गया था तो वहाँ पार्टी चल रही थी । खूब शोर-शराबा था और कहकहों व शराब का दौर था। ऐसे में डॉ. को छाती में दर्द कहकर बुलाना और फिर उसपर यह तोहमत लगाना, बात कुछ समझ में नहीं आ रही। कहीं इसकी जड़ में कोई साजिश या भारतीयों के प्रति नफरत तो नहीं?’
दिशा और गौरव दोनों ही नीतू का तर्क भलीभांति समझ पा रहे थे। ‘ पर बात अब आपस में सुलझाने तक न रहकर , कानून तक पहुंच चुकी है नीतू । ‘मेडिकल डिसिप्लिनरी बोर्ड ‘ है यह, यूँ हमारा मिलना अब वे हमारे खिलाफ एक सबूत की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं। ‘ गौरव ने तुरंत ही अपनी दलील रखी।
‘ अब तो हमें अपना हर जबाव वकील के मार्फत ही देना चाहिए। ‘
और जबाव दिया राजेश ने।
‘ मैं अपराधी नहीं हूँ । ना ही मुझे कोई सफाई देने की जरूरत है क्योंकि मैंने कोई अपराध किया ही नहीं है।‘
और उनका तुरंत ही पलटती डाक से जबाव भी आ गया-‘ सिर्फ कहना कि मैं अपराधी नही हूँ, पर्याप्त नहीं। कानून को सबूत चाहिएँ।’
‘कहाँ से लाऊँ , कैसे लाऊँ सबूत ? कैसे और कबतक समझाता फिरूँ, बस मैं था और वे सब थे । वह कह रहे हैं मैं अपराधी हूँ। यह तो मानने से रहे कि झूठा दोषारोपण किया है मुझपर! ‘
‘ पता नहीं क्यों तुम सब परेशान हो और सलाह पर सलाह दिए जा रहे हो। आखिर मैं भी इन्सान हूँ , कितना बर्दाश्त करूँ? सच-झूठ खुद ही सामने आ जाएगा। देखना, भगवान के यहाँ देर है, अंधेर नहीं। ‘
पर भगवान तो मानो था ही नहीं कहीं, और यदि था भी तो बेखबर था उसके साथ हुई इस नाईंसाफी से। अब वह पूर्णतः अंतर्मुखी हो चुका था। किसी से बात-चीत नहीं करता। उसकी आवाज सिर्फ काव्या के साथ खेलते हुए ही सुनाई देती।
अगली डाक से वकील की भी चिठ्ठी आ गई- ‘ बारबार सिर्फ यही कहना कि तुम अपराधी नहीं हो, पर्याप्त नहीं। कानून को सबूत चाहिए। जबकि विपक्ष के पास गवाह और सबूत दोनों ही हैं। लड़की की सहेली का कहना है कि तुमने उस लड़की के साथ उसके सामने अभद्र व्यवहार किया था । वह उस वक्त वहीं पर थी।’
राजेश ने चिठ्ठी गुस्से में फाड़कर फेंक दी। ‘ कर लें साले जो करना है। मैं नहीं डरता ऐसे दोगलों से। चाहें तो चढ़ा दें फांसी पर मुझे! ‘
नियति हंस रही थी उसपर। उस बिचारे को क्या पता था कि चौबीस घंटों में एकबार जुबान पर सरस्वती आ बैठती है। नीतू, दिशा और गौरव के लाख समझाने पर भी राजेश को अपने चरित्र और योग्यता पर पूरा भरोसा था और उसने कोई अन्य गवाह या चरित्र प्रमाण एकत्रित नहीं किए। बस अपनी अपराधी न होने की बात पर ही अड़ा रहा। जब अखबारों में खबर छपी तो एकाध मरीजों की भी चिठ्ठियाँ आईं कि वे उसके लिए दस्खत जमा करेंगे कि वह कितना कुशल और सहृदय चिकित्सक है, आंदोलन चलाएँगे इस नाइंसाफी के खिलाफ पर राजेश तो इतना आहत और विक्षिप्त हो चुका था इन घिनौने और झूठे आरोपों से कि पत्थर कर लिया था खुदको उसने। न किसी से बात करता ना ही कोई प्रतिक्रिया देता। नतीजा यह हुआ कि मेडिकल काउंसिल ने उस मात्र एक गोरी लड़की की गवाही पर तुरंत ही छह महीने के लिए निलंबित कर दिया । उसकी ट्रेनिंग रुक गई और वह उदासी की और गहन गर्तों में चला गया। अब एक हीन व नकारा भाव चौबीसों घंटे उसे घेरे रहता। न खाता, न पीता, ना ही अपना ध्यान रखता। नीतू ने जब कहा कि इस तरह से यहाँ खुदको कष्ट देने के बजाय छह महीने के लिए भारत ही घूम आओ, वक्त निकल जाएगा तो आहत शेर-सा गरज उठा- ‘ तो तुम भी मुझे अपराधी ही समझती हो। मुँह छुपा कर भाग जाऊँ? कहा न मैं अपराधी नहीं हूँ, तो क्यों इधर-उधर भागता फिरूँ!’ गौरव के कुछ साथियों ने परिवार की मदद के लिए कुछ पैसे जमा किए और देने आए , शायद मुश्किल वक्त में थोड़ी मदद ही हो जाए पर राजेश का कुचला अहं और भी आहत ही हुआ इस सद्भाव से भी। बेहद विनम्रता से हाथ जोड़कर मित्रों को लाई मदद के साथ ही घर से बाहर कर दिया उसने।
अब घर एकबार फिर नीतू की कमाई पर ही चल रहा था और साथ में नीतू की गजभर लम्बी जुबान और-और लम्बी व घातक होती जा रही थी। कहते हैं विनाश काल में बुद्धि विपरीत हो जाती है। दोनों ही सामान्य नहीं रह पा रहे थे। नीतू अपनी लंगड़ी गृहस्थी को जैसे-तैसे घसीट रही थी और टूटा हारा राजेश जितना सुलझने का प्रयास करता और-और उलझता ही चला गया घटनाओं के दुश्चक्र में। कुछ भलमनसाहत की खाल में छुपे भेड़िए जैसे दोस्त तो घर आकर आदत संभालने की सलाह देने से भी न चूके।
‘ अपना नहीं तो कम-से-कम बीबी बच्चों का तो ध्यान रक्खो। इनके लिए ही सुधर जाओ अब। आदतें सुधार लो अपनी।’-ऐसा कहते हुए हिराकत भरी नजर डाली उसपर। छह महीने की वह वक्त की डोर इतनी लम्बी और असह्य हो गई राजेश और उसके स्वाभिमान के लिए कि एक रात के गहन सन्नाटे में, अपनी ही गैराज के घटाघोप में क्लेश और आत्मग्लानि की उसी रस्सी में लटका दिया राजेश ने खुद को। काव्या का नेह नहीं बांध पाया उसे और ना ही किसी सुनहरे भविष्य के सपने ने ही रोका उसे। नीतू की नेह-रिक्त महत्वाकांक्षा का अजगर समूचा ही निगल गया उसे। इस अनहोनी की तो किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। दिशा और गौरव दोनों ही स्तब्ध थे।
‘ बेटी का ही मुँह देखकर ही रोक लेता खुद को। अभी तो पूरी जिन्दगी है इसके आगे। कैसे बड़ी होगी बिना बाप के!’ जितने मुंह उतनी बातें थीं चारो तरफ।
नीतू भी कुछ दिन रो-धोकर शांत हो गई। सहेली से मिलती तो दिशा का मन डूबने लगता। एक बार फिर जिन्दगी के उसी मोड़ पर खड़ी थी नीतू, जहाँ दो वर्ष पहले थी ।
‘ नहीं दिशा अकेली नहीं हूँ में, अब मेरी बेटी काव्या है न मेरे साथ जीवन की इस उहापोह में।’
दिशा देख रही थी कि जिन्दगी से भरपूर नीतू अब एक लौह महिला में परिवर्तित होती जा रही थी।
दिशा देख रही थी कि सारे दुख के बावजूद मोर्चे पर खड़े सेनानी-सी दृढ़ता रहने लगी थी अब नीतू के चेहरे पर ।
‘ मेरी परवाह मत कर। संभाल लूंगी मैं खुदको। जब वह अच्छा वक्त नहीं रह पाया मेरे साथ तो यह भी नहीं रहेगा।’ पर सहेली की बेवजह ही लुटी-बिखरी जिन्दगी और उदास चेहरा देखकर दिशा अब खुद एक सदमे में थी। यह तक नहीं समझ पाई कि सहेली किस अच्छे बुरे वक्त की बात कर रही है, ‘ देखा और भोगा ही क्या है तूने? पल भर में ही तो धूप-छाँव-सा सब पलट गया !’
‘ पर, इतनी जल्दी सबकुछ कैसे बदल सकता है…टूट फूट जाता है, दिशा ! ‘
दिशा के पास सहेली के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। हाँ, अब वह एशियन मूल के डॉक्टरों के प्रति कहीं भी आरोप और दुर्व्यवहार की खबर देखती तो हर खबर सीने में दर्द बनकर ही उभरती। मस्तिष्क में यादों और विचारों का तूफान खड़ा था। यह अन्याय जो हो रहा है, इससे लड़ना ही होगा..भिंची मुठ्ठियों के साथ अक्सर ही पूछती खुदसे-‘ पर कैसे ?’ जबकि वह तो यह भी जान चुकी थी कि सच-झूठ का पता किए बगैर ही अन्य देशों से आकर बसने वालों के लिए न्याय नहीं… कभी कानून दुश्मन बन जाता है तो कभी अपनी न्याय-प्रियता पर सदा से ही झूठा गर्व करने वाला खुद यहाँ का रंगभेदी समाज !…
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यत्र तत्र सर्वत्र
सृजन क्या है?-हरिहर झा
सृजन या रचनात्मकता क्या है? लम्बे समय तक लिखते रहने के बाद भी मैं आज तक नहीं समझ पाया। लेखन और जीवन में यही तो समानता है। छ दशक से अधिक समय बीत गया जीवन जीते हुये पर आज तक समझ नहीं पाया कि जीवन होता क्या है? रचनात्मकता के बारे में ऐसा तो नहीं कि मैंने कुछ सोचा नहीं। सोचता गया और एक एक सीढ़ी पर चढ़ते चढ़ते रचना की और सृजन की मेरी परिभाषायें बदलती गई और मेरे लक्ष्य भी बदलते गये।
न जाने कहाँ से सोचना शुरू किया था फिर कहाँ जा पहुँचा। सत्यं शिवं सुन्दरं और लेखन में संबन्ध बिठाने से पहले कुछ सोचा था जिस पर एक नजर भर डाल लेना उचित होगा जैसे कि
1. जो लोगों को हँसाये, मनोरंजन कराये वही रचना है :
बचपन की सहपाठिन मिल गई, शुरू हुये इमेल
बीबी ने जब बाँच लिये तो खतम हो गया खेल
पूछ परछ में धमधम गिरते, बरतन के खूब शोर हुये
हम बहुत ही बोर हुये।
2. काव्य शब्दों का जादूभरा खेल है जिसमें से भाव पैदा होते हैं।
दिल समराट सा
और बड़ा ’समारट’ है मेरा सैंयाँ। (‘smart’)
3. शृंगार रस के बिना कोई भी रचना निर्जीव है। रस-निष्पत्ति ही साहित्य की पहचान है। ( यह बात अलग कि इसका सुन्दरं से गहरा नाता है।)
छलक उठी नैनों की मदिरा / बह जाने के लिये नहीं है
मुस्कानों में फूल महकते / मुरझाने के लिये नहीं हैं
युवा उमंगों की यह सरिता / थम जाने के लिये नहीं है
खिली कली या मादक यौवन / संकुचाने के लिये नहीं है
.पर शृंगार में वियोग शृंगार ही साहित्य की उत्कृष्टता की पहचान है
व्यथित नयन बस जगे जगे से / एक झलक की आस
रूप गंध कुछ स्पर्श नहीं / इस तनहाई के पास
स्वप्नों में जी भर देखा पर / बुझी न उर की प्यास
दिवास्वप्न बुन बुन कर मेरी / पीड़ा बनी उदास
यह सब कुछ लिखने के बाद मैंने जाना कि प्रेम की निरन्तरता का दर्शन काव्य की पहचान है।
You, dancing in fish, flying in birds
In monkeys, humans you are on play
Your craving for love sneaking in reptiles
Darwin lost the way
यहाँ से हम सत्यं शिवं सुदरं की दिशा में विचार करें तो कदम उठते हैं दर्शन पर।
१. सत्य तो समाचारपत्र की खबर में भी हो सकता है पर वह साहित्य की ऊंचाई पर नहीं होता जब तक अपनी भौतिक वास्तविकता को उतार कर दर्शन की सीढ़ी नहीं चढ़ता। याने दर्शन ही जीवन का सत्य है उसके बिना कोई भी काव्य अधूरा है
सृष्टि कितनी खोखली / धूल पत्थर के मोल
तारे ग्रह नक्षत्र / बस घूमते गोलगोल
पर अंगड़ाई लेती चेतना / नन्ही सी पृथ्वी में – एक चुभन
.रचना में समाज का प्रतिबिम्ब होना चाहिये और यही सत्य साहित्य का उद्देश्य है।
भूखे श्वान गुर्राते हैं / चांद चुपचाप खिसकने लगा हैं
इस शहर में / कुछ लाशें जिन्दा इंसानो को
दफनाती हैं / कुर्सियां इंसानों की गर्दनपर बैठ कर…
.नग्न सत्य स्वयं ही शिवं के लिये राह ढुंढता है। यह कार्य पाठक स्वय़ं परिस्थिति के अनुसार करेंगे। बस, कवि का द्रष्टिकोण आशावादी होना चाहिये।
क्योंकि अब प्यार हो चुका है एक / सौदा
गणित का एक समीकरण / या एक कंप्यूटर प्रोग्राम
कुछ तत्वों का बहता हुआ रसायन / कीचड़ के इस फैलाव में भी
कमल खिलने की / उम्मीद अब भी बाकी।
२.रचना में आदर्शवाद जो कि शिवं का रूप है वह होना आवश्यक है| केवल लिखने के लिये लिखा तो सब व्यर्थ है। इस शिवं के लिये कभी सत्यं के साथ भी समझौता किया जा सकता है; कभी अतिशयोक्ति के रूप में, कभी कल्पना की उड़ान में।
कीचड़ ना हो, नदियाँ निर्मल / दूर हो भ्रष्टाचार
कोयल खुद अंडे सेये / निर्मल कर दे आचार
श्रम को स्वर दे बाग–बगीचे / घर आँगन हर मोड़
खुशियों के सिक्के बाँटे हम / लोभ पचासों छोड़
कलम गहो हाथों में साथी / शस्त्र हजारों छोड़
३.कविता में वर्तमान को देखते हुये भविष्य के अंधकार में झांकने की शक्ति होनी चाहिये
अब कवि लिखेंगे सोफ्टवेयर / सोफ्टवेयर लिखेगा कविता
धड़ाधड़ ले लो / कविता–सविता
भावों और शब्दों की खिचड़ी बना कर / खायेंगे चटखारे लेकर
४.कविता में अतियथार्थवाद होना चाहिये …
दर्द को संवेदना नहीं / अनुभूति नहीं
बिल्कुल जड़ समझो । / किसी सड़े हुये सेव की तरह
या गले मे अटकी गोटी की तरह… /
गोली खाकर / गोटी को निकाल फेको ।
भले ही वह फिल्मी ड्रीम-सिक्वेन्स बन कर रह जाय!
डरा सहमा सा / मर गया मैं या मेरी नानी
पर श्राद्धपींड नजर आ गये।
काली डरावनी / गुफा मे खो गया टाइमटेबल
अब घंटी बजेगी घनघन …
५. रचना में मनोवैज्ञानिक चित्रण होना जरूरी है
छूता, सहलाता / मेरी रूह का जिस्म
मेरी संवेदनायें और अनुभूति;
घायल मन में / छुपाई तस्वीरें चुरा कर
मनोरंजन करवाता लोगों का / भड़ुवा
मेरी खिल्ली उड़वाता / यह बौद्धिक वैश्यावृत्ति है
या सृजनशीलता ?
और रचना का प्रवाह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तक जाना चाहिये
घनीभूत हो रहा / ओछेपन का भाव
और सूइयां चुभती / हीन ग्रन्थि की
मैं चिल्लाता हूँ / देखो , मुझे देखो
मेरी ऊँचाई ! / पर मग्न हो तुम स्वयं में
विनाशकारी धारा से अनजान / बिजली के तार पर
बैठी चिड़िया की तरह;
यदि विश्लेषण फ्रॉयड के सिद्धान्तों पर आधारित हो तो बहुत अच्छा।
झोली या डंडा / मुर्गी या अंडा
अंडे का फंडा / प्रत्येक का जरूर कोई अर्थ
लाठी नाग तलवार या चाकू / कूआ, खाई, पहाड़ या राई
सब कुछ यौन पिपासा / सर्व सेक्समयं जगत
६.रचना में सामाजिक अवचेतन मन की गुत्थियों का सुन्दर प्रस्तुतीकरण होना चाहिये। वर्जनाओं के प्रति आक्रोश ही व्यक्ति और समाज में क्रांति लाता है।
चला था दुनिया को मिटाने / खुद मर कर…
पर रोक लेती है माँ मुझे / जाने कहाँ से टपक पड़ी थी
पिछ्ली बार / कंजूस बनिये की तरह
क्योंकि बाकी ही तो था / उसके दूध का ऋण ।
७.लेखन में आधुनिक समस्याओं का जिक्र होना चाहिये। वर्तमान से कटी हुई कविता कोई कविता नहीं होती
है सैज सिक्कों की बनी, सब बेवफ़ायें सो रही
मण्डी बनाया विश्व को, निलाम ’गुडवील’ हो रही
गर्मजोशी बिकी, जादू सौदागरी का चल गया
शेयरों से आग धधकी, ज्वाला में लहू जल गया
.कविता में निबन्ध न हो; कल्पना बस ऐसी कि पता न चले कि आज के बाजारवाद की बात चल रही है तो द्वापर की राधा और गोपी-ग्वाले बीच में कहाँ से टपक पड़े !
छोड़ दुकनिया लक्ष्मीजी के / मॉल में कदम बढ़े…
’एक खरीदो एक मुफ़्त में’ / निदान हर बाधा का
बक्से में भर खूब सज गया / बिका प्यार राधा का
आवारा गोपी–ग्वालों ने / क्या क्या सपन गढ़े…
८.काव्य में भावों की आतुरता होनी चाहिये भले ही कुल मिला कर बात व्यंग्य में लिखी हुई जान पड़े :
ज्वार समेटे मन के / दरपन की टक्कर में
दुनिया उलझी / राशन पानी के चक्कर में
जग है झूठा / भावों की आतुरता कितनी चहकी चहकी
सभी द्रष्टिकोण अपना कर देखे और साहित्य की इतनी परिभाषायें बना ली कि अब सोच कर थक चला हूँ। गलती में मुझ नादान के हाथों बेचारे सत्यं शिवं सुन्दरं के साथ अत्याचार भी हुआ होगा इसके लिये पाठकों से क्षमा मांगता हूँ। अच्छी बात यह है कि चलो देर से ही सही, मुझे आत्मज्ञान हो गया कि मैं क्या हूँ और मेरी कवितायें क्या हैं ?
रुग्ण बाग में पंछी घायल / रक्त वमन जब बहता
विभत्स में शृंगार रसों की / लुकाछिपी खेलाई
विद्रोही दिल रोता रहता / दर्द बहुत ही सहता
फिर भी लफ्जों को निचोड़ कर / बदबू ही फैलाई
खाद समझ नाले से मैंने / कीचड़ तो बिखराया
किन्तु हाय! गन्ध फूलों की / बिखराना बाकी है
लिखने को तो बहुत लिखा /पर कुछ लिखना बाकी है
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हास्य-व्यंग्य
” पैर “-राघवेन्द्र अवस्थी
आज सुबह सैर के दौरान ….एक विचार मन में आया कि क्यों न मैं एक निबंध लिखूं …..ठीक वैसे ही जैसे मैं अपने स्कूल या कालेज के दिनों में या इक्का दुक्का प्रतियोगी परीक्षाओं में लिखता था ….
फिर मैंने विषय भी चुना ——– ” पैर ”
पैर इस पूरे शरीर का कितना बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा हैं ….लेकिन कितने उपेक्षित , भला हो बोलीवूड और बार- बालाओं का जो इनको ग्लैमरस बना दिया ….अन्यथा इनकी चर्चा लगभग ना के बराबर।
सनातन धर्म में केवल गुरु की पाद-पूजा के महत्व को बताते हुए जरूर इन्हें महत्व मिला है और कुछ परिवारों में आज भी सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रतीकात्मक स्पर्श-बिंदु …..अन्यथा पूरे शरीर की व्यवस्था में दलित और उपेक्षित ही रह जाते ये ।
चेहरे ,बालों ,खालों , हांथों ,होंठों आदी के लिए कितनी सारी क्रीमे ……और जो भार धोने का काम करते हैं वे अक्सर गंदे मोजों में कैद रहते हैं …बेचारे।
अगर पैरों का अपना दिल और दिमाग होता तो वे अब तक अपना संगठन बनाकर केजरीवाल की तर्ज़ पर धरने पर बैठे जंतर-मंतर पर ही दिखाई देते …..बेचारे उफ़ भी नहीं करते……….वसा की मोटी-मोटी परतों और कमर -पीठ पर झूलते बड़े -बड़े बिलौटों को बिना उफ़ किये बस ढोते ही रहते .
आगे जारी रहेगा …आप बताओ लिखूं निबन्ध कि ना लिखूँ ?
पैरों और लातों के भी कई प्रकार हैं ……पैरों के भूत या भविष्य भले ही ना हों लेकिन लातों के भूत तो जरूर होते हैं ।
एक लात का प्रहार भगवान विष्णु ने अपने हृदय पर सहा था …..ऋषि भ्रगु का …शायद …..इसी पैरों की नाप से बाल-भगवान ने तीनो लोकों को नाप लिया था …..यह नापने का सबसे बड़ा मापक यंत्र भी बना ……श्रीमद भगवत पुराण में ऐसी कथा भी आती है कि साढ़े तीन कदम भूमि का दान मागने वाले भगवान ने राजा बली का शरीर भी नाप लिया था ….पैरों से।
पैरों से ही बना होगा पैरोंकार……अर्थात आगे बढाने वाला ……मामले को ढो कर ले जाने वाला
पैर बहुत हड्डियों की असेम्बली हैं ………सबसे ज्यादा हड्डियां पैरों में ही होती हैं …ऐसा भी मुझे ज्ञात है।
पैरों को शरीर के मध्य भाग से जोड़ने वाली हड्डी जो सबसे लम्बी और लगभग १५०० किलो तक भार उठाने में सक्षम होती है उसका नाम फीमर होता है ….जो कूल्हे की हड्डी से एक बाल साकेट से जुडी होती है ……इस हड्डी की खासियत यह है कि यह कभी भी अपने आप नहीं टूटती …..जब तक की पुलिस की थर्ड डिग्री जुल्मोसितम गारत ना हों …..यह कूल्हे की ह्ह्द्दी का साकेट तो तोड़ देती है …लेकिन खुद समूची ही बनी रहती है अधिकाँश अवसरों पर भी।
घुटनों का बहुत महत्व है ,,,,पैरों का हिस्सा ही होते हैं ……प्रणय -निवेदन के समय पूरे शरीर का भार अक्सर पैरों से अपने जिम्मे ले लेते ……योरोप में इस विधि का ज्यादा चलन है …अपने देश में भी घुटनों का भांति-भाँती से समय-समय पर आनंददायक उपयोग होता है
तमाम दैहिक और सामजिक क्रियाएं बिना घुटनों के संपन्न ही नहीं हो सकतीं ….अगर विशवास न हो तो अपने बीते जीवन -काल पर नज़र दौड़ा लें …..अभी।
आसन्न संकट में बहुत चपल हो जाते ये पैर ……इनकी चपलता को ध्यान में रखते हुए ही इनकी सुरक्षा के लिए प्रयोग में लाने वाले प्लास्टिक ,चमड़े , रबर आदी के कलात्मक उपकरण का नाम पडा होगा ” चप्पल ”
पैरों का चप्पल से वही सम्बन्ध है जो चोली का दामन से ……क्या नहीं ऐसा ?
एक फलसफा यह भी है कि जिंदगी एक दौड़ है ….और दौड़ बिना पैरों के संभव नहीं ….असली ना भी हो तो नकली ही सही …..अतः सिद्ध हुआ कि पैरों का जिंदगी के लिए बहुत महत्त्व है।
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संस्मरण
इतना असीम स्नेह-रूपसिंह चन्देल
यह १९९२ के उत्तरार्ध की बात थी.
मुझे लगातार संदेश मिल रहे थे कि वह मुझसे मिलना चाहते थे. प्रकाशक और शक्तिनगर (दिल्ली) के मोहल्लावासी जवाहरलाल गुप्त ने कुछ अधिक ही उनसे मेरी प्रशंसा की हुई थी और वही आकर उनके विषय में मुझे सूचित किया करते थे. जवाहरलाल तब तक अपने प्रकाशन पेनमैन पब्लिशर्स से उनकी एक या दो पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे, उनमें उनकी अंग्रेजी में लिखी महत्वाकांक्षी पुस्तक ’अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ भी थी.
अंततः अक्टूबर में एक दिन मैं जवाहरलाल के साथ वीरेन्द्र जी, यानी वीरेन्द्र कुमार गुप्त, के रोहिणी के सेक्टर ६ के उनके फ्लैट में मिलने पहुंचा. उन्हें सूचना थी और मैंने पाया कि वह बेसब्री से हमारा इंतजार कर रहे थे. घर में केवल वह और उनकी पत्नी थे. श्रीमती गुप्त, जिन्हें बाद में मैं भाभी जी कहने लगा था, का सत्कार आज भी नहीं भूला. पूरी तिपाई ही खाद्य पदार्थों से भर दी थी उन्होंने और हमारे सामने बेड पर बैठकर साग्रह ताकीद भी करती रही थीं, “अभी तो यह चखना शेष है—तो अभी यह….आपने तो कुछ खाया ही नहीं. —और कुछ लीजिए—गुलाबजामुन तो आपने छुआ ही नहीं.” पहली मुलाकात में ही उनके साथ जो आत्मीयता स्थापित हुई वह उनके जीवन पर्यंत कायम रही.
उस दिन हमारी चर्चा साहित्य केन्द्रित रही थी. उनकी साहित्यिक विकास यात्रा के बारे में कुछ जानने का अवसर मिला. तब तक उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें उनके ऎतिहासिक उपन्यास –’प्रियदर्शी’ और ’विजेता’ भी थे. उनके इन उपन्यासों को राजपाल एण्ड संस ने बहुत पहले प्रकाशित किया था. मैंने जब इन उपन्यासों को पढ़ा तो हत्प्रभ रह गया. भाषा, शिल्प और कथानक के स्तर पर ये हिन्दी के शीर्षस्थ ऎतिहासिक उपन्यासों की श्रेणी में परिगणित होने वाली कृतियां हैं, लेकिन भीड़ से दूर रहने वाले वीरेन्द्र जी के उन उपन्यासों के विषय में शायद ही हिन्दी के साहित्य-प्रेमियों को जानकारी होगी. बाद में मेरे प्रयास से इन दोनों उपन्यासों का पुनर्मुद्रण ’प्रवीण प्रकाशन’ (तब महरौली – अब दरियागंज) से हुआ था.
उसके पश्चात से वीरेन्द्र जी से मिलने का सिलसिला चल पड़ा था. बढ़ती आयु के बावजूद मुझसे मिलने का उनमें इतना उत्साह था कि यदि मैं उनके यहां नहीं जा पाता तो शक्तिनगर की ओर का कोई काम निकालकर वह मुझसे मिलने आ जाया करते थे. वह दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग से उप-प्रधानाचार्य के पद से अवकाश मुक्त हुए थे. उनका बैंक आजाद मार्केट में था और प्रतिमाह पेंशन के सिलसिले में वह बैंक आते तो मेरे यहां भी आ जाते, क्योंकि आजाद मार्केट शक्तिनगर के निकट है. ऎसे अवसर वह प्रायः शनिवार को निकाला करते थे, क्योंकि उसदिन मेरा अवकाश होता था. कितनी ही मुलाकातों के पश्चात मुझे यह जानकारी मिली थी कि वह प्रसिद्ध कथाकार स्व. योगेश गुप्त के बड़े भाई थे. वीरेन्द्र जी जितना अनुशासन प्रिय और जीवन के प्रति सचेत थे, योगेश उतना ही लापरवाह. वीरेन्द्र जी के जीवन के प्रति सचेतता और अनुशासन प्रियता ही शायद वह कारण रहा कि उनके बेटे और बेटियां न केवल उच्च शिक्षित हुए बल्कि सरकारी सेवाओं में भलीभांति व्यवस्थित भी हुए. उनके बड़े बेटा आज भी आई.आई.टी. रुड़की में प्रोफेसर(फिजिक्स) हैं और छोटा बेटा आई.ए.एस.(अलाइड) सेवा में. दोनों बेटियां भी सरकारी नौकरियों में थीं. जीवन को शून्य से शुरु करने वाले व्यक्ति के लिए इससे अधिक संतोष की और क्या बात हो सकती थी.
प्रायः वीरेन्द्र जी अपने जीवन के संघर्षों का उल्लेख किया करते थे. उनके पिता सहारनपुर के रहने वाले थे. उनका प्रिण्टिंग प्रेस था. स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण प्रेस बंद हुआ और परिवार विस्थापित होकर दिल्ली आ गया और घण्टाघर के पास किराए पर वे लोग रहने लगे. हाई स्कूल करने के पश्चात वीरेन्द्र जी को नौकरी करनी पड़ी थी. उन्हें पहली सरकारी नौकरी ब्रिटिश हुकूमत के तहत आर्मी हेड़क्वार्टर्स में मिली थी. कुछ वर्षों तक उन्होंने वह नौकरी की थी. साथ ही शैक्षणिक शिक्षा भी प्राप्त करते रहे थे. देश की आजादी के पश्चात वह नौकरी जाती रही. इस विषय में मुझे अधिक जानकारी नहीं कि कब वह दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए थे.
एक बार शिक्षक बनने के पश्चात वह आजीवन शिक्षक रहे…ज्ञान देते और स्वयं ज्ञानार्जित करते. लंबे समय तक वह कमला नगर में सरकारी मकान में रहे थे, लेकिन यह शायद तब की बात थी जब मैं दिल्ली नहीं आया था. बच्चों की अच्छी परवरिश देने के लिए अध्यापन की नौकरी के साथ उन्होने अनुवाद और ट्यूशन किए. उन्होंने राजपाल एण्ड संस के लिए बारह पुस्तकों के अनुवाद किए, जिनमें कई विश्व के महान रचनाकारों की कृतियां थीं. एक कृति मेरे हाथ भी लगी, वह जैक लण्डन का नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास ’कॉल ऑफ द वाइल्ड’ था, जिसका अनुवाद उन्होंने ’जंगल की पुकार’ शीर्षक से किया था. जैक लण्डन के इस उपन्यास का वीरेन्द्र जी द्वारा किया वह अनुवाद इतना अद्भुत है कि मैं अभिभूत हुए बिना नहीं रह सका. इस उपन्यास का वही प्रथम और अंतिम अनुवाद है. एक बार वीरेन्द्र जी को उसके पुनर्मुद्रण की हुड़क सवार हुई. मुझसे चर्चा की. मैंने उन्हें विश्वनाथ जी से चर्चा कर लेने की सलाह दी. विश्वनाथ जी को पत्र लिखने से पहले वीरेन्द्र जी रोहिणी में रहने वाले एक छोटे प्रकाशक (किन्हीं शर्मा जी, जो बंग्लोरोड स्थित एक बड़े प्रकाशन के भागीदार रहे थे और बटवारे के बाद अपना कोई छोटा प्रकाशन चला रहे थे) से इस विषय में चर्चा कर चुके थे. उस व्यक्ति ने उनके पास मौजूद एक मात्र प्रति पढ़ने के बहाने हस्तगत कर ली. जब मुझे इस विषय में जानकारी हुई तब मैंने वीरेन्द्र जी को सलाह दी कि वह तुरन्त उससे प्रति वापस ले लें. उन्होंने ऎसा किया भी लेकिन तब तक भलेभाव में तीर उनके हाथ से निकल चुका था. बाद में जानकारी मिली कि उस प्रकाशक ने उसकी फोटो प्रति बनवा ली थी और भाषा में मामूली परिवर्तन करके उसे प्रकाशित कर लिया था. ऎसे छलावों का पहले भी कितनी ही बार वह शिकार हो चुके थे. विश्वनाथ जी ने ’जंगल की पुकार’ को स्वयं प्रकाशित करने की बात कहकर कहीं अन्यत्र से उसके प्रकाशन से वीरेन्द्र जी को रोक दिया था. हालांकि मैं जानता हूं कि पहले या दूसरे संस्करण के पश्चात उस विश्व प्रसिद्ध कृति को राजपाल एण्ड संस ने कभी प्रकाशित नहीं किया, लेकिन वीरेन्द्र जी की त्रासदी यह थी कि वह उसके अनुवाद का कॉपी राइट उन्हें दे चुके थे. प्रायः अनुवादकों को इस प्रकार की अपमानजनक स्थिति का सामना करना पड़ता है.
घर की गाड़ी खींचने के लिए वह जिन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे उनमें वरिष्ठ कथाकार और कवि रामदरश मिश्र जी के बच्चे भी थे. एक दिन मैं उनसे मिलने गया तो उन्हें बहुत ही उदास पाया. ऎसा पहली बार हुआ था. स्वागत में उत्साह पुराना था, लेकिन चेहरे पर उदासी और बातचीत में उत्साहहीनता. कुछ देर बाद ही मैंने कारण पूछ लिया. यह उन दिनों की बात है जब कुछ दिन पहले ही उनका खण्डकाव्य ’कुरुक्षेत्र में राधा’ उनके भाई योगेश ने अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया था. दरअसल जीवनपर्यंत उन्होंने योगेश की आर्थिक सहायता की थी. भाई की सहायता करने के लिए वह कभी-कभी बहाने भी खोज लिया करते थे और यदि वह नहीं खोज पाते थे तब योगेश स्वयं उन्हें रास्ते सुझा देते थे. ’कुरुक्षेत्र में राधा’ योगेश ने मुफ्त में नहीं छापा था. यह बात अन्य एक अवसर पर वीरेन्द्र जी ने मुझे बतायी थी. लेकिन उन्हें संतोष था कि इसी बहाने उन्होंने छोटे भाई की सहायता की थी.
तो बात उस दिन की. उस दिन मेरे कुरेदने पर बहुत ही संजीदा होकर वीरेन्द्र जी बोले, “यार–, वह फोन पर तो मुझे यार कहते ही थे, सामने बातचीत में तो कितनी ही बार इस शब्द का प्रयोग करके मुझे बराबरी का दर्जा देते थे, जो मुझे अच्छा लगता, “ यार, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर साहब हैं—बहुत पुरानी जान-पहचान है…तब से जब वह मॉडल टाउन में रहा करते थे—मेरी इच्छा थी कि मैं अपना खण्ड-काव्य ’कुरुक्षेत्र में राधा’ उन्हें पढ़ने के लिए भेजूं. आज सुबह की ही बात है. उन्हें फोन किया. पहले तो उन्होंने पहचानने से ही इंकार कर दिया, लेकिन तत्काल याद करके बोले, “ ओह,वीरेन्द्र कुमार गुप्त—मेरे बच्चों के मास्टर—आप मेरे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे न—वही..” वीरेन्द्र जी ने इतना सुनते ही फोन काट दिया था. मैंने नाम पूछा. काफी देर की चुप्पी के बाद उन्होंने नाम बताया था. मुझे कतई आश्चर्य नहीं हुआ. विश्वविद्यालय के अधिकांश प्राध्यापकों में एक प्रकार का अहंकार और साहित्यिक कुंठा होती है.
वीरेन्द्र जी बहुत ही परिश्रमी व्यक्ति थे. सुबह से देर रात तक काम करने वाले. वह जैनेन्द्र कुमार के बहुत निकट रहे थे. यह शायद उनके अध्यापकी के प्रारंभिक दिनों की बात थी. वह प्रतिदिन सुबह सात बजे जैनेन्द्र जी के यहां जाने के लिए साइकिल पर घर से निकल जाते थे. उन दिनों वह दर्शन पर आधारित उनका लंबा साक्षात्कार कर रहे थे, जो छठवें दशक के मध्य में ’समय और हम’ नाम से प्रकाशित हुआ था. ’समय और हम’ की योजना वीरेन्द्र जी के मस्तिष्क की उपज थी. वह प्रश्न लिखकर ले जाते और जैनेन्द्र जी उन प्रश्नों के उत्तर उन्हें डिक्टेट करवाते. लगभग दो घण्टे जैनेन्द्र जी के साथ बिताकर वह स्कूल जाते. घर लौटकर ट्यूशन, फिर लिखवाए गए उत्तरों के आधार पर अगले दिन के लिए आगे के प्रश्न तैयार करना—अपने बच्चों को पढ़ाना….अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना संघर्षपूर्ण जीवन जी रहे थे वह उन दिनों. प्रतिदिन एक वर्ष जैनेन्द्र जी के यहां वह जाते रहे थे और उनके प्रश्नों और जैनेन्द्र जी के उत्तर के आधार पर जो पुस्तक तैयार हुई वह थी –’समय और हम’. यह पुस्तक मैंने १९७८ में पढ़ी थी.
’समय और हम’ प्रकाशित होने के पश्चात उनके और जैनेन्द्र जी के मध्य विवाद पैदा हुआ. लंबा पत्राचार हुआ था. जैनेन्द्र जी ने कुछ चालाकी की थी. उन्होंने वीरेन्द्र जी को पूरी तरह नकार दिया था. पुस्तक पर जैनेन्द्र जी का नाम था और वीरेन्द्र जी केवल प्रश्नकर्ता के रूप में थे. वीरेन्द्र जी की चालीस पृष्ठों की भूमिका अवश्य उसमें विद्यमान थी. वीरेन्द्र जी का आहत होना स्वाभाविक था. जिसकी सम्पूर्ण रूपरेखा उनकी थी उससे वही अपदस्थ थे. मेरा मानना है कि उत्तर देने वाले से अधिक महत्व और जिम्मेदारी प्रश्नकर्ता की होती है. दोनों के मध्य लंबा पत्राचार हुआ. उस पत्राचार की फोटो-प्रतियां मेरे पास उपलब्ध हैं. पुस्तक का पहला संस्करण किसी अन्य प्रकाशक से प्रकाशित हुआ था, लेकिन उसके समाप्त होते ही, जोकि शायद जल्दी ही समाप्त हो चुका था, जैनेन्द्र जी ने उसे अपने प्रकाशन से प्रकाशित किया था. लगभग सात सौ पृष्ठों की उस पुस्तक को बाद में कई भागों में विभक्त कर दिया गया. मेरा मानना है कि एक व्यक्ति का इतना लंबा एक साक्षात्कार विश्व में शायद ही किसी अन्य साहित्यकार का उपलब्ध हो. जब मैंने वीरेन्द्र जी से इस विषय में पूछा, वह बोले, “मैंने विवाद को अधिक आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा था.”
“क्यों?”
“क्योंकि जैनेन्द्र जी के प्रति मेरे मन में अगाध श्रृद्धा थी…एक सीमा के बाद मैंने पत्राचार बंद कर दिया था, जबकि कई लोगों ने कोर्ट जाने की भी सलाह दी थी…ऎसा करना मेरी नैतिकता के विरुद्ध था.” वीरेन्द्र जी ने हंसते हुए कहा था.
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1964 में वीरेन्द्र जी ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करवाई थी—विश्व के महान लोगों के प्रेम पत्रों की पुस्तक. उसमें विश्व की पचासों महान विभूतियों के प्रेम पत्र संग्रहीत हैं. इसके लिए उन्होंने बहुत शोध किया—अनेक पुस्तकालयों की खाक छानी. इस विषय में जब मुझसे चर्चा की तब मैंने उसे पुनः प्रकाशित करवाने की उन्हें सलाह दी. “कौन छापेगा?” उदास स्वर में उन्होंने पूछा था.
“मैं बात करता हूं.” मैंने उन्हें आश्वस्त किया था. इस बात के लिए मैं एक दिन किताबघर (अब किताबघर प्रकाशन) के श्री सत्यव्रत शर्मा से मिला. मेरे प्रस्ताव का शर्मा जी ने उत्साहजनक उत्तर दिया. पुस्तक उन्होंने प्रकाशित की थी. बाद में मेरे सुझाव पर सत्यब्रत शर्मा ने वीरेन्द जी का बहुचर्चित ऎतिहासिक उपन्यास –’विष्णुगुप्त चाणक्य’ प्रकाशित किया था. इस उपन्यास का पेपरबैक संस्करण राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया था. मैंने वीरेन्द्र जी को सलाह दी कि वह राजकमल प्रकाशन को पत्र लिखकर उसका हार्डबाउण्ड संस्करण प्रकाशित करने के लिए कहें. मैं जानता था कि राजकमल शायद ही इस बात के लिए तैयार होगा. वही हुआ. फिर मेरे सुझाव पर वीरेन्द्र जी ने किसी अन्य प्रकाशक से हार्ड बाउण्ड छपवाने के लिए राजकमल से अनुमति मांगी, जिसमें उसे कोई आपत्ति न थी और इस प्रकार यह उपन्यास भी किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था.
उस घटना के उल्लेख के बिना शायद बात अधूरी रह जाएगी. इस उपन्यास के विषय में चर्चा करने के लिए उन्होंने मुझे साथ चलने का प्रस्ताव किया. दरियागंज ऎसी जगह है जहां गाड़ी ले जाना मुझे सदैव कुंए में फंस जाने जैसा लगता है. मैंने उन्हें स्कूटर से चलने का प्रस्ताव किया. वीरेन्द्र जी सहर्ष तैयार हो गए. मैंने उन्हें मिलने के लिए अपनी प्रिय जगह कनॉट प्लेस के कॉफी होम बुलाया. वह कॉफी होम के इर्द-गिर्द देर तक भटकते रहे. अंततः मैंने उन्हें होम के पीछे जा पकड़ा. कुछ देर हम वहां बैठे…शायद वह प्रथम और अंतिम बार वहां बैठे थे. स्कूटर से हम किताबर गए. बातचीत के बाद वीरेन्द्र जी ने कहा कि मैं उन्हें कश्मीरी गेट छोड़ दूंगा तो उन्हें वहां से रोहिणी की बस मिल जाएगी. हम राजघाट के सामने मोड़ पर पहुंचे ही थे कि पासपोर्ट आफिस का बोर्ड मुझे दिखाई दिया. बच्चों के पासपोर्ट बनवाने की योजना कुछ दिनों से दिमाग में चल रही थी. मैंने उस आफिस का फोन नम्बर लिखने के लिए स्क्टूटर रोका और वीरेन्द्र जी को उतरने के लिए कहा. स्क्टूटर की स्टेपनी काफी ऊंची है (यह एल.एम.एल. वेस्पा स्कूटर मैंने ३१ मार्च,१९८९ को खरीदा था और आज भी जैसा था वैसा ही चल रहा है…फर्क इतना ही कि अब यह घर के आसपास तक ही सीमित है, क्योंकि न अब इसका इंश्योरेंस होता है और न ही १५ वर्षों के पश्चात इसका मैंने नवीनीकरण करवाया). वीरेन्द्र जी पांच फुट चार इंच के लगभग थे. उतरते समय उनका पैर स्टेपनी में फंस गया. बैलेंस ऎसा बिगड़ा कि वह भी गिरे और मैं भी. स्कूटर हम दोनों के ऊपर उढ़क गया. स्कूटर खड़ा कर मैंने वीरेन्द्र जी को देखा. चोट नहीं थी. वह संभलकर खड़े हो चुके थे. लेकिन कश्मीरी गेट तक स्क्टूटर से जाने का इरादा उन्होंने बदल दिया था. बोले, “रिंग रोड से मैं मुद्रिका ले लूंगा —आप निकल जाओ.” मैंने दबी जुबान उन्हें साथ चलने के लिए कहा भी लेकिन शायद उनका साहस जवाब दे गया था.
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वीरेन्द्र जी बहु-आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. कविता, लेख, उपन्यास, साक्षात्कार, आध्यात्म—उन्होंने बहुत लिखा. उनके आलेखों की पुस्तक उनकी मृत्यु से दो-तीन दिन पहले भावना प्रकाशन से प्रकाशित हुई, जिसे देखने की लालसा लिए वह चले गए. भावना प्रकाशन ने उनके दो उपन्यास भी प्रकाअशित किए थे. उनकी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी पुस्तक थी, “अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ जो शायद १९९० के आसपास एक बहुत ही छोटे प्रकाशक से प्रकाशित हुई थी और उसे लेकर जिन्दगी भर उन्हें मलाल रहा. बाद में उन्होंने बताया था कि उस दौरान प्रकाशक ने उनसे उस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए खासी रकम ली थी. वह उसने वापस लौटायी या नहीं यह जानकारी नहीं, लेकिन यह जानकारी मुझे है कि उसने उसे बेच लिया था. वीरेन्द्र जी उसे किसी बड़े प्रकाशक से प्रकाशित देखना चाहते थे, लेकिन अंग्रेजी प्रकाशकों से न उनकी पहचान थी और न मेरी जबकि पुस्तक अंग्रेजी में थी. यदि उसे सही प्रकाशक मिला होता तो वह पुस्तक निश्चित ही यशपाल की बहु-चर्चित पुस्तक –’गांधीवाद की शव परीक्षा’ की भांति चर्चित हुई होती.
वीरेन्द्र जी की अपनी एक खास विचारधारा थी. उन्होंने इतिहास,पुराण, उपनिषद, जैन आदि साहित्य का गहन अध्ययन किया था. बुद्ध कालीन और परवर्ती साहित्य के अध्ययन ने उनमें यह सोच पैदा कर दी थी कि अहिंसावादी सोच के कारण ही यह देश एक हजार सालों तक गुलाम रहा. बौद्ध दर्शन ने प्रतिरोध की क्षमता नष्ट कर दी. ’अहिंसा इंडियाज डेस्टिनी’ में उन्होंने अपनी इसी विचारधारा को अनेकानेक उद्धरणों और प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है. लगभग २५० पृष्ठों की इस पुस्तक से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन लेखक के तर्क सहजता से खारिज भी नहीं किए जा सकते. जीवन के अंतिम दिनों में वह किसी भी रूप में उसे प्रकाशित देखना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने कुछ प्रकाशकों को आधा पैसा तक खर्च करने का प्रस्ताव भी किया था, लेकिन कोई सही प्रकाशक उन्हें कभी नहीं मिला.
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भाभी जी की मृत्यु के पश्चात वीरेन्द्र जी ने अपने बड़े बेटे प्रवीण के पास रुड़की जाकर रहने का निर्णय किया. साल में दो-तीन बार वह दिल्ली आते और कुछ दिन रहते. कभी उनसे मेरी मुलाकात होती तो कभी नहीं.
नवंबर,२००४ में स्वैच्छिक सेवाकाश लेने के पश्चात मैंने सबसे पहला काम लियो तोलस्तोय के अंतिम और अप्रतिम उपन्यास ’हाजी मुराद’ का अनुवाद करने का किया. यह उपन्यास मुझे केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय से मिला था, जिसे देखकर मैं हत्प्रभ था. तब तक मैंने वीआरएस नहीं लिया था. उपन्यास की चर्चा मैंने अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों से की, लेकिन किसी को भी ’हाजी मुराद’ की जानकारी नहीं थी. मैंने तभी निर्णय किया था कि वीआरएस लेते ही सबसे पहला काम उसके अनुवाद का करना है. अनुवाद पूरा करने के पश्चात मैंने उसके कुछ चैप्टर वीरेन्द्र जी को देख लेने का अनुरोध किया. उनके अनुवादों से मैं बहुत प्रभावित था. उन्होने स्वीकृति दी तो मैने चार चैप्टर उन्हें भेज दिए. लगभग दो माह बीत गए—जब भी रुड़की फोन करूं वह कह देते, “अभी तक एक ही देख पाया हूं.” अंततः एक दिन उनका फोन आया, “यार, मैं एक चैप्टर ही देख पाया हूं….कुछ जगहों पर छेड़-छाड़ की है…शेष देख पाने में समय लग सकता है. आप खुद ही देख लो—मैं सामग्री कल भेज रहा हूं.” मैंने बुझे मन कहा, “ठीक है.” दो दिन बाद सामग्री मिली. पहले चैप्टर में यत्र-तत्र लाल स्याही का इस्तेमाल हुआ था. उस सबको एक बार नहीं दो-तीन बार ध्यान से पढ़ा और समझ गया कि वीरेन्द्र जी ने सही मायने में एक अध्यापक की भूमिका निभायी थी. यदि विद्यार्थी का सारा काम अध्यापक कर दे तो विद्यार्थी क्या करेगा. आखिर परीक्षा तो उसे ही उत्तीर्ण करनी होती है. मेरे लिए उनकी यह नसीहत इतनी महत्वपूर्ण सिद्ध हुई कि मैंने एक बार नहीं तीन बार हाजी मुराद के अनुवाद को रिवाइज किया. पूर्णरूप से संतुष्ट होने के पश्चात ही उसे संवाद प्रकाशन को भेजा था.
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वीरेन्द्र जी ने मेरे अंतिम दो उपन्यासों को छोड़कर सभी उपन्यास पढ़े थे. ’रमला बहू’ पर उन्होंने विस्तृत समीक्षा लिखी थी. ’पाथरटीला’, ’नटसार’ और ’शहर गवाह है’ उपन्यासों के विषय में उनका कथन था कि जब तक वे उन्हें समाप्त नहीं कर पाए बेचैन रहे थे.
रुड़की जाने के बाद पहले सप्ताह में एक दिन उनका फोन आता रहा था. फिर यह सिलसिला सप्ताह में दो दिन, फिर तीन और पिछले चार वर्षों से प्रतिदिन का सिलसिला बन गया था. फोन करने का उनका कोई समय निश्चित नहीं था. कभी वह सुबह ९ बजे कर देते तो कभी बारह बजे. कितनी ही बार उनका फोन तब आता जब मैं ड्राइव कर रहा होता. फोन न सुन पाता तो शाम या रात को करके शिकायत करते, “यार, अमुक समय किया था—आपने उठाया नहीं था.” मैं स्पष्टीकरण देता तो कहते, “कोई बात नहीं—मैं तो वैसे ही कर लेता हूं…आप ही तो हैं जिसे फोन करता हूं. एक दिन भी नागा हो जाता है तो बेचैनी होने लगती है.”
इतना असीम स्नेह…. कई बार ऎसा भी हुआ कि दो-तीन दिन मैं उनका फोन नहीं सुन पाया. बाद में समय मिलने पर किया तो बोले, “अरे, कोई खास बात नहीं थी—आपने क्यों किया—मैं स्वयं करता.” अर्थात फोन करने का अधिकार वह अपने पास सुरक्षित रखना चाहते थे. लेकिन यदि दो-चार दिन उनका फोन नहीं आता तो मुझे बेचैनी होने लगती, “वीरेन्द्र जी कहीं अस्वस्थ तो नहीं—क्या बात हुई” और मैं फोन कर हाल पूछता तो कहते, “यार, कुछ लिखने में उलझ गया था.”
अंतिम दिनों में उन्होने एक उपन्यास पूरा किया था. नवंबर,२०१३ में मुझे पढ़ने के लिए भेजा. मैं बेटी के विवाह की तैयारी में व्यस्त हो चुका था. बीच-बीच में वह पूछ लेते, “यार, मौका लगाकर पढ़ लो. आपकी सलाह की प्रतीक्षा है…कुछ कमी होगी तो कर दूंगा.” सच यह कि उपन्यास के दस पेज पढ़ने के बाद आज तक उसे नहीं पढ़ पाया हूं. एक अपराधबोध है मुझे इस बात का.
मुझे एक मित्र ने बताया कि उन्होंने गीता का अनुवाद किया है, जिसे बंग्लो रोड के प्रकाशक ’चौखंभा’ प्रकाशित कर रहे हैं. मैंने वीरेन्द्र जी से पूछा,” आपने यह बात मुझे बतायी नहीं…” लहजे में शिकायत थी. बोले, “यार, वह आपकी रुचि का काम न था—इसलिए…” फिर स्वयं बताया कि चौखंभा ने दर्शन पर अंग्रेजी में लिखी उनकी पुस्तक –’इनरशेल्फ’ दो साल पहले प्रकाशित की थी और चौखंभा के लिए उन्होंने ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ का अंग्रेजी अनुवाद भी किया था. वह भी प्रकाशित हो चुका था.
पचासी वर्ष की आयु में भी वह कितना सक्रिय थे, सोचकर आश्चर्य हुआ था. यहां यह बताना आवश्यक है कि वीरेन्द्र जी की शिक्षा बहुत व्यवस्थित ढंग से नहीं हुई थी. स्वाध्याय के बलपर ही उन्होने हिन्दी और अंग्रेजी पर पारगंतता हासिल की थी. यह एक बड़ी बात थी. उनके सर्वाधिक प्रिय लेखक थे दॉस्तोएव्स्की. मेरी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ लिखने की मूल प्रेरणा मुझे वीरेन्द्र जी से ही मिली थी. उन्होंने ही कुछ पुस्तकें भी सुझाई थीं—उस पुस्तक के लिखे जाने का श्रेय निश्चित ही वीरेन्द जी को था.
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२६ जनवरी,२०१४ को उन्होंने पूछा, “तुमने मुझे बिटिया का कार्ड भेजा?” मैंने कहा, “अभी तक नहीं भेज पाया”
“क्यों?” मैं सकपका गया, “यार, मैं आना चाहता हूं. कार्ड तो भेजो.” मैंने कहा, “ठंड बहुत अधिक पड़ रही है. आपका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं—फिर—“
“तुम इसकी परवाह क्यों करते हो?” कुछ दिनों से वह मुझे आप के स्थान तुम बोलने लगे थे. “तुम कार्ड तो भेजो…मैं जैसे भी होगा…आउंगा.”
मैंने हामी भरी. फोन काट दिया. क्षणभर बाद ही उन्होंने पुनः फोन किया, “मुझे अपने घर का पता लिखवाओ.”
“मैं पहले ही समझ रहा था कि बार-बार कार्ड भेजने के लिए वह क्यों कह रहे थे और मैं उसी कारण जानबूझकर टाल रहा था. लेकिन अब कोई उपाय नहीं था. मैंने उन्हें पता लिखवाया और कहा, “वीरेन्द्र जी, जिस कारण आपने पता लिया है वह सब आप न करें क्योंकि मैंने निर्णय किया है कि मैं किसी भी आमन्त्रित से गिफ्ट नहीं लूंगा.”
वीरेन्द्र जी भड़क गए. ऎसा पहली बार हो रहा था. बोले, “वह तुम्हारे लिए नहीं होगा. वह बेटी के लिए सगन होगा और जो भी व्यक्ति जो कुछ भी देगा वह तुम्हारे लिए नहीं बेटी के लिए देगा. सगन लेने से तुम इंकार नहीं कर सकते.”
मैं चुप रहा था. और तीसरे दिन वीरेन्द्र जी का पांच हजार एक सौ रुपयों का चेक आ गया था. मैंने उन्हें सूचित किया. बोले, “उसे घर में न रखो…बैंक में जमा कर आओ.” मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया था. यही मेरा उनसे अंतिम संवाद था. मैं भी इतना व्यस्त था कि स्वयं फोन नहीं कर पाया. एक रात प्रवीण जी का फोन आया. उन्होंने बताया कि वीरेन्द्र जी ८ फरवरी की रात नहीं रहे थे. उन्होंने उनके चौथे की सूचना देने के लिए फोन किया था. मेरे लिए यह अकल्पनीय था….प्रवीण जी की बात सुनकर देर तक मैं अबोला ही रहा था.
२९ अगस्त,१९२८ को सहारनपुर में जन्मे वीरेन्द्र जी ८ फरवरी,२०१४ की रात दो बजे से तीन बजे के मध्य कब हृदयाघात का शिकार हो गए—किसी को पता नहीं चला. उन जैसा कर्मठ, भला और ईमानदार व्यक्ति आज के समय में मिलना कठिन है. मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों में हूं जिसे उनका प्रगाढ़ प्रेम मिला.
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रूपसिंह चन्देल
बी-३/२३०, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-११० ०९४
मो. ९८११३६५८०९/८२८५५७५२५५
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कहानी की कहानी
बच्चों की फरमाइश पूरी करना चंदामामा के लिए असंभव सा होता जा रहा था और यह बात उन्हें बहुत दुख दे रही थी। ठीक भी तो था, वे बच्चों को प्यार भी तो बहुत करते थे, परन्तु कभी राजा-रानी की, तो कभी परियों वाली, कभी शेर-भालू की, तो कभी पिंजरे में बन्द तोते की, रोज-रोज नई कहानियां वे लाते तो लाते भी कहां से, और बच्चों की तो हमेशा बस यही एक जिद थी कि नई कहानी ही सुनेंगे! हारकर पूरे ही चन्द्रलोक में ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि जो भी बच्चों को रोज नई कहानी सुनाएगा, उसे न सिर्फ पूरा राजपाट दे दिया जाएगा, बल्कि अपने हृदय से लगाकर…बेहद करीब रखेंगे चंदामामा।
अगले दिन ही कहानी सुनाने वालों की लाइन लग गई, अब भला प्यारे-प्यारे से चंदामामा के पास चंद्र्लोक में कौन नही रहना चाहेगा, जहां चारो तरफ टिमटिम करते सुनहरे-रुपहले तारे हों और परियों का भी साथ हो!
पर चंदामामा की तो एक और शर्त भी थी, जिसका पता चलते ही सभी कहानी सुनाने वालों के पसीने छूटने लगे। अब भगवान के अलावा ऐसी कहानी कौन कह सकता है जो कभी खतम ही न हो–या जहां से खतम हो फिर वहीं से शुरु भी हो जाए! फिर भी कहानी तो सुनानी ही थी, सबसे पहले वह जादूगर आया जिसका चारो तरफ बहुत नाम था और जिसे अपने जादू पर बहुत ज्यादा विश्वास भी था।
चंदामामा के आगे आते ही उसने अपनी कहानियों का पिटारा खोल दिया और सब कहानियां उछलकर तुरंत ही बाहर भी आ गईं। चारो तरफ बिखर गईं। चंदा के सिंहासन पर, रात की छतपर, तारों की खूंटी पर… अब चारो तरफ कहानियां ही कहानियां लटक रही थीं पर उन्हें क्रम से बांचने वाला वहां कोई नही था। कहानियां खुद अपनी-अपनी कहानी कह रही थीं और जादूगर चंदा के पास बैठा-बैठा इस अनहोनी जादूगरी पर खुश हो-होकर मुस्कुरा रहा था। अनियंत्रित इस शोर से चंदा के सर में ही नहीं, वहां उपस्थित सभी प्यारे-प्यारे बच्चों के सर में भी दर्द होने लगा और खुश हो कर सो जाने के बजाय वे सब जोर-जोर से रोने लग गये। अब तो सारे बच्चों की मांएं भी घबरा गईं। किसी ने अपने बच्चे को कंधे से लगाकर थपकी देनी शुरु कर दी तो कोई लोरी गा रही थी। कइयों ने तो झुंझला-झुंझलाकर बच्चों को पीट तक डाला और बच्चों को कभी चंदामामा के पास न भेजने की तुरंत ही धमकी तक दे डाली। अब भला चंदामामा बच्चों से कैसे दूर रह पाते, उसी वक्त जादूगर को आकाश-महल से बाहर भेजने का हुक्म दे दिया गया।
अब आई सुन्दर सी नन्ही परी की बारी, जो जाने कबसे लाइन में खड़ी इन्तजार कर रही थी। जब उसने चंदामामा के महल में घुसते ही अपने जुही की पंखुरियों-से कोमल और सुन्दर पंखों को फड़फड़ाया, तो झरती सुनहरी उस धूल के संग कई-कई कहानियां झिलमिल करती चांदनी में तैरने लगीं, मानो चारो तरफ कहानियों का एक रंग-बिरंगा इन्द्रधनुष निकल आया हो। अब तो खुश-खुश दौड़ते भागते बच्चे मन में आता जिस कहानी को पकड़ते और सुनने लग जाते, औरफिर सुनकर छोड़ भी देते यूँ ही तैरने और इन्द्रधनुष बनाने के लिए। इस तरह से उस हँसी-खुशी के माहौल में आराम से बीसियों साल निकल गए। बच्चे इतने खुश थे कि उन्हें अंधेरी रातों में भी कहानी ढूंढने में आनन्द आता—कहानी मिलती या नहीं, कितनी मिलती, इसतक की परवाह नहीं रह गई थी उन्हें अब तो। फिर एक दिन जब वे छोटे-छोटे बच्चे बड़े हो गए और खुद उनके अपने भी बच्चे हो गए, तो उन्होंने जाना कि उनके बच्चे अभी तक वही कहानियां सुन और सुना रहे हैं जो खुद उन्होंने भी कभी परी से सुनी और सुनाई थीं । असल में परी के पंख में जितनी भी कहानियां थीं, वे पृथ्वी के साथ-साथ ही घूमती रहती थीं और पूरे साल में जाकर चक्कर पूरा कर पाती थीं —हां तुम लोगों ने ठीक समझा परी के पास बस तीन सौ पैंसठ ही कहानियां थीं, साल के हर दिन की एक नई कहानी। पर चन्दा तो हमेशा ही, लगातार एक नई कहानी चाहता था इसलिए यह बात फैलते ही उसकी खोज फिरसे जारी हो गई।
इसबार उसने चंद्गलोक पर ही नहीं, सूर्यलोक, पृथ्वी और नौ ग्रह, सब जगह ही डुगडुगी बजवा दी।
‘ लगातार कहानी कहो और चंद्रलोक के सिंहासन पर बैठो।’
पर लगातार कहानी तो किसी के पास नही थी। कोई भी आगे नही आया। चंदा अब सचमें ही बेहद उदास हो गया —इतना उदास कि उसका पूरा मुंह कुम्हला गया, सारी चमक गायब हो गई। आंखों के नीचे बड़े-बड़े गढ्ढे बन गए…वही गढ्ढे जिन्हें आजकल एस्ट्रोनौट्स ने मून-क्रेटर का नाम दिया हैं। चंदामामा दिन-रात दुबला होता जा रहा था। किसी काम में उसका मन नहीं लग रहा था। उसका यह दुख उसकी मां से, जो अब बेहद बुढ़िया हो चली थी, देखा न गया। अपना सूत कातने का चरखा लेकर वह चांद के पास जा बैठी। चंदा का सर अपनी गोदी में ऱखकर बोली, मेरे चंदा, तू इतना उदास क्यों है, आ मैं सुनाऊंगी तुझे लगातार एक नई कहानी। चंदा को उस सफेद रूखे बालों वाली बुढ़िया मां की बात सुनकर हंसी आ गई। बोला, जाओ मां! यह सब तुम्हारे बस का नहीं। क्यों नहीं? हंसकर बुढ़िया मां फिरसे बोली, आखिर मां हूं तेरी। बचपन से ही तेरी देखभाल करती आई हूँ…और तेरी हर जरूरत, पसंद-नापसंद को भलीभांति से जानती भी हूं। लगातार यह चरखा बुन सकती हूं तो क्या लगातार एक नई कहानी नहीं कह सकती— और फिर तुम और तुम्हारे ये संगी-साथी, ये तारे भी तो हैं ही मेरी मदद के लिए। देखना मिलजुलकर सब काम हो ही जाएगा, परिवार और सहयोग की ताकत बहुत होती है और आपस में प्रेम हो, तो यह ताकत कई-कई गुना बढ़ जाती है।
उस दिन से आजतक चंदा के साथ बैठी बुढ़िया नानी सूत की तरह ही कहानियां बुनती जा रही है। चरखा चलता रहता है, कहानियां निकलती रहती हैं। न चरखे का सूत टूटता है और ना ही कहानियों का क्रम। और अगर कभी सूत टूट भी जाए तो नानी इतनी सफाई से जोड़ देती है कि पास बैठे चंदा तक को पता नही चल पाता। उसकी ये कहानियां कभी-कभी तो चंदामामा को इतना खुश कर देती है कि वह फूलकर कुप्पा हो जाता है तो कभी इतना डरा देती है कि सूखकर कांटा। यही वजह है बच्चों कि तुम रोज ही चंदामामा को घटते बढ़ते देखा करते हो। चरखा बुनती नानी के पास हर रात एक नन्हा तारा अपनी नई कहानी लेकर आता है और रातभर खेलता रह जाता है। एक नए आत्म विश्वास के साथ जगमग- जगमग, जब वह अपनी नयी कहानी कहता है तो नानी उसे बेहद प्यार से देखती है और पृथ्वी पर बैठे बच्चों की तरह ही, कहानी को बहुत ध्यान से सुनती भी है । विश्वास नही तो आज ही रात को देखना, चंदा में बैठी वह बुढ़िया नानी, अभी भी वहीं बैठी दिखाई देगी वैसे ही चरखा चलाती और अगर ध्यान से सुनोगे तो रात के सन्नाटे में नन्हे-नन्हे तारों की नई-नई कहानियां भी चलते चरखे की आवाज के साथ किलक-किलककर गूंज रही होंगीं!
–शैल अग्रवाल
मुन्ना एक कहानी लिखना
मुन्ना एक कहानी लिखना
अपनी सारी नादानी लिखना
मन में हिम्मत ,साहस भर दे
कुछ बातें मर्दानी लिखना ( मुन्ना….)
कभी हंसी तो कभी रुलाई
कभी लडाई तो कभी पिटाई
कभी घुटनाटेकी, कभी कान उमेठी
अपनी सारी बदमाशी लिखना ( मुन्ना…)
अडती दादी बात-बात में
आंखें खूब दिखाती नानी
मां-बापू भी अड जाते
अपनी सारी बचकानी बातें लिखना(मुन्ना…)
लिखना संतॊं की वाणी लिखना
वीर शिवा,भगत,तात्या लिखना
नेहरु-गांधी, शास्त्री लिखना
कहानी में इनकी कुर्बानी लिखना (मुन्ना…)
छोटी-छॊटी बात संवारे जिन्दगी
गांठ गिरह में बांधे रखना
कितने कदम बढाये तुमने
इसका पक्का हिसाब रखना
पचपन में बचपन याद आये
दिल से निकली बातें इन्सानी लिखना (मुन्ना…)
-दुष्यंतकुमार यादव (कक्षा-10वीं)
कामठी विहार कालोनी छिन्दवाडा
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