बालसाहित्य-गैरसैण के बहाने बद्रीनाथ जी एवं केदारनाथ जी के दिव्य दर्शन.
निश्चित ही मैं अपने आपको बड़भागी मानता हूँ कि मुझे गैरसैण, जनपद चमोली में होने जा रहे राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी एवं सम्मान समारोह 2018 में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. इस संस्था के संस्थापक और त्रैमासिक पत्रिका के संपादक मित्र श्री उदय किरोला जी का स्नेहिल आमंत्रण-पत्र प्राप्त तो हुआ ही, साथ ही फ़ोन पर आग्रह भी कि इस बार मुझे गैरसैण पहुँचना ही है.
आमंत्रण-पत्र में प्रकाशित नक्शे को देखने पर ज्ञात हुआ कि यहाँ से बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ धाम कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. मैंने तत्काल अपने सहयोगी मित्रों से इस बाबत चर्चा की कि यह सुनहरा मौका है कि हमें एक साथ दो काम साधने के अवसर प्राप्त हो रहे हैं. एक तो यह कि बालसाहित्य के कार्यक्रम में शामिल होने का, साहित्यकार मित्रों से मुलाकात करने का और दूसरा दो धामों की यात्रा करने का सौभाग्य, एक साथ जुडने जा रहे हैं, अतः इस स्वर्णिम अवसर को न गंवाते हुए हमें प्रोग्राम बना लेना चाहिए.
बात पुरानी है. भीमताल में संपन्न हुए कार्यक्रम में मेरा जाना हुआ था और कार्यक्रम के समापन के पश्चात हमने भीमताल के अलावा, कमलताल, नौकुचियाताल, घोड़ाखाल, नैनीताल झील सहित नैनादेवी जी के दिव्य दर्शन किये थे. इस यात्रा में डा.श्री/श्रीमती.भैंरुलाल गर्ग, श्री/श्रीमती फ़तेहसिंग लोढ़ा, सत्यनारायण “सत्य”, श्री टेलर, शकुन्तला कालरा जी, श्रीमती सरस्वती बाली जी, मैं और मेरी धर्मपत्नि श्रीमती शकुन्तला यादव, श्री वेदान्त प्रभाकर गर्ग सहित लोढ़ाजी के पोता-पोती भी साथ थे. इस यात्रा में हमने काफ़ी आनन्द उठाया लेकिन सभी का मन उस समय खट्टा हो गया जब हम नैनादेवी जी दर्शन कर रहे थे किसी अज्ञात व्यक्ति(चोर) ने श्रीमती यादव के पर्स से कीमती कैमरा चुरा लिया था. इस घटना से सभी को बहुत दुख हुआ, लेकिन होनी को कौन टाल सकता था?
खैर….इसी तरह उत्तरकाशी में आयोजित कार्यक्रम में भी मेरा जाना हुआ था. कार्यक्रम की समाप्ति के बाद हमने यमुनोत्री, गंगोत्री आदि की यात्राएँ की थी. इस बार भी सुखद संयोग बना कि यात्रा में मेरा पोता चि. दुष्यंत यादव, मित्र श्री देवीलाल चौरसिया सहित डा.श्री/श्रीमती गर्ग,बड़ा बेटा-बहू और पोता-पोती भी सहयात्री बने थे.
एक और सुखद संजोग गैरसैण के कार्यक्रम में बना- डा.श्री/श्रीमती गर्ग जी और श्री/श्रीमती फ़तहसिंग लोढ़ा जी पुनः मेरे साथ थे. मित्र महावीर रवांल्टा जी से उत्तरकाशी में भेंट हुई थी. इस बार हम फ़िर गैरसैण में मिल रहे थे.
उत्तरकाशी की यात्रा में मेरे सहयात्रियों में प्रो.श्री/श्रीमती राजेश्वर आनदेव भी थे लेकिन वे छिन्दवाड़ा से एक दिन पहले निकल चुके थे और गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ जी की यात्रा संपन्न करने के बाद हमसे उत्तरकाशी में आ जुड़े थे. कार्यक्रम की समाप्ति के बाद मैं और चौरसिया जी, श्री केदारनाथजी के दर्शनों को जाना चाहते थे लेकिन किसी कारणवश नहीं जा सके और मन-मसोस कर वापिस आ गए. 14 जून को उत्तरकाशी से छिन्दवाड़ा पहुँचे ही थे कि एक दिन बाद 16 जून को ऐसा दुर्योग आया कि कुपित गंगाजी ने कुछ ऐसा भीषण उग्र रूप धारण किया था, जिसने आसपास के इलाकों को जमींदोज कर दिया था. त्राहि-त्राहि से मच गई थी इस दिन. गंगाजी की उफ़नती लहरों में अनगिनत नागरिकों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था और अनेक इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढहकर गंगाजी में समाहित होती जा रही थीं. समाचार दिल दहला देने वाला तो था ही,साथ ही टेलीविजन पर जो लाईव दिखाया जा रहा था, उसे देखकर दिल बैठने लगा था, यह सब देखते हुए हम यह सोचने पर विवश हो उठे थे कि काश हम वहाँ रहे होते, तो कभी की अपनी जान गवां बैठते. भीषण क्रोध में तो थी ही गंगा जी लेकिन उसे यह होश भी बराबर बना रहा था कि कहीं उसकी उग्र लहरें अपने स्वामी, देवों के देव महादेव के धाम केदारनाथ को क्षतिग्रस्त न कर बैठे, तभी एक चमत्कारिक घटना घटी और एक बड़ी लंबी-चौड़ी-सी शिला मन्दिर से कुछ दूरी बनाते हुए इस तरह आकर अटकी, जिससे नदी का प्रवाह दो धाराओं में बंट गया और भगवान केदारनाथ जी का मन्दिर क्षतिग्रस्त होने से बच गयाचित्र में यही वह शिला है जिसने केदारनाथ के मन्दिर को क्षतिग्रस्त होने से बचाया था.
गैरसैण जाने का कार्यक्रम बनाते समय, पाँच साल पूर्व घटित भीषण त्रासदि की स्मृतियाँ दिमाक में तेजी से चक्कर लगाने लगी थीं. हम मन ही मन ईश्वर से मनौतियां माँग रहे थे कि इस बार ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए. हमने पातालकोट एक्सप्रेस, से सराय रोहिल्ला(दिल्ली), उत्तर संपर्कक्रांति एक्सप्रेस से हल्द्वानी के लिए रेल्वे से अपनी सीट/बर्थ का आरक्षण करवा लिया. इस यात्रा में मेरे सहयात्री थे श्री नर्मदाप्रसाद कोरी जी और श्री जी.एस.दुबे जी.
हल्द्वानी नजदीक आता जा रहा था. तभी मेरे मित्र श्री आनदेव ने फ़ोन पर सुश्री सौम्या दुआ जी का फ़ोन नम्बर देते हुए बात कर लेने को कहा. फ़ोन पर सुश्री सौम्या जी से बातें हुई. उन्होंने हमारे स्टेशन पहुँचने से पहले ही शारदा होटेल ( मोबा-9690088999) का कमरा बुक करवा दिया था. हम आभारी हैं सुश्री दुआ जी के कि उन्होंने होटेल में कमरा बुक कर दिया, अन्यथा हमें देर रात गए कमरे की तलाश में यहाँ-वहाँ भटकना पड़ता. यह वह समय था जब टुरिस्ट बड़ी संख्या में पहुँच रहे थे.
श्रीमती मंजु पांडॆ उदिता जी एवं आधार शिला पत्रिका के संपादक मित्र श्री दिवाकर भट्ट जी से मेरा संपर्क काफ़ी पुराना है, सो यात्रा पर निकलने से पूर्व मैंने उन्हें सूचना दे दी थी कि मैं हल्द्वानी में दो दिन रुकने वाला हूँ और आप लोगों से भेंट करना चाहता हूँ. हल्द्वानी पहुँचने से पहले मैंने सुश्री मंजु जी को फ़ोन लगाया था लेकिन लग नहीं पाया. बाद में उन्होंने बतलाया कि वे किसी साहित्यिक कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही थीं. व्यवधान पैदा नहीं हो, इसलिए उन्होंने उस समय फ़ोन नहीं उठाया. स्थिति स्पष्ट करने के साथ ही उन्होंने हमें अपने आवास पर आने और सुबह का नाश्ता करने का न्योता भी दे दिया.
सुबह के साढ़े पांच-छः बज रहे होगें तभी फ़ोन की घंटी टिनटिना उठीं. फ़ोन पर मंजुजी थीं. उन्होंने पुनः मुझे याद दिलाते हुए कहा कि आप लोगों को नाश्ते पहुँच जाना है. करीब नौ-साढ़े नौ बजे हम मंजुजी के आवास पर पहुँचे. वे बड़ी बेसब्री से हम लोगों के आने का इंतजार कर रही थीं. आपने हमारा आत्मीय अभिवादन और स्वागत किया. डाइनिंग टेबल पर नाश्ते की प्लेटें लगाई जाने लगी. गरमा-गरम आलू के परौठें, दो-तीन प्रकार की चटनी, अचार, दही आदि उन्होंने बना रखा था. पराठों से उठती सोधीं-सोधीं महक से भूख करारी हो उठी थी. वे आग्रहपूर्वक हमें खिलाती रहीं. कहने के लिए तो वह मात्र नाश्ता था, लेकिन हम पूरे दिन का भोजन कर चुके थे. अब बारी थी पीले पके आमों के शरबत की. आम का शरबत पीते ही हमें एक विशेष तृप्ति का अनुभव होने लगा था. नाश्ता कर चुकने के बाद उन्होंने हम तीनों मित्रों को अपनी दो पुस्तकें “-मेरे पापा” और उदिता “अन्तर्मन” भेंट में दीं और हम लोगों के साथ फ़ोटोग्रुप भी लिया.
इस बीच उन्होंने अपने किसी परिचित टैक्सी वाले को बुलवा लिया था. टैक्सी नीचे खड़ी हमारा इंतजार कर रही थी. दिशा-निर्देश देते हुए उन्होंने टैक्सी ड्रायवर को समझा दिया कि मेहमानों को भीमताल, हनुमानगढ़ी, कमलताल, नौकुचियाताल. नौकुचियाताल से घोड़ाखाल (घंटियों वाला मन्दिर), नैनादेवी जी के दिव्य दर्शन करवा देने के बाद शारदा होटेल में पहुँचा देंगे. उन्होंने ड्रायवर को चेतावनी देते हुए कहा था कि मेहमानों को किसी प्रकार की तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए. टैक्सी अब चल निकलने के लिए तैयार थी. हमारे हाथ जुड़ आए थे. हमने मंजुजी का अभिवादन किया, आभार प्रकट किया और आगे बढ़ चले. हम मन ही मन मुदित थे मंजुजी की व्यवहार कुशलता और मेहमान-नवाजी को देखकर. अतिथी आदर-सत्कार किस तरह किया जाना चाहिए, यह मंजु जी से सीखा जा सकता है.
जब हम लौटे तो शाम घिर आयी थी. होटेल शारदा पहुँचने के ठीक बाद मैंने मित्र श्री दिवाकर जी को फ़ोन लगाया. फ़ोन पर वे स्वयं थे. मुझे आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि मेरा फ़ोन अचानक लन्दन से कैसे जुड़ गया?.
जैसा की उन्होंने काफ़ी पहले ही वे मुझे बतला दिया था कि एक जून को मैं लन्दन में रहूँगा. आश्चर्य चकित होकर मैंने पूछा- “भाई जी आप बोल कहाँ से रहे हैं?. उन्होंने बतलाया कि हाल-फ़िल्हाल मैं हल्द्वानी में ही हूँ. किसी कारणवश हमारा प्रोग्राम कैंसल हो गया है और अब हम एक जून के बजाय ग्यारह जून को यहाँ से प्रस्थान करेंगे. बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बतलाया कि अभी थोड़ी देर पहले मैं दिल्ली से लौटा हूँ और खाना खाकर आराम कर रहा था. अब अगला प्रश्न भट्टजी का था-“ यादव जी..मुझे ये बतलाएँ कि आप हल्द्वानी की किस होटेल में रुके हैं, मैं आप लोगों से मिलने आ रहा हूँ.”
श्री भट्टजी की सहजता और मिलनसारिता देखकर मुझे अपनी दोस्ती पर गर्व होने लगा था. लंबी यात्रा की थकान के बावजूद वे मिलने के लिए बेचैन हो उठे हैं. मैंने अपनी ओर से मना करते हुए कहा-“भाईजी आप घर पर ही रहें, हम स्वयं चलकर आपसे मिलने के लिए आपके आवास पर पहुँच रहे हैं”.
गेट पर खड़े रहकर वे हमारे आने का इंतजार कर रहे थे. मिलते ही उन्होंने गर्मजोशी से मुझे गले से लगा लिया था. इस तरह दो दोस्त बरसों-बरस बाद मिल रहे थे. सनद रहे इसके पूर्व श्री भट्टजी मेरे साथ लगभग एक सप्ताह तक थाईलैण्ड में सहयात्री रह चुके हैं. चाय-पानी और नाश्ते के साथ देर रात तक यहाँ-वहाँ की चर्चाएं होती रहीं थी.
छः जून की सुबह का नाश्ता-चाय लेकर हम लोग रानीखेत के लिए रवाना हुए. रानीखेत पहुँचकर हमने कालीका देवी, मानकेश्वर महादेव (मिल्ट्रीवालों का अपना एक मन्दिर है, जिसका पुजारी एक फ़ौजी है.), झूलादेवी, बिनसर महादेव मन्दिर, खेड़ाखाल और चिनियानौला के दर्शन किए और लौटकर एवरेस्ट लाज में रात्रि विश्राम किया.
सात जून की सुबह सात बजे हमने टैक्सी बुक की और चौखुटिया के लिए रवाना हुए और वहाँ से सीधे गैरसैण के लिए प्रस्थान किया. गैरसैण पहुँचने के बाद अब हमें यह तय करना था कि रात्रि विश्राम कहाँ करेंगे?. चुंकि मित्र किरौला जी ने मेल भेजते हुए, कुछ होटलों के नाम सहित श्री गीता गोविन्द धर्मशाला का पता भी दिया था, सो हमने वहीं रुकने का मानस बनाया. प्रस्थान करने से पूर्व हमने श्री राजेशकुमार सिरसवार जी से बात की. उन्होंने सहर्ष अपनी स्वीकृति दी और हम करीब दो-ढ़ाई किमी. की दूरी पर स्थित धर्मशाला जा पहुँचे. श्री सिरसवारजी हमारे आने का इंतजार ही कर रहे थे. वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उन्होंने हमारा सामान उतारा और धर्मशाला तक पहुँचवाया. धर्मशाला में एक बड़ा सा बरामदा था जिसमें कुर्सियां, सोफ़े, टेबल और तखत आदि करीने से लगे हुए थे, आपने हम लोगों से बैठने का अनुरोध किया. शीतल जल पिलाया और फ़िर एक लंबी चर्चा चल निकली.
श्री गीता गोविन्द धर्मशाला मुख्य मार्ग से लगभग २०-२५ फ़ीट की ऊँचाई पर अवस्थित है, जिसे पहाड़ काटकर बनाया गया है. पहाड़ों से छनकर आ रही शीतल वायु के झोंको ने हमारी सारी थकावट चंद मिनटॊं में दूर कर दी . हमारे ठीक सामने थी विशाल पर्वत की अनवरत क्रमबद्ध श्रृंखला, जिन पर से नजरें हटने का नाम नहीं ले रही थीं. बरामदे से सटकर छोटी से बगिया थी, जिसमें खूबसूरत रंग-बिरंगे फ़ूल मुस्कुरा रहे थे. हवा के झोंकों पर झूलते हुए वे हाथ हिला-हिलाकर शायद हमारा ही स्वागत और अभिवादन कर रहे थे.
शिष्ठाचारवश उन्होंने सबसे पहले हमसे मुँह-हाथ धोने का निवेदन किया. थोड़ा ही समय बीता होगा कि उन्होंने हम मित्रों को भोजन कर लेने का आग्रह किया. भूख लगी तो जरुर थी, लेकिन बेवक्त खाने को मन नहीं कर रहा था. वे आखिर माने नहीं और हम उनका मनुहार देखकर मना भी नहीं कर पाए. टेबल पर प्लेटें लगाई जाने लगीं. कुकर में पका हुआ गरमा-गरम चाँवल और ऊपर से उड़द-मूंग की दाल उन्होने प्लेटॊं में डाल दी थी. प्लेट से उठती सोंधी-सोंधी महक से हमारी भूख और करारी हो उठी थी. आप सच माने, इतने सुन्दर और सुखद वातावरण में जहाँ प्रकृति दिल खोलकर अपनी सुन्दरता दिखला-दिखला कर इठलाती जा रही हो, जहाँ हवा की पीठ पर सवार होकर कपसीले बादलों की धिंगा-मस्ती चल रही हो….जहाँ हवा के झोंके मंथगति से चलते हुए हमारे तप्त शरीरों को शीतलता प्रदान कर रही हो. सुखद और सुहाने नजार्रो को देखकर मन-मयूर नृत्य करने लगा था. इन मनोहारी दृष्यों के बीच भोजन करने का जो आनंद हमें मिला प्राप्त हुआ होगा? उसकी कल्पना आप कर सकते हैं.
भोजन कर चुकने के बाद सिरसवारजी ने अपनी तर्जनी उठाकर उस ओर इंगित किया जहाँ बालसाहित्य का कार्यक्रम होना है जहाँ महज दस-पन्द्रह मिनट में पहुँचा जा सकता है. पोर-पोर में समायी थकावट अपना असर दिखला रही थी. अतः कल की चिंता छोड़कर अब हम थोड़ा विश्राम कर लेना चाहते थे. श्री सिरसवार जी ने डायमेट्री खोल दी जिसमें पाँच-छः तखत (पलंग) बिछे हुए थे. हम तीन-चार घंटे तक सोते रहे. जब नींद खुली तो सुरमई अंधियारा आकाशमार्ग से उतरकर, पूरी कायनात पर छा-सा गया था. देखते ही देखते समूची पर्वत श्रृंखला एक गहन अन्धकार में समाहित हो गयी थी. फ़र-फ़र कर चलती हवा और गहन अंधकार में तैरती खामोशी, एक अलग ही संसार की निर्मिती कर रही थी. सड़कों पर लगे लैम्प-पोस्ट जल उठे थे और साथ ही पहाड़ों पर बने मकानों से छनछन कर आती झिलमिल रौशनी को देखकर, भ्रम होने लगा था कि सितारों से लदा-फ़दा समूचा आकाश धरती पर उतर आया है. हम देर तक इस अद्भुत दृष्य को अपनी आँखों में कैद करते रहे थे.
पहाड़ों की सुबह कितनी खूबसूरत होती है, इसका नजारा हमारी आँखें देख रही थीं. गहरा अंधकार अब धीरे-धीरे पिघलता जा रहा था और उसमें प्रकाश किरणें अपना स्थान लेती जा रही थीं. सारी कयानात, जो बीती रात गहन अंधकार में कहीं खो-सी गई थीं, अब धीरे-धीरे प्रकट होने लगी थी. लाल-गुलाबी-नीली-पीली रोशनी की धुंध को चीरता हुआ, सूरज का एक बड़ा सा गोला, चमचमाता हुआ आकाश-पटल में उतर आया था.
सुबह हो चुकी थी. चाय-पानी पीकर हमने सिरसवार जी (9456316250) से बिदा मांगी और अपनी असमर्थता उन पर प्रकट कर दी कि जिस रास्ते पर चलकर पाँच-दस मिनट में श्री भुवनेशवरी आश्रम पहुँचने की बात आप कह रहे हैं, सामान लेकर हमसे नहीं जाया जाएगा. आप किसी टैक्सी वाले को फ़ोन कर दीजिए. उन्होंने फ़ोन किया. थोड़ी देर में टैक्सी वाला नीचे खड़ा हमारा इंतजार कर रहा था. उन्होंने स्वयं और उनके बेटे ने हमारा भारी-भरकम सामान नीचे तक पहुँचाया और टैक्सी में चढ़ा भी दिया. हम तीन मित्र इस संकोच में डुबे हुए थे कि जिस शख्स ने बिना किसी पूर्व पहचान के हमारी इतनी सेवाएँ कीं, हमें कुछ तो पत्रम-पुष्पम के रूप में उन्हें देना चाहिए. हम आग्रह करते रहे और वे इन्कार करते रहे. आखिरकार वे इस बात पर राजी हुए कि आप जो भी देना चाहते हैं बेटे को दे दीजिए. एक छोटी सी भेंट हमने उस बालक को दी. उसने भी काफ़ी ना-नुकुर के बाद उसे स्वीकार किया.
अब हम श्री भुवनेश्वरी आश्रम की ओर बढ़ चले थे. रास्ता भर हम श्री सिरसवार जी के बारे में बातें करते रहे. उनकी मिलनसारिता, बात करने का उनका अपना निराला अंदाज- उनकी सहजता-सरलता-और व्यवहार कुशलता ने हम सब का दिल जीत लिया था. हम बार-बार धन्यवाद दे रहे थे मित्र किरौला जी को कि उन्होंने जिस विश्वास के साथ हमको वहाँ रुकने का परामर्श दिया, ऐसे ही नहीं दिया होगा. इस सहृदय मित्र को बार-बार नमस्कार-प्रणाम. कभी गैरसैण जाना हुआ भविष्य में, तो मैं यहीं रुकना चाहूँगा और जी भर कर प्रकृति की सुषमा को आँखों में कैद करता रहूँगा.
बस स्टैण्ड गैरसैण से करीब दो-ढाई किलोमीटर और धर्मशाला से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम. हमारी टैक्सी सर्पिली सड़को पर हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी. चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की क्रमबद्ध श्रृंखला अत्यधिक ढलान लिए हुए. हमारे साथ-साथ चल रही थी और साथ चल रहे थे और आसमान से बातें करते ऊँचे-ऊँचे चीड़ के दरख्त. यदि टैक्सी की आवाज को छोड़ दें तो चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था. मेरे एक मित्र ने तंज कसते हुए कहा भी कि कार्यक्रम स्थल ऐसी जगह पर रखा गया है कि यदि कोई भाग कर भी जाना चाहे, तो नहीं भाग सकता. बात आयी गई हो गई. अब हमारी टैक्सी मुख्य-द्वार में प्रवेश कर रही थी. सामान उतारा जा चुका था. टैक्सी बाले तो भुगतान कर दिया गया था. पूरे परिसर में सन्नाटा पसरा पड़ा था. मैंने पहल करते हुए आश्रम के अन्दर प्रवेश किया. एक कमरे में दो-चार बालसाहित्यकार मित्र आपस में बतिया रहे थे. अभी और लोगों का आना बाकी था. चुंकि कार्यक्रम दिन के चार बजे से प्रारंभ होने वाला था. अतः. कई मित्र निर्देश के अनुसार गैरसैण की होटलों में आकर रुके हुए थे और व्यवस्थापक उन्हें बारी-बारी से लेकर आते जा रहे थे.
मैं अपने मित्र की बात भूला नहीं था_” कार्यक्रम ऐसी जगह रखा गया है जहाँ से कोई भागकर जाना भी चाहे तो नहीं जा सकता”. मैं बराबर देख रहा हूँ. आश्रम के चारों ओर घना जंगल है, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं, अथाह गहरी खाइयाँ हैं और इन सबके मध्य में पहाड़ की तराई में अवस्थित है श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम. मन में कई प्रश्न उमड़-घुमड़ रहे थे. मैं गंभीरता से इस पर मनन कर रहा था कि उदय भाई ने अगर इस स्थान का चुनाव किया है तो निश्चित ही इस स्थान का कोई अपना बड़ा महत्व होना चाहिए, तभी उन्होंने इस स्थान का चयन किया है, अन्यथा वे बस्ती में किसी अन्य जगह पर भी कार्यक्रम कर सकते थे.
तभी मेरी नजरें दीवार पर चस्पा किये गए एक फ़ोटोग्राफ़ पर पड़ी. श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक स्वामी मनमथन जी का छायाचित्र था वह. हालांकि मैं इस स्थान के इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानता था. लेकिन जानने की उत्सुकता बराबर बनी हुई थी.
तभी मेरी मुलाकात संस्थान के परियोजना प्रबंधक श्री गिरीश डिमरी जी से हुई. मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे इस आश्रम के बारे में बहुत कुछ जानना है, यदि कोई साहित्य उपलब्ध हो तो कृपया मुझे देने की कृपा करें. उन्होंने तत्काल ही फ़ोटोस्टेट की एक प्रति मुझे उपलब्ध करा दी. एक ही सांस में मैं पूरा पर्चा पढ़ गया और मेरा माथा इस संत पुरुष की स्मृति में श्रद्दा से झुक आया था. स्वामी जी के बारे में पर्चे में काफ़ी कुछ बतलाया गया है जिसे पढ़कर हम उनके बारे में गहराई से जान सकते है. विषम और विकट परिस्थितियों को पार करते हुए इस महापुरुष ने, यहाँ रहते हुए, एक नहीं बल्कि अनेक आंदोलन चलाए थे ताकि शोषित-पीड़ित जमता जनार्दन का जीवन संवर जाए. इसी आशा और दृढ़ विश्वास के साथ उन्होंने गैरसरकारी संस्था श्री भुवनेश्वरी आश्रम की स्थापना की थी. वतर्मान में यह संस्था उत्तराखण्ड के लगभग 2500 गांवों में काम कर रही है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, पर्यावरण संबंधी, आपदा प्रबंधन, बाल सुरक्षा, किशोर-किशोरी शक्तिकरण, महिला सशक्तिकरण एवं लैंगिन समानता जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर काम कर रही है. मैं नमन करता हूँ क्रांति के इस महानायक को. मेरा बारंबार प्रणाम इस विभूति को.
08-6-2018. दिन शुक्रवार.
शाम पाँच बजे कार्यक्रम की शुरुआत हुई.
श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संचालक श्री गिरीश डिमरी जी ने देश के कोने-कोने से पधारे बालसहित्यकारों का स्वागत करते हुए आश्रम के बारे में विस्तार से जानकारियाँ दीं और सभी का भाव-भीना स्वागत किया.
राष्ट्रीय बालसाहित्य संगोष्ठी का उद्घाटन बच्चों के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया. फ़िर सभी ने मिलकर गीत गाया….उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि…मेरी पितृभूमि..तेरी जयजयकारा….तुम मुझको दो विश्वास, मैं तुमको दूं विश्वास…हम इस धरती को हम मिलकर स्वर्ग बनाएंगे…. ज्ञान का दिया जलाने चल पड़ा है काफ़िला..बना रहे ये रोशनी का सिलसिला… .
सामुहिक गीत गायन के पश्चात बाल काव्य गोष्ठी का आयोजन सुश्री विमला जोशी कें संचालन में विधिवत शुरु किया गया. विभिन्न विद्यालयों के बारह छात्र/छात्राओं ने इसमें उत्साहपूर्व भाग लिया. काव्य-गोष्ठी का संचालन श्री आयुष नेगी और गुंजन अग्रवाल ने, सुश्री कंचन अग्रवाल की अध्यक्षता में किया.
बालकवि श्री पूरनसिंह, मोनिका खाती, श्रेयादीप अग्निहोत्री, मोहम्मद समी, कविता सान्याल, हिमांशी रावत, दिव्या रावत, प्रवीण नेगी और चेतना थपलिया ने भाग लिया. श्री प्रवीण नेगी ने सभी विद्वतजनों का स्वागत करते हुए गीत गाया….सुंदर है नगर हमारा…. हम स्वागत करते हैं….. बच्चों का उत्साह, काव्य के प्रति उनकी उत्कंठा, कविता का रचाव और डायलाग डिलिवरी देख कर मन खुश हो गया. निश्चित ही कहा जा सकता है कि ये होनकार बच्चे आगे चलकर देश और प्रदेश का नाम रौशन करेंगे. बच्चों में साहित्य के प्रति रुझान पैदा करना, उसे इस लायक बना देना कि वे मंच का विधिवत संचालन कर सकें, इसका प्रशिक्षण स्वयं श्री उदय किरौला जी ने दिया था. वे भारत के जिस भी कोने में जाते हैं, इसी तरह बच्चों को दीक्षित करते रहते हैं. हम उनके इस श्रम को नमन करते हैं.
बाल साहित्य संस्थान अल्मोड़ा तथा श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संयुक्त तत्वावधान में गैरसण में आयोजित राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी के शुभावसर पर देश के 18 बालसाहित्यकारों को सम्मानित किया गया.
डॉ राष्ट्रबंधु बालसाहित्य सम्मान 2018 भीलवाड़ा, राजस्थान के डां भैरूंलाल गर्ग संपादक बालवाटिका को दिया गया. साथ ही संगरिया( राजस्थान) के गोविंद शर्मा, रामगोपाल राही, रघुराज सिंह कर्मयोगी, इंजीनियर आशा शर्मा, उत्तर प्रदेश के गौरीशंकर वैश्य, डॉ रामदुलारसिंह पराया, शताब्दी गरिमा, डॉ अल्का प्रमोद, गुडविन मसीह, हरियाणा के समसेर कोसलिया, डॉ शील कौशिक, मध्य प्रदेश से राजेंद्र श्रीवास्तव, दिल्ली से शिवचरण सरोहा, उत्तराखंड से महावीर रवांल्टा, डॉ कुसुम रानी नैथानी आदि को श्री बी पी साह, डां अशोक गुलशन, हरि सुमन बिष्ट, प्रो जगतसिंह बिष्ट,, लक्ष्मी खन्ना, परमेश्वरी शर्मा, कैलाश डोलिया, नीलम नेगी, डॉ मंजू बलोदी,के सहयोग से बालसाहित्य सम्मान के तहत पत्र पुष्प, प्रशस्ति पत्र व प्रतीक चिह्न दिए गए. देश के विभिन्न राज्यों से आए 122 साहित्यकारों को हिम आर्गेनिक बैजनाथ जनपद बागेश्वर के सौजन्य से प्रतीक चिह्न देकर सम्मानित किया गया. इस समारोह में देश के डा.गर्गजी की अध्यक्षता में अनेक मूर्धन्य बालसाहित्यकारों की पुस्तकों का विमोचन भी किया गया.
बालवाटिका पत्रिका के यशस्वी संपादक डा.श्री.भैंरुलाल जी गर्ग (भीलवाड़ा-राज.)
एक संक्षिप्त परिचय.
बालपत्रिका “बालवाटिका” के माध्यम से बालसाहित्यकारों को मंच प्रदान करने, बालसाहित्य लिखने के लिए प्रेरित करने वाले बालवाटिका पत्रिका के संपादक एवं बालप्रहरी पत्रिका के संरक्षक श्री गर्गजी की अब तक लगभग 1000 से अधिक रचनाएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकशित हो चुकी हैं. मा.ला.वर्मा राजकीय स्नात्तकोत्तर महाविद्ध्यालय भीलवाड़ा से हिन्दी के व्याख्याता के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद से आप बालसहित्य के उन्नयन एवं संवर्धन के लिए कठिन भगीरथ तप कर रहे हैं.बालवाटिका पत्रिका के माध्यम से समीक्षात्मक आलेखों व विशेषांकों के माध्यम से आप बालसहित्य के संवर्धन एवं प्रचार-प्रसार का कार्य कर रहे हैं, वहीं आप प्रतिवर्ष बालसाहित्य संगोष्ठियों के आयोजन एवं बालसाहित्य में उल्लेखनीय कार्य करने वाले लेखकों को सम्मानित करते हैं. देश की विभिन्न तीन दर्जन साहित्यिक संस्थाओं ने आपका सम्मान किया है और आपको राजस्थान साहित्य अकादमी भी सम्मानित कर चुकी है.
इस सुसज्जित विशाल सभाग्रह में बच्चों के द्वारा लिखित बालसाहित्य सामग्रियों के अलावा देश के विभिन्न भागों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं को करीने से सजाया गया था. ( बालसाहित्य पर बच्चों के द्वारा लिखित बालसहित्य की पत्रिकाएं एवं प्रकाशित पुस्तकें)
अपने उद्बोधन में “बालवाटिका” के संपादक डा.श्री भैंरुलाल जी गर्ग ने बच्चों की प्रतिभा और बालसाहित्य के प्रति उनके समर्पण भाव को देखते हुए घोषणा की कि वे आगामी तीन साल तक “बालप्रहरी” के अंक उन सभी बच्चों तक पहुँचाएंगे और इसमें होने वाले खर्च की राशि बालप्रहरी के यशस्वी संपादक श्री उदय किरौला को चेक द्वारा सौंप दी जाएगी की घोषणा की. डा.साहब के इस कृत्य की सभी ने करतलध्वनि से भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्हें धन्यवाद दिया.
इस ऐतिहासिक क्षण में भाव विभोर हुए बालप्रहरी के संपादक भाई किरौला जी ने मुक्तकंठ से श्री गर्गजी की सराहना करते हुए कहा-“ एक संपादक दूसरे संपादक को किस तरह उत्साहित और गौरवान्वित करता है, इस कृत्य को देख-सुनकर जाना जा सकता है. यदि वे चाहते तो अपनी पत्रिका “बालवाटिका” भी दे सकते थे, लेकिन ऐसा न करते हुए उन्होंने हमारी पत्रिका को श्रेय दिया.”
इस सत्र के समाप्ति के बाद देश के विभिन्न स्थानों से आए कवियों ने काव्य-पाठ किया. बड़ा अद्भुत नजारा था इस सत्र का. सामने की पंक्ति में कविगण बैठे हुए थे और ठीक उनके सामने बच्चों की टोली बैठी हुई थी. वे कवि की कविता को ध्यान से सुनते और उस पर बारी-बारी से अपनी टीप देते. बच्चों की हाजिर जवाबी देखकर हर कोई विस्मित था.
अब बारी थी विभिन्न स्थानों से आए अतिथि बालसाहित्यकारों की. वे अपनी कहानी कह सुनाते और बव्चे उनकी कहानी पर अपनी टीप देते. इस बेहद रोचक कार्यक्रम के पश्चात दोपहर का भोजन हम सब लोगों ने किया.
दोपहर बाद श्री रतनसिंन किरमोलिया जी की अध्यक्षता, डा.श्री.,महावीर रवांल्टा जी के मुख्य आतिथ्य और श्री नीरज नैथानी जी के विशिष्ठ आतिथ्य में “उत्तराखण्ड का बालसाहित्य” विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला गया. चर्चा में श्री खुशालसिंह खनी, शंभु भट्ट आदि ने भाग लिया. इस सत्र का संचालन श्री प्रकाश जोशी जी ने किया तथा श्री भुवनेश्वरी आश्रम के श्री ज्ञानसिंह रावत जी ने सभी विद्वतजनों का आभार प्रकट किया.
9 जून 2018. समय 10 बजे.
श्री रमेश पंतजी की अध्यक्षता, श्री शेखर पाठक(इतिहासकार नैनीताल) के मुख्य आतिथ्य और श्री ज्ञानसिंह रावत जी के विशिष्ठ आतिथ्य में “बाल साहित्य और बाल अधिकार” पर विस्तार से चर्चाएं की गईं. सत्र की शुरुआत में विभिन्न प्रदेशों से आए विद्वत बालसाहित्यकारों की पुस्तकों का विमोचन डा.भैंरुलाल जी गर्ग एवं अन्य विद्वतजनों के हस्ते किया गया. इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता देहरादून से पधारे श्री सुरेश बालोदी जी थे और इस सत्र का संचालन बालसाहित्य विदूषी डा.दीपा कांडपाल जी ने किया.
भोजन के उपरांत द्वितीय सत्र में श्री आद्दाप्रसाद सिंह की अध्यक्षता में “बच्चे और बाल कविता” पर भास्करानंद डिमरी, श्रीमती कुसुम चौधरी, दयाशंकर कुशवाह, अशोक गुप्त, ब्रजनंदनवर्मा, नवीन डिमरी आदि ने अपने विचारों से अवगत कराया. इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता थे बनौली, बिहार निवासी श्री सतीश भगत जी और कार्यक्रम का संचालन कर रही थीं बालसाहित्यकार श्रीमती विमला जोशी जी “विभा”
अपरान्ह तीन बजे दिल्ली से पधारे श्री अमरेन्द्रसिंहजी की अध्यक्षता में “बच्चे और बाल कहानी” विषय पर बरेली से पधारे श्री गुडविन मसीह जी ने कहानी का वाचन किया. इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता श्री लायकराम“मानव”(लखनऊ) एवं श्रीमती कमलेश चौधरी जी (कुरुक्षेत्र) थीं. इस सत्र का संचालन विदूषी लेखिका/बालसाहित्यकार/ फ़िल्मनिदेशक सुश्री मंजू पांडॆ “उदिता” जी ने किया.
सायंकाल 6 बजे विभिन्न प्रदेशों से पहुँचे कवि मित्रों ने काव्यपाठ किया. दक्षिण के प्रदेशों को छॊडकर प्रायः सभी प्रदेशों से बालसाहित्यकार यहां बड़ी संख्या में पहुँचे थे.
10 जून 2018 (अंतिम दो सत्र.)
सुबह के चाय-नाश्ते के पश्चात साढ़े सात बजे प्रारंभ हुए इस पहले सत्र की अध्यक्षता डा.रवि शर्मा (दिल्ली), श्री किसन दीवान (महासमुंद्र) के मुख्य आतिथ्य एवं श्री एस.बी शर्मा (कानपुर),जमनालाल बायती(पटना),फ़ातेहसिंह लोढ़ा(भीलवाड़ा),के विशिष्ठ आतिथ्य में “बालसाहित्य और बच्चे:” विषय पर विस्तार से चर्चाएं की गईं. इस सत्र का संचालन श्री धनसिंह मेहताजी ने किया.
दूसरे सत्र के “सम्मान समारोह/उद्यापन समारोह की अध्यक्षता डॉ भैरूंलाल गर्ग ने, मुख्य अतिथि भगवती प्रसद द्विवेदीजी(पटना), एवं विशिष्ट अतिथि छिन्दवाड़ा (म,प्र.) के श्री गोवर्धन यादव, हरीशचन्द्र बोरकर( भंडारा), श्री भुवन नौटियाल “एडवोकेट” (पूर्व राज्यमंत्री, उत्तराखण्ड) की गरिमामय उपस्थिति में प्रारंभ हुआ. समापन समारोह का संचालन नीरज पंत जी ने किया। इससे पूर्व बालसाहित्य और बच्चे विषय पर आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता दिल्ली विश्वविद्यालय के डां रवि शर्मा, बाल कल्याण संस्थान कानपुर के एस बी शर्मा, फतेहसिंह लोढ़ा(भीलवाड़ा) ने अपने विचार रखे। इस सत्र का संचालन धनसिंह मेहता अनजान ने किया।
श्री यादव ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बालसाहित्य के विविध पक्षों पर अनेक विद्वान साहित्यकार अपने विचार प्रकट कर चुके हैं. अतः उन्हें बार-बार दोहराने की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने छिन्दवाड़ा (म.प्र.) में अपनी संस्था मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाड़ा के तत्वावधान में, विगत सतरह वर्षों से किए जा रहे क्रियाकलापों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि किस तरह उनकी संस्था बच्चों में हिन्दी के उन्न्यन एवं प्रचार-प्रसार के लिए तथा हिन्दी के प्रति ललक जगाने के लिए प्रतियोगिताओं का आयोजन करती है, और उन्हें सम्मान-पत्र तथा स्मृति-चिन्ह देकर पुरस्कृत करती है.
इस समापन सत्र का संचालन श्री नीरज पंतजी ने किया. श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के सचिव ज्ञान सिंह रावत जी ने सभी का आभार व्यक्त किया और विशाल सभाग्रह में उपस्थित सभी विद्वतजनों से विनयपूर्वक कहा कि यदि उन्हें आश्रम में किसी भी प्रकार की कोई कमी अथवा तकलीफ़ हुई हो, तो वे क्षमा चाहते है और आशा करते हैं कि आप उन्हें ध्यान में नहीं लाएंगे.. क्षमायाचना के साथ ही उन्होंने कार्यक्रम के समापन की घोषणा की.
कार्यक्रम संपन्न हो जाने के बाद हमने श्री बद्रीनाथ जी के दर्शन हेतु प्रस्थान किया. बद्रीनाथ धाम पहुंचकर हमने रात्रि विश्राम किया और बड़ी सुबह हम लाज से रवाना हुए. गरम पानी कें कुंड में स्नान किया और फ़िर बद्रीनाथ जी के दिव्य दर्शन कर धन्य हुए. चुंकि यह अधिकमास का महिना था अतः तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ थी. अतः हमें दर्शन करने में दो-ढाई घंटे लगे.
आइए बद्रीनाथ धाम के बारे में संक्षिप्त जानकारी लेते चलें
भगवान बद्रीनाथ जी का भव्य और सुन्दर मंदिर.
यह अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है. ये पंच-बदरी में से एक बद्री हैं. उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है .ऋषिकेश से यह 214 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है. बद्रीनाथ मंदिर शहर में मुख्य आकर्षण है . प्राचीन शैली में बना भगवान विष्णु का यह मंदिर बेहद विशाल है. इसकी ऊँचाई करीब 15 मीटर है. पौराणिक कथा के अनुसार , भगवान शंकर ने बद्रीनारायण की छवि एक काले पत्थर पर शालिग्राम के पत्थर के रूप में अलकनंदा नदी में खोजी थी. यह भी मान्यता है कि आदि गुरु शंकराचार्य ने इस मन्दिर का निर्माण 8 वीं सदी में करवाया था. अतः उनकी व्यवस्था के अनुसार इस मन्दिर का मुख्य पुजारी केरल राज्य से ही होता है.
केदारनाथ धाम
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केदारनाथ जी का मन्दिर हिमालय की गोद में बारह ज्योतिर्लिंग में से एक, रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है. उत्तरखंड का सबसे विशाल शिवमन्दिर कंटवा पत्थरों के विशाल शिलाखंडॊं को जोड़कर बनाया गया है. शिलाखंड भूरे रंग का है. यह तीन तरफ़ पहाड़ियों से घिरा हुआ है. एक तरफ़ करीब 22 हजार फ़ीट ऊँचा केदारनाथ, दूसरी तरफ़ करीब 21,600 फ़ुट ऊँचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ़ 22,700 फ़िट ऊँचा भरत कुंड है. मन्दिर न सिर्फ़ तीन पहाड़िऒ से घिरा है बल्कि पाँच नदियों-यथा मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा और स्वर्ण गौरी का संगम भी यहाँ होता है- इन नदियों का अस्तित्व अब रहा नहीं, लेकिन अलकनंदा की सहायक नदी मंदाकिनी आज भी मौजूद है.
जैसा की मैंने ऊपर उल्लेखित किया है कि आज से करीब पांच साल पहले मैं और मेरे मित्रगण जाना चाहते थे,लेकिन हमारी टिकटें कैंसिल नहीं हो पायी थी, अतः मन-मसोसकर रह जाना पड़ा था. ऐसी मान्यता भी आम प्रचलित है कि यदि उस स्थान के देवता आपको दर्शन देना नहीं चाहते, तो किसी न किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो जाती है और आप चाहकर भी वहाँ नही जा पाते. शायद केदारनाथ जी मुझे ठीक पांच साल बाद दर्शन देना चाहते थे. केदारनाथ जी के दिव्य दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ.
और अंत में-
खूबसूरत पहाड़ों की क्रमबद्ध श्रृंखला और चीड़ के सघन वनों के बीच अवस्थित श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम गैरसैण में तीन दिनों से चला आ रहा बालसाहित्य संगोष्ठी एवं सम्मान समारोह 2018 इस आशा और विश्वास के साथ संपन्न हुआ कि बालसहित्य के उन्नयन और प्रचार-प्रसार में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, ताकि उसकी मुक्कमल पहचान कायम की जा सके. हालांकि इस कार्यक्रम में एक दर्जन से अधिक बाल-साहित्य की पुस्तकों का लोकार्पण हुआ और एक दर्जन से अधिक बालसहित्यकारों का सम्मान भी हुआ. भीलवाड़ा के बालसाहित्यकार एवं बालवाटिका के यशस्वी संपादक डा.भैंरुलाल जी गर्ग ने अपने उद्बोधन में बहुत ही महत्वपूर्ण विचार रखे. उन्होंने कहा-“ बालसाहित्य से जुड़े लोग भी बहुत कम जागरुक हैं. अधिकतर को तो केवल अपने लेखन और प्रकाशन से मतलब है. और लोग क्या लिख रहे है?, बालसहित्य में क्या कुछ छप रहा है? इन बातों से उन्हें लेना-देना नहीं है. इस तरह से काम नहीं चलने वाला है. हम प्रौढ़ साहित्य के रचनाकारों और समीक्षकों से यह अपेक्षा करें कि वे बालसाहित्य के लिए कुछ करेंगे तो यह संभव नहीं है. बालसाहित्य के उन्नयन के लिए अथवा बालसाहित्य को प्रौढ़साहित्य के समकक्ष महत्व दिलाने के लिए जब तक बालसाहित्य रचनाकार या समर्पित बालसाहित्य समीक्षक यह बीड़ा नहीं उठाएँगे तब तक कुछ नहीं होने वाला है. आज बालसहित्य को लेकर बालसहित्य रचनाकारों में जो असंतुष्टी का भाव है उसे दूर करने के लिए स्वयं उन्हें ही प्रयत्न करना होगा, तभी अपेक्षित परिणाम संभव है”.
भारतीय बालकल्याण संस्थान, कानपुर के श्री एस.बी.शर्माजी ने बालसाहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए इलेक्ट्रानिक माध्यम को अपनाने पर जोर दिया और कहा कि जब तक हम इसका उपयोग नहीं करेंगे, बालसाहित्य केवल किताबों में ही कैद होकर रह जाएगा. आप कितने बच्चों के बीच अपनी किताबें पहुँचा पाएंगे? और अपनी बात कह पाएँगे? उन्होंने जोर देकर कहा कि आज का बच्चा इंटरनेट और मोबाईल से गहराई से जुड़ चुका है. अतः हमें भी इस माध्यम को अपनाने के लिए प्रयत्न करना होगा. तभी आपका साहित्य और आपकी बात बच्चों तक पहुँच पाएगी.
बालसाहित्य संस्थान, अल्मोड़ा के संस्थापक एवं ज्ञान विज्ञान बुलेटिन के यशस्वी संपादक और बालसाहित्यकार श्री उद्दय किरौला जी के प्रयासों की जितनी भी तारीफ़ की जाए, कम ही प्रतीत होगी. वे केवल अपने परिवेश में ही नहीं घिरे रहते, बल्कि अन्य स्थानों पर स्वयं जाकर बच्चों को संस्कारित करने, उन्हें बालसहित्य की समझ देने, उन्हें बालसाहित्य से जोड़ते हुए मंच प्रदान करने में भगीरथ तप करने में जुटे हुए हैं. मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि वे अपने इस प्रयास से, देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी जाकर, एक ऐसा सुन्दर और स्वस्थ माहौल बनाने में कामयाब होंगे, जिसमें बच्चों के जीवन में एक मया सूर्योदय हो सकेगा.
गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001
09424356400 (27-06-2018)
टीप- यात्रा आलेख लिखते समय आमंत्रण-पत्र को आधार बनाया गया है. संभव है इसमें साहित्यकारों के नामों को जोड़ने-घटाने में कुछ त्रुटियां हो गई हों, तो इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ…(.भवदीय- गोवर्धन यादव.)