दीप दीवट पे जलाया होगा
नीर तुलसी को चढ़ाया होगा
नाम ईश्वर का लिया होगा, पर
ध्यान मेरा ही लगाया होगा।
तेरे दर्दों की दवाई लिख दूँ
उम्र भर की मैं, कमाई लिख दूँ
आज की रात तेरे होठों पर,
अपने होठों से, मैं रूबाई लिख दूँ।
फूल वेणी का, मेरे मन से चुना
खास मेरे लिए, स्वेटर भी बुना
नाम सखियों ने, जब लिया मेरा
तुम ये बोलीं, पहली बार सुना।
देह के मस्तूल
अंजुरी–जल में प्रणय की‚
अंर्चना के फूल डूबे
ये अमलतासी अंधेरे‚
और कचनारी उजेरे,
आयु के ऋतुरंग में सब
चाह के अनुकूल डूबे।
स्पर्श के संवाद बोले‚
रक्त में तूफान घोले‚
कामना के ज्वार–जल में
देह के मस्तूल डूबे।
भावना से बुद्धि मोहित–
हो गई पज्ञा तिरोहित‚
चेतना के तरु–शिखर डूबे‚
सु–संयम मूल डूबे।
मेरे प्यार कहो कैसे हो
लौट रहा हूँ मैं अतीत से
देखूँ प्रथम तुम्हारे तेवर
मेरे समय! कहो कैसे हो?
शोर-शराबा चीख-पुकारे सड़कें भीर दुकानें होटल
सब सामान बहुत है लेकिन गायक दर्द नहीं है केवल
लौट रहा हूँ मैं अगेय से
सोचा तुमसे मिलता जाऊँ
मेरे गीत! कहो कैसे हो?
भवन और भवनों के जंगल चढ़ते और उतरते ज़ीने
यहाँ आदमी कहाँ मिलेगा सिर्फ मशीनें और मशीनें
लौट रहा हूँ मैं यथार्थ से
मन हो आया तुम्हे भेंट लूँ
मेरे स्वप्न! कहो कैसे हो?
नस्ल मनुज की चली मिटाती यह लावे की एक नदी है
युद्धों की आतंक न पूछो खबरदार बीसवीं सदी है
लौट रहा हूँ मैं विदेश से
सबसे पहले कुशल पूँछ लूँ
मेरे देश! कहो कैसे हो?
सह सभ्यता नुमाइश जैसे लोग नहीं है यसर्फ मुखौटे
ठीक मनुष्य नहीं है कोई कद से ऊँचे मन से छोटे
लौट रहा हूँ मैं जंगल से
सोचा तुम्हें देखता जाऊँ
मेरे मनुज! कहो कैसे हो?
जीवन की इन रफ़्तारों को अब भी बाँधे कच्चा धागा
सूबह गया घर शाम न लौटे उससे बढ़कर कौन अभागा
लौट रहा हूँ मैं बिछोह से
पहले तुम्हें बाँह में भर लूँ
मेरे प्यार! कहो कैसे हो?
तुमको क्या देखा
तुमको क्या देखा लगा, देखा जैसे चित्र
मैली आँखें धुल गईं, मन हो गया पवित्र
कुछ दूरी कुछ निकटता कुछ रारें कुछ प्यार
यह तुमको स्वीकार तो मुझको भी स्वीकार
रग रग में है राग तो रोम रोम रस कूप
जीवन को दैविक करे, दैनिक रूप अनूप
तुम भी चुप हो चुप उधर, और इधर हम मौन
इस चुप्पी की बर्फ़ को तोड़े आखिर कौन
बहुत देर तक रूठकर यों माना मनमीत
जैसे लंबे मौन पर मुखरित कोई गीत
यौवन में ऐसे बढ़े रत्ती रत्ती रूप
दुपहर में जैसे चढ़े सीढ़ी सीढ़ी धूप
रुपवान अत्यंत तुम, उतने ही गुणवंत
तन से तो श्रीमंत हो मन से भी श्रीमंत
जब तक यौवन है समझ, गौरी तेरा रूप
बीतेगा मध्याह्न तो उतर जायगी धूप
औचक आए सामने लिया दृष्टि भर देख
बिना भेंट परिचय खिंची अमिट हृदय पर रेख
रूप तुम्हारा देखकर जागा पूजा भाव
आप झुकीं पलकें प्रणत भूल प्रणय का चाव
गज़ल हो गई
याद आयी, तबीयत विकल हो गई.
आँख बैठे बिठाये सजल हो गई.
भावना ठुक न मानी, मनाया बहुत
बुद्धि थी तो चतुर पर विफल हो गई.
अश्रु तेजाब बनकर गिरे वक्ष पर.
एक चट्टान थी वह तरल हो गई.
रूप की धूप से दृष्टि ऐसी धुली.
वह सदा को समुज्ज्वल विमल हो गई.
आपकी गौरवर्णा वदन-दीप्ति से
चाँदनी साँवली थी, धवल हो गई.
मिल गये आज तुम तो यही जिंदगी
थी समस्या कठिन पर सरल हो गई.
खूब मिलता कभी था सही आदमी
मूर्ति अब वह मनुज की विरल हो गई.
सत्य-शिव और सौंदर्य के स्पर्श से
हर कला मूल्य का योगफल हो गई.
रात अंगार की सेज सोना पड़ा
यह न समझें कि यों ही गज़ल हो गई.
पालकर रख न उसे हाथ के छाले जैसा
पालकर रख न उसे हाथ के छाले जैसा
देर तक दुख को नहीं ओढ़ दुशाले जैसा
ठीक तो ये है कि दुख जितना है उतना ही रहे
एक काँटे को बना ख़ुद ही न भाले जैसा
लोग बेदर्द हैं कितने कि ढहा देते हैं
सोचते क्यों नहीं दिल होता शिवाले जैसा
दूज का चाँद ये कैसा है जो पूछा तूने
मुझको लगता है तेरे कान के बाले जैसा
अपने बंगले के ही गैरेज में दे दी है जगह
उसने माँ बाप को रक्खा है अटाले जैसा
मैंने देखा है तेरे लाज भरे मुखड़े पर
आरती में जले दीपक के उजाले जैसा
संत बनते हैं सभी लोग सियासत वाले
बह रहा सबके ही पेंदों में पनाले जैसा
व्यंग्य के नाम पे जो हास्य परोसा फूहड़
उसमें करुणा का है उपयोग मसाले जैसा
शेर होता है ग़ज़ल का वही उम्दा, सच्चा
जिसमें शायर का तजुर्बा हो हवाले जैसा
प्रसंग गलत है
दिया गया संदर्भ सही पर
अवसर और प्रसंग ग़लत है ।
भाव, अमूर्त और अशरीरी
वह अनुभव की वस्तु रहा है
चित्र न कर पाया रूपायित
शब्दों ने ही उसे कहा है
उसका कल्पित रूप सही पर
दृश्यमान हर रंग ग़लत है ।
जब विश्वास सघन होता तब
संबंधो का मन बनता है
गगन तभी भूतल बनता है
भूतल तभी गगन बनता है
सही, प्रेम में प्रण करना पर
करके प्रण, प्रण-भंग ग़लत है ।
संस्तुति, अर्थ, कपट से पायी
जो भी हो उपलब्धि हीन है
ऐसा, तन से उजला हो पर
मन से वह बिलकुल मलीन है
शिखर लक्ष्य हो, सही बात पर
उसमें चोर-सुरंग ग़लत है ।
जिसकी ऊँची उड़ान होती है
जिसकी ऊंची उड़ान होती है।
उसको भारी थकान होती है।
बोलता कम जो देखता ज़्यादा,
आंख उसकी जुबान होती है।
बस हथेली ही हमारी हमको,
धूप में सायबान होती है।
एक बहरे को एक गूंगा दे,
ज़िंदगी वो बयान होती है।
ख़ास पहचान किसी चेहरे की,
चोट वाला निशान होती है।
तीर जाता है दूर तक उसका,
कान तक जो कमान होती है।
जो घनानंद हुआ करता है,
उसकी कोई सुजान होती है।
बाप होता है बहुत बेचारा,
जिसकी बेटी जवान होती है।
खुशबू देती है, एक शायर की,
ज़िंदगी धूपदान होती है।
(3 दिसंबर 1936 -दिसॆबर 2018)