कहानी समकालीनः नौका डूबीः शैल अग्रवाल

नौका डूबी

अंधेरी रात थी मूसलाधार बारिश वाली। ऐसे में तैर कर अस्सी से उस पार किले तक पहुंचना आसान नहीं। चौदह वर्षीय किशोर के लिए तो हरगिज ही नहीं । बड़ा तैराक नहीं था वह, बस संगी-साथियों के संग थोड़े बहुत हाथ पैर मार लेता था। पर आज इसके सिवा और कोई उपाय नहीं था उसके पास। माई बीमार है। इतनी बीमार कि हफ्ते भर से काम तक पर नहीं गई है। जैसे-तैसे बुधुआ के हाथ खबर भिजवाई है उसने- ‘ एकबार आकर मिल लो। ‘

पड़ोसी है बुधुआ, संग-साथ खेला-बढ़ा, झूठ काहे को बोलेगा?  माई, पता नहीं सुबह देख  भी पाएगी या नहीं! उसकी बांई आँख बारबार फड़के जा रही थी। जानता था कि बुरा शगुन है। आज रात ही पहुंचना होगा , कैसे भी। जबसे संदेशा मिला है, बच्चन सिंह वाकई में परेशान है। माई के अलावा कोई और है भी तो नहीं उसका । पालनहार, सखा सबकुछ एक माई ही तो है। फिक्र के मारे जैसे-तैसे इम्तहान दे पाया था। जैसे-तैसे दिन बीता था।

इम्तहान तो देना ही था पर। यही चाहती है माई कि चाहे कुछ भी हो, पर बचवा इम्तहान अवश्य दे। इसीके लिए खटी है वह उम्रभर कि उसका किसन-कन्हाई अच्छे नंबरों से पास हो। खूब पढ़े-लिखे और एक दिन बड़ा अफसर बने, ताकि गरीबी के दरिद्दर से बाहर निकल पाए।

दूसरों का चौका-बर्तन करके पढ़ा रही है माई । पर अभी तो बस दसवीं का ही इम्तहान दिया है उसने। लम्बी लड़ाई है आगे। सोचते-सोचते उफनती नदी के किनारे खड़े किशोर ने कमीज उतारी और पैर की हवाई चप्पल भी स्कूल के बस्ते में ही समेट ली। फिर उसी कमीज के सहारे पीठ पर कसकर बांध लिया सबकुछ। अब ठीक रहेगा। वह नदी में कूदने को तैयार था। दो-ढाई मील का ही तो पाट है नदी का उस पार तक !…इतना तो तैर ही लेगा वह ! इतनी ताकत और हिम्मत तो होनी ही चाहिए इन हाथ-पैरों में…विश्वास होने लगा था अब उसे खुदपर।

कूदने ही जा रहा था कि किसीने बांहों में भरकर रोक लिया ।

‘ ना-ना ऐसा मत करना। बहाव बहुत ही तेज है, बचवा।‘

कौन हो सकता है यहाँ पर इस वक्त, वह भी इस मौसम में ? आश्चर्य की ही बात थी। मुड़कर देखा तो जारजार कमीज पहने , बारिश में लथपथ एक अधबूढ़ा अपने सफेद चमकते दांतों से हंसता-रोता सा रोकने की कोशिश में जुटा था। वे करुण और आद्र आंखें निश्चय ही बेहद असह्य थीं और विचलित करने वाली भी।

घिसटते से गिरफ्त से छूटने को मचलते उसके पैर स्वतः ही दो कदम पीछे सरक गए पर उसने उसे नहीं ही छोड़ा।

‘ काहे जान देने पर तुले हो बाबू? आओ मैं नाव से छोड़ दूँगा तुम्हें।‘ फिर भी संशय में ही उसे थिर खड़े देख, मनाता, समझाता-सा वह बोला।

‘कितने पैसे लोगे पार ले जाने के? जानते हो न, मेरे पास मुठ्ठी भर गुड़-चना के अलावा कुछ भी नहीं!‘

बस्ते के अंदर टटोलते हुए किशोर ने परिस्थितियों की विकटता में भी साफ-साफ शब्दों में अपनी फटेहाली और मजबूरी का एलान कर ही दिया।

‘कोई बात नहीं। मर्जी आए जो दे देना, नहीं हों तो मत देना, तो भी चलेगा। विश्वास मानो, मैं तुम्हारी मजबूरी समझता हूँ, बाबू। मजदूरी नहीं लूंगा तुमसे। ‘

किनारे पर पड़ी नाव को सीधा करते हुए, रहस्यमय मुस्कान के साथ बैठने का इशारा कर दिया उसने।

अब मना कर पाना असंभव था। पर क्या ऐसे फरिश्ते वाकई में होते भी हैं दुनिया में ? – विश्वास तो नहीं था, पर सामने वाले की छोटी चमकती आँखों में जाने कैसा भरोसा और आग्रह था कि वह चुपचाप जा बैठा  नाव में। जरूर भगवान ने ही भेजी है मदद…आभार में उसकी गर्दन बारबार झुकी ही जा रही थी।

थोड़ा संभला तो देखा- नदी पूरे उफान पर थी और अब वह चुपचाप चप्पू चलाए जा रहा था। इक्की दुक्की झींगुरों की आवाज आ जाती, वरना बूंदों की टपटप के अलावा कोई आवाज नहीं थी आसपास। कोई बात पूछो तो भी जवाब नहीं दे रहा था वह, मानो पार पहुंचने की बहुत जल्दी हो या फिर आने वाले तूफान की और भी बिगड़ने की संभावना दिख रही थी उसे।

कैसी अशुभ बातें सोचता है वह भी- बालक बच्चन सिंह ने अपनी उद्वेलित सोच को संभाला – ऐसा कुछ नहीं, इसका तो रोज का ही काम है यह। बस पूरी तरह से खुद में ही डूब गया है बूढ़ा मांझी।

‘ डूबने ’ का विचार मात्र हिम्मत तोड़ने के लिए पर्याप्त था। काली रात का भयावह अंधेरा था या तेज बारिश, अजीब सा भय गहरा धंसता जा रहा था उसके मन में।

बारिश अभी भी तेज और बेरहम थी। छपाछप की आवाज करती नाव अब डगमग डगमग आगे बढ़ी जा रही थी। अचानक कड़कडाती बिजली से पूरा आकाश चमका और देखते-देखते ही नाव को तड़कती हुई दो टुकड़ों में बिखेर गई ।  चप्पू तक उसके हाथों से छिटककर दूर जा गिरा और नाव उलट गई । रोने चीखने का भी समय नहीं दिया बिजली ने और ना ही वहाँ तेज बारिश के इस मौसम में बीच मंझधार में  चीखें सुनने वाला, उनकी मदद के लिए आनेवाला वहाँ पर कोई मौजूद ही था।

अब वे पानी में गुडुप-गुड़ुप करते एक दूसरे से दूर बहे जा रहे थे। आखिरी बार जब उसने देखा था तो जाने कैसे मांझी के हाथ उलटी नाव का मस्तूल आ गया था …उसके बाद की कुछ याद नहीं उसे।

….

सुबह-सुबह जब सूरज की तेज किरणों से मूर्छा टूटी, तो बदन का पोर पोर दुख रहा था। आश्चर्य हुआ उसे खुद पर- यहाँ कैसे और कबसे ? बच कैसे गया वह! रात कैसे बीती  और किनारे तक कैसे पहुंचा ? कुछ भी याद नहीं आया, सिवाय इसके कि वह जिन्दा है और पार की गीली रेत में औंधे मुंह अगल बगल पड़े कूड़े-सा ही धंसा पड़ा है ।

अगला सवाल जो अब उसके मन में उठा- ‘ कौन था वह, जो किनारे तक लाया ? आश्चर्य था कि कैसे एक खरोंच तक नहीं आई थी शरीर पर ! निर्मम लहरें तो इतनी सावधानी से यूँ नहीं ही छोड़ सकती थीं यहाँ पर ! जरूर, माई और ऊपर वाले का ही आशीष है। अच्छे कर्मों का ही पुण्य-प्रताप है सब ! ‘

एक बार फिर धर्मभीरू मन ने ईश्वर के आगे हाथ जोड़ दिए।

भूख बुरी तरह से सता रही थी अब । कल भी तो कुछ नहीं खाया था उसने । याद आया कि चलते वक्त जो गुड़-चना बचे थे, अभी भी बस्ते के अंदर वैसे ही पौलीथिन में लिपटे सुरक्षित होने चाहिएँ। बस्ता अभी भी पीठ पर ज्यों का त्यों ही बंधा था।

लड़खड़ाते कदमों से जैसे तैसे खड़ा हो गया वह और हाथ पैरों और आंख-नाक से गीली बालू झाड़ ली। पुड़िया वाकई में वहीं सुरक्षित थी जहाँ रखी थी उसने। बेसब्री से बस्ते से बाहर खींच ली। कितना दिन चढ़ आया है। माई…ध्यान आते ही मन फिर से बेचैन हो चला। जल्दी करनी होगी। खोका खाली करके गुड़ चना मुठ्ठी में लिए ही थे कि पुड़िया के अखबार के कागज पर छपी खबर पर आँखें फटी की फटी रह गईं। मोटे मोटे अक्षरों में छपा था- नौका डूबी । आगे लिखा था-

‘ कल शाम तेज आंधी तूफान में रामनगर के हिम्मती और परिचित कल्लू मांझी की नाव कुछ यात्रियों को पार ले जाते वक्त बीच मंझधार तूफान में ही उलट गई। दो यात्रियों और कल्लू माझी का शव नहीं मिला, बाकी सभी यात्रियों को बचा लिया गया है। सुबह नाव को भी गंगा मां की गोद से पुलिस ने बरामद कर लिया है।’

दैनिक जागरण के अखबार पर छपी दुर्घटना की सूचना देती इन पंतियों को बारबार पढ़ा उसने। कलेजा धकधक कर रहा था। फोटो पर आँख जाते ही तो चेहरा भी फक् रह गया और सारा गुड़-चना हाथ से छूटकर रेत पर बिखर गया। अब वह थरथर कांप रहा था और सामने कल्लू माझी की फोटो, मुस्कुराती-सी हवा में फड़फडा रही थी।

पर कौन विश्वास करेगा इस सब पर !  माई भी नहीं !

वह जानता था- फोटो उसी की थी। वही तो पार लाया था उसे! पर अखबार पर तारीख तो तीन दिन पुरानी छपी हुई थी !…

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