प्यारे बापू
हम सबके थे प्यारे बापू
हम सबके थे प्यारे बापू
सारे जग से न्यारे बापू।
जगमग जगमग तारे बापू
भारत के उजियारे बापू।
लगते तो थे दुबले बापू
थे ताकत के पुतले बापू।
नहीं कभी डरते थे बापू
जो कहते करते थे बापू।
सदा सत्य अपनाते बापू
सबको गले लगाते बापू।
हम हैं एक सिखाते बापू
सच्ची राह दिखाते बापू।
चरखा खादी लाए बापू
हैं आजादी लाए बापू।
-सियाराम शरण गुप्त
युगावतार गांधी
चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर ;
गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गए कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज हाथ धरा
उसके शिर- रक्षक कोटि हाथ
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गए उसी पर कोटि माथ ;
हे कोटि चरण, हे कोटि बाहु
हे कोटि रूप, हे कोटि नाम !
तुम एक मूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटि मूर्ति, तुमको प्रणाम !
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खीचते काल पर अमिट रेख ;
तुम बोल उठे युग बोल उठा
तुम मौन रहे, जग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना ;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक
युग संचालक, हे युगाधार !
युग-निर्माता, युग-मूर्ति तुम्हें
युग युग तक युग का नमस्कार !
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम काल-चक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक !
हे युग-द्रष्टा, हे युग सृष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष मन्त्र ?
इस राजतंत्र के खण्डहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र
सोहनलाल द्विवेदी!
एक अत्यंत प्रासंगिक शब्द
कई शब्द
अप्रासंगिक नहीं होते कभी
जैसे हवा, पानी, धूप,
जीवन, अस्तित्व…
सूची लंबी हो सकती है बहुत
चाहो तो बहुत छोटी भी
मात्र एक शब्द तक
सिमट सकती है ये सूची
ओर वो एक शब्द है’गाँधी`
यदि गाँधी है तो हवा, पानी, धूप,
जीवन, अस्तित्व…
तथा और भी कई जरूरी शब्द
बचे हुए ही हैं
‘गाँधी`न चुकने वाला शब्द है ये
तभी तो समाप्त नहीं हुई है
प्रासंगिकता इसकी अभी
होगी भी नहीं
उपजता है अनायास ये शब्द
लेखकों की रचनाओं में
कल्पनाओं में कवियों की बार-बार
उभरता है कभी शिल्पियों की कलाओं में
जब कोई किसी कमजोर की ओर
डालता है दृष्टि
तो यही एक शब्द बन जाता है ढाल
अन्याय का करता है प्रतिकार
यही एक शब्द निर्मित करता है
करुणा और संवेदना की सृष्टि
दम घुटने लगता है जब
सभ्यता के धुएँ में मनुष्य का
विकास के दुष्चक्र में फंसकर
तड़पने लगता है जब वो
तो इसी एक शब्द को निहारना
अनिवार्य हो जाता है
ये अलग बात है कि
इस शब्द का लेकर नाम
कुछ लोग छीन रहे हैं दूसरों का हक़
लेकिन ये शब्द है तो
वापस दिला सकता है
छीना हुआ हक़ भी तुम्हें
मृतात्माओं को पुनरुज्जीवित कर सकता है
ये ढाई आखर का शब्द
हाँ, ढाई आखर का ये शब्द
”ढाई आखर प्रेम का“ की तरह
दूसरों के सुख के लिए
अपने सुखों को तिलांजलि देने को
कर देता है विवश
हार कर बैठ गए हो तो
पुकार लो इसी शब्द को
सहारा मिलेगा
प्रेरणा देता है ये शब्द
रास्ता भटक गए हो तो
मार्गदर्शन करेगा ये शब्द
कमजोर नहीं है ये शब्द
न था और न होगा
बस इतना याद रख लेना !
-सीताराम गुप्ता
गाँधीजी के बन्दर तीन
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,
बुरी बात पर दो मत कान,
कभी न बोलो कड़वे बोल।
याद रखोगे यदि यह बात ,
कभी नहीं खाओगे मात,
कभी न होगे डाँवाडोल ।
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
-बालस्वरूप राही
बापू_और बंदर
बचपन से यही समझते आए
कि गुजरात यानी गाँधी
और गाँधी यानी
उनके तीन बंदर
बुरा मत देखो
बुरा मत बोलो
बुरा मत सुनो …
अचानक ही एक दिन
समझ में आया
कि गुजरात यानी गोधरा
और गोधरा यानी
जय श्री राम
भगवान का भी कहाँ उद्धार था
बंदरों के बिना
बस उनकी भूमिका बदल गई थी
बुरा ही देखो
बुरा ही बोलो
बुरा ही सुनो ।
मालिनी गौतम
बापू
पुतली बाई का मान
करमचंद की संतान
मोहनदास नाम जिसका
वह बेटा बना महान ।
अहिंसा थी तलवार
सत्य उसकी धार
दुश्मन को भी गले लगा
करते सबको प्यार ।
काम अपना खुद करते
नही किसी से थे डरते
मीलों -मीलों तक वह
लगातार पैदल चलते ।
इंसानों में भेद मिटाया
गोरा- काला एक बताया
अछूतों को हरि-जन बता
उनको अपने गले लगाया ।
‘सत्याग्रह’ बना आधार
‘सविनय अवज्ञा’ एक विचार
‘दांडी यात्रा’, ‘भारत छोड़ो’
इनसे हिली ब्रिटिश सरकार ।
‘महात्मा’ कहा टैगोर ने
‘राष्ट्रपिता’ बुलाया बोस ने
बस गए हृदय वह सबके
‘बापू’ पुकारा जन जन ने ।
कवि कुलवंत सिंह
साबरमती के सन्त
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
आँधी में भी जलती रही गाँधी तेरी मशाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
धरती पे लड़ी तूने अजब ढंग की लड़ाई
दागी न कहीं तोप न बंदूक चलाई
दुश्मन के किले पर भी न की तूने चढ़ाई
वाह रे फ़कीर खूब करामात दिखाई
चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
शतरंज बिछा कर यहाँ बैठा था ज़माना
लगता था मुश्किल है फ़िरंगी को हराना
टक्कर थी बड़े ज़ोर की दुश्मन भी था ताना
पर तू भी था बापू बड़ा उस्ताद पुराना
मारा वो कस के दांव के उलटी सभी की चाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
जब जब तेरा बिगुल बजा जवान चल पड़े
मज़दूर चल पड़े थे और किसान चल पड़े
हिंदू और मुसलमान, सिख पठान चल पड़े
कदमों में तेरी कोटि कोटि प्राण चल पड़े
फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
मन में थी अहिंसा की लगन तन पे लंगोटी
लाखों में घूमता था लिये सत्य की सोटी
वैसे तो देखने में थी हस्ती तेरी छोटी
लेकिन तुझे झुकती थी हिमालय की भी चोटी
दुनिया में भी बापू तू था इन्सान बेमिसाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
जग में जिया है कोई तो बापू तू ही जिया
तूने वतन की राह में सब कुछ लुटा दिया
माँगा न कोई तख्त न कोई ताज भी लिया
अमृत दिया तो ठीक मगर खुद ज़हर पिया
जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल
दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल!
– कवि प्रदीप
तुम कागज पर लिखते हो
तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पीसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।
बापूजी ने कहा – बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।
– भवानी प्रसाद मिश्र
अच्छा ही हुआ
गुज़र गई एक और पुण्यतिथि
अच्छा ही हुआ
कानों में नहीं पड़ी रामधुन
एक बार भी
बापू के प्रिय भजन सुनाई नहीं पड़े
रेडियो पर टीवी पर वैष्णव जन
गाता नहीं दिखलाई पड़ा कोई
अच्छा ही हुआ
कितनी शान्ति से गुजर गया
आज का दिन
रोज़-रोज़ अब तो वर्ना
सुननी पड़ती है रामधुन
हर सभा में गूँजता है वैष्णव जन …
हर छोटे-बड़े
चोर, डाकू, अत्याचारी,
हत्यारे, बलात्कारी की भी
मनाई जाती है पुण्यतिथि
और होती है एक विशाल सर्वधर्म प्रार्थना सभा
अच्छा ही हुआ
गुज़र गई एक और पुण्यतिथि
नीरव नि:शब्द!
-सीताराम गुप्ता
सुना है…
सुना है
कहते कुछ लोगों को
गाँधी की बकरी
खाती थी मेवे
पत्तियाँ नहीं दी जाती थीं
खाने को उसे
खाती होगी ज़रूर वो बकरी
काजू-किशमिश, बादाम-चिलगोज़े
यदि खाती होंगी सभी बकरियाँ
और गाय-भैंसें देश की
सेब संतरे, अंगूर और चेरी
उस समय,
आज की बात अलग है
आज मौजूद हैं ऐसे गधे और घोड़े भी
जिन्हें मयस्सर है मुनक्का और शैंपेन
और इसके लिए
ज़रूरत नहीं है उन्हें
देने की दूध
बनने की किसी की बकरी
काम चल जाता है उनका
हिलाने से सिर्फ पूँछ
शायद इन्हीं की फैलाई हुई है ये बात
कि बकरी गाँधी की
खाती थी मेवे
पर क्या खाता था गाँधी खुद?
वही ना
जो खाता था एक गऱीब किसान
हिंदू या मुसलमान
मिट्टी में सना कुम्हार
एक मोची बुनकर या लुहार
उन्हीं जैसा उन्हीं के साथ
हाँ!और भी बहुत कुछ खाया था
गाँधी ने पर सिर्फ अकेले
नहीं खाने दीं लाखों करोड़ों को
गोलियाँ उसने
झेलीं सिर्फ अपने सीने पर
अकेले और सबके बीच
-सीताराम गुप्ता
मैं गांधी बन जाऊँ
मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं
सब मित्रों के बीच बैठ कर रघुपति राघव गांऊ
घड़ी कमर में लटकाऊंगा सैर सवेरे कर आऊं
मुझे रुई की पोनी दे दे तकली खूब चलाऊं
मां खादी की चादर दे दे, मैं गांधी बन जाऊं
( अज्ञात)
आज भी तुम जीवित हो बापू…
आज भी तुम जीवित हो बापू…
अर्थहीन ये सामूहिक सभाएं
वाग्जाल बिंधी वे चहचहाटें
कैसे याद करें, मान रखें
मना जयंती या फिर बिठाकर पुतले
पार्क और दफ्तरो मे?
मूक दृष्टा हैं ये पुतले
इतिहास और वर्तमान के
सिरपर बैठकर जिनके
कबूतर और चिड़िया
करते रहते हैं बीट!
खड़े रह जाते ये पाषाण
गर्मी-जाड़ा धूप, बरसात
अत्याचार, अन्याय देखते-सहते
विक्टोरया हो या फिर हिटलर।
पर बापू तुम पुतले नहीं थे
मौन में भी थी ललकार सत्य की
हार नहीं मानी थी अत्याचार से कभी
बिगुल थे तुम संकल्प और आत्मबल के
बुलंद जिसके कर्म, जिसकी आवाज
अत्याचार और अन्याय के खिलाफ
उठी सत्य-अहिंसा की वह लाठी
आज भी तो तुम्हारी धरोहर है
मौजूद हमारे हाथ।
बापू सशरीर तुम नहीं तो क्या
जीवित हो आज भी
इस देश की मिट्टी में
खेतों में, गांवों में
अनाथ की तकलीफ के खिलाफ
आवाज उठाते
सेवक और संतों के संग
शीश लगाएँ, ह्रदय बिठाएँ
सूरज-सा तुम उजियारा देते
छोड़ेंगे कैसे, खोएँगे कैसे हम तुम्हें
अशांत पुतलों के
मदभरे इस जंगल में।
आज भी तुम जीवित हो बापू…
अर्थहीन सामूहिक ये सभाएं
वाग्जाल बिंधी वे चहचहाटें
कैसे याद करें, मान रखें तुम्हारा
मना जयंती या फिर बिठाकर पुतले
पार्क और दफ्तरो मे?
मूक दृष्टा होते हैं ये पुतले
इतिहास और वर्तमान के
सिरपर बैठकर जिनके
कबूतर और चिड़िया
करते रहते हैं बीट!
और खड़े रह जाते पाषाण
गर्मी-जाड़ा धूप, बरसात
अत्याचार, अन्याय देखते-सहते
विक्टोरया हो या फिर हिटलर।
पर बापू तुम पुतले नहीं थे
मौन में भी थी ललकार सत्य की
हार नहीं मानी थी अत्याचार से कभी
बिगुल थे तुम संकल्प और आत्मबल के
बुलंद जिसके कर्म, जिसकी आवाज
अत्याचार और अन्याय के खिलाफ
उठी सत्य-अहिंसा की वह लाठी
आज भी तो तुम्हारी धरोहर है
मौजूद हमारे हाथ।
बापू सशरीर तुम नहीं तो क्या
जीवित हो आज भी
इस देश की मिट्टी में
खेतों में, गांवों में
अनाथ की तकलीफ के खिलाफ
आवाज उठाते
सेवक और संतों के संग
शीश लगाएँ, ह्रदय बिठाएँ
सूरज-सा तुम आज भी उजियारा देते
छोड़ेंगे कैसे, खोएँगे कैसे हम तुम्हें
अशांत पुतलों के मदभरे
इस जंगल में।
– शैल अग्रवाल
बापू तुम जागो एक बार
शिलाओं की ओट में छिपकर ,
मृत्यु के संकोच में रहकर,
तुम कब तलक सोते रहोगे,
इस जग के जलन को सहोगे,
देखो सब रहे तुम्हें पुकार।
बापू तुम जागो एकबार…
आज सामने है सत्य खड़ा,
कहता है उसे आना पड़ा,
घृणा की आंच सह चुका है,
इस भट्टी में झुलस चुका है,
उसे चाहिए एक आधार।
बापू तुम जागो एकबार…
जीने पर सबका अधिकार,
कह रहा अहिंसा बारबार।
प्राणों के लाले पड़ते हैं,
हिंसा की ज्वाला में जलते हैं,
शायद सको इन्हें सुधार।
बापू तुम जागो एकबार…
दिलों में भरकर तो आत्मबल,
बने थे तुम सबों के संबल।
बदल दी युद्ध की परिभाषा,
समझा सबको मन की भाषा
सत्य करे आग्रह इस प्रकार।
बापू तुम जागो एकबार…
समाज कितना है गया बिखर, भय का राज्य है गया संवर,
सब स्वार्थ लिए चलते हैं,
अपनी आग में जलते हैं तुम दे सहयोग दो संवार।
बापू तुम जागो एकबार…
प्रभुता का सबको ध्यान यहाँ,
मानवता की पहचान कहाँ ?
गोली बारूद के इस वन में,
खोया न्याय तो उलझन में,
तुम ही सकते इन्हें उबार।-
बापू तुम जागो एकबार…
-रामाश्रय सिंह
है किसकी तस्बीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
नंगा बदन कमर पर धोती
और हाथ में लाठी
बूढ़ी आंख पर है ऐनक
कसी हुई कद काठी
लटक रही है बीच कमर पर
घड़ी बंधी जंजीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
उनको चलता हुआ देखकर
आंधी शरमाती थी
उन्हें देखकर अंग्रेजों की
नानी मर जाती थी
उनकी बात हुआ करती थी
पत्थर खुदी लकीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
वह आश्रम में बैठ
चलाता था पहरों तकली
दीनों और गरीबों का था
वह शुभ चिंतक असली
मन का था वह बादशाह
पर पहुँचा हुआ फकीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
सत्य अहिंसा के पालन में
पूरी उमर बिताई
सत्याग्रह कर करके जिसने
आजादी दिलवाई
सत्य बोलता रहा जनम भर
ऐसा था वह वीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
जो अपनी ही
प्रिय बकरी का
दूध पिया करता था
लाठी डंडे बंदूकों से
जो न कभी डरता था
तीस जनवरी के दिन
जिसने अपना तजा शरीर
सोचो और बताओ
आखिर है किसकी तस्बीर
डॉ. जगदीश व्योम
बापू,
मैं कोई चित्रकार नहीं हूँ
नहीं तो क्रॉस पर लटकाता
तेरी ही लहूलुहान तस्वीर
मैं कोई शायर या कवि भी नहीं हूँ
नहीं तो गाता एक करुणार्द्र शोकगीत
नहीं हूँ मैं एक क्षुद्र-सा मूर्तिकार भी
नहीं तो अवश्य ही बनाता
तेरी एक प्रस्तर प्रतिमा
और करता उसे प्रतिष्ठित
पूजा-प्रकोष्ठ में अपने
काश! पूजा-अर्चना के निमित्त
सुपारी पर कलेवा लपेट कर बनाई गई
विघ्न विनायक प्रतिमा की भाँति
बना पाता तेरा
एक प्रतीकात्मक विग्रह ही
न होता मैं एक महान कलाकार
एक अज़ीम शायर
एक जादूगर बुततराश
तो भी होता मैं
थोड़ा-सा बड़ा
थोड़ा महान
एक इंसान
-सीताराम गुप्ता
“गाँधी बाबा !”
अहिंसावादी गाँधी के
स्टेचू पर
बैठी थी चिड़ियाँ
नहीं जानती थीं
बिल्ली के हाथों से
नहीं देख पायेगा कोई भी
इस हत्याकांड को
देख भी लेता तो
कैसे रोकता ?
पर समय कुछ पल
रुका वहां
उसने हैरानी से देखा
खून के धब्बे
सूख गए थे पर
गाँधी बाबा के
स्टेचू की आँखें
नम थी !
बिल्ली की राजनीति
नहीं जानतीं थीं चिड़िया
कि होगी उसकी हत्या !
-डॉ सरस्वती माथुर
गांधी फिर कब आओगे ?
मोहनदास कमरचंद जी की,
देश प्रेम की आंधी थी।
पीछे देश खड़ा मर मिटने,
एसी हस्ती गांधी थी।
इसीलिये तैयार हुये,
नेहरू जाने को जेलो में।
मालूम था सिर दे देंगे
पीछे सब खेलों खेलों में।
मालूम था कि थे पटेल,
मौलाना किदवई जान लिये।
वल्लभ भाई के पीछे,
मिटने कितने अरमान लिये।
लिये जेब में घूम रहे,
फांसी की रस्सी भगत सिंह।
कितने मिटने को आतुर थे
बिस्मिल राजा, रणजीते सिंह।
सावरकर बन कर के मशाल
थे अंधकार में चमक रहे।
इतिहासो के पन्नों में
आजाद, गोखले दमक रहे।
कितने थे गफ्फार और,
कितने सुभाष की आंधी थी।
भूल समझाने में होगी
आजादी केवल गांधी थी।
कितनी लक्ष्मीबाई कितने
भीमराव से गांधी थे।
कितने मंगल पांडे शेखर
ब्रिटिश राज्य में आंधी थे।
मरने और मारने का
जज्बा था हक को पाने का।
सीने में थी देश भक्ति
होंठों पर उसको गाने का।
घर घर में थे रमन यहाँ
और घर घर में टैगोर यहाँ।
हर घर में थे बोस हरेक घर
आजादी का शोर यहाँ।
दर्शन का भंडार देश,
और थे शहीद भी गली गली।
राजा मोहन राय हरेक घर,
हरिशचन्द्र भी गली गली।
कई विवेकानन्द यहाँ थे
दर्शन और विज्ञान भरे।
कटने को आतुर शीशे में
न्याय और विज्ञान भरे।
थे कुरान ओर गीता पर शिर
साथ-साथ कटने वाले।
गुरूवाणी और बाइबिलो पर
एक साथ मरने वाले
कितने ही मर गये लिये
सपना अपनी आजादी का।
जला दिये कपड़े विदेश के
बाना पहना खादी का।
अंग्रेजो के खड़े सामने
हाथ नमक और नील लिये।
जंगल में स्वागत करने को
खड़े धनुष थे भील लिये।
पर गोपाला चारी को
माउन्टबेटन ने क्या सोंपा ?
भ्रष्ट प्रशासन जातिवाद का
छुरा पीठ पर एक घोंपा।
गांधी का वादा था शासन
अंतिम जन तक जायेगा
क्या मतलब था दमन प्रशासन
का उन तक ले जायेगा।
देश खींच ले आये नेता
रिश्वत के चैराहे पर।
स्वच्छ वोट की नदी पटक दी
देखा गन्दे नाले पर।
राष्ट्रपिता झूठे कर डाले
देश के इन नेताओ ने।
लिया खजाना लूट मंत्रियों
ने और नौकर शाहों ने।
डरते हैं इमानदार,
इस प्रजातंत्र में गांधी जी।
उन पर बेईमान करते हैं।
क्रूर प्रशासन गांधी जी।
चील भेडि़ये बेहद खुश,
लाशों की उनको कमी नहीं।
गेहँू दाल गगन पर हैं
दिल्ली के दिल में नमी नहीं।
वे रेशम खादी किधर गये।
हो गई कहां मलमल गायब ?
छोड़ गये खेतों को बच्चे
बन कर के छोटे साहब।
सतियों के जलने के बदले
जलती बहुयें सधवायें।
देश जलाते मंत्री नेता
बैठें है सब मंुह बायें।
हर दिन ट्रेनों की दुर्घटना
हर दिन हत्या बलात्कार।
हर दिन लूटमार और चोरी
हर कोने में चीत्कार।
हिन्दी कम्प्यूटर में गुम गई
गाली ही साहित्य बनी।
भाषाओं से प्रान्त बट गये
है आपस में तना तनी
किसकी रक्षा करते सैनिक
सीमा पर शहीद होकर।
वे जो देश बेचते हैं या
जो पग पग खाते ठोकर।
सच के अब प्रयोग बापू जी
बतलाओं क्या कर लेंगे।
सचमुच के सत्याग्रह पर तो
दुष्ट जान ही ले लेंगें।
किस किस मुद्दे पर सत्याग्रह
बतलाओं बापू करलों।
कई छेद है इस चादर में
किस किस को बापू ढकलें।
लगता है डर गये आप भी
अब भारत में आने से।
कैसा देश मिला हम सब को
आजादी के आने से।
आजादी के किस्से बापू
हुये किताबों से गायब
लोकसभा के भ्रष्ट प्रतिनिधि
नग है देश भक्त नायब।
कुछ तो लूट रहें हैं दुश्मन,
कुछ ये नेता गांधी जी।
दिया प्रशासन ने मौका
जनता को बिकने गांधी जी।
अंधकार में कोई किरण
न तुम हो न इतिहास बचा।
यहाँ बचे हर जगह लुटेरे,
नहीं हास परिहास बचा
धीरे धीरे मरती जनता
धीरे धीरे देश यहाँ।
इन हालातों में क्या गांधी
बच पायेगा देश यहाँ।
डा.कौशल किशोर श्रीवास्तव