दीप माला/ लेखनी संकलन

 

 

अंधियार ढल कर ही रहेगा।

आंधियां चाहें उठाओ, बिजलियां चाहें गिराओ ,
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

रोशनी पूंजी नहीं है, जो तिजोरी में समाये,
वह खिलौना भी न, जिसका दाम हर गाहक लगाये,
वह पसीने की हंसी है, वह शहीदों की उमर है,
जो नया सूरज उगाये जब तड़पकर तिलमिलाये,
उग रही लौ को न टोको,
ज्योति के रथ को न रोको,
यह सुबह का दूत हर तम को निगलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

दीप कैसा हो, कहीं हो, सूर्य का अवतार है वह,
धूप में कुछ भी न, तम में किन्तु पहरेदार है वह,
दूर से तो एक ही बस फूंक का वह है तमाशा,
देह से छू जाय तो फिर विप्लवी अंगार है वह,
व्यर्थ है दीवार गढना,
लाख लाख किवाड़ जड़ना,
मृतिका के हांथ में अमरित मचलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

है जवानी तो हवा हर एक घूंघट खोलती है,
टोक दो तो आंधियों की बोलियों में बोलती है,
वह नहीं कानून जाने, वह नहीं प्रतिबन्ध माने,
वह पहाड़ों पर बदलियों सी उछलती डोलती है,
जाल चांदी का लपेटो,
खून का सौदा समेटो,
आदमी हर कैद से बाहर निकलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा।

वक्त को जिसने नहीं समझा उसे मिटना पड़ा है,
बच गया तलवार से तो फूल से कटना पड़ा है,
क्यों न कितनी ही बड़ी हो, क्यों न कितनी ही कठिन हो,
हर नदी की राह से चट्टान को हटना पड़ा है,
उस सुबह से सन्धि कर लो,
हर किरन की मांग भर लो,
है जगा इन्सान तो मौसम बदलकर ही रहेगा।
जल गया है दीप तो अंधियार ढल कर ही रहेगा ।

– गोपाल दास नीरज

 

 

आज फिर से
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कंहा वह आग जो मुझको जलाए,
है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगाकर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
मैं तपोमय ज्योती की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
-हरिवंश राय बच्चन

 

 

आओ एक दीप जलाएं

आशा किरण घर घर फैले
आँगन आँगन खुशियाँ डोलें
ज्योतिर्मय हो मन लहराए
आओ एक दीप जलाएं

निशा दिवस बन जाए
घटा हँसी की चहुँ और छाये
बरसे प्रेम रस सभी नहायें
आओ एक दीप जलाएं

ज्ञान का अलोक हो
निर्भय जन मन प्राण हो
आस गंगा धरती पे बहायें
आओ एक दीप जलाएं

गणेश लक्ष्मी हर घर आसन धरें
कष्ट मिटायें लक्ष दोष हरें
लक्ष्मी विष्णु प्रिया
गणेश विघ्न विनाशक कहलायें
आओ एक दीप जलाएं

हरगोविंद जी का मुक्त दिवस हो
या स्वामी महावीर को निर्वाण मिला हो
राम जी अयोध्या आ पहुंचे हों
या पांडव ने पूरा बनवास किया हो
हो कारण कोई भी
प्रेम का तोरण हर द्वार सजाएँ
खुशियों की सौगात लुटाएं
आओ एक दीप जलाएं ।

रचना श्रीवास्तव

 

 

दीप पर्व

हर वर्ष मनाते दीपों का त्योहार हमीं
पर तम की चादर क्रमशः बढ़ती जाती है।
जग की लहरों पर अर्पण करता दीपक नम
किरण सिरहाने मौत बैठ हंसती-गाती है।।

कंगूरों से रिश्ता चोर-बाजारी का,
तम के घर में कैद उजाला दिखता है।
छुपा द्वेष की चादर में तन ढका हुआ,
मन का मिठ्ठू क्षण-क्षण लुटता जाता है।

एटम-अजगर धरा लीलने को उत्सुक
भूख सर्प है डरता हरदम मिट्टी को।
चीर हरन हो रहा, फाग भी लुटा-लुटा,
बस, यही समस्या जिसके लिए पसीने को।

जितनी दुनिया निकट कर रहे वैज्ञानिक
उतनी ही क्रम से मन की दूरी बढ़ती है।
रेत-चमक पर कंठ सूखता हिरनी का
दीपशिखा की धड़कन हरदम बढ़ती है।

तुम तो कवि! उलझे हो प्रिय के काजल में,
जैसे मकड़ी स्वयं जाल में उलझी है।
समय नहीं यह आंचल की अमराई का,
जीवन की गति, काँटों पर लुटती है।

ज्वालामुख पर खड़ी जगत की सुन्दरता,
कली-सुमन दिखते म्लान विष के कारण।
केशर-क्यारी में छुपी नाश की चिनगारी,
खून चूसता गलियों का तम का शासन।

सपनों के तरु को दीपक ने चुग डाला
नौका की गति पर भँवरों का कटु पहरा।
जग की मुस्कानों पर छाई चिंता-बदली,
और सिरजन के माथे पर कंटक-सेहरा।

तेरी ही करतूतें तुझको ही डस जायेंगी,
जग के आंगन चीलें तब मडरायेंगी।
शतरंजी-चालों का जाल बिछाये पथ,
विनाश-सृजन की जिन्दा कब्र बनायेगी।

लेकिन ऐसे पाँव धरो, तुम सीने पर
हर किरन रचाती रहे माँग को इसी तरह।
फिर लुटे नहीं जग-पथ तन की हिरनी,
ऐसा रस छलकाओ जग की मिटे कलह।

स्नेह-स्वाँति की नदिया जब उर में होगी,
तब रेतीला-आँगन भी उरवर हो लेगा।
विश्व-विटप पर समवेती स्वर पंछी का
तब ही दीपक का राज, जगत उरवर होगा।

अगेन्द्र

 

 

दीप से कहो जले
पर मात्र अँधेरा हटाने की नही
अज्ञान भागने को भी
दीप से कहो जले
पर प्रकाश फैलाने को ही नही
प्रेम संदेश देने को भी
दीप से कहो जले
पर लोगों को ही ज्योति न दे
स्वयं के अंधेरे को भी
प्रकाशित करे
दीप से कहो जले
कुछ जलाने को नही
भटके को राह दिखाने को
दीप से कहो जले
बस यूँ ही नही
राम के घर आने की खुशी में जले।

-रचना श्रीवास्तव

 

 

तमसो मा ज्योर्गमय

जल मेरे दीप अभी और जल
बुझ रही है बाती कुछ और जल।

अपने उर का नेह पिला
तूने जो लौ लगाई थी
अंतस की चिनगारी ले वह
अँधियारों से लड़ आई थी।

बुझ न जाए यह तिलतिल
कुछ और उर में नेह भर
नेह का है कर्ज तुझ पर
जल मेरे दीप कुछ और जल।

इरादों की दुनिया में
रिवाजों का अर्थ नहीं
अंतः सलिला में डूबने
या उबरने का तर्क नहीं।

उदधि हो जा सब के लिए
उमंगों की तरंग बन
मुट्ठियों में ले ले अँधेरे
जल मेरे दीप कुछ और जल ।

बादल और सिन्धु-सा
कर्ता और कर्म-सा
साथ है यह उम्र भर का
हार कर तू पीछे न हट

तेरे पथ में कर्मयोगी
हारने का विकल्प नहीं
शब्द के अभाव में अर्थ हो जा
सूरज-सा हर राह पर चमक।

डूबे ना आखिरी किरन
डूबती सांसों से तू लड़
जल मेरे दीप और जल
सुबह होने तक यूँ ही जल।

-शैल अग्रवाल

 

 


दीप तुम जलते रहना

आज अगर आए प्रियतम- कुछ पलक झपकना
देख पिया की निर्मल मूरत तुम जल उठना
और देखना चकित भ्रमित आँखें वह सुन्दर
फिर बतलाना कौन दीप है उज्ज्वल कितना
दीप तुम जलते रहना !!

आएँगे वह तब जानूंगी- है दीवाली
ओढूँगी आंचल सी रात- अमावस वाली
और चमकते हुए दियों की माला डाले
आस की कोहनी टिका मुंडेर पर, मुझ संग बैटे रहना
दीप तुम जलते रहना !!

भूल चली हैं आँखें, देखो पलक झपकना
तुम क्या जानो ताप प्रीत की- दुष्कर सपना
जल उठना मेरी आंखों में, जब वो आएँ
मेरी चौखट पर मुझमें तुमको भी पाएँ
और कहूँ क्या बात प्रीत की कठिन है कहना
दीप तुम जलते रहना !!

– जया पाठक

 

 

दिया ओर बाती

रात थी घनेरी
बात भी अकेली
उर में सब नेह भरे
बैठा रहा एक दिया
बाती की आस में
अंतस जगमगाने को
भीग गई बाती भी
दिए के नेह में
ख़ुद को ही
तिल-तिल
मिटा आने को।

शैल अग्रवाल-

 

 

खोई राह स्वयं पा लूंगी

तुम आशा का दीप जला दो, खोई राह स्वयं पा लूंगी।

तुम नभ में चन्दा सम चमको
मैं रजनी बनकर मुस्काऊं
तुम दिनकर सम दमको दिनभर
मैं अवनी सम देह तपाऊँ।

तुम थोड़ा सम्बल दो मुझको, अन्तिम छोर स्वयं पा लूंगी
तुम आशा का दीप जला दो, खोई राह स्वयं पा लूंगी।

साज तुम्हारा हो स्वर मेरे
मादक सी झंकार भरें हम
अधर मेरे मुस्कान तुम्हारी
जीवन से यूं प्यार करें हम।

तुम पहली पंक्तियां सुना दो, पूरा गीत स्वयं गा लूंगी
तुम आशा का दीप जला दो, खोई राह स्वयं पा लूंगी।

आओ कदम मिलाकर साथी
कुछ बन जाएं कुछ कर डालें
जगती के कोने कोने को
दिव्य दीप्ति से भर डालें।

लक्ष्य ओर तुम इंगित कर दो, फिर मैं लक्ष्य स्वयं पा लूंगी
तुम आशा का दीप जला दो, खोई राह स्वयं पा लूंगी।

तोषी अमृता

 

 

हर ओर जिधर देखो

हर ओर जिधर देखो
रोशनी दिखाई देती है
अनगिन रूप रंगों वाली
मैं किसको अपना ध्रुव मानूं
किससे अपना पथ पहचानूं

अंधियारे में तो एक किरन काफी होती
मैं इस प्रकाश के पथ पर आकर भटक गया।
चलने वालों की यह कैसी मजबूरी है
पथ है – प्रकाश है
दूरी फिर भी दूरी है।

क्या उजियाला भी यों सबको भरमाता है?
क्या खुला हुआ पथ भी
सबको झुठलाता है?

मैने तो माना था
लड़ना अंधियारे से ही होता है
मैने तो जाना था
पथ बस अवरोधों में ही खोता है

वह मैं अवाक् दिग्भ्रमित चकित-सा
देख रहा-
यह सुविधाओं, साधनों,
सुखों की रेल पेल।
यह भूल भुलैया

रंगों रोशनियों का,
अद्भुत नया खेल।

इसमें भी कोई ज्योति साथ ले जाएगी?
क्या राह यहां पर आकर भी मिल पाएगी?

कीर्ति चौधरी

 

 

तुम नेहा की जोत जलाओ.

मै तन मन को दीपक कर लूँ,
तुम नेहा की जोत जलाओ.
अपने इस छोटे से घर में,
मुस्कानें रोशन हो जाएँ,
शैशव की किलकारी जैसे,
भोलेपन में हम खो जाएँ
आशीषों का दीप जलाकर,
जीवन आलोकित कर जाओ
विश्वासों की रंगोली से ,
मन-आँगन दीपित हो जाये,
शोभित हो मेरी दीवाली,
पलकों में नव स्वप्न सजाये,
जीवन के अंधियारे तम में,.
जगमग ज्योति शिखर बन जाओ,
मै तन मन को दीपक कर लूँ,
तुम नेहा की जोत जलाओ.

-पद्मा मिश्रा

 

 


मैं वह दीपक

मैं वह दीपक नहीं , जो आँधियों में सिर झुका दे ।
मैं वह दीपक नहीं , जो खिलखिलाता घर जला दे ।
मैं वह दीपक नहीं , जो मुँह दुखी से मोड़ लेता ।
मैं वह दीपक नहीं , जो गाँठ सबसे जोड़ लेता ।

मैं तो वह दीपक हूँ , जो खुद जलकर मुस्कुराता ।
मैं तो वह दीपक , जो पर पीर में अश्रु बहाता ।
मैं वह दीपक सदा जो गैर को भी पथ दिखाता ।

मैं वह दीपक, तुम्हारे नेह को जो सिर झुकाता ।
विष पी सुकरात तक भी कुछ नहीं समझा सके थे ,
मैं क्या समझा सकूँगा, क्या समझ सकता ज़माना ।
कौन समझेगा? शिव ने क्यों किया विषपान हँसकर
दीप जलकर झूमता क्यों बहुत कठिन है बताना ।

मैं जलता हूँ कभी अन्धकार न तुमको रुलाए ।
मैं जलता हूँ कोई दुख कभी नहीं पास आए ।
मैं जलता हूँ तुम्हारे कल्याण की बनकर शिखा ।
मैं जलता हूँ कि कोई दिल तुम्हारा ना दुखाए ।

बस आज मेरी तो सभी से , है इतनी प्रार्थना –
प्यार के दो बोल मुझसे तम -पथ में बोल देना ।
रात भर जलता रहूँगा , नेह थोड़ा घोल देना ।
आँधियाँ जब-जब उठें ,तुम द्वार अपना खोल देना।

–रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

 


दीपक

मूक जीवन के अँधेरे में, प्रखर अपलक
जल रहा है यह तुम्हारी आश का दीपक!
ज्योति में जिसके नयी ही आज लाली है
स्नेह में डूबी हुई मानों दिवाली है!

दीखता कोमल सुगंधित फूल-सा नव-तन,
चूम जाता है जिसे आ बार-बार पवन!
याद-सा जलता रहे नूतन सबेरे तक
यह तुम्हारे प्यार के विश्वास का दीपक!

-महेंद्र भटनागर

 

 

जब तक बची दीप में बाती

जब तक बची दीप में बाती
जब तक बाकी तेल है ।
तब तक जलते ही जाना है
साँसों का यह खेल है॥

हमने तो जीवन में सीखा
सदा अँधेरों से लड़ना ।
लड़ते-लड़ते गिरते–पड़ते
पथ में आगे ही बढ़ना ।।

अनगिन उपहारों से बढ़कर
बहुत बड़ा उपहार मिला ।
सोना चाँदी नहीं मिला पर
हमको सबका प्यार मिला ॥

यही प्यार की दौलत अपने
सुख-दुख में भी साथ रही ।
हमने भी भरपूर लुटाई
जितनी अपने हाथ रही ॥

रामेश्वर कम्बोज हिमांशु

 

 

जलाओ दिये मगर ध्यान रहे इतना

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उडे मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,

लगे रोशनी की झडी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
उषा जा न पाये, निशा आ ना पाये |

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

स्रजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,

चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आये |
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,

कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब,
स्वय धर मनुज दीप का रूप आये |
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

गोपाल दास नीरज

 

 

धूमिल रेखा

तेज़ प्रकाश देते दिए को
जब तुम कटोरी से ढक आए थे
तो वह सहमा और सिसका नहीं था
ना ही उसने ठंडी आहें ही भरी थीं
उसने तो बुझने से पहले

बस इतना ही कहा था –

डरना मत मेरे दोस्त,
देखना मेरी यह धूमिल रेखा भी
तुम्हारे बहुत ही काम आएगी
तुम्हारी उदास आँखों में कभी
काजल बनकर मुस्काएगी।

शैल अग्रवाल

 

 

रोशनी मुझसे मिलेगी

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ
मत बुझाओ!
जब मिलेगी, रोशनी मुझसे मिलेगी!

पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ
ऑंसुओं से जन्म दे-देकर हँसी को
एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ

मैं जहाँ धर दूँ क़दम वह राजपथ है
मत मिटाओ!
पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी!

बेबसी, मेरे अधर इतने न खोलो
जो कि अपना मोल बतलाता फिरूँ मैं
इस क़दर नफ़रत न बरसाओ नयन से
प्यार को हर गाँव दफ़नाता फिरूँ मैं

एक अंगारा गरम मैं ही बचा हूँ
मत बुझाओ!
जब जलेगी, आरती मुझसे जलेगी!

जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर
कुछ पता भी है कि वह कैसे बची है
सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो
वह हमीं बदनाम लोगों ने रची है

मैं बहारों का अकेला वंशधर हूँ
मत सुखाओ!
मैं खिलूंगा तब नई बग़िया खिलेगी!

शाम ने सबके मुखों पर रात मल दी
मैं जला हूँ तो सुबह लाकर बुझूंगा
ज़िन्दगी सारी गुनाहों में बिताकर
जब मरूंगा, देवता बनकर पुजूंगा

ऑंसुओं को देखकर, मेरी हँसी तुम
मत उड़ाओ!
मैं न रोऊँ तो शिला कैसे गलेगी!

राम अवतार त्यागी<

 

 

यह दीप अकेला

यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इसको भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लाएगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति दे दो।

यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत:
इस को भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह भरा,
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।

यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लंब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो।

यह दीप, अकेला, स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता, पर
इस को भी पंक्ति को दे दो।

अज्ञेय

 

 

अधीर दिवाली !

यह जग विराट
पूरे साल
जिसके आगमन की
आतुरता से
जोहता है बाट !

वह दिवाली
श्यामली धरा पर
शीतल मंद
समीर संग
खुशियाँ बाटने
अधीर सी उतरी।

जिसके स्वागत में
खेत खलिहान
घर आँगन
सोनजूही से महक उठे!

हर शहर हर नगर
हर डगर
हर हाट हर बाट
हर घाट
हर गल्ली हर नुक्कड
रंग बिरंगी आभा से
लहक उठे !

निशिगंधा के मादक सुगंध से
दिग्दिगंत को मोहित कर रही है
मदहोश निशा
और निखर उठा है!

आकाश मे झिलमिलाते
सितारों के साथ
कजली अमां का
स्यामल गात !

-सत्यनारायण सिंह

 

 

दीपों का त्योहार दिवाली

दीपों का त्यौहार दिवाली
आओ दीप जलाएँ,
भीतर के अंधियारे को हम
मिलकर दूर भगाएँ।

छत्त पर लटक रहे हों जाले
इनको दूर हटाएँ,
रंग-रोगन से सारे घर को
सुन्दर सा चमकाएँ।

अनार, पटाखे, बम-फुलझडी,
चकरी खूब चलाएँ,
हलवा-पूड़ी, भजिया-मठी
कूद-कूद कर खाएँ।

सुन्दर-सुन्दर पहन के कपड़े
घर-घर मिलने जाएँ,
इक दूजे में खुशियाँ बाँटे,
अपने सब बन जाएँ।

दीनदयाल उपाध्याय

 

 

दीपों का पर्व

मानवता की सुंदर धुन पर
लेकर आता दीपों का पर्व
सांझ रंगोली लक्ष्मी पूजन
बाती तेल रोशनी – सृज़न

स्नेहसिक्त बाती जलाएं
प्रेम का हम भर दें तेल
जगमगाती आभा के बीच
जला दें फिर मन का द्वेष

बस रहे शुभ संकेत का तोरण
आँखों में उत्साह की फुलझड़ी
आलोकित दीपों की लड़ी
नेह का स्नेह भर जाए

अमावास की काली रात में
आओ ऐसी बाती जलाएं
दीपावली की श्री हो पग पग
हर घर में जगमग हो जाए

डॉ सरस्वती माथुर

 

 

मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

यह जो रात चुरा बैठी है चांद सितारों की तरुणाई,
बस तब तक कर ले मनमानी जब तक कोई किरन न आई,
खुलते ही पलकें फूलों की, बजते ही भ्रमरों की वंशी
छिन्न-भिन्न होगी यह स्याही जैसे तेज धार से काई,
तम के पांव नहीं होते, वह चलता थाम ज्योति का अंचल
मेरे प्यार निराश न हो, फिर फूल खिलेगा, सूर्य मिलेगा !
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

सिर्फ भूमिका है बहार की यह आंधी-पतझारों वाली,
किसी सुबह की ही मंजिल है रजनी बुझे सितारों वाली,
उजड़े घर ये सूने आंगन, रोते नयन, सिसकते सावन,
केवल वे हैं बीज कि जिनसे उगनी है गेहूं की बाली,
मूक शान्ति खुद एक क्रान्ति है, मूक दृष्टि खुद एक सृष्टि है
मेरे सृजन हताश न हो, फिर दनुज थकेगा, मनुज चलेगा !
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

व्यर्थ नहीं यह मिट्टी का तप, व्यर्थ नहीं बलिदान हमारा,
व्यर्थ नहीं ये गीले आंचल, व्यर्थ नहीं यह आंसू धारा,
है मेरा विश्वास अटल, तुम डांड़ हटा दो, पाल गिरा दो,
बीच समुन्दर एक दिवस मिलने आयेगा स्वयं किनारा,
मन की गति पग-गति बन जाये तो फिर मंजिल कौन कठिन है?
मेरे लक्ष्य निराश न हो, फिर जग बदलेगा, मग बदलेगा !
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

जीवन क्या?-तम भरे नगर में किसी रोशनी की पुकार है,
ध्वनि जिसकी इस पार और प्रतिध्वनि जिसकी दूसरे पार है,
सौ सौ बार मरण ने सीकर होंठ इसे चाहा चुप करना,
पर देखा हर बार बजाती यह बैठी कोई सितार है,
स्वर मिटता है नहीं, सिर्फ उसकी आवाज बदल जाती है।
मेरे गीत उदास न हो, हर तार बजेगा, कंठ खुलेगा !
मेरे देश उदास न हो, फिर दीप जलेगा, तिमिर ढलेगा !

-गोपालदास नीरज

 

 


अंधेरों के ख़िलाफ़ः

बाबजूद बेशुमार दुआओं के
मेरी ओर
लगातार बढ़ रहा है
अंधेरे का एक भयावह सैलाब
शह और मात की
शतरंजी दहशत का
एक बेचैन सा दबाब

दूसरी ओर
हज़ारों बद्दुआओं के बावजूद
मेरे मग़ज़ की भित्तियों में
कहीं पलकें झपकाता रहता है…एक जुगनू
अंधेरों के खिलाफ
अदब के साथ
रह-रहकर चमकता है मौन

ताज्ज़ुब है
उसकी खामोश और अदना-सी मौजूदगी भी
चर्चा का विषय है
माफ़िया अंधेरों की
रोज़-रोज़, रात-रात
आपात बैठक का

कैसा भी
कितना भी हो प्रकाश
प्रकाश से डरता है…अंधकार

नरेश शांडिल्य

 

 

दीपक तुम लौ हूँ में

दीपक तुम लौ हूँ में

उर में तुमने मुझे बिठाया
मैंने जीवन का हर सुख पाया
अंखियन टोना विश्वास बना
हर दुख को इसने झुठलाया

दीपक तुम लौ हूँ में

तम का डर ना अब बुझने का
जीती मैं बूंद बूंद अंधेरा पीती
तुमसे जीवन पाती
तुमको जीवन देती

दीपक तुम लौ हूँ में

प्रज्वलित रहे नेह हमारा
जगमग रहूँ सदा इसी में
डूबी भीगी रची बसी
दीपक तुम लौ हूँ मैं

-शैल अग्रवाल

 

 


साथ तुम्हारा

मै बनूं धरा का दीप लगे झिलमिल जग सारा ,
ज्योर्तिमय जीवन में जैसे साथ तुम्हारा ,
प्रिय आज सुनहले रेशम सी शोभित हो तुम ,
घर आंगन में छलक रहा है प्यार तुम्हारा ,
तेरे आंचल में जगमग -कितनी तारावलियां ,
दीपों में जैसे संचित मन का सुख सारा ,
तुमने आलोकित कर दी प्रिय, मेरी दुनिया।
ममता के फूलों से महका जीवन सारा
यह दीवाली सुधियों में जागे युग युग तक ,
हर धड़कन गाये गीत ख़ुशी के जीवन भर ,
मुस्काए पल पल अंतर में दीपों की माला
ज्योर्तिमय जीवन में जैसे साथ तुम्हारा ,

-पद्मा मिश्रा

 

 


लॊ दिए की

बह रही हूँ,जैसे बहती लॊ दिए की,
मै नदी हूँ,तरलता अवलंब मेरा,
है सुशोभित तारकों की पांत मेरी’
दीपकों की पांत जलती ज्यों पुलिन पर,
कह उठा नभ सिक्त नयनों से,नदीकी
मै तुम्हारा ही तो हूँ प्रतिबिम्ब पावन,
पूजिता मै -जैसे पूजित लॊ दिए की।,
जगमगाती आरती में, देवता के अर्चना सी,
एक नया संसार बुनती किरण बाला ,
रौशनी की धार बनती दीपमाला ,
तप रही हूँ जैसे तपती लॊ दिए की ,
प्रीति की वह डोर पावन वंदना सी,
और निशि दिन वर्तिका का मृदु समर्पण,
भावनामय शलभ का सर्वस्व खोना ,
जल रही हूँ जैसे जलती लॊ दिए की .
सहज सार्थकता लिए अभिव्यक्ति मेरी ,

पद्मा मिश्रा

 

 

यह प्रकाश का पर्व

यह प्रकाश का पर्व,तिमिर का नाश करेगा,
ज्योतिर्मय जीवन में नव-विश्वास भरेगा,
तुम एक दिया देहरी पर ज्योतित कर देखो,
शत शत अंधियारों का विमल उजास बनेगा,
यह प्रकाश का पर्व तिमिर का नाश करेगा,
सूने घर आँगन में सिमटी यादों को,
तुम सपनों के नील गगन में विचरण करने दो,
जब तोड़ सको मोती से सभी नखत नभ के,
अपने आँचल में उन्हें समर्पित होने दो ,
यह आँचल का दीप प्रबल दिनमान बनेगा,
यह प्रकाश का पर्व तिमिर का नाश करेगा,
जिनके घर में अँधियारा ठहर गया,
उस अंध-तिमिर-जीवन में सूरज ढलने दो,
हैं असंख्य दीपों की झिलमिल तारावलियां,
बस एक दिया उनके आँगन में जलने दो,
वह एक अकेला दीप खुशी का मान बनेगा ,
यह प्रकाश का पर्व तिमिर का नाश करेगा,
है भूख,गरीबी,हिंसाके अनगिन नरकासुर,
तुम शक्ति स्वरुप बनो,अनय का नाश करो,
जन मन की धूमिल होती आशाओं में,
प्रज्वलित दिवाकर सा जीवन का त्रास हरो,
यह अमर दीप मन के सारे संत्रास हारेगा,
यह प्रकाश का पर्व तिमिर का नाश करेगा,

–पद्मा मिश्रा

 

 

पग-पग दीप जलाये हैं

पग-पग दीप जलाये हैं
फिर भी ठोकर खा ही जाती हूँ
ये पैंजन सारे की सारे भेद
पल भर में खोल जाते हैं

कहा कई है बार नटवर से
कि इतनी रात बीते
न छेडा कर तान अपनी
कि मैं हो जाऊँ अधीर बावली

कालिंदी के तट पर
न जाने किस झुरमुट में
छिपकर करते आँख मिचौनी
मालुम कितनी व्याकुल होती हूँ मैं
और भर आते नयना पलभर में

फिर चुपके- चुपके आकर
मुझको वे बांहो में भर लेते
सहमी-सहमी सी रह जाती मैं
सारा का सारा गुस्सा पीकर

बाँहों के बंधन का सुख
कितना प्यारा-प्यारा तू क्या जाने
पहरें बीत जाती पल में
और मन ही मन रह जातीं
कितनी सारी बातें

सखी-य़े दीपावलियाँ कितनी प्यारी-प्यारी
न जाने कितना तम हर लेती हैं
ऎसे ही उस नटवर की मधुर स्मृति
कितने अलौकिक स्वप्न दिखा जाती है
फिर समझ नहीं मुझको ये पडता है
ये जग मुझे क्यों बावरी-बावरी कहता है
– गोवर्धन यादव

 

 

“कंदीली रौशनी!”

गहरे तिमिर को चीरती
हर कन्दीली रौशनी होती है…
एक सूर्य की तरह
अँधेरा पीती है और
जगमगाती है
हमें राह दिखाने को
हर दीप शिखा
रात के सूरज सी
चमकती है
ओ दीपशिखा
नमन तुम्हे
बहुत बहुत नमन !

-डॉ सरस्वती माथुर

 

 

रख दो कहीं
हम उजाला ही करेंगे
अम की काली रात हो
या अंधेरी पथ की राह हो
पूजा का सजा थाल हो
रख दो कहीं
हम उजाला ही करेंगे

शहर की चौमुहानी पर
नाली की मुहानी पर
घर की ड्योढ़ी और चौखट पर
या तुलसी के बिरवा पर
अंधेरी किसी आली में
सजी सजाई थाली में
या फिर मोह की जाली में
ऱख दो कहीं
हम उजाला ही करेंगे

राजमहल हो या झोंपड़ी
दोनों में ही जगमग
बगिया और वीराने में
हम उजाला ही करेंगे
रख दो कहीं
सिराहने उसके भी
छोड़ चला जो
जीवन का हाथ है
या फिर नया नया जिनका
जीवन सफर में साथ है
राह दिखाते तिमिर मिटाते
हम उजाला ही करेंगे
ऱख दो कहीं…

शैल अग्रवाल

 

 

जल जल दीप जलाए सारी रात

जल जल दीप
जलाये सारी रात
हर गलियाँ सूनी सूनी

हर छोर अटाटूप अंधेरा
भटक न जाये पथ में
आने वाला हमराही मेरा

झुलस- झुलस
दीप जलाये सारी रात

घटायें जब घिर-घिर आती
मेरा मन है घबराता
हाँ-दिखता नहीं कोई सहारा

क्षित्तिज मे आँख लगाये
हर क्षण तेरी इन्तजारी में
सिसक-सिसक
दीप जलाये सारी रात
आशाओ की पी पीकर खाली प्याली
ये जग जीवन रीता है
ये जीवन बोझ कटीला है
राहों के शूल कटीले है
तिस पर यह चलता दम भरत्ता है

तडप तडप दीप जलाये सारी रात
लौ ही दीपक का जीवन
स्नेह में ही स्थिर जीवन

बुझने को होती है रह रह
तिस पर आँधी शोर मचाती
एक दरस को अखिंयां अकुलाती
जल जल दीप जलाये सारी रात
शकुन्तला यादव
 

 

दीप गीत

सखी री………

एक दीप बारना तुम
उस दीप के नाम
जिस दीप के सहारे
हम सारे दीप जले हैं

सखी री……..

सखी री..

दूजो दीप बारियो तुम
उस दीप के नाम
जिस दीप के सहारे
हम जग देखती हैं

सखी री……..
सखी री…..

तीजॊ दीप बारियो तुम
उस माटी के नाम
जिस माटी से
बनो है ये दींप

सखी री…….
सखी री…..

चौथो दीप बारियो तुम
उन दीपों के नाम
जो तूफ़ानों से टकरा गये थे
और बुझकर भी
भर गये जग में
अनगिनत दीपों का उजयारा

सखी री……..
सखी री…..
-श्रीमती शकुन्तला यादव

 

 

दिवाली का अवसर

 

दिवाली का अवसर

आप कह रहे हैं
खाली- खाली
शुभ दीपावली

श्रीमन् !
यह बात कुछ
पची नहीं

श्रीमन् !
लगता है
आपको दुनिया की
रीति और नीति की
नहीं है कोई खबर

श्रीमन्!

ना ही, है आपको
आगे का कोई डर

श्रीमन् !
मान्यवर !
ऐसे तो नहीं
होगी गुजर !

कुछ तो
ऐसा कीजिए ,
जरा ठीक सा ,
जिससे हो सके
हमारी दीपावली

वास्तव में
शुभ दीपावली
श्रीमन् ।

– अनिल शास्त्री शरद्, 311, पार्क रोड देहरादून

 

 

आई दिवाली फिर

अँधेरा कभी रौशनी से जीतता नहीं
आस का घट यह रीतता नहीं

मलो न कालिख यूँ चेहरे पर
नफरत की आग न जलाओ
देश तुम्हारा देश हमारा
मिलकर ज्ञान का दीप जलाओ
आओ मेरे हमजोली आओ

यादों की रंगोली पर
कामना के दिए
आई दिवाली फिर
एक शुभ संदेश लिए

राम न जाते गर बन
सीता न छोडती महल
विधना से तो पर सब हारे
जन साधारण या राज दुलारे
दशरथ ने किए कितने जतन

प्यार की रंगोली पे समर्पण के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए

हारा नहीं है तम से ये मानव
कर्म ही इसका तारक साधन
तन पावन और मन पावन
सूर्यपुत्र कर देगा जगमग
सभी अंधेरे घर-आंगन

विश्वास की रंगोली पे आस्था के दिए
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए

तोड़ो सब संशय के जाले
दीप जलाओ आले आले
मारे इसने नरकासुर और रावण
खुशियों ने देखो कितने रूप धरे
आई दिवाली फिर शुभ संदेश लिए

चौमुख जलें उल्लास के दिए
आई दिवाली यही संदेश लिए…

शैल अग्रवाल

 

 

कौन यहां आया था

कौन यहां आया था
कौन दिया बाल गया
सूनी घर-देहरी में
ज्योति-सी उजाल गया

पूजा की वेदी पर
गंगाजल भरा कलश
रक्खा था, पर झुक कर
कोई कौतूहल वश
बच्चों की तरह हाथ
डालकर खंगाल गया

आंखों में तिर आया
सारा आकाश संहज
नये रंग रंगा थका-
हारा आकाश सहज
पूरा अस्तित्व एक
गेंद सा उछाल गया

अधरों में राग, आग
अनमनी दिशाओं में
पार्श्व में, प्रसंगों में
व्यक्ति में, विधाओं में
सांस में, शिराओं में
पारा-सा ढाल गया

-दुष्यंत कुमार

कहा उस ने
आओ प्रिये दीवाली मनाएं
अपने संग होने की
खुशियों में समायें
आओ प्रिये दीवाली मनाएं
हाथ पकड़
दिए के पास लाई
जलाने को जो उसने लौ उठाई
तभी देखा
दूर एक घर
अंधेरों में डूबा था
बम के धमाके से
ये भी तो थरराया था
आँगन में उनके
करुण क्रन्दन का साया था
पड़ोस डूबा हो जब अन्धकार में
तो घर हम अपना कैसे सजाएँ
तुम ही कहो प्रिये
दीवाली हम कैसे मनाएं?
कर के हिम्मत उसने
एक फुलझडी थमाई
लाल बत्ती पे गाड़ी पोछते
उस मासूम की
पथराई ऑंखें याद आई
याचना के बदले मिला तिरस्कार
पैसों के बदले दुत्कार
घर में जब गर्मी न हो
वो पटाखे कैसे जलाये
जब है खाली उसके हाथ
हम फुल्झडियां कैसे छुडाएं ?
तुम ही कहो प्रिये
दीवाली हम कैसे मनाएं ?
जब खाया नही
तो दूध कहांसे आए
छाती से चिपकाये बच्चे को
सोच रही थी भूखी माँ
मिठाइयों की महक से
हो रही थी और भूखी माँ
खाली हो जब पेट अपनों के
कोई तब जेवना कैसे जेवे
अब तुम ही कहो प्रिये
दिवाली हम कैसे मनाएं?
भरी आँखों से
देखा उसने
फ़िर लिए कुछ दिए ,पटाखे मिठाइयां
संग ले मुझको
झोपडियों की बस्ती में गई
हमारी आहट से ही
नयन दीप जल उठे
पपडी पड़े होठ मुस्काए
सिकुड़ती आंतों को
आस बन्धी
अंधियारों में डूबा बच्पन
आशा की किरण से दमक उठा
अमावस की काली रात में
जब प्रसन्नता की दामिनी चमक उठी
तो अब आओ प्रिये
दीवाली हम खुशी से मनाये
सुनो न
दीवाली हम सदा ऐसे मनाएं
रचना श्रीवास्तव

आओ एक दीप जलाएं

आशा किरण घर घर फैले
आँगन आँगन खुशियाँ डोलें
ज्योतिर्मय हो मन लहराए
आओ एक दीप जलाएं

निशा दिवस बन जाए
घटा हँसी की चहुँ और छाये
बरसे प्रेम रस सभी नहायें
आओ एक दीप जलाएं

ज्ञान का अलोक हो
निर्भय जन मन प्राण हो
आस गंगा धरती पे बहायें
आओ एक दीप जलाएं

गणेश लक्ष्मी हर घर आसन धरें
कष्ट मिटायें लक्ष दोष हरें
लक्ष्मी विष्णु प्रिया
गणेश विघ्न विनाशक कहलायें
आओ एक दीप जलाएं

हरगोविंद जी का मुक्त दिवस हो
या स्वामी महावीर को निर्वाण मिला हो
राम जी अयोध्या आ पहुंचे हों
या पांडव ने पूरा बनवास किया हो
हो कारण कोई भी
प्रेम का तोरण हर द्वार सजाएँ
खुशियों की सौगात लुटाएं
आओ एक दीप जलाएं
-रचना श्रीवास्तव

बीत जाए भले ही दिवाली

थके ना बाती, बुझे ना दिया
काश्मीर से कन्याकुमारी तक
नेह से भरा रहे अपना हिया
उजाले के आगे अँधेरे की
होती कोई औकात नहीं
सुलझ न सके धैर्य और प्यार से
ऐसी देखी कभी कोई गांठ नहीं
सफल होती है हर परीक्षा
छूटता जब विश्वास नहीं
मंथरा का षडयंत्र हो या फिर
राम को मिला था बनवास
अनैतिक प्रहार थे बस नियति के
अंतिम जीत या हार नहीं
आगे-पीछे पूरे होंगे प्रण सभी
हारती जब आस नहीं
अमन चैन की बात हो या फिर
पुनः निर्माण की…

शैल अग्रवाल


जगमग करता दीप
बूंद के नीचे सीप
सीप में लहराता सागर
जैसे नटवर नागर
नागर और हम
प्रकाश व तम
तम मांगे प्रकाश
तंत्र से जन आस
आस लिये वादा
कृष्ण और राधा
राधा चाहे श्याम
सीता मांगे राम
राम हमारा जीवन
जीवन सुंदर मन
मन मस्त राजन
सावन सा पावन
पावन सी ममता
जोगी जैसे रमता
रमता जब जोगी
मुक्त होता योगी
योगी जीवन योग
सहज सरल तू भोग
विशाल शुक्ल


बनवास यहीं राजपाट यहीं, राम और रावण यहीं
भय के राक्षस जीवन पथ पर नित ही डसते
हिम्मत और विवेक राम-लखन तब रक्षा करते

आँधिया उठती हैं रोज ही धरती को हिलाने को
पर गोदी बिठलाती धरा करती है इंतजार
आगत विकट पल से, तूफान से गुजर जाने को

अँधेरा तैयार हो निगल जाने को तो भी क्या
पोंछ आंसू मुस्कुरा ऱख ह़दय में विश्वास सदा
एक दिया ही पर्याप्त है अंधेरा मिटा जाने को !

रख दिया सज़ा रंगोली अंधेरा बहुत
अमा की रात है कितनी अंधेरी
रौशनी बिखेर दे अंधेरा मिटाने को…
शैल अग्रवाल

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