आए महंत वसंत
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला
चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत
आए महंत वसंत
श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात
कोंपल के मुँदे नयन थर-थर-थर पुलक गात
अगरु धूम लिए घूम रहे सुमन दिग-दिगंत
आए महंत वसंत
खड़ खड़ खड़ताल बजा नाच रही बिसुध हवा
डाल डाल अलि पिक के गायन का बँधा समा
तरु तरु की ध्वजा उठी जय जय का है न अंत
आए महंत वसंत
– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना >
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता-सा
अनुभव से जानता हूँ
कि यह वसंत है
रघुवीर सहाय
पिक पंचम
आज प्रथम गाई पिक पंचम।
गूंजा है मरु विपिन मनोरम।
मस्त प्रवाह कुसुम तरु फूले,
बौर-बौर पर भौंरे झूले,
पात-पात के प्रमुदित मेले,
छाय सुरभी चतुर्दिक उत्तम।
आँखों से बरसे ज्योति-कण,
परसे उन्मन-उन्मन उपवन,
खुला धरा का पराकृष्ट तन,
फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।
प्रथम वर्ष की पांख खुली है,
शाख-शाख-किसलयों तुली है,
एक और माधुरी घुली है,
गीतों-गन्ध-रस वर्णों अनुपम।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘ निराला ‘
वसंती हवा
हवा हूँ , हवा मैं,
वसंती हवा हूँ।
सुनो बात मेरी-
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ,
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ।
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ,
मुसाफिर अजब हूँ।
न घरबार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ , हवा मैं,
वसंती हवा हूँ।
जहाँ से चली मैं.
जहाँ को गई मैं-
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ , हवा मैं,
वसंती हवा हूँ।
-केदारनाथ अग्रवाल
धरती का डोले मन
धरती का डोले मन
के बसंत ऋतू आई
सूरज जो छुप के बैठा था
खिड़की खोल ले मुस्काया
उसकी सुनहरी धूप ने
धरती का कण कण चमकाया
हर्ष हर्ष बोले सुमन
के बसंत ऋतू आई
धरती का डोले मन
के बसंत ऋतू आई
ओढ़ बसंती चूनर
धरा सुन्दरी इतराए
बादल जो राही बन भटके
उस का मन भी भरमाये
बहे बसंती बयार होके मगन
के बसंत ऋतू आई
धरती का डोले मन
के बसंत ऋतू आई
फूलों ने घूँघट खोले
तो भवरे ने ली अंगड़ाई
पी का संग पाने को
प्रकृति सुन्दरी बौराई
प्रेम राग से गूंजे गगन
के बसंत ऋतू आई
धरती का डोले मन
के बसंत ऋतू आई
-रचना श्रीवास्तव
मन मेरा भी…
मन मेरा भी महक उठा
सूरज ने गिराए परदे
तपिश धूप की कम हुई
खोल दी गांठ
हवाओं ने
मौसम की आंख नम हुई
बदली ऋतू तो
कण कण चहक उठा
मन मेरा भी महक उठा
गदराये पेड़
मादमाई किरणे
वन में खग
उपवन में मृग
हो आतुर विचरें
छटा ऐसी
वैराग्य बहक उठा
मन मेरा भी महक उठा
आँचल पर आकाश के
ज़रदोज़ी से तारे
कुसमित पवन
सजा दीप
आरती उतारे
रूठी जो
ऐसे में चांदनी
चाँद कसक उठा
मन मेरा भी महक उठा
-रचना श्रीवास्तव
किसलय वसना प्रकृति सुन्दरी
पहन शाटिका पीली-पीली,
प्रकृति प्रिया ने रूप सजाया.
परिमल के मिस भेज सन्देशा,
प्रिय बसन्त को पास बुलाया.
त्याग निशा की श्याम चूनरी,
पहनी अंगिया आज सुनहरी.
पूर्व दिशा के स्वर्ण रंग में,
रंगी खड़ी है प्रकृति छरहरी.
शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन है,
वन-उपवन छाई हरियाली.
फ़ूले फ़ूल खड़े हैं लेकर-
कर में नव पराग की थाली.
नाच रहीं तितलियां मनोहर,
भौंरे गुन-गुन करते गुन्जन.
हरी-मखमली दूब बिछी है,
जहां ओस करती है नर्तन.
श्यामा अनिली भी कोयल से,
करती अन्ताक्षरी मनोहर.
फ़ैलाये निज बांह सभी को,
न्योता देते कमल सरोवर.
बौरा उठे आम बागों में,
मह-मह महुआ मदिरा ढारे.
कचनारों की गन्ध उड़ाकर,
खेल खेलते हैं सब न्यारे.
किसलय वसना प्रकृति सुन्दरी,
दुल्हन सी सजकर है आई.
प्रिय वसंत की बांहों में आकर
लेती हो प्रमुदित अंगड़ाई.
-नीरजा द्विवेदी
वसंत मुआ लगा रहा
चूड़ियां क्यों खनक रहीं, दमक रही मांग है,
प्रियतम की याद क्यों, मन में रही जाग है?
कली क्यों मुसका रही, क्या भर गया पराग है,
हवा क्यों पगलाई है, क्या लग गया माघ है?
श्वान का छौना तक श्वानिन पीछे रहा भाग है,
नागिन पर क्यों प्यार से फुफकार रहा नाग है?
पहले से जानती है उसका प्रियतम बड़ा घाघ है,
गोरी आज क्यों घबरा रही, लग न जाये दाग़ है?
उसकी याद में रमेसर रात भर गाता रहा फाग है,
कब वह आयेगी, कब होगा झंकृत भैरवी राग है?
क्या पाहुन आ रहा, क्यों मुंडेर पर बैठा काग है?
वसंत मुआ लगा रहा, प्रेमियों के हृदय में आग है।
-महेश चन्द्र द्विवेदी
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों की गंध लिए
दौड़ती सी भागती सी
पलभर ठहरती है
पेड़ों की फुनगी पर
मगर दुसरे ही पल वह दूर भाग जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
धान के खेतों को
छेड़ छेड़ जाती है
बलखाती आती है
इतराती जाती है
कोयल की कू कू संग स्वर को मिलाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
अभी यहाँ अभी वहां
पता नहीं पल में कहाँ
कितनी है चंचल यह
कितनी मतवाली है
मन में जाने कैसी प्यास जगा जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
फूलों के कलियों के
कानों में जाने क्या
भवरों का संदेशा
चुपके कह जाती है
मन में जाने कैसी प्यास जगा जाती है
ये बसंती हवा आज पागल सी लगती है
-कुसुम सिन्हा
बोली कोयलिया उस गाँव में
पल्लवित कुसमित कदंब की छाँव में
बोली कोयलिया उस गाँव में
देख कदंब के भाग्य सखी
होए जलन हर हाल सखी
काश मै कदम बन जाऊँ
प्रति पल उनका सानिध्य पाऊँ
हो इच्छा पूर्ति कदंब की छाँव में
बोली कोयलिया उस गाँव में
ग्वालों संग कान्हा खेले
डाली डाली हर्षित डोले
बचपन की मासूम बातें
माखन चोरी की घातें
रचे रचयिता खेल कदंब की छाँव में
बोली कोयलिया उस गाँव में
मुरली मधुर मनोहर बाजे
राधा के मन मंदिर साजे
छोड़ कामकाज गोपिया भागे
सुध बुध खोएं कृष्ण के आगे
बैठी रहीं कदंब की छाँव में
बोली कोयलिया उस गाँव में
हरित पात लल्ला छुप जावे
माता यशोदा को खिझावे
ग्वाल बाल सबसे पूछे कोऊ नहीं बतावे
ठाढी क्रोधित मैया कदंब को छाँव में
बोली कोयलिया उस गाँव में
– रचना श्रीवास्तव
पीले फूल कनेर के
पीले फूल कनेर के
पट अंगोरते सिन्दूरी बड़री अँखियन के
फूले फूल दुपेर के।
दौड़ी हिरना
बन-बन अंगना
वोंत वनों की चोर भुर लिया
समय संकेत सुनाए,
नाम बजाए,
साँझ सकारे,
कोयल तोतों के संग हारे
ये रतनारे-
खोजे कूप, बावली झाऊँ
बाट, बटोही, जमुन कछारे
कहाँ रास के मधु पलास हैं?
बट-शाखों पर सगुन डालते मेरे मिथुन बटेर के
पीले फूल कनेर के।
पाट पट गए,
कगराए तट,
सरसों घेरे खड़ी हिलती-
पीत चँवरिया सूनी पगवट
सखि! फागुन की आया मन पे हलद चढ़ गई
मेंहदी महुए की पछुआ में
नींद सरीखी लान उड़ गई
कागा बोले मोर अटरिया
इस पाहुन बेला में तूने
चौमासा क्यों किया पिया?
यह टेसू-सी नील गगन में-
हलद चाँदनी उग आई री
उग आई री
अभी न लौटे उस दिन गए सबेर के!
पीले फूल कनेर के।
– श्री नरेश मेहता
पहाड़ पर बसंत
पहाड़ पर भी
बसंत ने दी है दस्तक
बान के सदाबहार जंगल में
कविता की एक रसता को तोड़ते-से
बरूस के पेड़ों पर
आकंठ खिले हैं लाल फूल
सरसों के फूल
बसंत में जहाँ
खेत के कोने की छान को
झुलाते होंगे धीरे-धीरे
यहाँ बरूस के लाल रंग ने
आलोड़ित किया है पृथ्वी को
बादल बच्चों की तरह
उचक-उचक देखते बसंत खेल
डाली-डाली पर उम्मीदों-से
भरे हैं फूलों के गुच्छे
हर फूल में ढेरों बिगुल-से झुमकों से
करते बासंती सपनों का उद्घोष
सेमल, शाल, पलाश, गुलमोहर को पीछे छोड़
बरूस की लाल मशाल
रंग गई बादलों को भी आक्षितिज
बरूस ने बच्चों के हाथों घर-घर भेजा है
उत्सव का आवाहन
जीर्ण-शीर्ष घरों को
बरूस की बंदनवार रस्सियों ने
बाहों में भर लिया है
बसंत ऋतु के बाद
निदाघ दिनों में भी
बंदनवार में टँगे सूखे फूलों को मसलकर
एक चुटकी लेते
सारी ऋतुओं का रस
टपक पड़ता है जीवन में
तेजराम शर्मा
आ गया मधुमास…
आ गय मधुमास लेकर
फूल मुस्काते
गूजते हैं गीत के स्वर
भ्रमर है गाते
याद आइ फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए
फूल कलियों ने सजाया
फिर से उपवन को
झील के जल पर
गगन के रूप का जादू
ळहरों पे है डोलता
किरण के रंग का जादू
याद आइ फिर तुंम्हारी
तुम नहीं आए
फिर हृदय के वृक्ष पर
कुछ फूल खिल आए
मिलन के सपनों ने
अपने पंख फैलाए
याद आइ फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए
याद करती हैं ये लहरें
पास आ आ कर
लौट आती हैं व्यथित
तुमको नहीं पाकर
गगन में उडते पखरू
घर को लौटे हैं
याद आइ फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए
हृदय के तारों पर लगा
कोइ गीत है बजने
जागकर सोते से
सपने हैं लगे सजने
याद आइ फिर तुम्हारी
तुम नहीं आए
-कुसुम सिन्हा
बासंती वो बयार
बासन्ती वो बयार
इस पार बही, उस पार बही
मन चुप था, हम चुप थे
तोड़े यह घरद्वार बही।
बासन्ती वो बयार…
ऋतु आई आकर चली गई
आ-जाकर फिर से आने को
आने-जाने की मजबूरी किसकी
इसको तो कुछ भी याद नहीं
मनमौजी घर घर औ द्वार बही।
बासन्ती वो बयार….
क्या कुछ इसके साथ रहा
क्या कुछ पीछे छूट गया
सर्दी गरमी बरखा सहती
पगली ना यह पहचानी
यह तो बस लाचार बही।
बासन्ती वो बयार…
फूल-फूल खिल-खिल के आई
बिखर-बिखर झर जाने को
खिलने और बिखरने की
जिद भी तो इसकी अपनी ही
औरों की कब है इसने सुनी
जिद पे कर एतबारबही
बासन्ती वो बयार…
पिरो लिए क्यों पल-पल
इसने यूँ साँसों में गिन-गिन
माला तो वह टूटेगी ही
फिर इसकी ना एक चली
खुद से ही यह हार बही।
बासन्ती वो बयार…
मुस्कानों के मोती जो
आँसू बन बिखरे चहुँ ओर
माला तो माला है आखिर
धागे की रहती मुहताज
नग पुरे, ना पुरे
छूटे जो छूटे रह जाते
सुख दुख ना यह जानी
मनमौजी दिन रात बही
बासन्ती वो बयार–
-शैल अग्रवाल
फागुन करने की कला
एक क्षण तुम्हारे ही मीठे संदर्भ का,
सारा दिन गीत-गीत हो चला।
तैरने लगे मन से देह तक
चाँदनी-कटे साये राह के,
अजनबी निगाहों ने तय किये
फासले समानान्तर दाह के,
अग्नि-झील तक हमको ले गयी-
जोड़ भर गुलाबों की श्रृंखला।
तोड़ कर घुटन वाले दायरे
एक प्यास शब्दों तक आ गई,
कंधों पर मरुथल ढोते हुए
हरी गंध प्राणों पर छा गई,
पल भर में कोई तुम से पूछे
मन को फागुन करने की कला।
-सोम ठाकुर
पुरवैया मुहजोर
पुरवैया मुहजोर मेरी चुनरी उडाये
आया बसंत वन में फूल खिल जाएँ
फूलों की गंध भरी गगरी छलकाए
तन मन सिहराए मेरे मन को बौराए
बार बार मुख पे मेरे जुल्फें बिखराएँ
पुरवैया मुहजोर मेरी चुनरी उडाये
पूछो न मुझसे मैं हो गई बावरिया
आते जाते मुझसे ये पूछे डगरिया
कब आयेंगे तेरे बाकें सावरिया
उसकी ठिठोली न मुझको सुहाए
पुरवैया मुहजोर मेरी चुनरी उडाये
जुल्फें संभालूं तो चुनरी उड़ जाए
चुनरी संभालूं तो मन भागा जाए
ऊपर से मौसम बसंती तरसाए
बट ताकू कब से वो अबतक न आये
पुरवैया मुहजोर मेरी चुनरी उडाये
गंध भरी हवा मेरा तन मन महकाए
झुकी जाए आंख मेरी मन शर्माए
काली कोयलिया जो कुहू कुहू बोले
तन मन में मेरे बसंत खिला जाए
पुरवैया मुहजोर मेरी चुनरी उडाये
कुसुम सिन्हा
केसर चंदन
केसर चंदन गमक रहे, कोयल कूके बाग
तितली भंवरे बाबरे फिर फिर खेलें फाग
टेसू -सरसों पगपग फूले, पलाश लगाए आग
एक कसक, एक महक, फिर वही एक याद
चपल सहेली मन आँगन आ-आ जबरन झांके
प्रीत की पाती दर-दर बांटे बासंती है बयार !
शैल अग्रवाल
ये तुम्हारे रंग
कहाँ रखूँ, किधर रखूँ
ये तुम्हारे रंग ?
लीक से कटी-छटी, यह नन्ही पगडंडी
नर्म दूब बासंती, छाँह सतरंगी
कैसे चलूँ सहलाती पाँव, चले गाँव लिए
संहिताएँ संग !
जिल्द बँधी वही जरा ओट हो गई
नेह जुन्हाई भरी दुपहरी भिगो गई
चहक उठे बनपाँखी, मुखर ऐसी महक जुही,
साँस-साँस संग !
कटती हुई धरती पर सपनों की मनाही,
नींदों में दस्तक दे, बेरहम सच्चाई
कैसे करूँ पलकों में बन्द, छलक जाएँ कहीं,
ललक भरे ये चितेरे रंग !
मैं कहाँ रखूँ किधर धरूँ ये तुम्हारे रंग ?
-चंद्रकान्ता
कौन रंग फागुन रंगे
कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन वसंत,
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ वसंत।
रोमरोम केसर घुली, चंदन महके अंग,
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।
रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग,
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।
पलट पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप,
रह रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।
मन टेसू टेसू हुआ तन ये हुआ गुलाल
अंखियों, अंखियों बो गया, फागुन कई सवाल।
होठोंहोठों चुप्पियाँ, आँखों, आँखों बात,
गुलमोहर के ख्वाब में, सड़क हँसी कल रात।
अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीदे छंद।
अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ,
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ सौ झूठ।
पारा, पारस, पद्मिनी, पानी, पीर, पलाश,
प्रंय, प्रकर, पीताभ के, अपने हैं इतिहास।
भूली, बिसरी याद के, कच्चे पक्के रंग,
देर तलक गाते रहे, कुछ फागुन के संग।
दिनेश शुक्ल
बसन्तोत्सव
मस्ती से भरके जबकि हवा
सौरभ से बरबस उलझ पड़ी
तब उलझ पड़ा मेरा सपना
कुछ नये-नये अरमानों से;
गेंदा फूला जब बागों में
सरसों फूली जब खेतों में
तब फूल उठी सहस उमंग
मेरे मुरझाये प्राणों में;
कलिका के चुम्बन की पुलकन
मुखरित जब अलि के गुंजन में
तब उमड़ पड़ा उन्माद प्रबल
मेरे इन बेसुध गानों में;
ले नई साध ले नया रंग
मेरे आंगन आया बसंत
मैं अनजाने ही आज बना
हूँ अपने ही अनजाने में!
जो बीत गया वह बिभ्रम था,
वह था कुरूप, वह था कठोर,
मत याद दिलाओ उस काल की,
कल में असफलता रोती है!
जब एक कुहासे-सी मेरी
सांसें कुछ भारी-भारी थीं,
दुख की वह धुंधली परछाँही
अब तक आँखों में सोती है।
है आज धूप में नई चमक
मन में है नई उमंग आज
जिससे मालूम यही दुनिया
कुछ नई-नई सी होती है;
है आस नई, अभिलास नई
नवजीवन की रसधार नई
अन्तर को आज भिगोती है!
तुम नई स्फूर्ति इस तन को दो,
तुम नई नई चेतना मन को दो,
तुम नया ज्ञान जीवन को दो,
ऋतुराज तुम्हारा अभिनन्दन!
भगवती चरण वर्मा
बसंत आया !
कोयल फिर कुहकी
भंवरे फिर बहके
गेहूँ की बाली पर
सरसों के झुमके
रंगों की रंगोली से
फागुन की ठिठोली से
तारों की चोली से
किसने है मन भरमाया
बसंत आया!
फिर चली मदमस्त पुरवाई
मदिर मलय वो
संदेशे ले आई
पीहु कहां, पीहु कहां
रूखे तन, सूखे मन
पुलक-पुलक बूटे से फूटे
धरती ने क्यों यह
रूप सजाया
बसंत आया!
धूप छाँव
रुनझुन पायल
धरती-तन
हरियाला आंचल
तारों की छांव में
खुशियों के गांव में
कौन यह नवेली
दुल्हन ले आया
बसंत आया!
कली-कली
डाल-डाल
सज आईं गोपिकाएँ
झूम उठे पात पात
बन उपवन
कान्हा बन
किसने फिर यह
रास रचाया
बसंत आया!
शैल अग्रवाल