एक शहर आज भी अपना-साः शैल अग्रवाल


कोने- कोने झांकती हैं हजार यादें
सूरज की किरणों सी बिखरीं
खिड़की दरवाजे की दरारों से
कितनी रौशनी कितना गुबार लिए
कौन जाने घर कहाँ पर कौनसा देश है अब मेरा
पर्वत से रहे तुम जीवन में सदा
और नदी सी जिन्दगी बह चली
समंदर था एक ख्वाइशों का सामने
बोलो, तुम भटके थे या मैं !

अक्सर मन में प्रश्न उठता है- किस शहर को अपना कहूँ? यदि जीवन के शुरु के बीस साल बनारस में निकले तो सन अढसठ से और पिछले करीब-करीब चालीस साल सन अस्सी से यहाँ बरमिंघम के उत्तर पूर्वी क्षेत्र सटन कोल्डफील्ड में गुजर चुके हैं। यहां की धूप की चमक और हवा की नमी को भी पहचानने और महसूस करने लगी हूँ, कहीं से भी लौटूँ आधे मील पहले से ही पेड पौधे , आसमान सब मुस्कुराते और इन्तजार करते से दिखने लगते हैं और सिरदर्द व थकान मिटनी शुरु हो जाती है, फिर भी जो स्फूर्ति बनारस की हवा में महसूस होती है, सारी सुख-सुविधाओं के बावजूद भी यहां पर नहीं। शायद मन ने इतना खुलकर अपना नहीं माना, या फिर आज भी उन्हें ही ढूंढने लग जाता है , जो अपलक लौटने का इन्तजार करते थे…वैसे भी जड़ें जिस जमीन से उगती हैं, वहाँ तो पौधा तक सर्वाधिक फलता-फूलता है। नसीर अहमद नसीर को भी शायद उनका गांव आजीवन ऐसे ही याद आता रहा है-
” बहुत दूर गांव है मेरा
जहां लालटेनों की मद्धिम रोशनी में
सबको याद करते हुए
मैंने अच्छे दिनों के कई ख्वाब देखे ”

बन्द आंखों के पीछे थिरकती रुह दुआ देती है-‘बना रहे बनारस!’
बचपन की यादों को मिटाना आसान तो नहीं ! बावरा मन आजभी तो इसीकी गोद को मचलता है, इसे ही अपना मानता है। परिचित में अपरिचित और अपरिचित में परिचित, एक रहस्य, एक आकर्षण ही तो है भारत, विशेषतः यह बनारस आजभी मेरे लिए। कभी अपना बनकर गले लगाता तो कभी पूर्णतः ही रूखा और अपरिचित। फिर भी हजार यादों और पीछे छूटे बचपन काी तरह मिलने के बहाने ढूंढता, गुत्थियों में उलझाता और सुलझाता, मुड़-मुड़कर बारबार ही जाने क्यों वापस बुलाता! कहते हैं जिस मिट्टी में जन्मो वहीं का हवा पानी सर्वाधिक भाता है। भव्य, आध्यात्मिक, कलात्मक और ज्ञानी पता नहीं पर मेरा अपना आजभी यही तो है । तभी तो इसकी तुलना, वैनिस, कैम्ब्रिज और स्टाकहोम जैसे बड़े शहरों से कर चुकी हूँ । हर जगह यही तो दिखता है मुझे।

बनारस को समझने का पहला प्रयास 13-14 साल की उम्र में एक शोध पत्र की तरह किया था, जिसमे बनारस के अनगिनित घाटों में से 50-60 मुख्य घाटों का इतिहास समझने की कोशिश की थी उन्हें खुद जाकर देखा था उन पर छोटी-छोटी जानकारियां एकत्रित की थीं। तब पहली बार पता चला था कि राजघाट से नगवा तक फैले इन भव्य और ऊंचे-ऊंचे किले और प्रसादों में गंगा कितने विभिन्न धर्म और विभिन्न रुचिया संजोए बैठी है। माधव राव का धरहरा, सवाई मानसिंह का जंतर मंतर, हरिश्चन्द्र घाट, शीतला और मणिकर्णिका, पंचगंगा, अस्सी और नगवा सबका अपना अलग तेवर और इतिहास है। शहर दो भागों में विभाजित है। एक घाटों से घिरा गंगा के किनारे-किनारे, जिसके पीछे-पीछे ही अर्धचंद्राकार में पुराना शहर बसा हुआ है, अपने सारे मंदिर, मसजिद, कला, इतिहास और व्यापार के साथ, आज भी अलादीन की गुफा –सा खजाना और आकर्षण लिए हुए है।..और दूसरा आज का फैलता बढ़ता आधुनिक बनारस , सारी सुख-सुविधाओं से दिन-प्रतिदिन लैस होता जाता, और किसी भी अन्य शहर से भिन्न नहीं। कोई भी शहर इतिहास और भूगोल से नहीं, या सिर्फ आर्थिक विकास और सुविधाओं के बूते पर ही अपना नहीं बनता। अपना होता है अपनों से या फिर उन विशिष्ट और प्रतिभाशाली व्यक्तिवों से जो बड़े होते समय रुचि अनुसार मन पर छाप छोड़ते हैं।

कहां से संजोऊं उन यादों को …वहीं से क्यों नहीं…पांच छह साल की उम्र थी, बड़ा गणेश का मन्दिर जो घर के पास ही था, पिताजीके साथ दर्शन करने गई थी। तीन बहनें मंत्रमुग्ध सी नाच रही थीं, हाथ में जलते दिए लेकर। पूर्णतः विमुग्ध स्वप्न-सी स्थिति में पहुंच गई थी। ‘ये कौन हैं , बाबूजी?’ ‘ ये तारा, सितारा और अलखनंदा हैं बेटा, तीन बहुत ही मशहूर नृत्यांगनाएं।‘ जहां तक मुझे याद है यह मेरा कला से पहला परिचय था और आज भी अविस्मरणीय है। पिताजी के शब्दों में उमड़ती प्रशंशा छोटी होने के बावजूद भी प्रेरित और चमकृत कर रही थी।

दो चार साल बाद फिर बजड़े पर (खुली छत वाली30-40 लोगों को ले सके , ऐसी बड़ी दोमंजिला निजी नावें, जिसमें नीचे की मंजिल मेंखाने पीने का इंतजाम होता है और ऊपर गंगा की लहरों पर तैरते हुए महफिले चलती हैं)आयोजित एक महफिल में वही सितारा देवी , मशहूर नृत्य निर्देशक स्व. गोपीकृष्ण की मां, अपने उसी विख्यात् बेटे के साथ नाच रही थीं। एक-एक थाली पैरों के नीचे थी और उसी पर तोड़े पर तोड़े लिए वे फिरकनी सी चक्कर पर चक्कर लिए जा रहे थे। पता नहीं संगीत का नशा था या रात में सिर पर चंदोवे से बिखरे झिलमिल तारों का, सब कुछ एक जादू सा लगा। आए दिन होते संगीत परिषद के समारोहों में कभी सिद्धेश्वरी बाई तो कभी ओंकारनाथ ठाकुर, तो कभी पन्नालाल घोष और हरिप्रसाद चौरसिया का बांसुरी वादन और विलायत खान व रविशंकर का झंकृत करता सितार…संगीत का जादू अंतरात्मा तक उतर चुका था और संगीत और सुख लहरों का एक खास रिश्ता है मन अच्छी तरह से बचपन में ही जान चुका था। इसका सारा श्रेय आज भी शान्त बहती गंगा की लहरें और सुरुचुपूर्ण अपने शहर के परिवेश और कलाप्रेम को ही देती हूँ। बनारस के जीवन पर गंगा का विशेष प्रभाव रहा है। मेरा बचपन भी अपवाद नहीं। बहती गंदगी और मानव अवशेषों को देखकर नहाने में तो उतनी रुचि नहीं हो पाई ( हां मां और पिताजी शिवरात्रि के दिन या अन्य विशेष दिनों पर सिर पकड़ कर डुबकी जरूर लगवाते थे) पर विद्यार्थी जीवन के इतवारों की कई शामें नाव पर घूमते ही गुजरीं, जहां सुरीली सहपाठिनों का गाना सुनते या अंताक्षरी के बहाने हंसते, गाते-गुनगुनाते,खेल-खेल में भांति-भांति के विमर्श तक हो जाते थे और गूढ़ से गूढ़ गुत्थियां चुटकियों में सुलझ जाया करती थीं। गंगा से और इसके घाटों से आजीवन का अटूट रिश्ता जो जुड़ा तो टूटा नहीं…मुड़कर देखती हूं तो सभी कुछ इसी में और यहीं तो समाहित होता चला गया।

चलचित्र-सी आज भी आंखों के आगे है, वह एक बेहद छोटी-सी कोठरी में चटाई पर लेटकर आराम करते विनोबा भावे से मुलाकात। बातों में भूमिहीनों का दर्द और चेहरे और आंखों का वह सच और आस्था का तेज आजतक भुलाए नहीं भूलता। नहीं भूलता उनका वह हंसकर यह बतलाना कि सिर्फ दही और शहद खाता हूं न इसलिए।नहीं भूलता विश्वनाथ जी के मंदिर में और दशाश्वमेध घाट की छतरी पर और बाबा विश्वनाथ के आगे बैठकर बिस्मिल्लाह खान का आए दिन शहनाई बजाते दिख जाना। हम बनारसियों के अपने खान साहब, एक दिन पूरी दुनिया में इतने मशहूर हो जाएंगे- सोच मात्र से आंखें नम हो आती हैं और मन गर्व से भर उठता है । यह वही खान साहब हैं जो बड़े भैया की शादी में पूरे तीन दिन साथ थे और खुद मेरी शादी में भी, मशहूर होने के बावजूद भी शहनाई बजाई थी-‘ बिटिया की शादी हो और कोई और शहनाई बजाए, यह कैसे संभव है’ इस आग्रह के साथ। फिर जब आठवें दशक में वे यहां इंगलैंड आए तो कला की दीन-दुनिया से पूर्णतः बेखबर, शल्य चिकत्सक पतिदेव ने आश्चर्य के साथ कहा, –अरे यह तो अपने खान साहब हैं और मैंने गर्व से छलकती आंखों से कहा था – ‘हां’।

स्थानीय अड़ोसी-पड़ोसी या मिलने वाले जब पूछते हैं –कैसा है तुम्हारा बनारस तो बारबार खुद को कहता पाती हूं- औक्सफोर्ड और लिवरपूल को एक डिब्बे में भरकर गडमड कर लो, कुछ-कुछ वैसा ही है यह। घाट पर पड़कर चरस और गांजे की धूनी लगाने नहीं, इसे वाकई में समझना है तो इसकी गलियों में घूमो, इसे महसूस करो, खोजो।ज्ञान और मौलिक प्रतिभा से भरपूर तो है यह पर उसके दबदबे में नहीं। बेफिक्र और मस्त। शान्त होकर भी अशान्त या यूँ कहूँ कि अशांत होते हुए भी बेहद शांत। बनारस के कण-कण में कला और संस्कृत है और मोड़-मोड़ पर कलाकार और प्रतिभाएं खड़ी आज भी दिख जाती हैं, बिना किसी औपचारिकता या बनावट का मुखड़ा पहने हुए; चाहे वे राजन, साजन मिश्र हों या फिर अन्य उभरती गायिकाएँ। प्रधानमंत्री होते हुए भी यहां के लालबहादुर शास्त्री में दृढ़ता के साथ-साथ बेहद विनम्रता और सज्जनता थी। मुझ, साधारण स्कूल छात्रा के आग्रह पर कार्ड पेंट करके जमा किए हुए सात सौ रुपए सरहद पर लड़ रहे जवानों के लिए खुद स्वीकारे थे उन्होंने। कोई और प्रधानमंत्री होता तो पी.ए. से ही काम चलाता, पर उनके लिए यह सहज नहीं था। भावनाओं और अहसासों की कद्र थी उन्हें। आज भी नहीं भूल पाती, बनारस के पन्नालाल घोष जैसे नामी और जानेमाने बांसुरी वादक को, जिन्होंने एक आग्रह पर ही मेरे द्वारा लिखित व मंचित नाटक के लिए परदे के पीछे बैठकर पूरे आधे घंटे निशुक्ल बांसुरी वादन किया था, वह भी तब जब मैं मात्र चौदह वर्षीय दसवीं की छात्रा थी, वरना जरा भी ख्याति मिलते ही बड़े शहरों के कलाकार कितनी हवा में रहते हैं, हममें से भला कौन नहीं जानता। कलाकारों की बात तो छोड़ो, आम गोष्ठी और सभाओं में भी अब तो आयोजकों का तरेर देखते ही बनता है।

एक समर्पित शहर है बनारस । बनावटी अकड़ तो नहीं है पर अपनी अस्मिता को गिराकर समझौता न करने वाला कबीर जैसा फक्कड़ और मस्त जरूर…एक संत शहर है यह। जो माया ठगनी के गुर भी जानता है और मर्म भी। प्रभु की आभारी और खुशकिस्मत मानती हूँ खुद को कि ऐसे शहर में, बेहद प्यार करने वाले मां-बाप और परिवारके बीच जन्म मिला। आज भी, दूर रहकर भी, इसकी ही बेटी हूँ, यह बात दूसरी है कि अब वक्त के साथ-साथ दीदी और बुआजी कहकर पुकारने वाले ज्यादा हैं, पर इस शहर की हजार सुखद यादें आज भी तो मुझे वैसे ही इससे जोड़े रहती हैं।

अभिवावक और परिजनों के बाद शायद शिक्षकों का अग्रणी स्थान रहता है जीवन में। घर , विद्यालय और शहर तीनों ने गढ़ा और आजीवन साथ चले। एक तरफ आए दिन आयोजित वह दुर्गापूजा, रामलीला और कला-प्रदर्शनियां व संगीत के सार्वजनिक और निजी आयोजन, जो और और बांधते चले गए नन्ही सोच को, तो दूसरी तरफ चारो तरफ दिखते शवों की बाहुल्यता ने वैराग भरा मन में। एक ने कल्पना और रंगों की उड़ान दी तो दूसरे ने रोका और थामा। थियोसौफिकल स्कूल में आए दिन के वे मेहमान विचारक और दार्शनिक सोच को नित नए गंभीर आयाम देते चले गए। देश की संस्कृति और विचार पद्धति के प्रति आकर्षण और प्रशंसा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ी ही, जापान , तिब्बत और ग्रीस जैसे देशों से आए लोगों को सुनकर दूसरे धर्म और संस्कृति के अच्छे सिद्धांत और आदर्शों के प्रति भी इज्जत जगी। कला की तकनीकियां और बारीकियां जानी। मशहूर ही नहीं सड़कों पर कठपुतलियों का और छाया मंचन करने वाले, बन्दर का स्वांग , सपेरे का स्वांग , दो आने की सारंगी बजाने वाले, भभूत लपेटकर घूमते साधू, भीख मांगते भिखारी–सब बनारस के उस कोलाज का अभिन्न हिस्सा हैं। बेसेन्ट थियोसौफिकल स्कूल ही वह जगह थी जहां जिओ और जीने दो का मूलमंत्र भली भांति सीखा। छोटे-बड़ों में भेद न करना सीखा।

यह उस शहर की ही तो सौगात थी कि शांति रंजनबोस ( मशहूर चित्रकार), चंद्रशेखर जी ( भरतनाट्यम के क्षेत्र का बड़ा नाम और अंधेमास्साब, जो छह साल तक सितार सिखाने घर आए पर जिनका यही नाम ही जाना की शिष्या बनी, उनके मार्गदर्शन में रही। मोहिनी भंडारी (बेहद शांत, सौम्य और प्रेरक शिक्षिका, जिन्होंने साहित्य के शौक को खूब सराहा और प्रोत्साहित किया।) हमेशा सफेद कपड़े ही पहनने वाली, मोहिनी दी आज भी मेरे लिए मां सरस्वती से कम नहीं। इन जैसी महान हस्तियों की शिष्या बनने का गौरव तो मिला ही, उनसे भरपूर स्नेह और प्रोत्साहन भी। क्वीन्स कौलेज के प्रिंसपल ध्रुवकृष्णवर्मा जी को कैसे भूल सकती हूँ जो हर इम्तहान के बाद न सिर्फ पसंदीदा मिठाई लेकर आए, वरन् एक घंटे की जगह रोज दोदो-तीन-तीन घंटे दुनिया भर के साहित्य और दर्शन पर बहस की। चेखव, विक्टर ह्यूगो और कार्ल मार्क्स से लेकर थौमस हार्डी और शेक्क्सपियर तक से परिचित कराया। पिताजी पैसों की बात करते तो आहत हो जाते। बेहद संजीदा होकर कहते मैं विद्या नहीं बेचता, ना ही ट्यूशन करने आता हूं। भगवान की दया से न पैसों की कमी है और ना ही जरूरत। इसे पढ़ाकर अच्छा लगता है मुझे। शायद छह बेटों और एक बेहद लाडली बेटी के पिता को एक और बेटी मिल गई थी। प्रिंसपल लीला दी जिन्होंने बेटी से बढकर प्यार दिया- आज भी ये सब मेरे लिए दुनिया की सबसे बड़ी हस्तियां हैं- पता नहीं कहां हैं वे मेरे शिक्षक…जानती हूँ कुछ तो दुनिया छोड़ गए पर अगर कुछ कहीं हैं, तो उन्हें आजीवन आभार और विनम्र नमन। भले ही उनकी इच्छानुकूल स्थूल कुछ भी न कर पाई हूँ, परन्तु उनके विचार और संस्कार आज भी संजो रखे हैं और मेरे शहर की तरह ही वे सब मेरे अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा हैं।

विश्वविद्यालय में इंगलिश विभाग के बगल में ही भारत कला भवन था। अक्सर ही पहुंच जाती थी स्केच करने और वहां श्री राय कृष्ण दासजी से ललितकला के इतिहास के बारे में कई अविस्मरणीय बातें जानी और समझीं, कला के अभूतपूर्व खजाने से परचित हुई। सारनाथ का संग्रहालय दूसरी जगह थी जिसने बारबार खींचा। कहां-कहां तक याद करूं,बचपन की उन विभूतियों को…संकट मोचन के हनुमान जी को भी, जो आजतक दोस्त की तरह साथ निभा रहे हैं । जिन्होंने मेरे बालसुलभ वादों पर विश्वास किया और चुपचाप हर परीक्षा के बाद लड़्डू नहीं, रसगुल्लों का भोग स्वीकारा और आज भी सबसे अच्छे और प्रिय मित्र हैं।

किस शहर में ऐसा होता है कि पसंदीदा साड़ी की दुकान वाला बिना बुलाए भी, शादी में साड़ी का तोहफा लेकर पहुंचे, स्कूल का गरीब खटिक फलों की डलिया लेकर आए और फिर बाद में चार पैसे कमाने के बाद बच्चों से अपने रेस्तरां में पैसे तक न ले-यह कहे मामा को पैसे नहीं देते। रिक्शे वाला इतना अपना समझे कि अभद्र मनचलों पर छुरी के साथ हमला बोल दे…ऐसा सिर्फ अपने शहर में, अपनों के बीच ही संभव है…वरना अपना समझना तो दूर, लोग बेमलब ही आंखों में अंगार लेकर ही घूमते मिलेंगे। यही वह जगह थी, जिसके प्रांगण में विनोबा भावे, धीरन्द्र हितकारी और कन्हैयालाल मुंशी, झवेरी बहनें , यूथिका राय, औंकारनाथ ठाकुर, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसी कई-कई हस्तियों से मुलाकातें हुईं। जिन्होंने सोच को एक प्रेरित और स्थाई दिशा दी। बचपन का यह उपजाऊ वैविध्य और विशिष्ट हस्तियों के सानिध्य की, उनसे कुछ सीखने और जानने की ललक आज भी बरकरार है। चिर विद्यार्थी होना शायद बनारस की मिट्टी में है।

देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियों के भी दर्शन किए बनारस में, जिनमें नेहरू जी, दलाईलामा और नंदलाल बोस विशेष रूप से याद हैं। नेहरू जी बालसुलभ जोश और सहजता के लिए। विनोबा जी अपने अभूतपूर्व ओज के लिए और दलाईलामा अपनी शान्त और सौम्य मुस्कान के लिए। नंदलाल बोस के सानिध्य में तो पूरा महीना निकला। शांति निकेतन में हर सुबह पांच दस मिनट उनके साथ गुजरते थे और कभी-कभी उन्होंने स्केच करके पोस्टकार्ड भी दिए। आज वक्त के परदे के पीछे सब जा छुपे हैं पर यदाकदा यादें कौंधती हैं । संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी, रघुनाथ सिंह, गिरधारी लाल आदि उस समय के कई ऐसे बनारसी थे जो बालमन सोच भी नहीं सकता था कि देश के इतने बड़े नेता या हस्ती हैं । वे हमारे अपने थे और घर बाहर आए दिन दर्शन हो जाते। रघुनाथ सिंह ने तो विदेश यात्राओं के रहते बहुत सी डाक टिकटें और विदेशी सिक्के भी संग्रह के लिए दिए। सब नाम विख्यात हों ऐसी बात नहीं, मुन्नाचाचा (दरजी) और बगल के कुम्हार को भी नहीं भूली , जिन्होने हर मांग पर रात-बेरात दुकान और भट्टियों पर बैठकर स्कूलके फंक्शनों के कपड़े सिले गोटे टांके और खिलौने और बर्तनों को पकाया। किस और शहर में मिलेंगे इतने सहृदय और प्यार करने वाले निवासी। ऐसा ही है मेरा शहर जहां साधु-संत , चोर-उचक्के, विद्वान और धनवान व गरीब, सब साथ साथ उठते बैठते हैं और उन दिनों तो कम से कम इतनी नफरत और धोखाधड़ी नहीं ही थी वहां पर। आज भी मेरा शहर एक ऐसा शहर है जिसकी गली-गली के मोड़ पर कलाकार और विद्वान खड़े मिल जाएंगे। जिसकी हवा में कला दर्शन और फाकामस्ती है। श्रद्धेय रुद्र जी और मनु शर्मा जी के साथ हुई मुलाकात एक और ऐसी ही यादगार मुलाकातों में से थी। चन्द घंटों में ही बहुत कुछ सीखा और जाना दोनों से, दोनों से ही बहुत अपनापन और आत्मबल मिला। जाना कि बनारस ही अकेली ऐसी जगह है जहाँ गंगा उत्तरोन्मुखी बहती है, यानी मूल को देखती है। पूर्वजों को याद रखकर, जड़ों और संस्कारों से जुड़कर ही आगे बढती है वह यहाँ आकर।

रामव्यास पाण्डेय जी (बी.एच .यू के तत्कालीन और प्रथम ज्योतिष शास्त्र के हेड और भारत के प्रसिद्धज्योतिषाचार्य) से पिताजी के साथ बैठकर ज्योतिष के गुर सुनते-गुनते, पत्रियां बांचते और मिलाते बचपन में ही जो रुझान हुआ आजतक नहीं छूटा…हालांकि पूर्णतःविश्वास नहीं, पर अच्छा लगता है अबूझ में डूबना। हर विज्ञान और रहस्य के प्रति अदम्य जिज्ञासावश अघोरी और कर्ण पिशाची सबकी बातें सुनी और देखीं इसी शहर में। वह भी बेहद शिक्षित और सुसंस्कृत व्यक्तिओं की बैठकों में। जहां विज्ञान हारता है वहां से शुरु करते हैं ये लोग। मानो एक अदम्य प्यास और आग्रह है इस शहर के कण-कण में उस अगम और अबोध को जानने के लिए। कहा था- कुछ भी मांगो और अपनी तरफ से बहुत सोच विचारकर ही मांगे असंभव और अविश्वनीय रस में डूबे रसगुल्ले कैसे हथेली पर आ गए- आज भी एक रहस्य ही है। इन्हें कमीज या कुरते की बांह के अन्दर छुपाना मुश्किल है। दूसरे कमरे में बैठकर नाव बनाने पर या उल्लू बनाने पर कैसे उन्होंने भी नाव और उल्लू ही बनाए, एक ऐसी गुत्थी है जो आज भी नहीं सुलझा पाती और तब बृजमोहन दीक्षित जी ने, जिनके यहां वे सिद्ध पुरुष आते थे, हंसकर कहा था- हर बात को बुद्धि और तर्क से नहीं समझा जा सकता। यही है मेरा शहर- रहस्यमय, ज्ञानमय, अलौकिक और संगीतमय। पारंपरिक तो आधुनिक भी। रूढवादी होकर भी पानी से भी ज्यादा लचीला। प्रगतिशील पर निरंतर… एक ठहराव के साथ। शिव के त्रिशूल पर बसी वाकई में तीन लोक से न्यारी है काशी।

पर्यटन और दर्शनीय स्थलों की तालिका तो इतनी लम्बी है कि बात कैटेलौग की तरह लगने लगेगी। हां, एक बात जो उल्लेखनीय है बनारस के बारे में वह है कि सारे आध्यात्म्य, कला और ज्ञान के वैविध्य और विकास के बावजूद, आज भी बनारस के मूल तत्व में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बनारस के बारे में कही गई कहावत-‘ रांड़,सांड़ , सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी’ आजभी उतनी ही सच है जितनी कि पहले रही होगी। आदमियों से भरी किस भीड़ में कब कोई सांड भगदड़ मचा दे, कहा नहीं जा सकता , ना ही उन काई लगी घाट की पुरानी सीढ़ियों पर से कब कोई फिसलकर गिर पड़े, यह भी। किसी बैंक या बाजार और मन्दिर में कभी भी कोई आंख में मिर्च की बुकनी फेंककर लूट ले, कहा नहीं जा सकता। हाथ पकड़कर घड़ी और जंजीर जबरन उतार लेते है लोग। भिखारिन भीख मांगते मांगते धक्का देकर आपके हाथ का बटुआ लेकर भाग सकती है। फिर भी सब आते हैं यहां, और खूब तृप्त होकर ही लौटते हैं। छोटा हो या बड़ा, विदेशी मेहमानों की तो बिना काशी घूमे भारत यात्रा ही पूरी नहीं होती। हो भी कैसे, कितने ऐसे शहर हैं जहां तीन तीन विश्वविद्यालय हों , दो पुरानी भाषाओं के( संस्कृत और पाली) और एक बेहद आधुनिकऔर विस्तृत। सारनाथ जैसा बौद्ध विहार , स्मारक और संग्रहालय हो, जहां बुद्ध ने ज्ञान लिया और हजारों ने सन्यास। यहां रासरंग है तो फक्कड़पन और वैराग भी। काली, दुर्गा,जगन्नाथ और ताजिया सभी एक-सी सजधज और जोश से जलूस निकालते हैं यहां। मिठाइयां और खानपान के स्वाद तो बेजोड़ हैं ही, कपड़े और कला के साथ-साथ जीने का अंदाज भी…हर दिन एक उत्सव और महोत्सव चाहे धर्म का हो या कला का या फिर मात्र एक पारिवारिक आयोजन, जितने जोश और सुरुचि के साथ, एक बेफिक्र मस्ती के साथ यहां आयोजन होते हैं,शायद कहीं और नहीं । हर शाम की गंगा आरती इसका प्रचलित और तरोताजा उदाहरण है।

सच कहूं तो गंदे और पुराने इस शहर की आज भी मांग और इज्जत बरकरार है और रहेगी, क्योंकि यहां के लोग कठिनाइयों के बाद भी जीवन ढोते नहीं, जीते हैं। यहाँ विद्वान और कलाकार इसलिए विद्वान या कलाकार नहीं कि नाम या पैसा चाहिए उन्हें, वे विद्या के पिपासु हैं। ज्ञान और कला का नशा डी.एन.ए. की तरह उनकी रगरग में है। यहां के तो बाबा विश्वनाथ भी सवर्ण और हरिजनों में भेदभाव नहीं करते । जाति और धर्म के पच़ड़े में नहीं पड़ते। मशहूर सुबहे बनारसमें घाट और गंगा की लहरों पर शंखनाद और ढोल तांसे के साथ साथ आरती ही नहीं, अजान की आवाजें भी साफ-साफ सुनी जा सकती हैं। जीवन-सा ही एक सच्चा विरोधाभास है बनारस; जिसमें सुख-दुख, वांछनीय अवांछनीय समानान्तर चलते रहते हैं और उनसे सहज होना भी सीख लेते हैं बनारसी। पूजा के तैरते दियों के साथ-साथ तैरता कचरा अच्छा तो नहीं लगता,परन्तु आम बात है। बालक के मुंडन से चार कदम की दूरी पर ही दाह संस्कार भी चलता रहता है, फिर भी कोई परवाह नहीं करता, उद्वेलित नहीं होता। बनारस अपनी सनातनता में आरूढ़ निरंतर है। कुंजगली की रेशमी सरसराहट ने चालीस पैंतालिस साल पहले जैकलिन कैनेडी को मोहित किया था और हाल ही में ऐश्वर्य राय को भी। रात के धुंधलके में घार्टों पर एकांत में गुजारी एक शाम जीवन के सारे आध्यात्म सिखा सकती है जीवन की लपलप से विरक्त कर सकती है। यहां प्रहलाद घाट और कचौरी गली जैसी गुमनाम गलियों में बैठे भृगुसंहिता पढ़ने वाले इसी जन्म की ही नहीं, पल भर को ही सही, आगे-पीछे के भी कई-कई जन्मों से जोड़ने की सामर्थ रखते हैं। नागरी प्रचारणी सभा का पुष्तकालय और उनके द्वारा आयोजित आयोजनों का, विश्वविद्यालयों सा ही बनारस शहर के मानसिक गठन में योगदान रहा है।

कम ही ऐसे शहर होंगे जिसकी मिट्टी से कबीर और प्रसाद जन्मे हों। तुलसी और प्रेमचन्द गढ़े हों। भारतेन्दु हरीशचन्द, भगवान दास जैसे दार्शनिक पैदा हुए हों। यहां पर ऐसे भी रईस हुए हैं जो गरीब नौकरों को सिर्फ इसलिए डांटते थे कि धोकर सुखाई गई अशर्फियों का वजन कम क्यों नहीं हुआ। युवाओं के ऊपर पीक के छींटे डालते थे और फिर उन्हें चुपचाप सिर झुकाए निकलते देख , गुस्से से भर उठते थे। वापस बुलाकर झिड़कते थे,- ‘तुम्हारे आत्मसम्मान को क्या हुआ, कैसे तुमने अनजान द्वारा परोसी बद्तमीजी और बेइंसाफी चुपचाप सह ली। क्या यही देश के युवा…भावी रीढ़की हड्डी रहित, विकलांग कर्णधार हैं, जिनके कंधों पर देश का भविष्य होगा ! ‘ जो आंखें तरेर कर सामना करते, उन्हें सादर बुलाकर नए कपड़े दिए जाते। सम्मान किया जाता।

मूलतः एक स्वाभिमानी शहर है बनारस, लालच के तहत भरे पेट चरित्रहीन समझौतों की गुंजाइश उतनी नहीं है यहां पर …बहुत प्यार करती हूँ अपने शहर से मैं, शत् शत् नमन करती हूँ इसका और इसके रचयिता का…

औघड़ भोले बाबा की तीन लोक से न्यारी … शिवमय नगरी काशी वाकई में अनूठी और भिन्न है। इसके अधिनायक शिव महलों में नहीं शमशान में रहते हैं और उनके गले में हीरे पन्नों की नहीं, मुंडमाला है। उन्होंने संसार के साथ साथ जीवन के अन्तिम सच को भी अपनाया है। काशी वह नगरी है जहां जीवन तो जीवन, मृत्यु का भी महोत्सव चौबीसों घंटे चलता रहता है। ठीक भी तो है , जबतक मृत्यु को न जाना जाए , अमरत्व कैसे समझ में आएगा। मृत्यु से क्या डरना? यहां पल-बढ़कर भी मौत सोच में न आए , जीवन के प्रति एक स्वस्थ वैराग न ढले संस्कारों में , विचारों में, असंभव-सी ही बात है। मणिकर्णिका, हरिश्चन्द्र या अस्सी घाट पर दिन रात की वे जलती चिताएं और आसपास के गांवों से बसों की छतों पर चढ़े, रिक्शों के पीछे बंधे चले आते मुर्दे आज भी शहर के दैनिक यथार्थ में ऐसे रचे- बिंधे हैं कि अधिकांशतः काशी वासियों के लिए यह आवागमन सामान्य तो है, पर अर्थहीन या विलुप्त नहीं। यहां मृत्यु वीभत्स या डरावनी नहीं, मृत्यु को लेकर एक सहजता है यहां पर। जीवन मरण के इस क्रम को समझने की प्रक्रिया बचपन से ही जो शुरु हो जाती है यहां , भले ही अवचेचन मन में ही क्यों न रहे यह सब। माटी का तन माटी में ही जाना है ,उसी पंचतत्व में विलीन हो जाएगा एक दिन बच्चा-बच्चा जानता है यहां पर।

जीवन मृत्यु को प्रत्यक्ष रूप में साथ साथ समेटे, यह नगरी बहुत कुछ ऐसा सिखलाती और देती है हमें , जो शायद दूसरे शहरों में उतनी सहजता से देखने और समझने को न मिले। कुछ हद तक शमशान में रहते औघड़ों की तरह एक बड़ा शमशान है काशी, जहां दबा ढका कुछ भी नहीं। हां सब जानते समझते हुए भी इस अंतिम सच को नकारना, इस शाश्वत निरंतरता को भूलने की कोशिश करना मानव स्वभाव की शायद एक बड़ी कमजोरी है। सोचने पर मज़बूर हूं कि यह भय अवश्य ही अनजाने भविष्य का ही होगा, परिचित से बिछुड़ने का ही होगा…मोह जितना अधिक होगा , विछोह उतना ही कष्टप्रद। मोह शायद संसार का सबसे बड़ा भय है…सबसे बड़ा विकार है। तभी तो शायद हमारे धर्मग्रन्थों में कमल की तरह जीने की शिक्षा दी गई है। जीवन जल में…इस संसार में रहकर भी उससे पूर्णतः निर्लिप्त। …पर शायद कम ही होंगे जो इस नए कपड़े बदलने की अवश्यंभावी प्रक्रिया के प्रति पूर्णतः सहज रह पाते हों…निर्लिप्त कमल से जी पाएँ… सोचें तो इसी पर विजय पाने के लिए ही तो वाणप्रस्थ और सन्यास आश्रम की परिकल्पना है हमारे धर्मग्रन्थों में।

पर बचपन में , विशेषतः बरसात के दिनों में यदि किसी मुर्दे के आसपास से पैदल निकलना हो तो कैसे आंख बन्द करके तेजी से निकलती थी, या फिर कचौड़ी गली के सकरे रास्तों में जहां दो आदमियों का साथ साथ निकलना तक आरामदेह नहीं, सामने से आता कोई अंतिम यात्रा पर दिख जाता तो कैसे आसपास के किसी भी चबूतरे या दरवाजे की ड्योढ़ी पर डरती कांपती चढ़ जाती थी रास्ता देने के लिए आज भी तो नहीं भूल पाई हूं। … और अगर कहीं गलती से शरीर का कोई कोना शव की काठी से छू जाता तो अशुभ की आशेका से कैसे धौंकनी जैसी छाती लिए जड़ और चैतन्य एक साथ तुरंत ही हो जाती थी, आज भी तो कुछ नहीं भुला पाई हूँ।

नौका बिहार करते हुए वो चलती चिताओं पर से पहले तो आंख न हटाना फिर रात भर उनके सपने देखना … आज की हर रोमांचक और डरावनी फिल्मों से ज्यादा उलझाने वाला था। माना मृत्यु के बारे में हल्के उपमान देना ठीक नहीं, पर बहुत गंभीरता से लेना भी तो ठीक नहीं। क्योंकि मृत्यु नहीं जिन्दगी ही सार है जिन्दगी का और शायद बनारस का यही सबसे बड़ा संदेश भी है।

शैल अग्रवाल

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