जलयात्राः लहर लहर किनारेः शैल अग्रवाल

हाल ही में एक ऐसी सुखद जलयात्रा का अवसर मिला जिसमें हम यूरोपीय सभ्यता से जुड़े पाँच महत्वपूर्ण देश ( इटली, ग्रीस, तुर्की, फ्रांस और स्पेन ) के उन शहरों की यात्रा करने वाले थे जिनका संबंध यूरोप के इतिहास, विकास और कला से अभिन्न है। जिनके कण-कण आज भी उन प्रचीनतम सभ्यताओं की कहानी सुनाने में पूर्णतः सक्षम हैं। यूरोप का इतिहास देखने से भले ही साम्राज्यवादी, हिंसक और विलासिता से भरपूर प्रतीत होता हो, परन्तु ध्यान से समझें तो यह भी विषमतम् भौगोलिक व सामाजिक परिस्थियों में भी आत्मसंरक्षण और विस्तार की ही कहानी जान पड़ती है। प्रकृति ने तो इसे खूबसूरत नजारों से बरपा ही है, खुद भी कला और संस्कृति…वैभव की किन-किन ऊँचाइयों पर चढ़ा-उतरा है यूरोप इसकी साक्षी हैं रोमन, यूनानी और तुर्की सभ्यता –कला विज्ञान और दर्शन सभी में इन्होंने अपनी-अपनी पराकाष्ठा पर अप्रतिम उँचाइयों को छुआ है।
यह हमारी पांचवीं जल यात्रा थी अतः इसके सुख-दुख को भली भांति जानते-समझते हमने स्वीकारा था इसे और शरीर व मन से पूर्णतः तैयार थे।

हमारी इस यात्रा की शुरुआत यूरोप के बेहद खूबसूरत और मेरे बेहद पसंदीदा शहर वैनिस से हुई। माना इटली की राजधानी रोम है और फ्लोरेंस, मिलान जैसे रत्नों को समेटे इटली का कोना-कोना आजभी फैशन और कला का उत्कृष्ट नमूना है। प्रकृति ने भी इसे खूबसूरत झीलों और पहाणों से सजाया है, परन्तु वैनिस का जादू सिर चढ़कर बोलता है। पानी के किनारे-किनारे कलात्मक ढंग से बसा यह शहर अपने फूलों के प्रति प्यार और कलात्मक रुचि से पहली नजर में ही पर्यटकों को मोह लेता हैं। हर मोड़ पर एक नहर और उनपर छोटे छोटे पुल सब कुछ फूलों की मनमोहक और लटकती टोकरियों से सजा-संवरा। किनारे पर ऊँची-ऊँची इमारतों के वरांडे और कंगूरों से झांकती प्रस्तर प्रतिमाएँ और सेंट मार्क स्क्वायर पर पर्यटकों की चहल-पहल , कोने कोने वैनिस को चित्रपटल पर उतारते कलाकार और भागते दौड़ते , खरीददारी करते पर्यटक…हाथों में हाथ डाले या आलिंगनबद्ध , दीन-दुनिया से बेखबर युवा…तरह तरह के वे रंग बिरंगे मुखौटे स्टालों पर लटके हुए और सामने शान्त नदी में बहते गंडोले—खुद-ब-खुद वैनिस को एक रूमानी रंग से रंग देते हैं। कला के प्रेमी और उत्कृष्ट कलाकृति संचयन करने वाले पर्यटकों के मन-मस्तिष्क पर शीशे की कटाई और रंगबिरंगी कांच की मूर्तियों और कलात्मक कांच के लिए मशहूर वैनिस सदा ही एक विशिष्ट छाप छोड़ता है ।

वैनिस पहले भी जा चुके थे कई बार, हाल ही में दो तीन बार। फिर भी दो रात पहले ही पहुँच गए और सेन्ट मार्क स्क्वायर या गंडोला में घूमने की बजाय, इतिहास की यात्रा बेहद पथरीली और नन्हे सदस्यों के लिए थकाने वाली भी हो सकती है –तथ्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें खुश करने का निर्णय लिया हमने और किराए की वैन लेकर चल पड़े वरोना की ओर। ड्राइवर की सीट पर बैठा बेटा और वैन में रूट गाइड है, जानते हुए भी मैप खोले बगल की सीट पर पतिदेव। दोनों छोटे बच्चों ( पोतों) के चेहरे की चमक बता रही थी कि वैनिस से 150 किलो मीटर दूर बसे गाडालैंड फन पार्क का उन्हें बेसब्री से इंतजार था और अपना पर्यटक मन भी खुश था – शायद इटली के एक और शहर वरोना को भी घूमने का मौका मिले (जी हाँ वही वरोना शहर –जो शेक्सपियर के टू जेम्टलमेन ऑफ वरोना की पृष्ठभूमि बना)। आया भी वरोना शहर, गलती से मोड़ छूटने के कारण हम पहुंच भी गए थे वहाँ तक , पर तुरंत ही वापस मुड़ लिए 25 मील दूर अपने गंतव्य की तरफ। खैर..नहीं तो, नहीं।

तेज कारों और तेजतर्रार ड्राइवरों के लिए मशहूर इटली की कभी पहाण, कभी समुद्र के किनारे दौड़ती वे सड़कें अपने आप में खुद एक रोमांचक अनुभव थीं।

शुक्रवार यानी सप्ताहअंत की शुरुवात थी वह और तिसपर से बैंक हौलीडे ..चारो तरफ बच्चे, युवा, स्त्री पुरुषों का सैलाब था, मानो। पार्क क्या, पूरी जादू नगरी थी वह। परी और राजकुमारों से लेकर भांतिभांति के अन्य यूरोपियन बाल कथाओं के चरित्र घूमते दिखने लगे चारो तरफ । स्पेश शटल और घूमता रेस्तरांत –सभी कुछ तो था वहाँ पर।

पार्क काफी बड़ा था। एक दिन में पूरा घूम पाना तो संभव ही नहीं था। देखने और आनंद लेने को चारो तरफ बहुत कुछ था पर बच्चों के आग्रह पर हम राइड्स की तरफ चल पड़े।

कोई-कोई राइड तो ऐसी कि पेट की अंतड़ियां तक बाहर आ जाएं फिर राइड से निकलते ही, तुरंत उंचे उंचे गर्मी से राहत देते फव्वारे और झरने। कई जगह तो पांच पांच मिनट की राइड के लिए 30-30 मिनट की कताऱ। फिर भी सबने भरपूर आनंद लिया। 40 तपमान में पसीना बहाते और टनों आइसक्रीम से खुद को ठंडा करते, पूरा दिन कैसे मिनटों में निकल गया ध्यान ही नहीं रहा । फिर रात में वह धरती पर आकाश को उतारती, फेयरी लाइट की भरमाती झिलमिल सजावट और भांति भांति के लोक नृत्य और बाजार-किधर जाएं और कहाँ थमें समझ में ही नहीं आ रहा था, मन मानो बच्चा बना जादूई कालीन पर जा बैठा था। हाँ कार में वापस बैठते ही दुखते पैरों ने थमने की सलाह अवश्य दी। घड़ी देखी तो रात के बारह बज चुके थे। बेटा थका है उसे भी आराम चाहिए –सोचकर ही कलेजा मुंह को आ रहा था पर और कोई चारा भी तो नहीं, वैनिस अभी दो-तीन घंटे दूर था और बिस्तर वैनिस के होटल में ।

अगली सुबह खुशनुमा और चहक भरी थी। खूबसूरत उस होटल के रेस्तोरांत की तरह ही हमारे स्वागत में महकती। बाहर वरांडे में पड़ी कुर्सी-मेजों से खेलता वह गुनगुनी धूप का टुकड़ा बेहद आकर्षक लग रहा था। मन ने अगाज दी और वहीं वरांडे में बाहर बैठकर नाश्ता किया हमने। पीछे से आती हायसिन्थ की बेल की खुशबू सोने में सुहागे का काम कर रही थी। कमरे भी 11 बजे छोड़ने थे और जहाज पर भी 11 बजे ही पहुँचना था। बचपन से सुनी पढ़ी ऐतिहासिक जगहें एक के बाद एक आवाज दे रही थीं, कल्पना के पृष्ठ पर यथार्थ की कूंची से रंग भरने को हम भी तैयार हो चुके थे और अगले दो हफ्ते आल्हादित संभावनाओं से भरपूर थे।

14 अगस्त का वह एक यादगार दिन था। हर आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरपूर अद्भुत व विशाल पर्यटक पानी का जहाज हमारा इन्तजार कर रहा था और हम अपनी इस रोमांचक यात्रा के लिए पूरी तरह से तैयार थे। माना कि आधी-से ज्यादा जगहें ऐसी थीं जिनका हम चप्पा-चप्पा छान चुके थे फिर भी परिवार के नन्हे सदस्यों के साथ इतिहास को पुनः जीना, उन कहानियों को सुनना-सुनाना-ख्याल मात्र से ही मन उत्साहित हुआ जा रहा था। अगले वे चौदह दिन बेहद रोमांचक, भागदौड़ से भरपूर और यादगार होने वाले हैं, जानते थे हम।

जहाज के चेक पौंइंट पर भीड़ इतनी महसूस हो रही थी, जैसे किसी नई पसंदीदा फिल्म का शो छूटा हो। सामान जा चुका था पर हम सब अपने-अपने पहचान पत्र के लिए छोटे-छोटे समूहों में बांट दिए गए थे। करीब तीन हजार यात्री और उतने ही कर्मचारी व क्रू सदस्य से लैस हो चुका था जहाज। घंटे भर की शुरू की कागजी औपचारिकता के बाद हम चौथे फ्लोर पर जहाज के भव्य स्वागत कक्ष में खड़े थे और चारोतरफ चहल-पहल से भरा बेहद कलात्मक वातावरण था। पुराने वेनिशियन कपड़े और मास्क के साथ युवक युवतियाँ हमें शीतल पेय़ और स्नैक्स दे रहे थे मानो 200-300 साल पीछे किसी संपन्न वैनिशियन बॉल में आमंत्रित हो चुके थे हम। लोग तरह तरह की मुद्राओं में उनके साथ अपनी यादगार स्वागत फोटो खिंचवा रहे थे । थोड़ी देर तो मन ने वातावरण और स्वागत का जी भरकर आनंद लिया पर शीघ्र ही कमरे की याद आने लगी जो जहाज के सबसे ऊपरी कक्ष 11 वें फ्लोर पर था- सारे शोर-शराबे से दूर और भावी लहरों के हिंडोले को काफी कुछ रोकता-थामता। अगला पूरा दिन समुद्र पर ही गुजरना था, इसलिए जहाज को जानने और समझने की कोई जल्दी नहीं थी। जल्दी ही जहाज के एशिया वाले कक्ष में गरम-गरम स्वादिष्ट खाना खाकर, जहाँ अधिकांश रसोइये और बैरे, भारत के ही भिन्न क्षेत्र जैसे गोआ, पंजाब , दिल्ली और श्रीलंका से ही आए थे ( आश्चर्य नहीं, कइयों को हिन्दी आती थी और -मैं आपको गरम नान बनाकर देता हूँ -वे हमसे हिन्दी में कह रहे थे और बेहद प्यार व आग्रह के साथ खिला रहे थे।) हिन्दुस्तानी ही नहीं विभिन्न देशों के मशहूर स्वाद परोसते 17 रेस्टोरेंट थे उस जहाज पर जो चौबीसों घंटे खुले रहते थे। साथ साथ बारहवें फ्लोर पर फास्ट फूड के तीन बार जहाँ पीजा , बर्गर हौट डौग और आइसक्रीम वगैरह किसी भी वक्त ली जा सकती थी। थोड़ा-बहुत जहाज का मुआयना करके आनन-फानन हम वापस अपने कमरे में जा पहुँचे।

आरामदेह और सुरुचिपूर्ण कमरे ने मुस्कुरा कर स्वागत किया हमारा। अगले तेरह दिन अब यही घर था। सूटकेस और बाकी सामान तरतीब से सभी मेहमानों के कमरे के आगे पहुँच चुका था। जल्दी जल्दी सामान व्यवस्थित कर अपने कमरे की निजी बालकनी में जा पहुँची, वहीं बैठी उस पल का इंतजार करती, जब जहाज चलेगा। एक मेले सा पल होता है वह इन समुद्री यात्राओं में। यह हमारी पांचवी जलयात्रा थी पर उत्साह में कहीं कोई कमी नहीं थी। कहीं कुछ छूट न जाए- मन तैरते जहाज से छूटते वैनिस को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था। हो भी क्यों न, वैनिस मेरे प्रिय शहरों में से एक है। कमरा तट की तरफ था। इसलिए इस लिहाज से कभी भी डेक या कहीं और जाने की जरूरत नहीं थी। थोड़ी ही देर में कई सहयात्री अपनी-अपनी बालकनी में कैमरे के साथ खड़े दिखने लगे। ( बगल का कमरा बच्चों का था , बिना कमरे से बाहर निकले ही हम एक दूसरे से बात चीत कर सकते थे, सामान ले दे सकते थे, यह पूरे परिवार के लिए बेहद आरामदेह रहा। ) ।

जहाज का भोंपू बच चुका था और शीघ्र ही वह पल भी आ ही गया। सुरक्षा और पैट्रोल आदि की नावें अपनी सारी औपचारिकता पूरी करके लौट चुकी थीं। अगले दस मिनटों में हाथ हिला-हिलाकर हम सबने पोर्ट और जहाज से एक दूसरे को विदा दी और ली और फिर तुरंत ही सब अपने-अपने कैबिन में आराम करने भी चले गए। सिवाय कुछ मेरी तरह अति उत्साही और बाल सुलभ उत्सुकता लिए यात्रियों के।

दोनों तरफ की बालकनी में अब बस एक तरफ बेटा और दूसरी तरफ एक अनजान पड़ोसन खड़ी हुई थी जो धीरे-धीरे पीछे सरकते और छूटते वैनिस को अपने-अपने कैमरे में घंटों भरते रहे। मूवी कैमरा भूलने का दुख मुझे भी हुआ और दो चार फोटो लेने के बाद मन ने हर दृश्य को भरपूर निगाहों से यादों की बैंक में ही समाहित करना शुरू कर दिया।
चंद्राकार सलीके से सजे-बसे झिलमिल वैनिस का जो भव्य और मनोहारी रूप उस रात देखा किसी गंडोले या किसी अन्य तरीके से संभव ही नहीं था। यहाँ तक कि वैनिस के छोर पर पानी के किनारे बसे वे कैबिननुमा घर जाने क्यों कश्मीरी शिकारों की याद दिला रहे थे। अगले कुछ मिनटों में ही हम इटली को छोड़ कर ग्रीस की तरफ मुड़ चुके थे।

अंधेरे को ओढ़ा समुद्र एक रहस्य मय रूप ले लेता है। अब बस लहरें थीं साथ और था घटाघोप अंधेरा। जल और आकाश की कोई सीमा रेखा नहीं रह गई थी । अंधेरे की सुराही में सब समाता चला जा रहा था पर मछली सी कैद आँखें अभी भी जाने क्या देखना चाहती थीं, जाने क्या ढूंढे जा रही थीं। देखते-देखते रात पूरी तरह से सियाह हो गई, बिना किसी तारे या चांद के। हवा भी ठंडी हो चली थी। पति बारबार याद दिला रहे थे-सोना नहीं क्या?…चुपचाप कमरे में आकर लेट गई, शायद समुद्र के अलावा अब कुछ और देखने को भी न मिलेगा- यही खुद को समझाती बुझाती।

अगला दिन हमारा पूरा जहाज को समझते-बूझते नए-नए स्वाद लेते निकला। बाजार, कसीनो, आर्ट-गैलरी, थियेटर, तरह-तरह के रेस्तोरांत , सभी कुछ तो था वहाँ पर। कहीं कोई भेदभाव नहीं, मानो वसुधैव कुटुम्बकम् का जीता-जागता नमूना था वह जहाज। दुनिया के हर कोने के खानों का स्वाद और बनाने वाले भी उसी देश के। यानी कि व्यंजन पूर्णतः प्रमाणिक, अपने पूरे स्वाद और महक के साथ। हाँ आर्ट और पेन्टिंग की नीलामी में एकत्रित कला-प्रेमियों की रुचि और ऊपर चढ़ती बोलियाँ जरूर याद दिला रही थीं कि यूरोप अभी भी कितना अधिक संपन्न और एशिय़ा से भिन्न है।

उस राजसी ठाटबाट में एक फकीराना मस्त अंदाज के साथ घूमते रहे हम। हर नया दिन एक नया देश –नया शहर –नया इतिहास और शाम को घर यानी जहाज पर वापस। सिर्फ घूमने के लिए बने पानी के इन जहाज यात्राओं का एक बड़ा सुख यह भी है कि समय का पूरा-पूरा सुखमय सदुपयोग होता है-बिना किसी यात्रा के झंझट और थकान के, हर पल का आनंद लेते –सिर्फ बैठने और सोने तक एक छोटी-सी जगह में सीमित नहीं और ना ही हर नए देश के नए शहर में सामान उतारने चढाने की ही कवायत। अगले 14 दिन के लिए वह कमरा ही हमारा घर था और पूरा जहाज एक मायावी इंद्रलोक, जहाँ रातें भी उतनी ही मनोरंजक और गतिविधियों से भरपूर थीं, जितने कि दिन। जब जहाज रात के अंधेरे में अगले गन्तव्य की ओर दौड़ रहा होता, तब भी एक से एक अच्छे शो, क्विज , चैट, मैजिक, सर्कस, संगीत या नृत्य किसी भी तरह की दावत का भरपूर आनंद ले पाते थे पर्यटक। और साथ में भांति-भांति के बजार जहाँ हर रात एक नयी खरीददारी का भी आकर्षण था। सज-धज कर निकलते तो फोटोग्राफर आपको भांति-भांति से क्लिक करते और हर शाम दीवालों पर सजे अपने चेहरों को देखने की उत्कंठा मन में एक नया उत्साह भर देती। उसके बाद रोज रात को नौ से 11-12 तक मुख्य थियेटर में शो देखकर ही सोना-एक नियम सा बन चला था हमारा। कितने युवा थे जो पूरी रात डिस्को और बार वगैरह में ही गुजार देते थे।

कोई रोक टोक नहीं थी न खाने पीने की और ना ही मौज मस्ती की। यहाँ तक कि नन्हे-से नन्हे मेहमानों का भी अपना एक क्लब था जहाँ से सर्कसी करामात और भांति-भाँति के चेहरे लेकर जब वे आते तो उनके होठों की मुस्कान बताती कि बच्चे तक जरा भी ऊब नहीं रहे हैं । नए मित्रों का साथ और जहाज के अन्दर का यह अनौपचारिक वातावरण, हमारी तरह ही, उन्हें भी भली-भांति रास आ चुका था । रात में सोना है या हंगामे में निकालनी है पूरी तरह से अपनी तबियत और रुचि पर था। शान्ति चाहो तो बेहद रोचक और समृद्ध पुस्तकालय भी था जहाज के अंदर पर मुश्किल यह थी कि दिन के गिने चुने चौबीस घंटों को किसी भी तरह से और लम्बा नहीं किया जा सकता था। फिर भी एक रात दो बजे तक जाज और सोल संगीत में डूबे। पूरी रात चलती शोर-शराबे से भरपूर डान्स पार्टियों में न रुचि थी और ना ही जोश- ज्यादातर तो कैबिन में वापस और बिस्तर पर लेटे ही, बालकनी के बाहर से दिखती छप-छपाछप मनमानी करती लहरों के साथ-साथ रंग और आकार बदलते, घूमते-फिरते बादल व उनसे लुकाछिपी करते चंद्रमा को देखते-देखते कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता। सुबह की चाय और उगते सूरज का स्वागत बालकनी में ही, अब तो आदत-सी पड़ गई थी। वेटर ने भी पूछना बन्द कर दिया था। चाय सीधे बाहर बालकनी में ही रख आता था वह खुद ही ।

करीब 18-बीस घंटे पानी पर लगातार दौड़ने के बाद जहाज ग्रीस (यूनान) पहुँच गया। जल्दी-जल्दी कहते पर आराम से नाश्ता करते, भरपूर हर स्वाद का आनंद लेते हम सब कभी सभ्यता और दर्शन व ज्ञान-विज्ञान के चरम पर पहुँचे यूनान देश की राजधानी एथेन्स घूमने के लिए पूरी तरह से तैयार हो चुके थे…

एथेंस

पूरे अड़तीस घंटे समुद्र पर बिताने के बाद जल-यात्रा अब मनभावन मोड़ ले चुकी थी और प्रातः ही जहाज एथेंस के तट पर आ लगा था। मन में अजीब-सा उल्लास था और आँखो के आगे धूप में चांदी-सी चमकती रेत थी, जहाँ बिखरे पन्नों-सा अपना पूरा इतिहास समेटे एथेंस खड़ा था। एथेंस के तट पर उस सुगढ़ता और सुरुचि का पूर्णतः अभाव लगा जो वैनिस के तट पर भरपूर दिखती है। ठंडे यूरोपियन देशों से आए और महीनों स्वास्थप्रद धूप व ग्रीक खाने का आनंद लेते पर्यटकों ने चारो तरफ कान्क्रीट का एक जंगल-सा उठवा दिया है। पर, सारे उस बिखराव और ग्रीक के तत्कालीन आर्थिक संकट से उत्पन्न असंतोष के बावजूद भी ग्रीक का कलात्मक और ऐतिहासिक महत्व आज भी वैसा ही अक्षुण्ण है। एक शहर, एक देश, एक सभ्यता जिसे बचपन से ही जानने और देखने की इच्छा थी अब आँखों के आगे था। सुकरात, अरस्तू और प्लैटो की धरती पर घूमने के अपने सौभाग्य की सोच मात्र से मन इंद्रधनुषी हो चला था, मानो सामने लुढ़का हर पत्थर एक अद्भुत कहानी सुनाने को तैयार हो।

कला, संस्कृति, दर्शन और शौर्य..सब में अद्वितीय यूनान के मुख्य शहर एथेंस को आज भी पाश्चात्य सभ्यता का जनक माना जाता है। यही वह देश है जिसने सर्वप्रथम गणतंत्र प्रणाली को अपनाया था। यही वह देश है जिसने जीवन में शिक्षा और उसके गुणों को सर्वोपरि रखा था और यही वह देश है जिसने मध्यकालीन युग में दर्शन, चिकित्सा, व कला में अप्रतिम ऊँचाइयों को छुआ था।

सुबह-सुबह सबसे पहले नहा धोकर जाने को तैयार खड़ी देखकर, पूरा परिवार ही मेरी जिज्ञासा और उतावले पन पर आनंदित था। बढ़ते तापमान के साथ-साथ बाहर निकलते ही मन में बारबार यही विचार आ रहा था कि घूमने के लिए बहुत ही गलत महीना चुना है हमने। परन्तु स्कूल जाते बच्चों के साथ अगस्त के अलावा दूसरा कोई और विकल्प भी तो नहीं। यही नहीं, समुद्र जुलाई अगस्त में प्रायः शान्त रहता है, ऐसा भी कहा जाता है, तो सुरक्षा की दृष्टि से भी भूमध्यसागर में घूमने के लिए यही सव्रोत्तम महीने हैं। हाँ सूरज की सीधी पड़ती किरणों से बढ़ता तापमान जरूर प्रायः असह्य हो जाता था।

हमें जो प्रौढ़ टैक्सीड्राइवर और गाइड मिला, उसे अपने देश और इतिहास, अपनी कलात्मक संस्कृति और सभ्यता पर, मानव समाज के लिए ग्रीस यानी यूनान के योगदान पर गर्व तो था पर देश की वर्तमान आर्थिक व्यवस्था पर बेहद शर्मिंदा और दुखी भी था वह। आर्थिक व्यवस्था टूटने की कगार पर है और बेरोजगारी फंगस की तरह देश के कोने-कोने में बढ़ रही है। यूरोपियन बैंक से पैसे उधार लेकर बड़ी-बड़ी बिल्डिंग, सड़के…इस दिखावे का क्या अर्थ, जब पैसे लौटाने की सामर्थ ही नहीं देश में! आखिर उधार के पैसों पर कबतक मौज की जा सकती है? बात सही और सच्ची थी और अनुभव व कुछ न बदल पाने के आक्रोश से भरपूर भी।

शिकायत के मुख्य बिन्दु वही और विश्वव्यापी थे–भृष्टाचार और फिजूल खर्ची। गाइड की जो बात विशेषतः समझ में आई वह थी कि तीन-तीन औलैंपिक स्टेडियम बनाने की क्या जरूरत थी…एक तरफ तो तमाम फालतू की शहरी विकास की आधी अधूरी योजनाएं, कहीं भी मशरूम से उगते हाई राइजिंग फ्लैट और दूसरी तरफ दिन-प्रतिदिन गरीब से गरीब होती देश की आम जनता। गर्मी से परेशान हम अवश्य हो चले थे फिर भी फिर भी औलंपिक स्टेडियम देखना कैसे भूल सकते थे? एथेंस के खूबसूरत स्टेडियम को घुमाते हुए वह शिकायतें करता जा रहा था फिर भी अगले छह-सात घंटे पूरे मनोयोग व उत्साह से उसने हमें एथेंस घुमाया। बेहद प्यार और स्वाभिमान के साथ अपने देश के स्वर्णिम अतीत और उत्कर्ष के बारे में बताने का एक भी मौका नहीं खोया। हालांकि एल्गिन मार्बल्स को खोने का दुख आवाज में रह-रहकर उभर आता था। उसका देश प्रेम और उत्साह गहरे कहीं मन को भिगोने लगा।

अन्य पर्यटकों की भांति हमारी उत्सुकता सबसे पहले एक्रोपलिस ही ले गई हमें। पार्थिनौन आज भी एथेंस का मुख्य आकर्षण है। तीन हेक्टर एकड़ में फैला और 265 छोटी-छोटी सीढ़ियों वाला यह शिल्प की दृष्टि से अद्वितीय खंडहर ऊँचाई पर स्थित होने के कारण दूर से ही दिखाई दे जाता है । भावनाओं को ढेस न पहुंचाते हुए खंडहर शब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि देवी एथीना जो एथेंस की नगर देवी है के लिए 447-432 बी.सी. में बना यह शानदार मंदिर आज खंडहर ही प्रतीत होता है। पहले एक चर्च में बदला गया कभी फिर तुर्की राज की लूटपाट, यह सब तो झेल गया यह, परन्तु 1687 में रोमन तोप के गोले को बर्दाश्त न कर पाया। एथीना की बड़ी मूर्ति तो टूटी ही, अंदर स्थित 95 कला की अप्रतिम क्षत-विक्षत संगमर्मरी मूर्तियाँ में से 54 को लौर्ड एल्गिन 18 वीं शताब्दी की शुरुवात में ब्रिटेन ले आए, जो अब लंदन संग्रहालय की शोभा हैं। यह बात दूसरी है कि फिर से इन्हें यूनान में वापस पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है और इनके लिए एक अद्वितीय संग्रहालय बनाने की योजना भी है। साथ चलती बेहिसाब भीड़ और बढ़ते तापमान ( 50 के करीब) के साथ पसीना बहाते हम भी आखिर ऊपर पहुँच ही गए।

संगमर्मर के ऊंचे ऊंचे गरिमामय कलात्मक खंभे और पश्चिमी हिस्से में बाहर की तरफ सुसज्जित कुछ बची हुई मूर्तियाँ…ढाई सौ तीन सौ सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद दृश्य आज भी पर्यटकों के मन में एक अजीब ऐतिहासिक रोमांच भरने में भरपूर सफल है। ज़ीयस जो बृहस्पति की तरह बुद्धिमान और सूर्य की तरह तेजस्वी हैं, तेज और ओज के देवता हैं ग्रीक की पुरा-कथाओं में। उनका भव्य मंदिर भी वहाँ का प्रमुख आकर्षण है।

ग्रीक के राष्ट्रपति भवन के आगे ‘चेन्ज औफ गार्ड ‘ देखते हुए, अन्य पर्यटकों की भांति बचा हुआ वक्त हमने एथेंस के पर्यटकों में बेहद प्रचलित प्लाका क्षेत्र में व्यतीत किया।
यहाँ की ईंट से पटी सड़कों और चारोतरफ पर्यटकों के लिए ही अलादीन के खजाने सी भांति-भांति की वस्तुओं से भरी दुकानें अपना ही अलग आकर्षण रखती हैं। रेस्तोरैंट्स में औथेटिंक ग्रीक खाने और वाइन का भरपूर आनंद लिया जा सकता है। जिनमें बकरे के दूध से बनी चीज के साथ टमाटर, प्याज और औलिव्स,मछली और तिल जैसी चीजों की बहुलता रहती है। लगातार सुहाने मौसम की वजह से फल-फूल और सब्जियों से भरपूर यह क्षेत्र अपने तरह-तरह के स्वादों के लिए भी मशहूर है। सभी स्वास्थवर्धक सव्जियों से भरा वाइन की पत्तियाँ में लिपटा व्यंजन डोलेमो हम शाकाहारियों के लिए विशेष स्वाद वाला था। सब मिला-जुलाकर एक खूबसूरत शहर में एक खूबसूरत दिन का अंत हुआ। शाम के छह बज चुके थे और हम जहाज पर वापस थे । एक और ऐतिहासिक शहर की तरफ जहाज चलने को तैयार था और हम भी उत्साहित थे अपने अगले पड़ाव एक और रूमानी यादों और खंडहरों से भरपूर तुर्की के खूबसूरत शहर इज्मीर को घूमने के लिए। ..

इज्मिर

नीले समुन्द्र के विस्तार पर पड़ी आकाश की चादर के बीचोबीच से सुबह की किरणें जब फूटीं, तो पहले-पहल तो चन्द बनस्पतियों से लदी-फंदी पहाड़ियों ने सिर निकाला और फिर तुरंत ही इक्की-दुक्की इमारतों ने भी आंख-मिचौली का खेल बड़े ही जोश-खरोश के साथ खेलना शुरू कर दिया । फिर तो देखते-देखते नटखट सहेलियों-सा सैकड़ों का झुंड निकल आया आँखों के आगे। तुरंत ही एक-के-बाद-एक तांता-सा लग गया, मानो बुला रहे हों सब- आओ तुम भी बाहर आ जाओ इस समुद्री माया जाल से। निकलो, और देखो तो सही हमने क्या–क्या संजोया है। अगले चन्द ही पलों में जहाज तुर्की के इज्मिर बंदरगाह पर था और हम भी पूर्णतः तैयार थे नई धरती पर पैर रखने के लिए, बल्कि यूँ कहूँ तो ज्यादा सही है कि धड़कते दिल से आतुर थे इतिहास के अनदेखे पन्नों को पलटने को।

ग्रीस और तुर्की का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। दोनों देशों के संबंध वही रहे हैं, जो प्रायः आम पड़ोसी देशों के होते हैं- खट्टे-मीठे; यानीकि आपसी मेल-मिलाप और भाईचारे की दुहाई के साथ-साथ आक्रामक और विस्तारवादी रवैये से भरपूर। और इसी सब की गवाही देता, इटली के पौंपे के बाद संभवतः खंडहरों का सबसे खूबसूरत शहर इज्मिर हमारी आँखों के आगे अनावृत होने को मचल रहा था।

खुशनुमा रौशन सुबह थी वह और हमारी समुद्री यात्रा का पांचवा दिन व तीसरा मुकाम। हार्बर से कुछ ही दूरी पर संगमर्मर का बेहद खूबसूत 85 फीट ऊंचा और 1901 में बना वह स्तंभ संपूर्ण दृश्य को एक कलात्मक और शाही शान दे रहा था और हमारे लिए एक रोमांचक व काव्यमय दिन की शुरवात हो चुकी थी । आखिर हो भी क्यों नहीं…आदि कवि होमर का शहर है दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक एफिसस को संजोए इज्मिर।

यहीं पर आर्केमेडीज का मंदिर है जो जियस यानी बृहस्पति की जुड़वा बहन थी। धनधान्य देने वाली और बुरे व बुराइयों का शिकार करने वाली, कुछ कुछ अपनी माँ दुर्गा जैसी।
लम्बे चिनार और यूक्लिप्टस के पेड़ों से सजी सड़कें बेहद रूमानी और आमंत्रित करती सी प्रतीत हुईं और वैन गन्तव्य एफिसिस और वर्जिन मैरी के घर की ओर बढ़े, इसके पहले ही हल्की हवा के साथ झूमती टहनियों ने कभी-रोमन तो कभी तुर्की तो कभी क्रिश्चियन कई-कई गाथाएं सुनाना शुरु कर दिया। पुराना नाम सुमरम्या और अब इज्मिर नामकी यह वही जगह थी, जहाँ कभी एन्टनी और क्लियोपाट्रा शादी के बाद हनीमून मनाने आए थे और फिर बारबार छुट्टियाँ मनाने आते रहे थे। जहाँ के अब खंडहरनुमा थियेटर में आज भी जाने कितने नाटक और तालियो की गड़गड़ाहट और उजाड़ सड़कों पर सैनिकों की पदचाप गूंजती-सी प्रतीत होती है। पुराने विश्व के सात आश्चर्यों में से एक होमर का यह अपना शहर अपने सारे अतीत और इतिहास के साथ आवाज देता बेहद रहस्यमय लग रहा था …कुछ कुछ वैसा ही जैसे भारत में रामेश्वरम के पुल पर खड़े होकर श्रीलंका की तरफ देखने में लगता है। एक पूरा इतिहास स्वतः ही तो जीवित हो उठता है आँखों के आगे…फिर ऐतिहासिक व सम्प्रदाय विशेष के लिए बेहद धार्मिक मैरी का घर भी तो इसी धरती पर था जो आज व्यापार और संचार-सुविधा की वजह से तुर्की का तीसरा सर्वाधिक आबादी वाला शहर बन चुका है, नौ तहसीलों वाला शहर।

कला, धर्म और इतिहास की संस्कृतिमय उस धरती पर पैर रखते हुए मन का उत्साहित और ललायित हो जाना स्वाभावक था। यह बात दूसरी है कि काव्यमय उस खंडहर में कुछ भी पाने के लिए प्रचंड ताप से झुलसना पड़ रहा था। इज्मिर आज भी भूमध्यसागरीय क्षेत्र का सर्वाधिक तापमान वाला शहर है। आँखों से पहले यह बात शरीर ने पढ़ ली थी और बढ़ते तापमान के साथ शरीर ही नहीं मन तक बेहद उद्विग्न हो चला था। आश्चर्य़ नहीं कि अधिकांश यात्री सुबह के दस बजे तक एफिसस के ऐतिहासिक खंडहर घूमकर लौट भी आते हैं ।
परन्तु हमारे पास यह सुविधा नहीं थी । हमारा तो जहाज ही सुबह सात के करीब तट पर लगा था। और बाहर आते-आते आठ बज चुके थे। जैसे-जैसे हम गन्तव्य के करीब पहुँच रहे थे, तापमान भी बढ़ता जा रहा था । पता नहीं उत्साह और आवेग का असर था या बढ़ते तापमान का , अचानक सबकुछ पलट गया और शान्ति की जगह एक असह्य बेचैनी ने ले ली। वातानुकूलित गाड़ी होने के बावजूद भी गरमी असह्य थी और पित्तभरे दो चार जबर्दस्त वमन के बाद जहाँ मुझे थोड़ी बहुत राहत मिल चुकी थी, परिवार, ड्राइवर और गाइड सभी को चिंता थी और सभी पूछ रहे थे कि क्या हमें अब आगे और बढ़ना भी चाहिए या नहीं? पर यह तो होठों तक आते-आते प्याली के फिसल जाने जैसी बात होती। बिना घूमे लौट पाना , आजीवन अतृप्त रह जाना ही बन जाता। बारबार के आग्रह और आश्वासन पर ही कि बिल्कुल ठीक हूँ मैं , हम आगे बढ़ पाए । अब बस एक ही प्रार्थना थी कि , बिना तबियत खराब किए इज्मियर घूमने को मिल जाए और भगवान ने भी साथ निभाया। हम जी भरकर उस तपती धूप में नए और बड़े हैट के सहारे पूरा शहर घूमे।

अंत में जरूर मैरी का घर, जो पहाड़ी के ऊपर था उसे अंदर से न देख सके क्योंकि हमारे पास नियमित समय था और जहाज के छूटने का भी खतरा था। निश्चित किया गया कि बस नीचे से ही देखेंगे। पहाड़ी के नीचे खड़े होकर ही भरपूर आंखों से देखा हमने उसे ।

यद्यपि एफसिस की कई सुन्दर संगमर्मर की कलाकृतियाँ आज भी ब्रिटिश म्यूजियम की शोभा हैं और यह एतिहासिक शहर कई-कई कारणों से कई बार बना और बिगड़ा है, फिर भी धर्म संस्कृति और कला तीनों का अद्भुत संगम है और इसका जादू पूर्णतः बरकरार है।
अंततः कैमरे में कुछ और छवियाँ भरते हुए और शेष फिर कभी सही, एक आधे-अधूरे वादे के साथ इज्मिर को हसरत भरी अलविदा कह दी हमने।
एकबार फिर उसी जहाज और उसके मायावी इंद्रलोक की ओर हम वापस मुड़ चुके थे और अगली सुबह एक और खूबसूरत और ऐतिहासिक शहर का सपना आँखों में तैरने लगा था …

इस्तेनबुल
अगला दिन वह एक और नया दिन था हमारी इस यात्रा का और दुनिया का एक और खूबसूरत शहर इस्तेनबुल अपने पूरे सौंदर्य और भव्यता के साथ हमारी आँखों के आगे खड़ा था। चूँ कि यह एक ऐतिहासिक यात्रा थी। हर शहर यूरोपियन सभ्यताओं का लम्बा और विस्तृत इतिहास लिए हुए था… खंडहर और अद्भुत कलाकृतियों को संजोए हुए। यूँ तो इस्तेनबुल हम पहले भी आ चुके थे पर बड़े बेटे-बहू और दोनों पोतों के साथ घूमने का, इतिहास को ठीक से जानने-समझने का यह पहला मौका था । फिर किनारों को छोड़ने और पहुँचने का सुख, एक नशे-सा अलग भी तो है। हर शाम यादों का एलबम सजोती और हर सुबह नए-नए उत्साह से भरी, हमारी जल यात्रा नित नए और खूबसूरत पड़ाव पार करा रही थी ।

कई बार वैभव और विलासिता के उत्कर्ष पर पहुँचा और कई बार बना बिगड़ा इस्तेनबुल अपनी भौगोलिक स्थिति और सुगमता के कारण यूरोप और एशिया की सभ्यता का एक मनोरम कोलाज है। यूरोप और एशिया को जोड़ता एक बेहद खूबसूरत पुल है इस्तेनबुल। शहर की कई मशहूर ऐतिहासिक इमारतें जैसे ब्लू मौस्क के चारो गुम्बद सूरज की सिंदूरी आभा में नहाए, दूर से ही पर्यटक के मन में एक अमिट छाप छोड़ते हैं। चार साल पहले रूस के सेंट पीटरबरग्स की तरह यहाँ भी पोर्ट पर स्वागत में न सिर्फ बैण्ड-बाजे बज रहे थे अपितु मुस्कान और ठडा पेय व यूडी कोलोन में भीगी तौलिया भी दी जा रही थीं। एक और भव्य स्वागत जो कुछ साल पहले जिमेका में ऐसी ही एक जलयात्रा में हुआ था। जलयात्रा के आनंद और सुविधाओं का चसका लग चुका था हमें और पिछले दशक में यह हमारी छठी जलयात्रा थी। यादों का गडमड होना स्वाभाविक ही था। अनायास ही याद आया जब जमेकन पोर्ट पर रंगबिरंगी लकड़ी की सुंदर मालाएँ पहनाकर स्थानीय युवतियों ने अपनी पारंपरिक पोशाक में बेहद प्यारी मुस्कान और जिमेकन रम के साथ हमारा स्वागत किया था।

बाहर आते ही खबर मिली कि उस दिन और सिर्फ एक उसी दिन, इतवार और ईद होने की वजह से ग्रैंडबाजार और स्पाइस बाजार दोनों ही बन्द हैं। बन्द हैं.. और वह भी सिर्फ एक उसी दिन के लिए, जिस दिन हम तीन साढ़े तीन हजार मील की जल यात्रा करके वहाँ पहुंचे थे- मन को धक्का-सा लगा। दोनों इस्तैनबुल में सैलानियों के लिए विशेष आकर्षण थे…ऐसा हमारे साथ ही क्यों, हम तो पहले भी इस्तेनबुल घूम चुके थे परन्तु साथ खड़े बेटे, बहू और पोतों का यह पहला ही अवसर था। बड़े-बड़े वादे किए थे हमने, बहुत कुछ बताया था इन बाजारों के बारे में-यहाँ तक कि यह भी कहा था कि जी भरकर खरीददारी करेंगे। खैर…तुरंत ही तटस्थ होते, निराशा को भंवो और होठों से पोंछते बाहर आ गए हम। एकबार फिर स्थानीय तुर्की गाइड, ड्राइवर और वैन हमारा इन्तजार कर रही थी। ड्राइवर और गाइड बेहद विनम्र व मित्रवत् थे। उनकी झुकी आँखें बता रही थीं कि इस्तेनबुल को भलीभांति न दिखा पाने की अपनी मजबूरी पर उन्हें भी हमसे कम अफसोस नहीं था।

तस्कीम चौराहा आज की यात्रा का पहला पड़ाव था। इस चौराहे का तुर्की इतिहास में विशेष महत्व है। मुख्य जन आंदोलन यहीं से शुरु होते और हुए हैं और आज भी जनता की राजनैतिक व वैचारिक आंदोलन और गतिविधियों का यही प्रमुख केन्द्र है । यहाँ से आम जनता को कभी भी संबोधित और एकत्रित किया जा सकता है। इस्तेनबुल शहर दो भागों में विभाजित है पुराना एशिया का हिस्सा और यूरोपियन। तस्कीम स्क्वायर यूरोपियन हिस्से में है। कई खूबसूरत दुकानें, रेस्तोरांत आदि होने के कारण सैलानियों की अच्छी भीड़ थी चारो तरफ।

अब हम सुल्तान अहमद चौराहे की तरफ चल पड़े। जहाँ ब्लू मौस्क और सोफिया हाडा( जो चर्च से मस्जिद और मस्जिद से बेहद खूबसूरत म्यूजियम में वक्त के साथ तब्दील हुआ) व सुल्तानऔर उनकी मलिकाओं का मुख्य महल कैपीताकी पैलेस है। छुट्टी का दिन होने की वजह से चारो तरफ जन सैलाब था। और चढ़ते दिन के साथ धूप ने भी चटकना शुरु कर दिया था। हर जगह पर्यटकों की लम्बी कतारें और हर पर्यटन स्थल के बाहर खुद ही उग आया मेले-सा बाजार। चारो तरफ रुकने और थकने के कई बहाने थे। फिर भी मन में उत्साह और एक ही दिन की समय सीमा …छोटे-बड़े हम सभी चलते रहे , पर्यटक स्थल की लाइनों में इंतजार करते, आइसक्रीम का आनंद लेते रहे।

पैलेस महीन जाली की नक्काशी का अद्भुत नमूना है और अंदर शस्त्र, शाही हीरे जवाहरात और शाही कपड़ों का अद्भुत संग्रह भी। बाहर निकलते ही इन शाषकों का उद्यान व फव्वारों का शौक खुलकर विहंस रहा था और हमें भी उस भयंकर गर्मी से थोड़ी राहत मिल गई।

मस्जिद में उस आस्था की भीड़ के साथ घूमना भी अपने आप में एक स्तंभित अनुभव ही था। याद आ गई वह पहली यात्रा जब जनवरी का महीना था और हड़्डी कंपाती ठंड में बरसात में भीगे हम पांच ( हम दोनों व छोटे बेटे बहू व पोती)अकेले ही थे ब्लू मौस्क के अंदर। इस्तेनबुल का मौसम अति का मौसम है। गर्मी में खूब गर्मी और ठंड में खूब ठंड। हमने शायद दोनों बार ही थोड़ा गलत वक्त चुन लिया था यहाँ आने के लिए।

अब सोफिया म्यूजियम जाने के लिए किसी में भी उत्साह नहीं दिख रहा था। हालांकि मुझे वह सबसे खूबसूरत और यादगार जगह लगी थी अपनी पहली ट्रिप में छोटे बेटे और उसके परिवार के साथ । पर बच्चे बड़े सभी थक चुके थे। निश्चय किया गया कि वैन से ही इस्तेनबुल को ढूँढा जाए। जहाँ मन किया रुक लेंगे , घूम लेंगे। इस्तेनबुल एक बेहद खूबसूरत शहर है । कभी पहाड़ी उंचाइयों से तो कभी समुद्र के किनारे पुल के ऊपर खड़े तो कभी भीड़भाड़ भरे उन बाजारों में जहाँ स्थानीय लोग सामान खरीद रहे थे वक्त कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला। खूबसूरत उपहारों से लंदे-फंदे हम एकबार फिर जहाज की ओर वापस मुड़ चुके थे। थकान से आँखें बन्द हो रही थीं। कान में गाइड की आवाज अभी भी गूंज रही थी- एक-एक सुल्तान की कई-कई रानियां होती थीं पर जिसका बेटा सुल्तान बनता था ताकत और महत्व उसी का होता था। युवराज बनने का आकांक्षी अपने आस-पास के अन्य सभी सक्षम और वीर संभावी युवराजों का कत्ल करवा के उन्हे रास्ते से हटा देता था। हरम में सैकड़ों सुन्दर लड़कियां रखी और तैयार की जाती थीं जिनमें जो शहंशाह को खुश कर पाए वही मलिका बन पाती थी या महल तक पहुँचती थी…कितनी खूनभरी और निर्मम थी इनकी भी जिन्दगी। सामने अचानक ही डूबते सूरज का स्वर्णिम चेहरा तक खूनी लाल दिखा विदा के उस अंतिम पल में।

नेपल्स
जहाज किनारे आ लगा था और तीस साल पुरानी यादों का मेला लिए नेपल्स आंखों के सामने था। नेपल्स इटली का एक बेहद खूबसूरत शहर… बेहद रम्य और उपजाऊ एरिया, जो औलिव और अंगूरों की वाइन के साथ-साथ अपने प्राकृतिक सौंदर्य व अमीरों के क्रीडा-स्थल की तरह भी विख्यात है । गाइड की मानें तो, ‘ पर अब वह बात नहीं। अपराधों से जर्जर है यह इलाका। पहले जहाँ सिर्फ अमीर ही आते थे अब सभी तरह के पर्यटक आते हैं ; जो अच्छा भी है और नहीं भी। इनमें बढ़ोत्तरी के साथ, बुरा नहीं मानना, आपलोगों की बात नहीं कर रहा आप तो यूरोप के ही हो, पर पूर्वीय देशों से आए पर्यटक पैसा कम खर्च करते हैं और तस्करी अधिक। चोरी, लूटमार आदि के छोटे अपराधों के अलावा चरस गांजा अदि के अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है, जो पहले नहीं थी ।‘

खुद में डूबा वह बोले जा रहा था- ‘ वैसे तो पूरी दुनिया ही एक कठिन दौर से गुजर रही है।‘

सही कह रहा था वह..वाकई में एक आर्थिक सामंजस्य के दौर से गुजर रही है दुनिया। चुप रहना ही उचित समझा परन्तु उसका स्वाभिमान और परेशानी दोनों ही कुछ-कुछ समझ में आ रही थी और वह एक कहावत भी कि एक मछली सारे तलाब को गंदा कर देती है। हमारे पास घूमने के कई और और अच्छे विकल्प थे। हम कैप्री आइलैंड के ब्लूग्रोटो जा सकते थे जहाँ के साफ पानी के रंगरूप की तुलना चमकते नीलम से की जाती है और जिसे देखकर शेक्सपियर ने सोलहवीं शताब्दि में लिखा था कि यही वो दुनिया का स्वर्ग है, जहाँ एडम और ईव विचरते थे। शेक्स्पियर ने नेपल्स के बारे में कहा कि वह आजीवन खुशी-खुशी जी और मर सकते थे इस नैसर्गिक रूप और छटा की गोदी में। पर वहाँ जाने के लिए पूरा एक दिन चाहिए था और हमारे पास एक पूरा दिन भी नहीं, बस सात आठ घंटे ही थे, फिर कुछ और नहीं घूम पाते।

पिछले दस दिनों से समुद्र में ही तो घूम रहे थे और कैप्री आइलैंड व ब्लू ग्रोटो पहले भी देख ही चुके थे, समय के अभाव की वजह से वहाँ न जाकर-( यूँ तो पौम्पे भी देखा हुआ था परन्तु यात्रा यूरोप के ऐतिहासिक स्थलों को देखने व दिखाने के इरादे से ही ली गई थी) तय किया कि पहले सौरेन्टो और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर अमीरों का क्रीडास्थल अमाल्फी क्षेत्र का समुद्र किनारे-किनारे का एरिया कार से घूमेंगे और सोरेटो व पौसिटानो शहर में रुकते हुए ऐतिहासिक खंडहर पौम्पे, जो कि ज्वालामुखी की राख में 1500 साल दबा रहा था, देखने चलेंगे।

सोरैन्टो और पौसिटानो इस क्षेत्र के दो बेहद खूबसूरत शहर हैं, हमने पहले यहीं जाने का मन बनाया। पौसिटानो तक जाते-जाते प्रकृति और मानव दोनों का ही वैभव पूर्णतः अभिभूत करता है। सौरेंटो और पौसिटानो खूबसूरत शहर तो हैं ही, पर वहाँ तक पहुंचने का रास्ता उससे भी खूबसूरत और रोमांचक है। रम्य प्रकृति की गोद में बैठी अमाल्फी की तरफ जाती सांप-सी रेंगती पहाड़ियों को काटकर बनाई गई घुमावदार सड़कें, अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य और उसपर से मानवीय साहस व प्रकृति-प्रेम में डूबा वह इलाका अद्भुत और रम्य विलास व वैभव का नमूना है। विस्मित थे हम। कैसे खोदी गई होंगी वे सड़कें और बनाई गई होंगी वे चोटियों पर लटकी भव्य अट्टालिकाएँ व होटल। मोह रहे थे आँखों के आगे से गुजरते वे दृश्य। मानवीय इन्जीनियरिंग का लोहा मानते हम मन और कैमरे दोनों में ही उन प्राकृतिक दृश्यों को संजोते जा रहे थे।

पौसिटानों के किनारे सभी मंहगी डिजाइनर दुकानें थीं, जहाँ एक-से-एक असंभव से दामों पर चीजें बिक रही थीं। अच्छा था कि ज्यादा वक्त नहीं था हमारे पास वरना जाने क्या-क्या खरीदकर पछताना पड़ता कि क्यों खरीदा उस क्षणिक उन्माद में। हमने मशहूर इटैलियन आसक्रीम, पीजा और वाइन के साथ समुद्र पर चल रहे अद्भुत जेट डाइव के खेल का भी आनंद लिया जिसमें छोटे जहाजों को तेजी से पानी के तल के एकदम करीब ले जाकर सैलानियों को अद्भुत रोमांच का अनुभव कराया जाता है। अभी हम घूम ही रहे थे कि उन पतली-पतली गलियों में पचासों की भीड़ लिए एक शवयात्रा का जुलूस आ गया। फटाफट दुकानदारों ने अपने शटर गिराकर दुकानें बंद कर लीं, पूछने पर पता चला कि भीड़भाड़ में लूटपाट का खतरा रहता है। हम भी कुछ मिनटों के लिए चंद अन्य ग्राहकों के साथ एक दुकान के अंदर बंद हो गए थे। ‘ तो यहाँ यूरोप में भी भारत जैसा ही हाल है! ‘ , सोचकर होठों पर खुद-ब-खुद यूरोप की शान और वैभव को ललकारती-सी मुस्कान आ गई। इटली तो वैसे भी चोर उचक्कों के लिए मशहूर है। याद आ गई 1977 की बात जब हमारा बैग होटल के बाहर पेवमेंट से गायब हो गया था।

धूप अबतक सिर चढकर बोलने लगी थी। और वैन की ए.सी. बेहद सुखद और आमंत्रित करती-सी लगने लगी थी। हम आननफानन खुशी-खुशी वैन में जा बैठे और चल पड़े पौम्पे की तरफ। डेढ़ दो घंटे की उस ठंडी आरामदेह ड्राइव में चाहकर भी आँखें खुली रख पाना मुश्किल हो रहा था पर कुछ छूटे न, इसलिए जबर्दस्ती खुदको जगाए रखने की कोशिश जारी रखी । कभी नीचे वह 100, 200 फीट की खाइयाँ डरातीं तो कभी पर्वतों की श्रंखला और नीलम सा समुद्र मन मोह लेता। ऐसे ही सोते जगते, चलती कार से ही फोटो खींचते हम पौम्पे पहुंच गए।

सामने खड़ा वसुवियस का सक्रिय ज्वालामुखी आज भी वातावरण को एक रहस्यमय गंभीरता देने में सक्षम है। याद आ गई वह वसूवियस ज्वालामुखी की पहली ट्रिप जब हमारे पास वक्त की पाबंदी नहीं थी और तीनों छोटे बच्चों के साथ जब उस धधकते लावा फेंकते ज्वालामुखी के क्रेटर तक पहुँची थी तो बच्चों की सुरक्षा को लेकर मन-ही-मन बेहद भयभीत थी। पतिदेव कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा कहते उसके बिल्कुल ही करीब ले गए थे और पर्यटक धधकते गढ्ढे में झांक रहे थे। हिम्मत करके आगे बढ़ी और दृश्य को बस आंखों में भरकर तुरंत ही पलट ली। माँ का मन था न । मान लो ज्वालामुखी अचानक उग्र हो उठे तो तीनों बच्चों को तुरंत सुरक्षित स्थान तक पहुँचाना आसान तो नहीं था। कहने को तो सब सुरक्षित था परन्तु प्रकृति के रहस्य को समझना, अप्रत्याशित कोप से बचना आसान भी तो नहीं। स्मृति मात्र से रोमांच हो आया। आज भी वही वसूवियस सामने था पर वास्तविकता में हमसे मीलों दूर ।

तीन बज चुके थे परन्तु अभी भी चटकती धूप में संकरे रास्तों पर जड़ी ईंटें हीरे सी चमक रही थीं और कहीं भी दिखाई देती जरा-सी छत या छाँव रुकने को ललायित कर रही थी, ऐसे में हमारा पसीना पोंछते हुए आगे बढ़ते जाना ऐतिहासिक जिज्ञासा और सैलानी जुनून का ही परिचायक था। कैसे भी आइसक्रीम के सहारे खुद को ठंडा करते हम आगे बढ़ते जा रहे थे। गाइड एक अवकाश प्राप्त प्रोफेसर और लेखक था जिसे अपने देश और सभ्यता पर न सिर्फ नाज था अपितु विषय का गहन अध्ययन भी, और हमारी स्वाभाविक विद्यार्थीनुमा जिज्ञासा के लिए हर प्रश्न का उत्तर भी था उसके पास ।

हजारों साल पहले रोमन सभ्यता विकास और ऐश्वर्य के जिस चरण तक पहुँची थी उसका दस्तावेज तो हैं ही यह पौम्पे के खंडहर, प्रकृति की ताकत और रहस्यमय स्वभाव को भी भलीभांति दर्शाते हैं। रोमन बाथ की चित्रात्मक नक्काशी व भव्य स्टेडियम व कौलेसियम, अपोलो का मन्दिर, बाजार व चौक, सभी आज भी अतीत के शोर-शराबे और जीवन का आभास देने में पूर्णतः सक्षम थे। सालों तक ज्वालामुखी की ऱाख के नीचे दफन इटली का पौम्पे शहर पूरा-का-पूरा खोदकर बाहर निकाला गया है और यह आज भी प्राचीन रोमन सभ्यता का सबसे विस्तृत और विशाल खंडहरनुमा संग्रहालय है, जिसे दूर दूर से हजारों सैलानी रोज ही देखने आते हैं। बर्तन भांडों के साथ कुछ लेटे बैठे आदमी और वह मशहूर कुत्ता सब राख में जमकर सदा के लिए उस युग और आपदा के परिचायक बन चुके हैं, जिन्हें बेहद प्यार और परवाह के साथ स्थानीय पर्यटन विभाग ने संजो रखा है हमारे लिए।

अतीत की यह धरोहर कहूँ या यादें, अभी 150 साल पहले ही पुनः अविष्कृत हुआ है यह शहर अपनी सारी इमारतों के खंडहर, और ईंट जड़ी सड़कों और भव्य सभागार, मंदिर और बाजारों के आधे अधूरे अवशेषों के साथ। सभ्यता के ये चिन्ह…क्षणभंगुर मानव अवशेषों का सबसे बड़ा आकाश के नीचे फैला संग्रहालय है। एक सीख है आज की दंभी सभ्यता के लिए । पीछे खड़ा धधकता ज्वालामुखी वसुवियस आज भी डेढ़ हजार साल पहले हुए विनाश के उस ताण्डव की याद को जीवित रखने में समर्थ है। शहर की गली-गली और घरघर को डुबोती, मौत की गोद में सुलाती वह गरम लावा की नदी सबकुछ बहा ले गई थी। बसे हर प्राणी, चपेट में आए पशु पक्षी सभी को जीते जी राख के प्लास्टर में डुबोकर विशाल संग्रहालय के नमूनों के रूप में तब्दील कर दिया था इसने…अतीत की गोद से निकला पूरे शहर और सभ्यता का जीता-जागता कब्रिस्तान… राख की कास्ट में सदा के लिए सुरक्षित वह कुत्ता , औरत मर्द आदि अपनी पीड़ा में कैद अब सदा के लिए एक कलाकृति एक यादगार धरोहर हैं पौम्पे। मन अनचाहे ही उदास हुआ जा रहा था। इसे आज मानवीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर का दर्जा प्राप्त है और ऐतिहासविद के साथ-साथ पर्यटकों का भी एक मुख्य आकर्षण केन्द्र है यह शहर।

पसीने और विस्मय में नहाए हम जब उन तपती यादों के भंवर से निकले तो मन और शरीर दोनों को ही शीतलता की बेहद जरूरत थी, जो कि जहाज पर भरपूर भव्यता और पूरे राग-रंग के साथ हमारा इंतजार कर रही थी ।…
और ऐतिहासिक
अगला पूरा दिन फिर जहाज में ही बीतना था और तरह-तरह के मनोरंजन और खरीददारी के मौकों से भरपूर था। अंतिम दिन की शाम एक यादगार शाम होती है इन जल यात्राओं की और वह दिन भी अपवाद न था। कैप्टेन द्वारा आयोजित भव्य दावत और बीसियों अपनी और परिवार की तस्बीरों से लदे-फंदे हम अपने अंतिम पड़ाव बार्सिलोना पहुंच गए।

बार्सिलोना

बार्सिलोना स्पेन का एक बेहद खूबसूरत शहर है। फुटवाल प्रेमी तो इससे परिचित हैं ही, कलाप्रेमियों का भी यह आकर्षण केन्द्र है। पिकासो का म्यूजियम जो अवश्य देखना था , वक्त की कमी की वजह से नहीं देखा। आधुनिक और कई कई अद्भुत और विस्मयकारी प्राचीन इमारतों से भरा हुआ बार्सिलोना आंखों के आगे था और हमारे पास वक्त नहीं था। वैसे भी थोड़ी प्यास का शेष रह जाना ही बेहतर है , लौटने का बहाना मिल जाता है।

खूबसूरत और भव्य कैथिड्रल के साथ-साथ सगराडा फैमिलिया एक ऐसी इमारत है जो चुंबकीय आकर्षण लिए हुए है। 18 वीं शताब्दी में शुरु हुई यह इमारत या तो आपको मोह लेती है या फिर विस्मय से आपके मुंह से निकलता है-यह क्या बनाना चाह रहे हैं ये लोग!

बहुत कुछ था देखने और जानने को पर पंद्रह दिन से लगातार घूमते -घूमते थके हम सभी को घर की याद आने लगी थी। शाम का अंधेरा भी घिर आया था और एयरपोर्ट पर लौटने वाली उड़ान हमारा इंतजार कर रही थी। अंततः फिर लौटने के वादे के साथ जल्दी-जल्दी शहर की पर्यटक बस में बैठे-बैठे ही बार्सिलोना घूमा और यादों के एलबम में हजारों यादें सहेजते-समेटते घर वापस लौटने के लिए अतीव उत्साह के साथ एकबार फिर हम जहाज में वापस आ बैठे थे…पानी नहीं, हवा में उड़ते हुए इसबार!…

-शैल अग्रवाल

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