लघुकथाएँः सुभाष नीरव, रामनिवास मानव


तिड़के घड़े का पानी

“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें। भंगन की तरह मुझे रोज साफ करनी पड़ती है।”

गुड़ुप !

“बाऊजी, देखता हूँ, आप हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कभी दूसरे कमरे में भी बैठ जाया करें। इधर कभी कोई यार-दोस्त भी आ जाता है मिलने।”

गुड़ुप !

“बाऊजी, आप तो नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं। सारा बाथरूम गीला कर देते है। पता भी है, पानी की कितनी किल्लत है।”

“अम्मा, हर समय बाऊजी के साथ क्यों चिपकी रहती हो। थोड़ा मेरा हाथ भी बटा दिया करो। सुबह-शाम खटती रहती हूँ, यह नहीं कि दो बर्तन ही मांज-धो दें।”

गुड़ुप ! गुड़ुप !!

“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्जी ! एक काम कहा था आपसे, वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो मना कर देते, पैसे तो बर्बाद न होते।”

गुड़ुप !

“अम्मा, आपको भी बाऊजी की तरह कम दीखने लगा है। ये बर्तन धुले, न धुले बराबर हैं। जब दुबारा मुझे ही धोने हैं तो क्या फायदा आपसे काम करा कर। आप तो जाइए बैठिये बाऊजी के पास।”

गुड़ुप !

दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरें उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।

रोज की तरह रात का खाना खाकर, टी वी पर अपना मनपसंद सीरियल देखकर बहू-बेटा और बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गये हैं और कूलर चलाकर बत्ती बुझाकर अपने-अपने बिस्तर पर जा लेटे हैं। पर इधर न बूढ़े की आँखों में नींद है, न बूढ़ी की। पंखा भी गरम हवा फेंक रहा है।

“आपने आज दवाई नहीं खाई ?”

“नहीं, वह तो दो दिन से खत्म है। राकेश से कहा तो था, शायद, याद नहीं रहा होगा।”

“क्या बात है, अपनी बांह क्यों दबा रही हो ?”

“कई दिन से दर्द रहता है।”

“लाओ, आयोडेक्स मल दूँ।”

“नहीं रहने दो।”

“नहीं, लेकर आओ। मैं मल देता हूँ, आराम आ जाएगा।”

“आयोडेक्स, उधर बेटे के कमरे में रखी है। वे सो गये हैं। रहने दीजिए।”

“ये बहू-बेटा हमें दिन भर कोंचते क्यों रहते हैं ?” बूढ़ी का स्वर धीमा और रुआंसा-सा था।

“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। आज हैं, कल नहीं रहेगें। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जाएं, अच्छा है।”

तभी, दूसरे कमरे से एक पत्थर उछला।

“अब रात में कौन-सी रामायण बांची जा रही है बत्ती जलाकर। रात में इत्ती-इत्ती देर तलक बत्ती जलेगी तो बिल ज्यादा तो आएगा ही।”

गुड़ुप !

जानवर
बीच पर भीड़ निरंतर बढ़ती जा रही थी। सूरज समुद्र में बस डुबकी लगाने ही वाला था। वे दोनों हाथ में हाथ थामे समुद्र किनारे रेत पर टहलने लगे। पानी की लहरें तेजी से आतीं और लड़की के पैरों को चूम लौट जातीं। लड़की को अच्छा लगता। वह लड़के का हाथ खींच पानी की ओर दौड़ती, दायें हाथ से लड़के पर पानी फेंकती और खिलखिलाकर हँसती। लड़का भी प्रत्युत्तर में ऐसा ही करता। उसे लड़की का इस तरह उन्मुक्त होकर हँसना, खिलखिलाना अच्छा लग रहा था। अवसर पाकर वह लड़की को अपनी बांहों में कस लेता और तेजी से उनकी ओर बढ़ती ऊँची लहरों का इंतजार करता। लहरें दोनों को घुटनों तक भिगो कर वापस लौट जातीं। लहरों और उनके बीच एक खेल चल रहा था – छुअन छुआई का।

लड़का खुश था लेकिन भीतर कहीं बेचैन भी था। वह बार बार अस्त होते सूरज की ओर देखता था। अंधेरा धीरे धीरे उजाले को लील रहा था। फिर, दूर क्षितिज में थका-हारा सूर्य समुद्र में डूब गया।

लड़के की बेचैनी कम हो गई। उसे जैसे इसी अंधेरे का इंतज़ार था। लड़का लड़की का हाथ थामे भीड़ को पीछे छोड़ समुद्र के किनारे किनारे चलकर बहुत दूर निकल आया। यहां एकान्त था, सन्नाटा था, किनारे पर काली चट्टानें थीं, जिन पर टकराती लहरों का शोर बीच बीच में उभरता था। वह लड़की को लेकर एक चट्टान पर बैठ गया। सामने विशाल अंधेरे में डूबा काला जल… दूर कहीं कहीं किसी जहाज की बत्तियाँ टिमटिमा रही थीं।

”ये कहाँ ले आए तुम मुझे ?” लड़की ने एकाएक प्रश्न किया।

”भीड़ में तो हम अक्सर मिलते रहते हैं…कभी…”

”पर मुझे डर लगता है। देखो यहाँ कितना अंधेरा है…” लड़की के चेहरे पर सचमुच एक भय तैर रहा था।

”किससे ? अंधेरे से ?”

”अंधेरे से नहीं, जानवर से…”

”जानवर से ? यहाँ कोई जानवर नहीं है।” लड़का लड़की से सटकर बैठता हुआ बोला।

”है…अंधेरे और एकांत का फायदा उठाकर अभी तुम्हारे भीतर से बाहर निकल आएगा।”

लड़का ज़ोर से हँस पड़ा।

”यह जानवर ही तो आदमी को मर्द बनाता है।” कहकर लड़का लड़की की देह से खेलने लगा।

”मैं चलती हूँ…।” लड़की उठ खड़ी हुई।

लड़के ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।

”देखो, तुम्हारे अंदर का जानवर बाहर निकल रहा है… मुझे जाने दो।”

सचमुच लड़के के भीतर का जानवर बाहर निकला और लड़की की पूरी देह को झिंझोड़ने- नोचने लगा। लड़की ने अपने अंदर एक ताकत बटोरी और ज़ोर लगाकर उस जानवर को पीछे धकेला। जानवर लड़खड़ा गया। वह तेज़ी से बीच की ओर भागी, जहाँ ट्यूब लाइटों का उजाला छितरा हुआ था।

लड़का दौड़कर लड़की के पास आया, ”सॉरी, प्यार में ये तो होता ही है…।”

”देखो, मैं तुमसे प्यार करती हूँ, तुम्हारे अंदर के जानवर से नहीं।” और वह चुपचाप सड़क की ओर बढ़ गई। बीच पीछे छूट गया, लड़का भी।


बीमार

“चलो, पढ़ो।”

तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल… आ से आम…” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?”

“यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !”

“पापा, हम भी अनाल खायेंगे…” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल… ऐप्पिल माने…।“

सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिये, सेब।

सेब !

और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए।

“बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल… ऐप्पिल माने सेब…”

“पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?… जैसे मम्मी ?…”

बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।

बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”

इन्सानियत का धर्म

उनका सिंहासन खतरे में था। उसकी रक्षा तो उन्हें करनी ही थी। हर हाल में, हर कीमत पर। वे जानते थे कि लोग धर्म के नाम पर जान की बाजी लगा देने को हर समय तैयार रहते हैं। बस, उनका एक ही इशारा काफ़ी है। और उन्होंने सिंहासन बचाने के लिए यही किया भी।

काली रात के सन्नाटे में विधर्मियों का सफाया कर अगली सुबह लोग उनकी और उनके सिंहासन की जय-जयकार कर रहे थे। तभी, किसी ने उनके कान में फुसफुसाकर कुछ कहा। सुनते ही उनके चेहरे का रंग बदल गया। वे दल-बल समेत अस्पताल की ओर भागे। विधर्मियों के एक दल ने उनके बेटे पर जानलेवा हमला किया था। उनकी भृकुटियाँ तन गईं। वे क्रोध में कांपने लगे। इस हमले का जवाब देने के बारे में सोचने लगे। तभी, अस्पतालवालों से उन्हें मालूम हुआ कि उनके बेटे को ज़ख्मी हालत में अस्पताल पहुँचाने वाला और अपना खून देकर उसकी जान बचाने वाला, दोनों ही विधर्मी थे!

अपने घर जाओ न अंकल !
शहर में कर्फ्यू लगा था। लोग अपने-अपने घरों में दुबके बैठे थे। गलियाँ और सड़कें सुनसान पड़ी थीं। तभी, नौ-दस बरस के दो बच्चे न जाने कब अपने घरवालों से आँख बचाकर घर से बाहर निकलकर सड़क पर खेलने लगे। दूर तक खाली पड़ी सुनसान सड़क पर खेलने में उन्हें मजा आ रहा था। रिक्शा, सायकिल, स्कूटर, मोटर कार आदि का कोई भय नहीं था।

तभी, गश्त कर रहे सिपाही ने उन्हें देखा और डांटते हुए बोला-

”ऐ बच्चो ! भागो यहाँ से… जाओ अपने घरों में…”

बच्चे अपना खेल रोक कर खड़े हो गए और सिपाही की ओर फटी आँखों से देखने लगे। हिम्मत कर उनमें से एक बच्चा बोला- ”सड़क तो खाली पड़ी है, हमें खेलने दो न, अंकल ?”

”नहीं, सड़क पर नहीं खेल सकते तुम। तुम्हें मालूम नहीं, शहर में कर्फ्यू लगा है ?”

”वो क्या होता है, अंकल ?” कमर पर हाथ रखे सहमे-से खड़े दूसरे बच्चे ने पूछा।

”कर्फ्यू में घर से बाहर निकलने वाले को बन्दूक की गोली मार दी जाती है, समझे।”

गोली के नाम पर दोनों बच्चे सहम गए। एकाएक उनमें से एक अपने चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों पर टिकाकर आँखों को गोल-गोल घुमाते हुए बेहद मासूमियत से बोला, ”तुम भी तो घर से बाहर सड़क पर घूम रहे हो।…तुम्हें भी तो कोई गोली मार सकता है… तुम भी अपने घर जाओ न अंकल !”

वाह मिट्टी

“छोनू बेटा, बाहर मिट्टी है, गंदी! गंदे हो जाओगे। घर के अन्दर ही खेलो, आं…।” जब से सोनू घुटनों के बल रेंगने लगा था, रमा उसकी चौकसी करती रहती कि वह बाहर न जाए। मिट्टी में न खेलने लगे।

“छी-छी! गंदी मिट्टी ! मिट्टी में नहीं खेलते बेटा। देखो, हो गए न गंदे हाथ-पैर! छी!” सोनू बाहर चला जाता तो रमा उसे तुरन्त उठाकर अन्दर ले आती। प्यार से समझाती-झिड़कती।

जब सोनू खड़े होकर चलने लगा तो हम पति-पत्नी बेहद खुश हुए। लेकिन, अब रमा की परेशानी और अधिक बढ़ गयी। वह न जाने कब चुपके से बाहर निकल जाता और मिट्टी में खेलने लगता। रमा खीझ उठती, “उफ्फ! मैं तो तंग आ गयी। दिन भर पकड़-पकड़कर अन्दर कमरे में बिठाती हूँ और यह बदमाश है कि न जाने कब चकमा देकर बाहर चला जाता है। ठहर, अभी लेती हूँ तेरी खबर!”

अब रमा सोनू को डांटने भी लगी थी। वह चपत दिखाते हुए उसे धमकाती, “खबरदार! अब अगर बाहर मिट्टी की तरफ झांका भी! मार पडे़गी, समझे।”

“तुझसे अन्दर बैठकर नहीं खेला जाता ? हर समय मिट्टी की तरफ ध्यान रहता है।” सोनू की हरकत से कभी-कभी मैं भी खीझ उठता।

फिर, न जाने क्या हुआ कि सोनू ने बाहर जाकर मिट्टी में खेलना तो क्या उधर झांकना भी बन्द कर दिया। दिनभर वह घर के अन्दर ही घूमता रहता। कभी इस कमरे में, कभी उस कमरे में। कभी बाहर वाले दरवाजे की ओर जाता भी तो तुरन्त ही ‘छी मित्ती!’ कहता हुआ अन्दर लौट आता। अब न सोनू हँसता था, न किलकारियाँ मारता था। हर समय खामोश और गुमसुम-सा बना रहता।

सोनू के दादा-दादी को जब इस बात की खबर हुई तो वे भी चिंतित हो उठे। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि हम सोनू को लेकर कुछ रोज के लिए गाँव चले आएँ। मुझे और रमा को उनका प्रस्ताव अच्छा लगा। हम उसी रोज बस पकड़कर गाँव पहुँच गये।

माँ-पिताजी, छोटे भाई-बहन सभी सोनू को पाकर बेहद खुश हुए। लेकिन, सोनू था कि यहाँ आकर और अधिक गुमसुम हो गया था। वह गोद से नीचे ही नहीं उतरता था। उतारने की कोशिश करते तो रुआंसा-सा हो जाता और गोद में ही बने रहने की जिद्द करता।

तभी, पिताजी ने सोनू को अपनी गोद में उठाया और बाहर ले गये। काफी देर बाद जब पिताजी वापस घर आये तो सोनू उनके संग नहीं था।

“सोनू कहाँ है ?” हम पति-पत्नी ने चिंतित स्वर में एक साथ पूछा।

“बाहर बच्चों के संग खेल रहा है।” पिताजी ने सहज स्वर में बताया। तभी, एक जोरदार किलकारी हमारे कानों में पड़ी। हम दौड़कर बाहर गये। सोनू मिट्टी में लथपथ हुआ बच्चों के संग खेल रहा था और किलकारियाँ मार रहा था।

सुभाष नीरव

हिंदी कथाकार सुभाष नीरव का जन्म उत्तर प्रदेश के एक बेहद छोटे शहर मुराद नगर में एक पंजाबी परिवार में हुआ। इन्होंने मेरठ विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण की और् वर्ष 1976 में भारत सरकार की केन्द्रीय सरकार की नौकरी में आ गए। अब तक तीन कहानी–संग्रह दैत्य तथा अन्य कहानियाँ (1990), औरत होने का गुनाह (2003) और आखिरी पड़ाव का दु:ख(2007) प्रकाशित। इसके अतिरिक्त, दो कविता–संग्रह यत्किंचित (1979) और रोश्नी की लकीर (2003), एक बाल कहानी–संग्रह मेहनत की रोटी (2004), एक लधुकथा संग्रह कथाबिन्दु (रूपसिंह चंदेल और हीरालाल नागर के साथ) भी प्रकाशित हो चुके हैं। अनेकों कहानियाँ, लधुकथाएँ और कविताएँ पंजाबी और बांगला भाषा में अनूदित हो चुकी हैं। आपलगभग पिछले 35 वर्षों से कहानी, लघुकथा, कविता और अनुवाद विधा में सक्रिय हैं। अब तक तीन कहानी-संग्रह ”दैत्य तथा अन्य कहानियाँ (1990)”, ”औरत होने का गुनाह (2003)” और ”आखिरी पड़ाव का दु:ख(2007)” प्रकाशित। इसके अतिरिक्त, दो कविता-संग्रह ”यत्किंचित (1979)” और ”रोशनी की लकीर (2003)”, एक बाल कहानी-संग्रह ”मेहनत की रोटी (2004)”, एक लधुकथा संग्रह ”कथाबिन्दु” (रूपसिंह चंदेह और हीरालाल नागर के साथ) भी प्रकाशित हो चुके हैं। अनेकों कहानियाँ, लधुकथाएँ और कविताएँ पंजाबी, तेलगू, मलयालम और बांगला भाषा में अनूदित हो चुकी हैं।

हिंदी में मौलिक लेखन के साथ-साथ पिछले तीन दशकों से अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा मुख्यत: अनुवाद के माध्यम से करते आ रहे हैं। अब तक पंजाबी से हिंदी में अनूदित डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें ”काला दौर”, ”पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं”, ”कथा पंजाब-2”, ”कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ”, ”तुम नहीं समझ सकते”(जिन्दर का कहानी संग्रह)”, ”छांग्या रुक्ख” (पंजाबी के दलित युवा कवि व लेखक बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा), पाये से बंधा हुआ काल(जतिंदर सिंह हांस का कहानी संग्रह), रेत (हरजीत अटवाल का उपन्यास) आदि प्रमुख हैं। मूल पंजाबी में लिखी दर्जन भर कहानियों का आकाशवाणी, दिल्ली से प्रसारण।

हिंदी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ, पंजाबी-हिंदी लधुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद हेतु ”माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार 1992” तथा ”मंच पुरस्कार, 2000” से सम्मानित।

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अनलौटे श्रीराम

दिवाली लक्ष्मी का त्योहार मानी जाती है, लेकिन आमतौर पर आती है महीने के अन्तिम सप्ताह में। ऐसी स्थिति में, व्यापारी तो फिर भी लक्ष्मी-पूजन कर लेते हैं, पर बेचारे सर्विस-मैन मन-ही-मन चाव करते रह जाते हैं। महीने का आखिऱी सप्ताह आते-आते उनकी जेब पूरी तरह खाली हो जाती है और राशन, सब्जी, पै्रस आदि सबके बिल बकाया। फिर छुटि्टयां भी दो-चार न पड़ें, तो पटाखे फुस्स हों या न हों, उनका मन ज़रूर फुस्स हो जाता है।

दशरथ-नन्दन रामचन्द्र जी तो दिवाली के दिन अयोध्या वापिस आ गये थे, लेकिन हमारे लघुकथा-नायक रामचन्द्र अक्सर घर नहीं पहुंच पाते। वैसे उनके मन में इस दिन अपने घर पर, घरवालों, बूढ़े मां-बाप के पास होने की इच्छा भगवान राम से भी अधिक रहती है। कारण, रामजी के पिताजी तो स्वर्गवासी हो गये थे, पर इन रामचन्द्र के पिताजी, भगवान की कृपा से, अस्सी वर्ष की उम्र में भी, अभी तक सही-सलामत हैं। पिता-सुख इनके भाग्य में खूब लिखा है।

इसे संयोग ही समझिये कि इस बार दिवाली के लक्ष्मी-पर्व पर रामचन्द्र की जेब सौ-सौ के नोटों से भरी है। कुछ पहले महीने की तनखा़ह लेट मिली और कुछ दिवाली पहले आ गई। यह भी संयोग ही है कि इस बार छुटि्टयां भी, दो-एक दिन की बजाय, पूरे पांच दिन की पड़ रही हैं। अत: वह बड़े खुश हैं। चलो इस बार तो दिवाली पर घर होंगे। मां-बाप बूढ़े हैं, पता नहीं कब क्या हो जाये !

“सीता!” मान लीजिये यही उनकी पत्नी का नाम है-“कल सुबह पांच-बीस वाली बस से घर चलेंगे, दोपहर तक पहुंच जायेंगे। इसी हिसाब से सारी तैयारी रखना।”

“क्या करेंगे घर चलकर! हर साल तो दिवाली सूखी निकलती ही है, इस बार वक्त़ पर तनखा़ मिली, तो घर के लिए बोरी-बिस्तर बांध लो। मैं पूछती हूं, सिवाय परेशानी के क्या मिलेगा वहां जाने से ? पांच-सात सौ से कम खऱ्च नहीं होगा।”

“अरे भई, तुम समझती क्यों नहीं हो ! बात पैसे की नहीं, भावना की होती है। त्योहार के मौक़े पर अपने बूढ़े मां-बाप के पास होना क्या कम है ?”

“नहीं, मैं नहीं जाऊंगी। जाना ही है, तो आप चले जाओ। आपको तो अपने मां-बाप के सिवाय किसी का ध्यान ही नहीं है। लेकिन मुझे तो घर का, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का, सबका ध्यान रखना है।”

“भाग्यवान्, सर्दी शुरू हो गई है। घर जाकर यह भी तो देखना है कि किसके पास कपड़े-बिस्तर हैं और किसके पास नहीं। जायेंगे, तो दोनों काम हो जायेंगे।”

“आप सोचते हैं, आप बनवायेंगे, तो ही कपड़े-लत्ते बनेंगे उनके लिए ! आपके और भी तो तीन भाई हैं, तीनों कमाते हैं। क्या उनको बिल्कुल ध्यान नहीं होगा अपने मां-बाप का, वे बनवा देंगे।”

खै़र, निष्कर्ष यह कि सीता घर जाने को बिल्कुल तैयार नहीं हुई। अकेले अयोध्या जाकर रामचन्द्र जी भी क्या करते ! उन्हें लगा, जैसे वनवास का एक वर्ष और बढ़ गया है। ‘काश, इस बार भी तनखा़ह समय पर न मिलती ! जेब खाली होने के कारण घर न जा पाने का कम-से-कम बहाना तो होता।` मन-ही-मन वह सोचते हैं।

मुक्ति
बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति के लिए, सर्वोदयी नेता, पुलिस की चौकसी में ट्रक लेकर, इंर्ट-भट्ठे पर पहुंच गये। उनके आह्वाहन पर सभी मज़दूर, तत्काल अपना सामान बांधकर, चलने को तैयार हो गये।
ट्रक के पास आकर, मज़दूरों के मुखिया के पैर, एकाएक ठिठक गये। उसने और उसके साथ सभी दूसरे मज़दूरों ने अपना-अपना सामान ज़मीन पर रख दिया।
“चलिये-चलिये, अपना-अपना सामान जल्दी से ट्रक में रखिये।” सर्वोदयी नेता ने कहा।
सभी मज़दूर मुखिया की ओर देखने लगे। वह चुप रहा।
“बुधराम, क्या बात है भई ! खा़मोश क्यों हो ? अपने साथियों को सामान रखने के लिए कहो न !”
मुखिया अब भी चुप था, जैसे कुछ सोच रहा हो। सर्वोदयी नेता ने समझा, ये पुलिस वालों से डर रहे हैं। अत: उनकी ओर संकेत करते हुए बोले-“ये सिपाही तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे। ये तो हमारे साथ हैं, तुम्हारी मुक्ति के लिए आये हैं।”
“सा`ब ! म्हां की किस्मत मैं तो यो ही लिख्यो है।” मुखिया बोला-“काल इपैं नाय, तो दूजा ओर भट्टा पै सही, एई मजूरी करनी पड़ैली।”
“क्….क्यों ?”
“ऐं भट्टा ली कैद सैं तो थे मुकत करा द्यो ला, पण भूख सैं मुकत कोण करावैलो सा`ब !”

खिलौने

हरिबाबू ने नज़र घुमाकर देखा, तो उन्हें अपने ड्राइंग-रूम की हर चीज़ बड़ी सस्ती और घटिया नज़र आई। ‘यह भी कोई ड्राइंग-रूम है ! सोचकर वह उदास से हो गये।
ड्राइंग-रूम तो धीर साहब का है, एकदम फस्स क्लास। कल जन्म-दिन की बधाई देने गये, तो देखते ही रह गये। क्या सोफ़े, रंगीन टी.वी., वी.सी.आर. और फ्रिज थे ! और क्या डेकोरेशन थी, वाह !!
और हां, शो-केस में कितने शो-पीस सजे थे, एक से बढ़कर एक, पीतल के, लकड़ी के, संगमरमर के ! एक रैक तो पूरे-का-पूरा खिलौनांे से भरा था और हर खिलौना कितना क़ीमती, खूबसूरत और चमचमाता हुआ लगता था।
क्षण-भर के लिए हरिबाबू कहीं खो गये थे कि तभी उनके चुन्नू-मुन्नू ‘पपा आ गये, पपा आ गये का शोर मचाते हुए अन्दर घुस आये। फिर उछलते-गाते-झूमते उन दोनों ने, पूरे ड्राइंग-रूम को, एक संगीतमय ताज़गी से तर कर दिया।
हरिबाबू के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान झलक आई। बस, फिर क्या था, दोनों बच्चे चढ़ बैठे उनके कंधों पर और लगे उछल-उछलकर खेलने।
अब पुन: निगाह डाली, तो हरिबाबू को अपनी सारी-की-सारी चीजें बदली हुई नज़र आईं।
‘धीर साहब के ड्राइंग-रूम में सब-कुछ तो है, लेकिन ऐसे सजीव खिलौने तो नहीं हैं।’ उन्होंने अपने-आपसे कहा और बच्चों को कसकर छाती से लगा लिया।

टॉलरेन्स

दिन में देखी ‘शहीद` फ़िल्म उसकी आंखों के सामने घूम रही है। भगतसिंह के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है… बऱ्फ की शिला पर लिटाया जाता है… चाबुकों से पीटा जाता है… गन्दा खाना दिया जाता है। फिर भी वह अपनी मां को पत्रा में लिखता है-“तुम किसी प्रकार की चिन्ता मत करना। यहां के लोगों का बर्ताव बहुत अच्छा है। जेलर बड़े मेहरबान हैं।”

“ग्रेट टॉलरेन्स !” उसके मुख से निकलता है। उसका मन भगतसिंह के प्रति श्रद्धा से भर जाता है। वह धीरे-से करवट बदलता है।

रील फिर चल पड़ी। उसकी पत्नी उसके बराबर सर्विस करती है। सुबह-शाम घर का काम करती है, वह अलग। बीमार भी रहती है। वह रोज़ शराब पीकर गई रात घर लौटता है। बात-बात पर तुनकता है, डांटता है, पीटता भी है। वह घर पत्रा लिखती है-“मेरी चिन्ता मन करना मम्मी ! ये बहुत ही अच्छे हैं। सच, इनके साथ रहकर बहुत खुश हूं मैं।”

‘गे्रट टॉलरेन्स !` उसके मुख से फिर निकलता है। उसका मन अपनी पत्नी के प्रति प्यार से भर आता है। वह फिर करवट बदलता है।

“ऐं !” वह अर्द्ध निद्रा में ही चौंकता है। पत्नी अभी तक उसके पैर दबा रही है। वह गुस्से से गुर्राता है-“कमबख्त़, अभी तक सोई नहीं ! आधी रात हो गई।”

और पत्नी को एक लात जमाकर, वह एक बार फिर करवट बदल लेता है।

डॉ. रामनिवास ‘ मानव’

७०६, सैक्टर-१३, हिसार-१२५००५ (हरियाणा)

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