1. थाईलैंड में समुद्र मंथन 2. नाथद्वाराः गोवर्धन यादव

समुद्र मंथन की कहानी मुझे बचपन में माँ ने कह सुनायी थी. उनके कहने का ढंग बडा रोचक होता था. जो भी वे बतलाती जाती,उसका काल्पनिक चित्र आँखों के सामने सजीव हो उठता था. उस कहानी में एक समुद्र था जिसका ओर-छोर दिखाई नहीं देता था,मथानी के रुप में मन्दरांचल पर्वत को उपयोग में लाया गया था और उस पर्वत से वासुकी नाग को नेति कि तरह लपेटकर खींचा गया था. मंथन से चौदह रत्न निकले थे जिसे देव और दानवों के मध्य बांट दिया गया था. बाद में किसी फ़िल्म में इसे रुपायित होते हुए देखने को मिला था. अपनी उम्र के सढसढवें पडाव पर मुझे तृतीय अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में एक प्रतिनिधी के रुप में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ .अपनी यात्रा के अन्तिम पडाव पर वहाँ से लौटते हुए थाईलैंड के हवाई अड्डे पर जिसका नाम संस्कृत में “सुवर्ण भूमि” रखा गया है, पर करीब बावन फ़ीट लंबी, तथा पंद्रह फ़ीट ऊँची प्रतिमा जो समुद्र मंथन को लेकर बनाई गई है, देखने को मिली. उसे देखते हुए मुझे आश्चर्य इस बात पर हो रहा था कि समुद्र मंथन की कहानी जो भारतीय मनीषा को लेकर लिखी गई थी,विदेशी धरती पर देखने को मिल रही है.इतिहास को खंगालने पर ज्ञात हुआ कि कभी भारत की सीमाएं ईरान,अफ़गान,सिंगापुर,मलेशिया,थाईलैंड जिसे श्यामभूमि के नाम से जाना जाता था,तक फ़ैली हुई थी. फ़िर व्यापार अथवा नौकरी करने के लिए जो भारतीय यहाँ पहुँचे,उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को स्थायी रुप देने के लिए इस प्रतिमा की स्थापना करवाई. उस आदमकद प्रतिमा को देखते हुए मुझे उस कविता की चार लाइनें यादे हो आयी जिसमें समुद्र मंथन से प्राप्त हुए उन चौदह रत्नों कि व्याख्या की गई है,इस प्रकार है. श्री, मणि/,रंभा/,वारुणि/अमीय/, शंख,/गजराज/धनवन्तरि/ धन/ ,धेनु,/शशि/,हलाहल,/बाज”/कल्पवृक्ष समुद्र मंथन में सबसे पहले “हलाहल”(जहर) निकला,जिसे न तो देव ग्रहण करना चाहते थे और न ही दानव. असमंजस की स्थिति देख, देवों के देव महादेव ने उसे स्वीकार करते हुए अपने कंठ में धारण कर लिया. जहर के गले में उतरते ही उनका कंठ नीला पड गया. इस तरह इनका एक नाम “नीलकंठ” पडा. दूसरे क्रम में”कामधेनु” गाय निकली,जिसे ऋषियों ने ले लिया. तीसरे क्रम में “उच्चैश्रैवा” नामक घोडा निकला,जिसे दानवों के राजा बलि ने रख लिया. चौथे क्रम पर “ ऎरावत” हाथी निकला,जिसेइंद्र ने अपने काननवन में भेज दिया. पांचवें क्रम में “कौस्तुभमणि” मणि निकला,जिसे भगवान विष्णु ने ग्रहण कर लिया. फ़िर छटे क्रम पर कल्पवृक्ष´निकला,जिसे इंद्र ने अपने उद्यान मे रौंप दिया. इसके बाद“रंभा” नामक अप्सरा निकली,जिसे भी इंद्र ने अपने दरबार में भेज दिया. इसके बाद “लक्ष्मी” का प्रकाट्य हुआ.जिसे भगवान विष्णु ने अपनी भार्या बना लिया. इसके बाद” वारुणि”( शराब )निकली,जिसे दानवों ने अपने कब्जे में कर लिया.इसके बाद “चन्द्रमा”जिसे देवों के देव महदेव ने अपनी जटा में धारण कर लिया. फ़िर” पारिजात” नामक एक वृक्ष निकला जिसे पुनः इंद्र ने अपने काननवन में लगा दिया. इसके बाद “शंख” निकला जिसे विष्णु ने अपने अधिकार में ले लिया.इसके बाद “ धन्वन्तरि” नामक वैद्ध निकले,जो देवों के चिकित्सक बने. सबसे अंत मे” अमृत” निकला. अमृत के निकलते ही देव और दानवों मे संग्राम छिड गया क्योंकि दोनों ही पक्ष इसे पीकर अमर हो जाना चाहते थे. जब मामला शांत होता दिखायी नहीं दिखायी दिया तो भगवान विष्णु ने “मोहिनी” का रुप धारण कर, प्राप्त अमृत को एक बडे पात्र में भर कर देव और दानवों से कहा कि वे पंक्तिबद्ध होकर बैठ जाएं, सभी को बारी-बारी से अमृतपान करवाया जाएगा. भगवान विष्णु जानते थे कि अगर अमृत दानवों को पिला दिया गया तो वे अमर हो जाएंगे और देवों को परेशान करते रहेगे. अतः चालाकी से उन्होने उस पात्र को दो हिस्सों में बांट दिया. एक में अमृत और दूसरे में मदिरा भर दी गई. जब देवों को अमृत पिलाते तो अमृत भरा हिस्सा देवों की तरफ़ कर देते. जब दानवों की बारी आती तो उसे पलट देते थे. दानव जानते थे कि विष्णु देवताओं का पक्ष लेकर उनके साथ छलावा करते रहे हैं. अतः एक दानव ने देवता का रुप धारण कर उस पंक्ति मे जा बैठा जहां देवगण बैठे हुए थे. विष्णु ने उसे देव समझकर जैसे ही अमृत के पात्र को उडेला,पास बैठे सूर्य और चन्द्रमा ने श्री विष्णु से शिकायत कर दी. पता लगते ही. विष्णु ने अपने चक्र से उसकी गर्दन उडा दी. तब तक तो काफ़ी देर हो चुकी थी. अमृत की कुछ बूंदे गले से नीचे उतर चुकी थी. गर्दन कटने के बाद भी वह दानव अमृत के प्रभाव से मर नहीं सका. दो टुकडॊं में बंटॆ दानव का एक हिस्सा राहू और दूसरा केतु कहलाया. हिन्दु मान्यता के अनुसार राहू और केतु बारी-बारी से सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसते है,इसी के कारण सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होता है,को बल मिलता है.
पौराणिक मान्यता के अनुसार ऋषि दुर्वासा के श्राप से सभी देगगण अपने राजा इंद्र सहित बलहीन हो गए थे. उस समय दानवों का राजा बलि हुआ करता था. शुक्राचार्य दानवों के गुरु थे. वे जब-तब राजा बलि को इंद्र के खिलाफ़ बरगलाते थे और वे देवों पर आक्रामण कर उनकी संपत्ति पर अपना अधिकार जमा लेते थे. घर से बेघर हुए देवताऒं ने अपने राजा इंद्र को अपनी व्यथा-कथा कह सुनायी,पर वह तो स्वयं निस्तेज था,मदद नहीं कर पाया. इस तरह सभी देवताओं ने ब्रह्मा को अपना दुखडा कह सुनाया. ब्रह्मा ने उन्हें श्री विष्णु के पास भिजवाया. विष्णु ने सारी बतें सुन चुकने के बाद समुद्र मंथन की योजना बनाई. वे जानते थे कि दानवों को बलहीन करने के लिए शक्ति चाहिए और वह समुद्रमंथन के जरिए ही हासिल की जा सकती है. उन्हीं की योजना के अनुसार उन्होंने वासुकि नाग को नेति,मन्दराचल पर्वत को मथानी और स्वयं कच्छप बनकर मथानी का आधार बनने का आश्वासन दिया. इस तरह समुद्र मंथन का अभियान चलाया गया और वहाँ से प्राप्त शक्तियों को अपने अधिकार में लेते हुए उन्होने दानवों को फ़िर एक बार पाताल की ओर लौटने पर मजबूर कर दिया था.
. थाईलैंड में बुद्ध धर्म अपने शिखर पर है. सभी बौद्ध मंदिरों में आपको भगवान बुद्ध की सोने से पालिश की गई भव्य प्रतिमाएं देखने को मिलती है. इसके साथ ही वहाँ हिन्दु धर्म का भी अच्छा खासा प्रभाव देखने को मिलता है. वहाँ एक से बढकर एक हिन्दु देवी-देवताओं के मंदिर हैं, धर्म के नाम पर यहाँ झगडा-फ़साद कभी नहीं होता और न ही कोई किसी पर जबरदस्ती अपना प्रभाव ही डालता है. हिन्दु-बौद्ध और मुस्लिम सभी पक्ष के लोग यहाँ बडे ही सौहार्दता के साथ अपना जीवन बसर करते हैं.
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नाथद्वारा (राजस्थान) में श्रीनाथजी के दिव्य दर्शन
झीलों की नगरी के नाम से जगप्रसिद्ध नगर उदयपुर से महज 58 किमी की दूरी पर स्थित नाथों के नाथ श्रीनाथजी का भव्य मन्दिर अवस्थित है जिसे बस द्वारा एक घण्टा बाईस मिनट की यात्रा करते हुए पहुँचा जा सकता है. 17वीं शताब्दी में बनास नदी के भव्य तट पर इस मन्दिर को श्रीभगवान का प्रवेश-द्वार भी कहा जाता है. उत्सवप्रिय प्रभु श्रीनाथजी नाथद्वारा में साक्षात विराजमान होकर भक्तों एवं गोस्वामी बालकों द्वारा नित्य सेवित है.. गर्गसंहिता में संग्रहित एक कथा के आधार पर श्रीनारदजी राजा बहुलाश्व को बतलाते हैं कि गिरिराजजी की गुफ़ा के मध्यभाग में श्रीहरि का स्वतःसिद्ध रूप प्रकट होगा. भगवान भारत के चार कोनों में क्रमशः जगन्नाथ, श्रीरंगनाथ, श्री द्वारकानाथ, और श्रीबदरीनाथजी के नाम से पसिद्ध हैं. नरेश्वर ! भारत के मध्यभाग में में भी वे गोवर्धननाथजी के नाम से विद्यमान हैं. इन सबका दर्शन करने से नर नारायण हो जाता है. नारदजी ने राजा बहुलाश्व को यह भी बतलाया कि जो विद्वत पुरुष इस भूतल पर चारों नाथों के यात्रा करके मध्यवर्ती देवदमन श्रीगोवर्धननाथजी के दर्शन नहीं करता, उसे यात्रा का फ़ल नहीं मिलता. जो गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथजी के दर्शन कर लेता है, उसे पृथ्वी पर चारों नाथों की यात्रा का फ़ल सहज में ही प्राप्त हो जाता है.
जनश्रुति के आधार पर सन 1410 में गोवर्धन पर्वत पर श्रीभगवानजी का बांया हाथ प्रकट हुआ, जो ऊपर उठा हुआ था, यह इस बात का प्रतीक था कि उन्होंने गोवर्धन पर्वत को अपनी ऊंगली पर उठा रखा है. फ़िर उनका मुख प्रकट हुआ. वल्लभाचार्यजी का जन्म 1479 को हुआ. इनके जन्म के पश्चात ही श्रीनाथजी की शेष आकृति प्रकट हुई. इस दिव्य-आकृति के साथ ही दो गायें,एक सर्प,एक सिंह,दो मोर भी प्रकट हुए. इन आकृतियों में एक तोते की भी आकृति थी,जो श्रीजी के मस्तक पर विराजमान था. यह वह समय था जब भारतवर्ष पर पूजा-पाठ विरोधी, मूर्ति-भंजक, कट्टरपंथी औरंगजेब शासन कर रहा था. उसकी सेना जिस ओर जाती मन्दिरों का विध्वंस करती और मूर्तियों को भग्न करती-फ़िरती. वैष्णव संप्रदाय के लोगों में इस बात को लेकर भय पैदा हो गया था कि किसी भी समय औरंगजेब की सेना का रुख इस ओर होगा और वे इस दिव्य श्री का विग्रह भंग कर देंगे. अतः वे इस बात को लेकर चिंतित थे कि श्रीजी को एक ऎसे स्थान पर ले जाकर स्थापित कर दें, जहाँ वे सुरक्षित रह सकें. भगवान श्रीकृष्णचंदजी ने सपने में दर्शन देते हुए बतलाया कि उनके श्रीविग्रह को बैलगाडी पर मेवाड की ओर रुख करें. उन्होंने यह भी बतलाया कि बैलगाडी जहाँ अपने आप रुक जाएगी, वहीं उन्हें स्थापित कर दिया जाए. इस तरह का संकेत प्रप्त होते ही श्रीविग्रह को एक बैलगाडी पर रखते हुए उसे पत्तों से ढंक दिया गया. ऎसी भी जनश्रुति है कि नटवरनागर ने अपनी भक्त मीराबाई को स्वंय चलकर मेवाड आने का वादा किया था. घसियार होते हुए गाडी आगे बढ रही थी कि अचानक बनास नदी पार करते हुए बैलगाडी कीचड में धंस गयी. काफ़ी प्रयास करने के बावजूद गाडी उस दलदल से नहीं निकल पायी. श्रीजी का आदेश भी था कि गाडी जहाँ से आगे न बढ पाये, उस स्थान पर उन्हें स्थापित कर दिया जाये. श्रीजी के आदेशानुसार मेवाड के तत्कालीन राजा राणा राजसिंहजी ने अपने महल में उन्हें स्थापित किया.
श्रीनाथद्वारा में श्रीजी की आठों पहर पूजा-अर्चना की जाती है,जिसमें मंगला, श्रृंगार,राजभोग, उत्थान,भोग,आरती और शयन आरती की जाती है.लाखों की संख्या में वैष्णव भक्त नित्य प्रति आकर आपके दिव्य दर्शन कर अपने आपको अहोभागी मानते हैं.
यों तो नाथद्वरा में श्रीनाथजी के मन्दिर में नित्य मनोरथ एवं उत्सव होते हैं,तथापि उनमें से कुछ उत्सवों के बारे में संक्षिप्त में जानकारी लेते चलें.
जन्माष्टमी—-यों तो जन्माष्टमी का पर्व संपूर्ण भारतवर्ष में हर्षोल्लास के मनाया जाता हैं.किंतु नाथद्वारा में बडॆ भारी आनन्द से यह उत्सव मनाया जाता है. इस दिन देश-विदेश से अनेक वैष्णभक्तों का यहाँ आगमन होता है. प्रातःकाल मंगला-दर्शन में प्रभु का पंचामृत होता है,बाद में श्रृंगार होता है. रात्रि में जागरणदर्शन होते हैं एवं मध्यरात्रि में जन्म का महोत्सव होता है. महाभोग में श्रीप्रभु को छप्पन भोग लगाया जाता है. जन्माष्टमी के दूसरे दिन पलना के दर्शन होते हैं. सोने के पलने में ठाकुरजी को झुलाया जाता है. भक्तगण ग्वाल-बाल के रूप में बनकर दूध, दही आदि अर्पणकरते हैं. अपार जनसमूह इस उत्सव का दर्शन कर कृतकृत्य होते हैं. इसी तरह राधाष्टमी ,नवरात्र०-उत्सव ,दशहरा, शरदपूर्णिमा, दीपावली ,मकरासंक्रान्ति, वसन्तपंचमी पर अनेकानेक उत्सव आयोजित किए जाते हैं. दीपावली में एकादशी से ही तिलकायत के श्रृंगार आरम्भ हो जाते हैं. धनतेरस को जरी के वस्त्रों द्वारा भारी श्रृंगार एवं रूपचौदस को ठाकुरजी का अभ्यंग होता है. राजभोग में सोने-चाँदी का बंगला होता है. दीपावली के दिन सफ़ेद जरी के वस्त्र एवं बहुत भारी श्रृंगार होता है. आज ही के दिन गोशाला से गायें नाथद्वारा में प्रवेश करती हैं. सायं “कान्ह जगाई” होती है एवं रतनचौक में नवनीत प्रभु विराजते हैं.
अन्नकूट नाथद्वारा का सबसे बडा उत्सव है. दोपहर में गोवर्धन-पूजा होती है. सायं अन्नकूट में देढ सौ मन चाँवल का ढेर लगाकर अन्नकूट(शिखर) बनाया जाता है. अनेकानेक प्रकार की सामग्री भोग में आती है. कार्तिक की शुक्ल द्वितीया , गोपाष्टमी पर विशेष श्रृंगार होता है. पौष कृष्णनवमी को श्रीगुसाईंजी का उत्सव मनाया जाता है. इस दिन जलेबी विशेष रुप से बनाई जाती है. इसे जलेबी-उत्सव भी कहते हैं. फ़ाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रीनाथजी नाथद्वारा में पाट पर विराजते हैं. इसी माह की पूर्णिमा को खूब गुलाल उडाई जाती है. चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को डॊलोत्सव का आयोजन होता है. तथा प्रतिपदा के दिन भगवान के पंचाग सुनाई जाती है. तृतीया को गणगौर का उत्सव तीन दिन चलता है. चैत्र शुक्ल नवमी को रामजन्मोत्सव मनाया जाता है. बैसाख कृश्ण एकादशी को श्रीमहाप्रभुजी का उत्सव होता है. आज ही के दिन महाप्रभुका प्राक्टय चम्पारण्य में हुआ था. वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन सन्ध्या आरती में शालग्रामजी को पंचामृत से स्नान कराया जाता है. ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को श्रीजी में नावका मनोरथ होता है. ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को ठाकुरजी को अभिषक करा कर सवा लाख आमों का भोग लगाया जाता है. आषाढ शुक्ल द्वित्तीया को रथयात्रा का आयोजन होता है. इस दिन भी सवा लाख आमका भोग लगाया जाता है. श्रवाणमास में पूरे माह मन्दिर में हिंडोला होते हैं. नित्य नूतन श्रृंगार होते हैं. विशेषकर हरियाली अमावस, ठकुराइन तीज, पवित्रा एकादशी एवं राखी का भारी उत्सव होता है. इस दिन श्रीजी को राखी बांधी जाती है. पुरुषोत्तममास में पूरे महिने तिथि के अनुसार साल भर सभी त्योहार बडी धूमधाम से मनाए जाते हैं.
सच है. जहाँ गिरिवरधारी, नटराज स्वयं उपस्थित हों, वहाँ उत्सवों के भव्यतम आयोजन न हो, ऎसा भला कभी हो सकता है. मैं स्वयं तो इन तमाम तरह के उत्सवों में भले ही शामिल नहीं हो पाया, लेकिन पाटोत्सव के समय मुझे श्रीनाथजी के दर्शनों का पुण्यलाभ जरुर मिला है. माह फ़रवरी २०१२ मे साहित्य-मण्डल् प्रेक्षागार में आयोजित कार्यक्रम में अन्य साहित्यिक मित्रों के साथ”हिन्दी भाषा भूषण” सम्मान से सम्मानीत किया गया था. तिबारा वहाँ जाना तो नहीं हो पाया,लेकिन मन-पाखी जब-तब श्रीचरणॊं के दर्शनार्थ जा पहुँचता है. उनके दिव्य दर्शन प्राप्त कर मन में परम सन्तोष की प्राप्ति मिलती है.

गोवर्धन यादव

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