किसी देश की संस्कृति, जीवनशैली, आचार-विचार, अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था आदि को समझना हो तो यात्रा से बढ़कर कुछ भी नहीं है। यूरोप के यात्री इस मामले में अग्रणी रहे हैं। वे दुनिया के तमाम देशों की यात्रा कर इसे समझने का प्रयत्न करते हैं तथा वृतांतों में भी इसे उद्धृत भी करते हैं। सेंट अगस्टिन आफ हिप्पो ने कहा है कि विश्व एक किताब है और यात्रा न करने वाले व्यक्ति इस किताब के सिर्फ पन्ने ही गिनते रह जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यदि आप यात्राएँ नहीं करते तो आपके पास सीमित मात्रा में ही ज्ञान होगा तथा दृष्टिकोण भी सीमित ही होगा। अट्ठारहवीं वीं सदी के पूर्वार्ध में यूरोपीय जहाजियों ने आस्ट्रेलिया महाद्वीप की खोज की थी और कालांतर में आस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया और यहां अंग्रेजों की नई परम्पराएं पुष्पित और पल्लवित हुई।
मुझे वेस्टर्न यूनिवर्सिटी पर्थ में अध्ययनरत मेरी भतीजी की उच्चशिक्षा के दीक्षांत समारोह में भाग लेने का मौका मिला। जिज्ञासु प्रवृति होने के कारण मैं अपने को रोक न सका। पर्थ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन के बाद यात्रियों के सामानों की पड़ताल हेतु यात्रियों को पंक्तिबध्द खड़ाकर एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा हम लोगों से पूछताछ की गई, यह देखा गया कि हमारे सामान में किसी तरह के बीज या खाद्य पदार्थ आदि तो नहीं है । हमारे द्वारा न कहने पर भी सामानों को बारी-बारी से एक कुत्ते से सुंघाया गया। एक यात्री के थैले के पास कुत्ता दुम हिलाते हुए खड़ा हो गया। उसे ऐसा करता देख पुलिस अधिकारी को अत्यंत प्रसन्नता हुई। वह उस कुत्ते को पुचकारते हुए उसे सहलाने लगी। उस यात्री के बैग खोलकर एक-एक सामान की गहन पड़ताल की जाने लगी। आस्ट्रेलिया में विदेशों से किसी तरह के भी पेड़ पौधे, बीज या खाद्य पदार्थ आदि ले जाना सख्त मना है, साथ ही वहां से भी किसी तरह के पेड़ पौधों के अंश, बीज तथा खाद्य पदार्थ बाहर ले जाना अपराध है। यद्यपि मुझे इसकी जानकारी नहीं थी, तथापि ये सब चीजें हमारे पास नहीं थी।
आस्ट्रेलियाई सरकार पर्यावरण को लेकर अत्यंत संवेदनशील है। इस देश का अधिकांश भाग अर्धशुष्क या मरूस्थल है।यहाँ मनुष्य के क्रियाकलापों तथा नई किस्म के पौधों के कारण जानवर खतरे में हैं। इसी कारण इस देश में राष्ट्रीय जैव विविधता कार्ययोजना के अंतर्गत विभिन्न सुरक्षा चक्र बनाये गए हैं।
शहर के मध्य कैथोलिकों का सेन्ट मैरी कैथेड्रल स्थित है। चर्च की भव्यता किसी यूरोपीय चर्च होने का एहसास कराती है। चर्च की पूजाविधि में भाग लेने वाले स्थानीय नागरिकों की अपेक्षा प्रवासियों की संख्या अधिक होती है, तदापि गोरों की संख्या पर्याप्त थी। चर्च के गाने, पूजा पद्धति को मैं काफी बारीकी से देखता रहा। कुछ नई चीजें भी थी, मसलन यहां चर्च में दो बार दान लिए जाते हैं। एक चर्च के लिए तथा दूसरा, संस्था के संचालन के लिए। एशियाई देशों के चर्चो में आमतौर पर ऐसा नहीं होता। विकसित देशों में आस्ट्रेलिया तुलनात्मक रूप से कम धार्मिक राष्ट्र है. आस्ट्रेलियाईयों के जीवन में धर्म की कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है, जैसा कि विभिन्न पश्चिमी देशों में होती है। यहां चर्चो में आराधना करने वाले सक्रिय रूप से भाग लेने वाले ईसाईयों की संख्या में काफी कमी आ गई है। चर्च की गायक मंडली हेतु यहां ड्रेसकोड निर्धारित है, साथ ही परमप्रसाद, पादरियों के अतिरिक्त स्थानीय विश्वासियों से भी बंटवाये जाते हैं। पूजाविधि के दौरान साक्रामेंट के समय याजककर्ता पादरी के आजू-बाजू दो आल्टर बॉय यानी दो वेदी सहायक मोमबत्तियां लेकर खड़े होते हैं, जबकि यूरोपीय तथा एशियाई देशों में ऐसी शैली प्रचलित नहीं है। वहां पर शहर के अस्पताल किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं लगते हैं। वहां प्रत्येक मकान में आग से बचाव हेतु फायर अलार्म सिस्टम लगे हुए हैं । थोड़ा भी धुआँ भर जाने पर ये अलार्म बज उठते हैं और कुछ ही देर में फायर ब्रिगेड का दस्ता हाजिर हो जाता है। सड़क के दोनों छोर पर बने मकानों तक पक्के फर्श होने के कारण यहां धूल और कीचड़ का प्रश्न ही नहीं उठता है। वहां इतने बड़े शहर में एक भी खुली नाली नहीं दिखी, सभी नालियां भूमिगत हैं।
पैदल यात्रियों को सड़क पार कराना यहां की प्राथमिकता में शामिल है। जेब्रा क्रासिंग के पास लगे खंभे के बटन को दबाने मात्र से बत्ती जल उठती है तथा पैदल यात्रियों के लिए गाड़ी रूक जाती है। किसी पैदल यात्री को वाहन की हलकी सी ठोकर लगने की दशा में भी भारी-भरकम जुर्माने को देखकर ही आदमी के होश फाख्ता हो जाना लाजमीं है. यहाँ इस के लिए होने वाला जुर्माना लगभग दस लाख भारतीय रूपये मूल्य के बराबर है। यहां की यातायात व्यवस्था देखने लायक है। मुख्य मार्गो में चलना हो तो एक सौ दस किलोमीटर प्रतिघंटा तथा शहर के मध्य चालीस किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से चलना यहां का नियम है। ओवरटेक करने के लिए भी एक निश्चित स्थान बने हुए हैं। यहाँ पर यातायात के नियम इतने कड़े हैं कि दुर्घटना होने की संभावना लगभग नगण्य ही होती है। शहर में कई बस चालक महिलाएं ही है. यहाँ पर बसों तथा स्थानीय रेलों में सफर के दौरान ली गई टिकट में यात्रा हेतु समय निर्धारित होता है। इस निर्धारित समय में एक ही टिकट से बस या ट्रेन किसी में भी यात्रा की जा सकती है। यहाँ शहर भ्रमण हेतु टिकट निःशुल्क है, परंतु उपनगरीय क्षेत्रों में शुल्क अदा करना होता है। यहाँ प्रत्येक बस स्टॉप पर खम्भे गड़े हुए हैं, जिसमें प्रत्येक मार्ग के बसों की समय-सारिणी अंकित की गई है।
यहां के विश्वविद्यालयों में अधिकांशतः विदेशी छात्र ही मिलेंगे। यहाँ भारतीय छात्रों की संख्या भी अच्छी-खासी तादाद में है। आस्ट्रेलिया आने वाले कई छात्र ऐसे होते हैं, जो अपने घर के सुरक्षित महौल से पहली बार बाहर निकले हुए होते हैं। एक नई संस्कृति से वे पूरी तरह अनभिज्ञ होते हैं, जिससे उनके लिए सांस्कृतिक खतरा और बढ़ जाता है। दक्षिण एशिया के छात्र विश्वविद्यालयों में होने वाली घटनाओं को कम ही संज्ञान में लाते हैं।
दीक्षांत समारोह के उपरांत सभी छात्र-छात्राओं और उनके परिजनों को शैम्पेन परोसा गया, इस तरह की संस्कृति एशियाई लोगों के लिए नयी ही है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्थानीय विद्यार्थियों की संख्या बमुश्किल एक से दो प्रतिशत के बीच ही होगी। इसका कारण साफ है कि अधिकांश आस्ट्रेलियाई युवक-युवतियां युवा होते ही किसी न किसी कार्य में लग जाते हैं। स्थानीय लोगों को रोजगार के अत्याधिक अवसर प्राप्त होने के कारण उन्हें भविष्य की चिंता नहीं रहती है और वे यायावरी जिंदगी जीने के आदी हो चुके होते हैं। अधिकांश आस्ट्रेलियाई दम्पत्ति अपने संतानों से मकान का किराया लेते हैं, जो कि एक भारतीय के लिए आश्चर्य के साथ-साथ पीड़ाजनक भी हो सकती है, परन्तु यह यहां की संस्कृति है। इन कारणों से बच्चे युवावस्था से ही आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होने का पाठ सीख लेते हैं।
यूरोपीय, आस्ट्रेलियाई तथा अमेरिकी युवाओं में बैग-पैक की संस्कृति देखी जाती है, जबकि अन्य देशों के युवाओं में इसका सर्वथा अभाव है। बैक-पैक संस्कृति से आशय कम खर्चे में, होटल में होने वाले व्यय से बचने के लिए एक छोटे बैग को पीठ पर लादकर दुनिया का भ्रमण करते रहना है। आमतौर पर इन्हें बैक-पैकर्स के नाम से जाना जाता है। होटलों के स्थान पर बैक पैकर्स हेतु बने सामुदायिक भवनों में किसी तरह रात्रि विश्राम कर कम से कम खर्चे पर विभिन्न देशों के ज्यादा से ज्यादा स्थानों का भ्रमण करना ही इनका ध्येय होता है। और यही एक कारण है कि यूरोपीय लोगों ने इसी प्रवृत्ति के कारण दुनिया के विभिन्न भागों को ढूंढ निकाला। ऐसे सैलानी ज्यादा पैसे खर्च नहीं करते, सस्ते होटलों में ठहरते हैं, अपना बैग खुद उठाते हैं, सार्वजनिक परिवहन में सफर करते हैं और किसी गाईड की सेवायें भी नहीं लेते हैं। एक आम हिन्दुस्तानी इतना जोखिम उठाना कभी पसंद नहीं करता है, परन्तु हमारे देश से आस्ट्रेलिया में पहली बार अध्ययन के लिए आए कुछ युवा पैसे बचाने के फेर में और छात्रावास में रहने की व्यवस्था होने तक शुरूआती दौर में बैक-पैकर्स होम में ही रहते हैं।
हिन्द महासागर तथा प्रशांत महासागर से घिरा हुआ होने के कारण समुद्री किनारों में बहुत तेज हवाएं चलती रहती हैं, फलस्वरूप इन भू-भागों के वृक्ष पूरी तरह एक ओर झुक गए हैं, समुद्री तेज हवाओं के कारण वृक्षों की लंबाई कम हो गई है साथ ही जंगलों के बीच-बीच में छोटे बड़े तालाब ’साल्टलेक’ विकसित हो गए हैं, जिनमें नमक की अत्यधिक मात्रा होने के कारण जंगलों के अधिकांश वृक्ष सूखे हैं, इससे इनमे आग लगने का खतरा भी हमेशा ही बना रहता है। इन जंगलों की मक्खियों के बारे में तो कहना ही क्या है, एक बार पीछे पड़े तो इससे पीछा छुड़ाना मुश्किल है. इसके अलावा आस्ट्रेलिया के जंगलों में दुनिया के सबसे विषैले सांपो से डसे जाने का भय अलग से होता है। यहां के कौवे भी अजीब हैं। हिन्दुस्तानी कौओं से विपरीत, रंग में कुछ हल्का कालापन लिए हुए और लगभग एकाकी रहने के आदी। यहाँ के कौवे कांव-कांव नहीं करते, बल्कि किसी बच्चे के कराहने की तरह की आवाजें निकालते हैं। किसी अजनबी को भ्रम भी हो सकता है। सच कहूं तो ऐसी आवाजें सुनकर बड़ी खीझ होने लगती है। इससे अच्छे तो हमारे हिन्दुस्तानी कौवे बड़े भले लगे। कम से कम इतनी दर्दभरी कराह तो नही निकालते हैं और झुंड में रहकर सह अस्तित्व का बोध तो कराते हैं।
आस्ट्रेलिया में पक्षियों को दाना चुगाना भी अपराध है। इसकी सजा लगभग छह माह का कारावास है। हम भारतीयों के लिए ये भी एक अजूबे से कम नहीं है। हमारी भारतीय परम्परा और संस्कृति के अनुसार पशु-पक्षियों को दाने डालना पुण्य के काम के साथ-साथ स्वर्ग प्राप्ति का एक साधन बताया गया है। जानकरी लेने पर बताया गया कि जंगली जीव जन्तुओं को दाना डालने से उनमें भोजन ढूंढने की स्वाभाविक प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है तथा वे मानव पर आश्रित रहने लग पड़ते हैं। आस्ट्रेलियाई कंगारू भी लगभग चौदह प्रजातियों में बंटे हुए हैं। यह जानकारी भी हमारे लिए नयी थी। कुछ कंगारूओं की प्रजातियाँ तो ताउम्र पेड़ों पर ही रहती हैं, कुछ छोटी प्रजाति की तथा कुछ लगभग हल्के लाल रंग की भी होती हैं। बंदर की कुछ प्रजातियां भी यहाँ पायी जाती हैं जो कि आकार में एक भारतीय चूहे से बड़े नहीं होते।
इस देश के बस स्टैण्ड को ’’बस पोर्ट’’ कहा जाता है। यहां के बस पोर्ट किसी अंतर राष्ट्रीय हवाई-अड्डे से कम नहीं लगते । यहाँ सारी सुविधा व प्रणाली हवाई अड्डे जैसी ही है। वहां पर डिस्प्ले में आने-जाने वाली गाड़ियों की वर्तमान स्थिति दर्शित होने के साथ-साथ, किस मार्ग की बसें किस द्वार से प्रस्थान करेंगी, ये सारी चीजें यहीं देखने को मिलीं। भारतीयों के लिए ऐसी व्यवस्था एक सपने से कम नहीं है। सूट-टाई लगाकर बस चलाने वाली ये महिलायें किसी परी व व्योमबाला से कम नहीं लगती हैं। बस चालक को धन्यवाद कहना यहां की संस्कृति का हिस्सा है। ऐसा न करना अशिष्टता मानी जाती है। कमोबेश आस्ट्रेलियन मित्रवत व्यवहार करते हैं, जबकि अधिकांश यूरोपीय अंग्रेजी भाषा की जानकारी नहीं रखते हैं और वे एशियाई लोगों से एक निश्चित दूरी बनाये रखना पसंद करते हैं।
श्रम की महत्ता भी यहीं देखने को मिली। फील्ड वर्कर को ब्लू कलर तथा आफिस में काम करने वाले वर्कर को व्हाईट कलर के नाम से जाना जाता है। चाहे मजदूर हो या इंजीनियर, यदि वह फील्ड वर्कर है तो दोनों के लिए समान ड्रेस कोड निर्धारित है। छात्रों को पार्ट-टाईम जॉब हेतु प्रति सप्ताह केवल बीस घंटे कार्य करने की अनुमति है, जबकि पूर्ण कालिक कार्य करने वाले को अधिकतम चालीस घंटे की। यहां अध्ययनरत भारतीय छात्र परमानेंट रेसिडेंट प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए लगातार कोशिश करते रहते हैं। परमानेंट रेसिडेंट प्रमाण पत्र प्राप्त करना यहाँ नौकरी पाने की पहली सीढ़ी है तथा इन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। ’’पी.आर.’’ यानी परमानेंट रेसिडेंट के छ वर्षों पश्चात् नागरिकता प्राप्त होती है। इस तरह पी.आर., नागरिकता प्राप्ति का पहला चरण होता है। भारतीय पासपोर्ट धारक को यदि यहाँ की नागरिकता मिल जाती है तो वह अपने मूल देश में कृषि भूमि क्रय नहीं कर सकता। कुछ एशियाई, जिसमें भारतीय छात्र भी शामिल हैं, नागरिकता प्राप्त करने के लिए यहाँ की बालाओं से ब्याह भी रचा लेते हैं, परन्तु ऐसे मामलों में आस्ट्रेलियाई सरकार चैकन्नी रहती है। कई उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय छात्रों को मैंने, भिन्न-भिन्न प्रतिष्ठानों में कार्य करते देखा। हमारे देश में तो अब भी जातिगत आधारित व्यवसाय ही है तथा हर कार्य को छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे, और प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाता है, जबकि इस देश में किसी तरह का भी काम मिल जाना एक सौभाग्य की बात होती है। श्रम के प्रति आदरभाव हमारे देश में नहीं है। इस तरह की संस्कृति और सोच का ही दुष्परिणाम है कि भारतीय समाज में आर्थिक व सामाजिक समस्या व भेद सदियों से यथावत है। दरअसल, इस तरह की जड़ें हमारी सामाजिक परम्पराओं में छुपी हुई हैं। वहां एक टैक्सी चालक, एक मजदूर, इंजिनियर, या डॉक्टर के पारिश्रमिक में ज्यादा अंतर नहीं है।
शहर के मध्य में इलेजाबेथ क्यू है जहाँ बेल टावर स्थित है। लंदन के बिगबेन की तर्ज पर पर्थ का बेल टावर आस्ट्रेलियाई लोगों के लिए एक गर्व का विषय है। यह इलाका अपनी खूबसूरती तथा ऊंची-ऊॅची अट्टालिकाओं के कारण दर्शनीय है। स्वान नदी के किनारे बसा यह इलाका सैलानियों के लिए आर्कषण का केन्द्र है। बेल टावर के बाजू में दक्षिण भारतीयों द्वारा संचालित अन्ना लक्ष्मी रेस्टोरेंट है, जहां भोजन निःशुल्क उपलब्ध होता है। लोग यहाँ स्वेच्छा से दान करते हैं और यह मात्र दान से ही संचालित किया जा रहा है। जानकारी प्राप्त हुई कि इसकी स्थापना एक दक्षिण भारतीय स्वामी जी ने की थी। इतने मंहगे शहर में जहाँ जीवन यापन करना कठिन हो, वहां मात्र दान से ही इतना बड़ा रेस्टारेंट चलाना कोई हंसी-खेल नहीं है । नए भारतीय छात्र शुरूआती दौर में यहीं भोजन करने को आते हैं। भारतीयों की तादाद काफी संख्या में होने के बावजूद इस शहर में भारतीय अपनी क्षेत्रीयता, विविधता, विभाजककारी तत्व अपने साथ अभी भी लिए हुए हैं, मसलन यहाँ दक्षिण भारतीयों ने अपने लिए अलग सामुदायिक भवन तो गुजरातियों ने गुजरती भवन बना लिए हैं। इस तरह की परम्पराएँ, क्रियाएं व विभिन्नतावादी सोच एक तरह के विखण्डनकारी तत्व से कम नहीं है। हम हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता व विश्वगुरू होने का दावा भले करते रहें, अपनी लचर व्यवस्था व राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण मानवीय विकास के विभिन्न आयामों में यूरोपीय देशों तथा आस्ट्रेलिया से सैकड़ों वर्ष पीछे रह गए हैं। यह एक कटु सत्य है, कि इन्हीं कारणों से विकसित देशों में अध्ययनरत् अधिकांश भारतीय छात्र अपने देश वापस लौटना नहीं चाहते हैं।
विनय प्रकाश तिर्की
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