क्लिक : अनिता रश्मि
कई स्थानों पर घूमते हुए एक बात बारंबार मन-दिमाग की जमीन पर लहलहाती है कि हमारा देश अप्रतिम खूबसूरती से भरा है। अधिकांश इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य वर्णनातीत हैं। हिमाच्छन्न, भारत के मुकुट, पर्वतराज हिमालय की तो बात ही निराली।
कुछ वर्षों पूर्व देवभूमि हिमाचल प्रदेश के मणिकर्ण, शिमला, मनाली, रोहतांग दर्रा जाने का अवसर मिला था। शिमला भ्रमण की मनमोहक यादों के बीच रोहतांग दर्रे की सैर एक अज़ब से लोक के दर्शन की अनुभूति से लैश।
हमने दिल्ली से शिमला तक तो हवाई यात्रा की थी। लेकिन शिमला से मनाली की मनोरम राह पर कार से चले। कुल्लू से भी जीप या कार से जाया जा सकता है। साथ चलती रही जीवनदायी नदी विपासा… व्यास नदी। आंकी-बांकी चलती हुई हरित तटिनी कहीं खूब नीचे घाटी में, तो कहीं बगल में पुरज़ोर कशिश के साथ बढ़ती रही…अघाई अजगरी सी।
मनाली में विपाशा तट के पास स्थित स्टेट बैंक के हाॅली डे होम में हमने रात बिताई।
रोहतांग दर्रा
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यहाँ की बेहद खूबसूरत जगह रोहतांग दर्रा, जिसका प्राचीन नाम ‘ भृगु-तुंग ‘ है, को देखने की इच्छा संजोए हम एकदम भोर में निकल पड़े। साथ में व्यास सरिता चल रही थी। हमारी मंजिल इसी व्यास का उद्गम स्थल था, जो रोहतांग दर्रे में स्थित था। सुबह-सुबह निकल पड़ने की हिदायत पहले ही गाँठ बाँध ली थी क्योंकि लाहौल स्पीति जानेवाला यह मार्ग दुपहरिया में जाम हो जाता है। दोपहर तक लौटना होता है। यह रास्ता प्रत्येक वर्ष मई के प्रथम सप्ताह में खुलता है। अतः मई-जून से अक्टूबर तक ही देवभूमि की सैर श्रेयस्कर! अन्यथा रोहतांग देखना असंभव।
हम आगे बढ़े तो देखा, खूबसूरत रास्ते पर कई पंक्तिबद्ध गाड़ियाँ हमारे साथ संगिनी की तरह चल रही थीं। चारों ओर हरे-भरे, श्वेत,भरे-पूरे नग। सूर्य की स्वर्णिम किरणों से नहाए ऊँचे-ऊँचे पहाड़…स्वर्णाभ !… अद्भुत ! नयनाभिराम!
उनके आगोश में बनी राह पर एक तरफ दूर से खिलखिलाती व्यास तटिनी। नीचे, और नीचे छूटती हुई घाटियों में नज़र आ रही थी। धूप शिखरों पर सुस्ताती हुई, फिर हौले से आगे बढ़ जाती हुई बेहद भली लग रही थी।
थोड़ी ऊँचाई पर जाते ही गाड़ी एक छोटी सी दुकान के पार्श्व में रूकी। स्थानीय पोशाक पट्टू, गले में मोटे सिक्कड़ और स्थानीय गहने धारण की हुई दो महिलाएँ उस दुकान में अपनी सेवा दे रही थी। दोनों ने बड़ी तत्परता से हम तीन यात्रियों को कोर्ट, पैंट-जैकेट और फूलबूट पहनाकर हिम से लड़ने को पूर्णतः तैयार कर दिया।
वे तथा उन जैसी कई स्त्रियाँ भर दिन अपने खेतों-घरों में खटतीं हैं, मटर, आलू उपजाती हैं। सुबह-दोपहर दुकानों पर बैठ यायावरों को सर्द हवाओं, बर्फ से बचाने का उपाय थमाती हैं।
मैंने कैमरा सँभाला और फटाफट दो-चार तस्वीरें कैद! कल से रास्ते भर जो स्थानीय पोशाक में सजी महिलाओं की तलाश थी, यहाँ आज पूरी हुई। फिर हम आगे बढ़ते रहे। सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे गाड़ी चलाते स्थानीय ड्राइवर से मैं लगातार प्रश्न पूछ अपनी जिज्ञासा को शांत कर रही थी।
ओम प्रकाश जी ने चुप रहने का इशारा किया। फिर फुसफुसाहट,
– मत बात करो। एकाग्र होकर गाड़ी चलाने दो। गाड़ी फिसल रही है।
काँच सा पारदर्शी तुषार….वन वे और संकरे घुमावदार रास्ते के दूसरी ओर हजारों फीट की श्मशानी गहराई! पूरा रास्ता जैसे काँच से निर्मित, काँच पर फिसलती गाड़ी। सच में, वहाँ गाड़ी चलाना पहाड़ के स्थानीय दक्ष ड्राइवरों के वश की ही बात थी। मैं चुपचाप आस-पास को आत्मसात करती हुई मगन हो गई।
सँकरी सड़क के पार झरने भी दिखे…बर्फीले झरने ! कहीं जमे हुए, कहीं आधा पिघले।
थोड़ी देर में दोनों ओर से श्वेताभ तुषार की मोटी, गठीली दीवारों के बीच से हम आगे बढ़ रहे थे… जैसे बर्फ की सुरंग लेकिन छतरहित।
उसको पार करते ही बाईं ओर बर्फ का जमा समंदर!… ये मोटी परत! रोहतांग दर्रा का विशाल हिमखंड सामने! उस पर स्लेज गाड़ियाँ दौड़तीं हुईं।
पर्वत का एक हिस्सा काट कर पार्किंग स्थल बनाया गया था। वहीं हमारी भी गाड़ी गाड़ियों की भीड़ का हिस्सा बन गई।
इतना तुषार तो गुलमर्ग में देखा था। यहाँ कल्पना नहीं की थी। चारों ओर तुषाराच्छादित उत्तुंग शिखर! दूर से झाँकते हुए पर मन के कितने निकट! स्लेज गाड़ियाँ यात्रियों को अपनी गोद में थामे गहरे बर्फीले गड्ढे को पारकर आगे पहुँचाकर लौट जा रही थीं।
दिवाकर सिर पर और ठंडी हवा हड्डियों को दहलाती हुई। एक भी दुकान खुली नहीं थी। चाय की गर्मी की शिद्दत से चाह!
हम पैदल ही घूमने निकल पड़े। बर्फ पर खेलते, नाचते, स्लेज गाड़ी पर फिसलते, अश्वारोहण करते सैलानियों की अथाह लहर उस अथाह हिम के रत्नाकर पर। सामने ही हिम से बना एक बैरक सा नज़र आया। बर्फीले बैरक के पास लाहौल स्पीति की ओर पैदल बढ़नेवाला चरवाहा भी। अपने भेड़ों के साथ सुस्ताता हुआ। काफी कम वस्त्रों में उत्साह से लब़रेज़! हिम पर बैठा निर्द्वद्व! लाहौल स्पीति, लेह की बेतरह ठंड से बचने के लिए सर्दियों में नीचे कहीं रह लेते हैं ये फिर इन दिनों वापस अपने आशियाने की ओर।
घर वापसी की ख़ुशी उसके चेहरे को उद्भासित कर रही थी। सर्दियों में हिमानी, बेहद ठंडी जगहों से भागकर अन्यत्र शरण लेनेवाले सारे चरवाहे अपने रेवड़ों के संग इस समय अपने घरों की ओर लौटते हैं।
थोड़ी देर में दुकान की अँगीठी जली और उसने, हमने चाय पीकर ठंड को ठेंगा दिखाने का भ्रम पाला।
व्यास सरि का उद्गम स्थल
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आगे बढ़ते ही देखा, सामने बर्फीली गुफा। व्यास सरिता का उद्गम स्थल!…. महाभारत ग्रंथ के रचयिता वेद व्यास मुनि की तपःस्थली!
यहीं व्यास ऋषि तपस्या किया करते थे। यह जगह एक मंदिर के रूप में पूजित होती हैं। मंदिर के अंदर ही अमृत सम जल का कुंड! महाभारत काल से पूर्व व्यास नदी ‘ अर्जीकी ‘ नाम से सुविख्यात थी। कुछेक जगहों से जल धाराएँ निकलकर 10 कि. मी. दूर पलाचन गाँव में मिलकर हहराती व्यास नदी बनाती है। 460 कि. मी. लंबी सरिता (जो आगे अरब सागर में खुद को विलीन कर देती है, ) का उद्गम स्थल देखने की उत्सुकता चरम पर। हमने
अंदर जाकर थोड़ी देर समय बिताया।
बाहर आते ही साहित्यकार डाॅ. माधुरी नाथ दी से मुलाकात हो गई। वे सपरिवार वहाँ आई थीं। राँची की महिलाओं की प्रसिद्ध साहित्यिक संस्था ‘ सुरभि ‘ की सदस्या। बहुत खुश हो गईं। दूसरी जगहों पर परिचित का दर्शन कितनी प्रसन्नता उड़ेल देता है, यह उनकी बातों से छलका पड़ रहा था। प्रसन्नता इधर भी बेहद।
घोड़ों पर सवार होकर हम चन्द्रभागा नदी की ओर बढ़े। बर्फ के समंदर पर घोटक दौड़ रहे थे। जमी हुई चन्द्रभागा नदी के पास घोड़ेवाले ने रास पकड़ रोक लिया।
– इससे आगे नहीं जा सकते।
– क्यों ?
– यहाँ से दूसरा इलाका शुरु हो जाता है। उधर जाना मना है।
उसने यह भी बताया कि इस तरफ़ से भी पैदल लाहौल स्पीति जाते हैं लोग। भेड़वाला याद आ गया। इसी चन्द्रभागा से ही उनकी राह घर की ओर।
लोक रंग
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चन्द्रभागा सरि दो नदियों के मिलन से बनी नदी है। चन्द्रमा की पुत्री चन्द्र और सूर्य पुत्र भागा! दोनों एक-दूसरे के प्रेम में पागल!
विरोध का स्वर ऊँचा हुआ, तो दोनों ने भागकर ब्याह रचा लिया। दोनों के पावन मिलन से बन गई नवीन नदी…चन्द्रभागा!
सर्दियों में तुषार धवल कठोर धरा बन जाती है यह सरि। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि यह कल-कल, छल-छल बहती नदी होगी, अन्य ग्लेशियरों की मानिंद।
हर जगहों की लोककथाओं में खुलता है प्रकृति का अनजाना, अद्भुत किस्सा। इन किस्सों में प्रकृति का हर उपादान गुँथा रहता है, यह बात खिस्से-कहानियों के देशवाले हम झारखण्डी कैसे नहीं समझते। प्राकृतिक उपादानों से रची-बसी विपुल लोककथाएँ यहाँ झारखण्ड में करवटें लेती रही हैं।
बहुत देर तक उसे देखते रहने का आन्नद लिया। ग़ज़ब! इतना सौंदर्य! हर ओर से हिम से घिरा हिमालय झाँक रहा था और पर्यटकों को लुभा रहा था।
यहाँ के बारे में एक और कथा प्रचलित है –
पहले कुल्लू एवं लाहौल स्पीति अलग थे। दोनों के बीच कोई संपर्क नहीं। लोगों की भक्ति और प्रार्थना से पिघलकर उनके इष्ट देव महादेव ने उन्हें जोड़ने के लिए अपने त्रिशूल से भृगु-तुंग पर्वत को काटकर यह भृगु-तुंग ( रोहतांग दर्रा ) मार्ग बनाया था, जहाँ से अब लेह जाना भी आसान हो गया है।
पर्यटकों के लिए एक पहाड़ीनुमा स्थल पर रस्सी के सहारे तुषार पर ऊपरी चोटी से फिसलते हुए नीचे आने की व्यवस्था। टायरों पर बैठ बर्फ की फिसलपट्टी का खूब आन्नद ले रहे थे बच्चे, किशोर।
यायावरों की हँसी-किलकारी, खिलखिलाहट जवां थी लेकिन बर्फ कराहने लगी थी। थोड़ी देर में ही दुग्ध धवल धरित्री लोगों के बूटों, नालभरे खुरों, स्लेज गाड़ियों एवं दौड़ते-भागते बच्चों के पाँवों से रौंदे जाने के कारण धूसर रंग में परिवर्तित हो गई।
हिमालय की श्रृखंलाओं का विहंगम दृश्य आँखों में भरकर दोपहर को सब वापस लौट रहे थे। जिन लोगों ने स्लेज गाड़ियों से इस पार पहुँचाया था, वही वापसी के साथी। आस-पास के गाँवों-बस्तियों से आकर इन लोगों के साथ घोड़ेवाले, दुकानदार, बाजार सजानेवाले दोपहर तक अपनी सेवाएँ देते हैं। धूप खूब खिलकर गर्मी पैदा कर रही थी।
ऊपर 13, 050 की ऊँचाई पर भी भुट्टों का संसार सजाए स्थानीय लोग बैठे थे। पूरा बाजार सज चुका था, जो थोड़ी देर बाद ही उजड़ जानेवाला था। फिर खेत-खलिहान का कार्य।
अभी हम अपनी गाड़ी पर बैठ ही रहे थे कि दो घोड़ियों का रास थामे एक खूबसूरत महिला नज़र आई। जब तक कैमरा सँभालती, वह अश्वों को खींचती हुई खड़ी, तीखी, भयावह चढ़ाई से ढलान में उतरती गुम हो गई। कैमरे को फोकस करते-करते क्षण भर में गायब! हम गाड़ी से जब तक नीचेवाली सड़क तक आए, वह गधे के सिर का सींग बन चुकी थी। पहाड़ सब में हिम्मत भरने के साथ फुर्ती भी भरता है।
राह में एक जगह ग्लाइडर का आन्नद लेते लोग मिले।
रास्ते में एक अन्य जगह हम रुके, जहाँ उफनती विपाशा तटिनी के हरे जल के पार्श्व में दुकानों की भरी-पूरी दुनिया!
वहीं हमने दोपहर का भोजन लिया और नीले-हरे जल को एक-दूसरे पर उछाल वहाँ की स्वच्छता की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सके। इस कोण से मेरे नगपति, मेरे विशाल काफी आकर्षक नज़र आते हैं।
पर इतना मुग्ध करनेवाला भारत का मुकुट, पर्वतराज यहाँ के ‘ मेहनतकश बादशाहों, बेगमों को ‘ (मधु कांकरिया के शब्द, साभार) भयंकर कड़कड़ाती ठंड में कितना तंग भी करता है। लगा, हम सबको कठिन जीवन जीनेवाले इसके वाशिंदों के प्रति अधिक उदार होने की आवश्यकता है।
तट पर बैठ एक अज़ब से आसक्ति और वैराग्य की दुनिया में डूबती-उतराती रही। किसी भी पर्वतीय स्वच्छ नीलाभ हिम शीतल सरि के तट पर घंटों बिताया जा सकता है…नई ऊर्जा से लब़रेज़ होकर। रूह तक सुकून लेकिन वाशिंदों की अथक- अकथ मेहनत दिल को छू जाती है।
शाम ढले हम मनाली के माल रोड पर थे। व्यास नदी के ऊपर बने पुल पर चढ़कर नीचे नदी की खूबसूरती को देखते हुए उसकी खोज करनेवाले व्यास मुनि के प्रति नतमस्तक भी हो जा रहे थे। आख़िर हम व्यास की तपःस्थली तथा व्यास नदी के उद्गम स्थल से लौटे थे।
अनिता रश्मि
संपर्क – 1 सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, पूर्णिमा काॅम्पलेक्स के पास, कुसई, राँची, झारखण्ड 834002
ईमेल – anitarashmi2@gmail.com