तीन अविस्मरणीय हवाई हादसेः शैल अग्रवाल

यात्राओं में गन्तव्य जितना महत्वपूर्ण होता है उतना ही वहाँ तक पहुंचने का सफर भी। कभी रम्य और रोचक तो कभी अकल्पनीय मुश्किलों भरा हुआ और कभी-कभी तो अविस्मरणीय रूप से खतरनाक तक। असल में देखा जाए तो यही तो हैं यात्रा-पथ के फूल और शूल, जिनसे रूबरू और रोमांचित होने की संभावना पलपल उठती रहती है। यात्राओं में कब कैसा जोखिम उठाना पड़ जाए, अकस्मात कब किस मुश्किल का सामना करना पड़ जाए कहना मुश्किल ही रहता है। हवाई और पानी के जहाज और रेल यात्राएँ सभी शामिल हैं इसमें…। तेज रफ्तार से दौड़ती कार के पहिए का फटना और नाव का उलटना, पानी के जहाज का खतरनाक मौसम में फंसना, चलती ट्रेन से कूदने की मजबूरी, जहाज के पिछले पहियों में उड़ान पट्टी से उड़ते ही आग लग जाना-ऐसी ही कुछ मुश्किल यादें हैं जो आज भी भुलाए नहीं भूलतीं, राह की काई और फिसलन कहकर कितना ही क्यों न भूलना चाहा हो मैंने इन्हें ! कुछ ऐसी ही आकस्मिक यादें कलम की नोक पर आ बैठी हैं और मुक्त होने को फड़फड़ा रही हैं। समय बदल चुका है, बचपन में जहाँ अधिकांश यात्राएँ, रेल या कार से हुआ करती थीं अब अनगिनित हवाई यात्राएँ भी जुड़ चुकी हैं , पानी के जहाज जुड़ चुके हैं। जिनसे यूँ चुपचाप बाहर निकल पाना संभव ही नहीं। इनकी तो कुछ रोचक, कुछ डरावनी और कुछ बेहद रोमांचक और उस प्रभु के प्रति आज भी आभार प्रकट करती यादें हैं कि जीवित निकल पाए हम उन पलों से क्योंकि हवाई हादसों के बीच जितना बेबस. घुटन और प्रभु के प्रति समर्पित महसूस करते हैं उसका अनुभव वही कर सकता है, जो इन हादसों से गुजरा हो। फिर कुछ षडयंत्र या हादसों की वजह तो इतनी पेजीदी होती हैं कि अंततक समझ में ही नहीं आतीं कि ऐसा क्यों हुआ। बस भगवान का आभार देते हैं कि सब खतम हुआ और सही-सलामत निकल आए।

ऐसा ही कुछ हुआ था एकबार साउदी से इंगलैंड लौटते वक्त। बात मध्य अस्सी के दशक की है।
टिकट देहरान से लंदन तक की थी। शाम को एयरलाइन से फोन आया कि कुछ हेर बदल हुई है कल की टिकट में और मुझे कल पहले देहरान से रियाद और फिर रियाद से लंदन की फ्लाइट लेनी होगी। सुबह दस की जगह सात बजे पति से विदा लेकर मैं जहाज में थी। आलम यह कि पूरे बोईंग में एक मैं ही अकेली यात्री। हर पांच मिनट पर कोई आकर पूछता-कुछ चाहिए तो नहीं, मैं आराम से तो हूँ? पूरे जहाज में अकेला यात्री होना कुछ-कुछ विचलित करने वाला ही अनुभव था। परन्तु और भी आश्चर्य चकित तब हुई जब एयरपोर्ट से दो बंदूकधारी गार्ड अपनी सुरक्षा में रियाद हवाई अड्डे के अंदर लेकर गए। उन्होंने ही मेरा पासपोर्ट और अन्य कागजात चेक करवाए। मुझे कुछ कहने तक की जरूरत क्यों नहीं पड़ी या मौका क्यों नहीं दिया गया यह बात तो बाद में ही समझ में आई। कुछ आदतन् और कुछ यह सोचकर कि शायद उनके इस पुरुष आधिपत्य वाले देश में महिलाओं के साथ ऐसे ही व्यवहार किया जाता हो, खामोश उनके साथ चलती रही मैं। किसी गडबड या षडयंत्र की संभावना का तो विचार तक नहीं आया मन में। गार्ड हर दो मिनट पर पूछ लेते कि मुझे लंदन जाना है न? और मैं भी हर बार एक छोटी-सी हाँ में सिर हिलाकर आश्वस्त हो जाती। अंततः वे मुझे इंतजार करते जहाज में अंदर मेरी सीट तक छोड़कर बोर्डिंग पास पकड़ाकर चले गए। चेकिंग वगैरह यहाँ भी उन्होंने ही करवाई थी। परन्तु आगे जो हुआ वह बहुत ही अटपटा, अकल्पनीय और असंभव-सा ही था।

जहाज के अंदर बेहद भीड़ थी और उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक बात यह थी कि सारे पैसेंजर एक से सफेद सलवार और कुर्ते वाले पठान सूट में ही दिखे मुझे। माथा ठनका, चिंतित भी हुई- मेरे अलावा दूसरी कोई महिला नहीं दिख रही थी वहाँ पर। कैसे भी हिम्मत करके एक बुजुर्ग और एक युवा के बीच मिली अपनी सीट पर सिकुड़ी-सिमटी बैठ गई मैं, मन में सोचती कि यह कैसी इंगलैंड जाती फ्लाइट है, जिसमें बस सारे यात्री इस तरह की एक सी ही वेशभूषा में हैं?

दोनों सहयात्री जिनके बीच मुझे बिठा दिया गया था, उनसे पसीने और इत्र की मिली-जुली असह्य गन्ध आ रही थी। और दोनों का ही व्यवहार भी उतना ही असभ्य और असह्य था। एयर हौस्टेस से सीट बदलवाने का आग्रह किया तो वह यह कहकर लौट गई कि अभी तो पूरे जहाज में एक भी सीट खाली नहीं है, फिर भी वह उड़ान के बाद कोशिश करेगी।

पांच दस मिनट की उड़ान के बाद घोषणा हुई कि अब हम 35 हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ेंगे और अगले पांच घंटे में इस्लामाबाद पहुंच जाएंगे। सुनते ही मुझे तो मानो बिजली का करेंट लग गया। यह कैसे संभव है -इतनी सुरक्षा और कड़ी जांच के बावजूद भी मैं इस गलत फ्लाइट में कैसे बैठी हूँ? एक ही झटके में सीट बेल्ट खोलकर उठ खड़ी हुई। पागलों की तरह आपदकालीन बटन दबाते हुए चीखी-जहाज रोको, तुरंत। नीचे उतारो, मुझे, प्लीज। मेरी मदद करो। पता नहीं कैसे और किस वजह से मैं इस गलत उड़ान में बिठा दी गई हूँ, वह भी कड़ी सुरक्षा के साथ। मुझे इस्लामाबाद नहीं, लंदन जाना है और वहीं की टिकट भी है मेरे पास।

तुरंत ही जहाज मुड़ा और नीचे उतरने लगा और अगली कुछ ही मिनट में वापस रियाद एयरपोर्ट पर आ खड़ा हुआ। इस बार मेरे साथ कोई सुरक्षा गार्ड नहीं थे । और किस्मत इतनी अच्छी कि लंदन की फ्लाइट भी नहीं निकली थी अभी, जिसमें मेरा सामान मेरा इंतजार कर रहा था। पर यह कैसे और क्यों हुआ कि मेरा सामान किसी और जहाज़ में और मुझे किसी और जहाज़ में बिठा दिया गया। वह भी बन्दूक धारी दो-दो सुरक्षा कर्मियों की निगरानी में? कैसा और किसका षड्यंत्र था यह? उड़ान तमाम से ही रियाद आई थी। तो क्या वह फ़ोन , वह रियाद की अकेली उड़ान कोई बड़ा षड्यंत्र थे?

भगवान का आभार था कि में अब वापस साधारण लोगों के बीच में थी और जहाँ जाना था वहीं जा रही थी। इससे आगे-पीछे सोचने को मेरी प्रभु के प्रति कृतज्ञता में डूबी आंखें इजाजत ही नहीं दे रही थीं उस वक्त तो।…

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दूसरा हवाई हादसा भी मिडल ईस्ट में ही कुवैत की भूमि पर हुआ था। दशक भी वही अस्सी का ही था । पर यह षड्यंत्र जैसा नहीं, तकनीकी ख़राबी की वजह से था। ससुर जी के दिवगंत होने के बाद मैं इंगलैंड से और पतिदेव साउदी से भारत पहुँचे थे, बस एक हफ्ते के लिए। वह कुवैत के बिल्कुल पास दमाम वापस लौट गए और मुझे आगे लंदन तक जाना था। जैसे ही जहाज उड़ान पट्टी से उड़ा, दो पटाखों जैसी आवाज ने हर यात्री को डरा दिया। सीट बेल्ट लगा रखी थीं सभी ने फिर भी सीट बेल्ट का साइन बारबार जलने-बुझने लगा। कैप्टेन की चेतावनी थी कि हम सभी मुर्गे की मुद्रा में सिर आगे झुकाकर बैठ जाएँ क्योंकि जहाज को आपदकालीन स्थिति में नीचे उतारना होगा और उम्मीद करते हैं कि वह जहाज को सुरक्षित उतारने में सफल होगा।

सुनते ही सभी के चेहरे सफेद पड़ गए। सामने अपनी सीट पर बैठी हवाई परिचारिका तक का चेहरा पत्थर का हो चुका था चिंता में।

भगवान की दया से जहाज सकुशल नीचे उतर आया। पर हम अभी भी खतरे से बाहर नहीं थे। सभी यात्रियों को उस जलते जहाज से सकुशल और सुरक्षित बाहर निकलना था और किसी हवाई पट्टी पर नहीं, एक खेत के बीचोबीच।

आग संभवतः अब तक बुझा दी गई थी परन्तु जहाज को कितना और क्या नुकसान हुआ है इसका अभी किसी को अनुमान नहीं था। सभी तुरंत ही सकुशल बाहर आने को बेचैन थे और मन-ही-मन शायद सकुशल बाहर आने की प्रार्थना भी कर रहे थे। इमरजेंसी रबर की स्लाइड लग चुकी थी और इसीसे उतरना था हमें, सारा सामान वहीं जहाज में छोड़कर। जूते तक उतारकर और हाथ में लेकर। बस बटुआ साथ ले जा सकते थे। डरे लोगों में भगदड़ न मचे इसलिए अगली सूचना दी गई कि पहले पीछे वाले यात्री, जहाँ आग लगी थी फिर आगे वाले यात्री और अंत में बीच वाले यात्री उतरेंगे।

दुर्भाग्यवश हम बीच में थे। बगल की सहयात्रिणी एक बुजुर्ग पंजाबी महिला ने भयभीत होकर ज़ोर-जोर से रोना शुरु कर दिया और विमान परिचारिका जब उस भयभीत महिला के हिस्टीरिया को संभाल नहीं पाई तो थप्पड़ मारकर शांत करने लगी उसे। मुझे यह बर्दाश्त न हुआ। मुझे लगा वे शायद एक दूसरे को समझ नहीं पा रहीं, संभवतः उसे अंग्रेजी नहीं आती और अंग्रेज परिचारिका को हिन्दी। तब मैंने उन बुजुर्ग महिला को सांन्त्वना देनी शुरु की। स्लाइड पर भी वह मेरे साथ ही नीचे उतरीं। और फिर पूरे समय बेटी-बेटी कहती रहीं, साथ रहीं।

दूसरी फ्लाइट जो हमने ली उसमें भी हमारी सीट साथ थी क्योंकि वह इतनी असहज हो चुकी थीं कि सभी ने यही ठीक समझा।

हीथ्रो एयर पोर्ट पर भी बगल वाले कमरे में ही ठहरीं। जिद तो कर रही थीं कि संग ही सो लें हम मां बेटी तो क्या हर्ज है, परन्तु मेरे लिए यह असंभव था-हम दोनों को ही पूरे आराम की जरूरत थी । जैसे-तैसे समझा-बुझाकर ही उन्हें उनके कमरे में छोड़कर विदा ले पाई थी मैं। पर उस हादसे की यादें और वे फुसफुसाहटें आज भी बेचैन करती हैं जब कुवैत के एयरपोर्ट पर शैम्पेन और फूलों के गुच्छों के साथ मौत के मुंह से निकल कर आए हर यात्री का स्वागत किया गया था और बाद में पांच तारा हौली डे इन के बैंक्वेटिंग हाल में खाना खाते हुए किसी यात्री ने कहा था कि शुक्र है कि ब्रिटिश एयरवेज की फ्लाइट है, वरना एयर इंडिया की फ्लाइट में एकबार ऐसी ही कुछ समस्या हुई थी तो सभी यात्रियों को वहीं एयर पोर्ट पर ही पूरी रात निकालनी पड़ी थी। और उनके आराम की तो छोड़ो खाने-पीने तक की कोई व्यवस्था नहीं थी।
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कहते हैं आफतें हमेशा तीन में आती हैं।

तीसरा हवाई हादसा भी मिडल ईस्ट का ही था और उसी अस्सी के दशक का ही था।

सेवेन्टीज में एयर इंडिया से कुछ ऐसा मोहभंग हुआ कि हजार देशभक्ति के ज़जबे के बाद भी एयर इंडिया में जाने को मन ही नहीं करता था।

देश की तरह ही एयरलाइन में भी तो भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी पैठ चुकी थीं। वसूली के लिए पैसेंजर को खूब परेशान किया जाता था और डायरेक्ट फ्लाइट के बावजूद अक्सर वाया मुंबई भेजा जाता था और वहाँ परेशान करने वाली दुबारा वही पूरी जांच-पड़ताल व दिक्कतें देते थे। यह भी पैसे ऐंठने का ही धंधा था। फलतः इसबार भी हम अपनी पसंदीदा ब्रिटिश एयरवेज की ही फ्लाइट में थे। किसी तकनीकी दिक्कत की वजह से जहाज तीन-चार घंटे विलंब से उड़ा दिल्ली से। अभी तीन-चार घंटे ही हुए थे उड़ान को कि आपदकालीन सूचना मिली कि जहाज के चार इंजनों में से दो अचानक फेल हो गए हैं। और जहाज को पास के किसी अड्डे पर तुरंत ही उतारना पड़ेगा। जहाँ से भी अनुमति मिल जाए ।

सारी पैट्रौल की टंकियाँ हवा में ही खाली कर दी गईं। एक बार फिर हम मुर्गे की तरह बैठे थे और प्रार्थना में थे। दुबाई हमारे रूट में नहीं था पर वहाँ से अनुमति मिल चुकी थी। जब अकेली थी तो डर नहीं लगा था परन्तु इसबार छोटा बेटा साथ था। बड़े दोनों बच्चे हफ्ते भर पहले ही पतिदेव के साथ वापस लौट चुके थे क्योंकि उन्हें अपनी यूनिवर्सिटी में वापस पहुंचना था। मन छोटे को लेकर बेहद व्यग्र हो उठा था-इसने तो अभी कुछ देखा ही नहीं। प्रभु इसकी तो अवश्य ही रक्षा करना- बारबार यही प्रार्थना कर रही थी मैं।

खैर…इसबार भी उसकी दया से हम सब सकुशल नीचे उतर आए और एक बार फिर भव्य हयात होटल में हमारी शानदार खातिर हुई और अगली सुबह की फ्लाइट मिलेगी ऐसा हमें एयरपोर्ट पर ही नए बोर्डिंग पास के साथ बता दिया गया था। हर तरफ से निश्चिंत होकर सामान कमरे में रखकर तनाव कम करने को हम दोनों मां-बेटे दुबाई घूमने निकल लिए । लौटे और रात का खाना खाया फिर सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि फोन आया कि तुरंत एक फ्लाइट लंदन जा रही है, जो जाना चाहते हैं वो तुरंत ही नीचे आ जाएँ।

बेटे को जव्दी से बाथ टब से निकाला और अगले दस मिनट में हम नीचे लौबी में आ गए जहाँ एयरपोर्ट की बस हमारा इंतजार कर रही थी। और इस तरह से देर आए दुरुस्त आए वाले अंदाज में हम शाम की छह की जगह सुबह के छह बजे लंदन पहुंच ही गए। यही नहीं उन्ही के द्वारा दी गई टैक्सी ने हमें नौ बजे तक बरमिंघम, अपने दरवाजे पर भी पहुंचा दिया। नुकसान तो कुछ नहीं हुआ पर एक के बाद एक पांच वर्ष के अंदर ही इन तीन-तीन त्रासद और भयभीत करने वाली हवाइ यात्राओं ने मन में कुछ ऐसा डर बैठा दिया कि आज भी अक्सर टेक औफ करते समय गूंज पिंपल निकल आते हैं और आँख बन्द करके प्रार्थना करने लग जाती हूँ। वह भी तब जब साल में सात-आठ बार तो जहाज में किसी न किसी बहाने बैठना ही पड़ता है।

पूरे परिवार को ज़बरदस्त घूमने की आदत जो है फिर वह एक कहावत भी तो है -जाको राखें साइयां मार सके ना कोय…


शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmail.com

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