“तुम जानते हो ? नहीं तुम नहीं जानते हो
तुम जानते हुए भी नहीं जानते हो,
इसीलिए दर्द से हार मानते हो।
यह जो तुम्हारे द्वार पर खड़ा है,
और जिद्दी साधू-सा अड़ा है
इसे पहचानते हो? नहीं, नहीं पहचानते हो
इसीलिए दर्द से हार मानते हो। ”
-मोहन अम्बर
मन एक भंवर…एक पुल…एक जिद या फिर एक नींद …स्वप्न…मूक दृष्टा या फिर बस एक यंत्र। परन्तु यदि मन एक यंत्र है और जीवन यंत्रवत् चलता है तो आज इसकी गति का…इसकी अंतर्रचना का नित नया ज्ञान हमारे लिए नित नए संकट और उलझनें भी तो खड़े किए जा रहा है। जितना अधिक हम इस अंतर्मन को उलीच कर सतह पर लाने का प्रयास करते हैं, उतनी ही आंखों के आगे भीड़ लगती चली जाती है.और सतह का विस्तार होता चला जाता है- प्रिय अप्रिय हर तरह की चाही अनचाही उलीच से। और तब इस सबके नीचे दबा अंतर्मन दूर होता चला जाता है…अनचीन्हा और अनजाना हो जाता है हमसे। बिल्कुल वैसा ही विरोधाभास है यह जैसे कि कोई जीने के लिए रोटी कमाने निकलें और कमाई की भागदौड़ में रोटी खाना ही भूल जाए ;
हम बार-बार गहरे उतरे—
कितना गहरे!– पर–
जब-जब जो कुछ भी लाये
उस से बस
और सतह पर भीड़ बढ़ गयी ।
सतहें–सतहें–
सब फेंक रही हैं लौट-लौट
वह काँच
जिसे हम भर न रख सके
प्याले में।
छिछली, उथली, घनी चौंध के साथ
घूमते हैं हम
अपने रचे हुये
मायावी जाल में
-अज्ञेय
कवि या साहित्यकार के लिये इस परिस्थिति को अनदेखा कर पाना संभव नहीं है और देखकर स्वीकार कर पाना और भी असंभव। जितना ही देखता है, उतना ही उसे भेद कर और-और गहराई में जाने का प्रयत्न करने लग जाता है वह। और तब उसकी संवेदना और चेतना दोनों ही दो भागों में बट जाती हैं। आहत और विभाजित हो जाता है। गहराई के विरोध को हल करता, वह सुलझाने के प्रयत्न में अंतर्मन के ताने-बाने में ही उलझ जाता है । सवाल यह है कि अब बाहर सतह पर अपने इस प्रयत्न को कैसे व्यवस्थित करे वह…बिना भीड़ लगाए और बिना भटके, यह रचनाशीलता की समस्या उससे कठिन समर्पण और संयम मांगने लग जाती है । पर क्या निषिद्ध से दूर रह पाना, वांछित को छोड़ पाना….सपनों को समाज के सांचे में ढाल कर, यथार्थ की कूंचि से रंग पाना हमेशा ही संभव है? शायद नहीं…न तो एडम और ईव के समय में था जो निषिद्ध फल को चखने की सजा में स्वर्ग से निष्काषित हुए थे और ना ही हम, उनके उत्तराधिकारियों के लिए आज भी। आज के इस समाज में भी तो वे, अपना वही खोया-स्वर्ग तलाशते, आदर्श और लालच की पगडंडियों पर लहूलुहान हैं। वैसे ही भ्रमित हैं। आज भी तो ये उत्तराधिकारी, वर्जनाओं के दुरूह जंगल में भटकते उन्ही अपराधों की सजा भुगते जा रहे हैं।
पर आश्चर्य तो यह है कि कभी शेखी बघारते तो कभी ग्लानि की अतुल गहरायों में डूबते भ्रमित-मन का यह असंतोष ; कुंठा का कारण बनती ये इच्छाएँ और ये सपने ही वास्तव में जीवन का सबसे बड़ा संबल भी हैं और गति व प्रेरणा भी। जीवन के कुरुक्षेत्र में कभी यह अर्जुन बनी हमें हताश् हथियार डालने को मजबूर करती हैं तो कभी कृष्ण-सी खुद ही सही मार्ग भी दिखलाती हैं। बिना इनके तो हम मात्र एक पंखहीन पक्षी है, जिसने खुला आकाश तो देखा है पर उड़ने का सुख जाना ही नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि अराजकता और भ़ष्टता को, मानव-मन की कमजोरियों को गरिमा-मंडित करना चाह रही हूँ , अर्थ बस इतना ही है कि कोई भी निर्णय लेने से पहले, भला या बुरा घोषित करने से पहले…स्वर्ग से निष्कासित करने से पहले, परिस्थितियों और उनके दबाव, जाल व षडयंत्र …व्यक्ति की तत्कालीन मजबूरियों को जरूर समझ लेना चाहिए।…क्या आज भी हम कई शतक पहले के उसी समाज में जीएंगे या जीना चाहेंगे जब आदमी सब कुछ घोट कर अंदर रख लेता था क्योंकि इसी में उसकी भलाई थी, यही समाज का चलन था..अकेले-अकेले ही सब सहने पर मजबूर था वह।
क्यंकि-रहिमन मन की व्यथा, मन ही राखो गोय / सुन इठलहियैं लोग सब, बांट सके न कोय ।
पर आज तो हमें कहना-सुनना ही नहीं, समझना और बांटना तक आ गया है। हम सभ्य और शिक्षित हो चले हैं… सहज होना आ गया है हमें, क्योंकि इस पृथ्वी के ही नहीं चांद सूरज, पूरे बृह्मांड के रहस्यों को जान चुके हैं हम! जब जीवन और इसके आसपास की जटिलता व कृतिमता दोनों का ही आभास ले लिया है हमने.और.इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं हम जहां दूरियों का कोई अर्थ ही नहीं , तब फिर यह तलाश….यह दूरियां और भटकन क्यों?
क्योंकि अंतर्मन के इस तूफान में आश्रय लेना …अपनी ही रीढ की हड्डी के सहारे गिरगिरकर खड़े हो जाना एक योद्धा की हिम्मत और कौशल मांगता है ।
यही वजह है कि आज भी हमें अपने उसी खोए स्वर्ग की तलाश है…स्वर्ग जो हमारे अपने अंदर है और आज भी जिस पर ताला लगा है; हमारी खोखली मान्यताओं का, भ्रान्तियों का, हमारे देखने और समझने के जटिल अन्दाज का। और ताली को भी तो खुद हमने ही कहीं दूर फेंक दिया है , या फिर इतना डरते हैं इसकी हिफाजत को लेकर कि बहुत ही सावधानी से रखकर अक्सर ही भूल जाते हैं, और तलाश की अन्तहीन भटकन में वक्त व्यर्थ करना ही हमारी नियति बन जाती है ।
कैसे भी समझना चाहें, कैसे भी देखें, एक बात तो निश्चित है कि यदि सपने देखना मानव-मन की कमजोरी है तो तलाश मजबूरी। किसी को नाम की तलाश है तो किसी को काम की, कोई शान्ति ढूँढ रहा है तो कोई मनमीत। जो है वह नहीं चाहिए, जो नहीं है , उसी की चाह…उसी के सपने और असाध्य की साधना शायद मानव स्वभाव की सबसे बड़ी कमजोरी है.। इसीलिए जीवन एक अनंत तलाश भी है और अनंत प्यास भी। हर जीवन में किसी न किसी चीज की कमी है। कोई पूर्णतः संतुष्ट नहीं, हर जीवन में एक भटकन है, चाहे वह खुशी के उपवन में सैर कर रहा हो या दुख की नदी में डूबता, पार करने की कोशिश में हो। जब संतुष्ट न रह पाना ही मानव का स्वभाव है तो फिर ऐसे विचलित और अस्थिर मन को कैसे थिर किया जा सकता है , वह भी मात्र चन्द सपनों या शब्दों के सहारे? क्या जिम्मेदारी है एक कवि या कलाकार की…वह भी तो अन्य की तरह ही इन्ही कमजोरियों से गढ़ा-रचा गया है? अज्ञेय जी ने बड़े ही मर्म भरे शब्दों में कवि की इस द्वन्द्वात्मक स्थिति का वर्णन किया है ;
“ मुझे तीन दो शब्द
कि मैं कविता कह पाऊँ।
एक शब्द वहः
जो न कभी जिह्वा पर लाऊँ।
दूसराः जिसे कह सकूँ
किंतु दर्द मेरे से जो ओछा पड़ता हो।
और तीसरा खरा धातु
जिसको पाकर पूछूँ
न बिना इसके भी काम चलेगा?
और मौन रह जाऊँ
मुझे तीन दो शब्द
कि मैं कविता कह पाऊँ।“
शब्द, जो साक्षात बृह्म हैं, सामाजिक, नैतिक और वैयक्तिक सवेदना के कटु यथार्थ को जीते-भोगते कवि या साहित्यकार की सबसे बड़ी कमजोरी भी हैं और तारिणी का प्रवाह भी। ये उसकी छलना और प्रवंचना ही नहीं, उपलब्धि और साधना भी तो हैं। वह अपने इन्ही शब्दों में संधि व संतुलन ढूंढते ही तो उम्र निकाल देता है। हर पीड़ा, हर परेशानी को भूल, कच्ची मिट्टी सा गुंथता-तिरकता उसका अंतस खुद को भी गढ़ता-संवारता रह जाता है और अपने आसपास को भी।
मानव मन के ये हठी सपने …अदम्य आकांक्षाओं और जीत-हार भरी, सच्ची-झूठी अनगिनित तलाश ही तो रचती हैं उसे…प्राण वायु हैं। …संक्षेप में कहूँ तो कुछ भी लिख पाना जीवन के उन सभी विश्वास और मान्यताओं पर, जो आजीवन बांधे रखती हैं, सच से भी ज्यादा सच हो जती हैं… इतना बड़ा सच कि उसके लिए व्यक्ति अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है। स्वर्ग छोड़ आता है। फिर जिसे वापस ढूंढते रहने में , उस कसक या दर्द को जीते बाकी सारी उम्र निकाल देता है… इतना आसान भी तो नहीं अतर्मन के इन तूफानों में जीते जाना।
प्यार, नफरत, लगन , विश्वास कोई भी नाम दें हम इनका, यही तो अंतर्मन के वे स्तंभ हैं जिनके सहारे बड़े-बड़े पुल तैयार होते हैं और अदना-सा आदमी भी दुनिया जीत आता है या जीतने के ख्वाब देखता है…इतना विश्वास रहता है उसे इनपर, इनकी सच्चाई पर कि खुद तक को कुर्बान कर देता है। इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों सेः हिटलर, नैपोलियन, गांधी, राम, कृष्ण… वास्तव में वे सब, बाद में जिन्हें बेइन्तिहां नफरत या प्यार और कभी-कभी तो पूजा और देवत्व तक मिला, इसी दीवानगी, इसी साधना के परिणाम हैं। नकरात्मक परिस्थितियों में तो ऐसी दीवानगी प्रायः क्षणिक उत्तेजना या विशेष दबाव या मानसिक और अवचेतन ग्रन्थियों का परिणाम हो सकती है, परन्तु सामाजिक संदर्भ में यह सृजन की वह सकारात्मक चेतना है जो गीता और कुरान बनाती है, राम और कृष्ण को जन्म देती है। संयम व श्रम…अप्रतिम साहस और विश्वास बिना यह संभव नहीं। ऐसा बस उन्ही के साथ संभव हुआ है जो जीवन में या अपनी धुन में अति का भी अतिक्रमण कर गये हैं, बात फिर चाहे आत्म संयम की हो या आत्मपतन की; सच कहूँ तो इस दीवानगी…इस लगन, इन सपनों के बिना कुछ विशेष कर पाना या हो पाना संभव ही नहीं; देव-दैत्य….नायक-खलनायक …प्रेमी-पापी कुछ भी तो नहीं, सिवाय एक आम और साधारण जीवन के।…
-शैल अग्रवाल
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