लेखनी संकलनः कविता में सूरज

कविताओं में सूरज


सूरज एक नाव है, जो पच्छिम की लहर से डूब गई
सूरज रूई का एक गोला है, जिसे गहरी आंधी ने धुन दिया
सूरज एक हरा जंगल है, जो सूख कर सरकंडा बन गया है
सूरज दिल की आग से खाली है,
इसने मेरे दिल की आग से कोयला मांगकर अपनी आग सुलगाई थी
सूरज सूइयों की एक पोटली है, जो मेरे पोरों के आर-पार हो गई है
सूरज एक खौलती हुई देग़ है, जिसमें आज मेरे इश्क़ को बैठना है
सूरज एक पेड़ है, जिस पर से किसी ने किरनें तोड़ ली हैं
सूरज एक घोड़ा है, जिसके ऊपर से उजाले की काठी उतर गई है
सूरज एक दीया है, जिसे अंबर के आले में रखकर जलाया जा सकता है
सूरज मेरे दिल की तरह है, जो घबरा कर अंधेरे की सीढ़ियां उतर जाता है
सूरज एक बुझा हुआ कोयला है,
जिससे अंबर लकीरें खींचकर किसी की राह देखता है
सूरज एक उम्मीद है,
जिसके बिना रातें काली चीलों की तरह आसमान में उड़ रही हैं…”
-अमृता प्रीतम

धूप की चिरैया
उड़ती है पार-द्वार धूप की चिरैया ।
पानी के दर्पण में, बिम्ब नया उभरा,
बिखर गया दूर-पास, एक-एक कतरा ।
पलकों-सी मार गई धूप की चिरैया ।

पूरब में कुंकुम का, थाल सजा-
किरणों-सी दुलहन का, रूप और निखरा ।
आँगना गई बुहार धूप की चिरैया ।

यहाँ-वहाँ, इधर-उधर, फुदक-फुदक नाचे,
सुख-दुख की आँखों के, शब्दों को बाँचे ।
रोज़ पढ़े समाचार धूप की चिरैया ।

— तारादत्त निर्विरोध

किरन के नाम
सुबह-सुबह को भेंट गई शाम की चुभन,
उस किरन के नाम कोई पत्र तो लिखो।

खुली जो आंख तो लगा कि रूप सो गया,
साथ जो रहा था आज वह भी खो गया।

देह-गंध यों मिली कि दे गई अगन,
उस अगन के नाम कोई पत्र तो लिखो।

मन किराएदार था रच-बस गया कहीं,
तन किसी का सर्प जैसे डंस गया कहीं।

हम मिले तो साथ में थी सब कहीं थकन,
उस थकन के नाम कोई पत्र तो लिखो।

मोड़ पर ही आयु के था वक्त रुक गया,
दूर चल रहा था पांव वह भी थक गया।

बांह में था याद की सिमटा हुआ सपन,
उस सपन के नाम कोई पत्र तो लिखो।

– तारादत्त निर्विरोध

गोरी हथेली पर

ऊँची पहाड़ी पर
खेल रहा बाल रवि
कमसिन पहाड़िन की
गोरी हथेली पर ।

घेर में किरणों के
उछल रहा
जैसे गोद ममता की
लेने खिलौने को
शिशु हो मचल रहा
उलझे हैं तार-तार
प्रेम की पहेली पर ।

पंछियों के नीड़ों में
उग आया शोर
चढ़ रही है “सीढ़ियाँ”
पर्वत की ओर
यौवन का रंग चढ़ा
निर्जन के गाँव की
गूंगी सहेली पर ।

-तारादत्त निर्विरोध

सूर्य पूजा

जागो आदित्यनाथ !
जागो हे भुवन दीप !
मन की आशाओं में –
स्वर्ण किरण-बन बरसो !

धूमिल हों दुःख और निराशा के अंध तिमिर ,
अश्रु भरी आँखों में
ज्योति -कलश बन उतरो ,!

दुखियारे आंगन में ,
सुख की दुनिया रच दो ,
जागो हे किरण -पुंज
बंझिन को पुत्र दो ,
ममता का दान लिए
फैले हैं आँचल के ओर -छोर ,
भर दो झोली खाली ,
सबको वरदान मिले

‘जागो हे ज्योतिर्मय !
नदिया की लहरों सा
जीवन का शाश्वत क्रम
आशाविश्वासोंकी डूब रही नौका में
जन नाविक बन उतरो

आओ हे आस दीप !
आओ आदित्यनाथ !
मन की आशाओं में स्वर्ण किरण बन उतरो।
-पद्मा मिश्रा (छट पूजा पर)

बहुत दिनों के बाद …

बहुत दिनों के बाद ,खिली है,
पल पल किरन सजाती धूप ,
सूरज का संदेशा लेकर ,
पात पात इठलाती धूप .
गया शीत ,अब जगी उष्णता ,
मन में प्यास जगाती धूप .
जल दर्पण में झांक रही है ,
लहरों से शर्माती धूप .
नव प्रभात के स्वर्णिम रथ पर ,
किसी परी सी आती धूप ,
अंधियारे को जीत जगत में ,
शख की सुबह दिखाती धूप .
घर -आंगन में चौक पूर कर ,
तुलसी को नहलाती धूप ,
चौबारे के ठाकुर जी को ,
झुक कर शीश नवाती धूप .
राह -बाट ,गलियां ,गलियारे ,
सबसे प्यार जताती धूप ,
खलिहानों में उतर रही है ,
सूरज की शहजादी धूप …
अमराई में तनिक ठहर कर ,
गीत सुरभि के गाती धूप ,
सुन कर मंजरियों की गाथा ,
गंध गंध बौराती धूप .
बंद झरोखों के अंदर भी ,
जहाँ तहां मुस्काती धूप ,
राग रंग की सभा सजाये ,
किस किससे बतियातीधूप ,
माया की छाया बन बैठी ,
इंद्रजाल फैलाती धूप ,
पगडण्डी पर बलखाती सी ,
धरती पर लहराती धूप ….
–पद्मा मिश्रा


” उनींदा सूर्य!”
आम बौर से टकरा के
मीठी हो गयी धूप
गर्मी के दिनों में
देखो तो इसका रूप

तीखी लू से
उनींदा सूर्य भी
अलसाया सो जाता
मौसम के अनुरूप

धूल भरे दिन भी
पांव पसारे बैठे
छाँह पे पसरी धूप
अनूठा प्रकृति का स्वरूप!
– डॉ सरस्वती माथुर

औरतों का सूरज

औरतें नहीं करती प्राणायाम
न सूर्य नमस्कार, न देती हैं अर्घ्य
मुँह अँधेरे उठ कूटती-पछाड़ती
फींचती हैं मैले कपड़े
रात की मैल धो उजसा देती हैं
आँगन के बाहर रस्सियों पर
सूरज नहीं चमकता उनके माथे पर
पीठ पर पड़ती हैं किरणें
सूखे भीगे बालों को बाहती-काढ़ती हैं

निवृत्त हो रसोई से
दो घड़ी बाद आ उलटती – पलटती हैं
धूप को बटोरती हैं कपड़ों पर

उतरता है सूरज आँगन में
खिलखिलाती है धूप
वे नहीं बढ़ातीं हाथ
अधसूखे वस्त्रों को संभालती
बिला जाती हैं भीतर

रंग-बिरंगे सपने बिखरा
सूरज अब लेता है विदा
वे नहीं बुनतीं सपने
उतारती हैं रस्सियों से सूखे वस्त्र
बंद कर लेती हैं किवाड़
बंद दरवाज़ों के भीतर
उगता और मुरझा जाता है सूरज

वे रहती हैं निर्विकार।

-कमल कुमार

कर्मठ सूरज

सांझ की सिंदूरी मांग में अंधेरा
करती है काली रात अट्टाहास
रणछोड़ है तेरा प्रियतम
दिखेगा ना नभ के आसपास
सहमा-सहमा पीला चंद्रमा
बिखेर दिया मोतियों का थाल
सहमी-सहमी सो गईं लताएँ
ताल-तलैया, पक्षी उदास
भूले सब वे हंसना-रोना
गुपचुप दिनकर का प्रहरी प्रभात
प्राची के आंगन में बैठा
करता रहा बस इंतजार
कल जो हारा था पश्चिम में
अब पूरब से फिर विजयी होगा
डूबता नहीं कभी कर्मठ सूरज।

-शैल अग्रवाल

अपना

डूबते सूरज की आंखों में देखा
उगते सूरज का सपना
अंधेरा जो आंखों में घिर आया
तोड़ेगा आकर कोई अपना।

-शैल अग्रवाल

सूर्य वंदना …

हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
बहुत हो गया कलुषित जीवन,
अब करो धवल ऊर्जा संचार ।

सुबह, दुपहरी हो या साँझ,
फैला है हरदम अंधकार ।
रात्रि ही छाई रहती है,
नींद में जीता है संसार ।

तामसिक ही दिखते हैं सब,
दिशाहीन प्रवास सभी ।
आंखे बंद किए फिरते हैं…
निशाचरी व्यापार सभी ।

रक्त औ रंग में फर्क न दिखे,
भाई को भाई न देख सके ।
अपने घर में ही डाका डाले,
सहज कोई पथ पर चल न सके ।

हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
भेजो मानवता किरणों में,
पशुता से व्याकुल संसार ।

रजनीश तिवारी, मकर संक्रांति पर

डूब गया सूरज

वह कोई और था जिसे देख
उषा के गालों पर लाली आई
यह कोई और है
जिसने सांझ की मांग सजाई
प्रेमी से पति तक के सफर में
थककर कितना टूट गया सूरज
दो नावों पर पांव रखे बैठा था
नभ सागर में डूब गया सूरज।

-शैल अग्रवाल

दिन के बस्ते में माँ रोज
एक नया सूरज रखती है
ना बेटा ही उठकर पढ़ता है
ना ही माँ आदत बदल पाती है।

शैल अग्रवाल

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