युगवाणीः संत कबीर-शैल अग्रवाल

कबीर को जानना एक ऐसे विद्वान को जानना है जिसके पास ज्ञान, भक्ति और विश्वास तीनों का अथाह भंडार था। प्रेमभरा हृदय और दार्शनिक दृष्टि थी और वह क्रांतिकारी भी था। समाज के सोयों को जगाना चाहता था और अंधों को राह दिखाना। साथ में अपने मन की भटकन और लगन, ज्ञान पिपासा को भी शांत किया उन्होंने। फलतः हमारे सामने आया एक नीति और रस भरा दोहे , साखी व वचनों का भंडार एक कवि. दार्शनिक समाज सेवी व रहस्यवादी की कलम से निकल कर। अद्भुत थे कबीर और अद्भुत था उनका प्रभाव जिसने जाति-धर्म की हर सीमा को लांघा। हिन्दु-मुस्लिम सिख तीनों ने न सिर्फ उन्हें अपनाया, उन पर न्योछावर हो गए। अपना-अपना दावा किया। क्योंकि वह धर्मप्रेमी नहीं, मानव प्रेमी थे। यथार्थवादी होकर भी समता और समन्वय के सपने देखे कबीर ने। घर फूंकने की बात की-यानि माया मोह में पड़कर संचय करने के बजाय दीन दुखियों के साथ बांटने की बात की कबीर ने।
कबिरा, देखो जग बौराना ।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे ते पतियाना ।
हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम न कोई जाना ।

हमेशा से ही मन के बहुत करीब और हर काल व पीढ़ी का पाती हूँ मैं कबीर को।
हों भी क्यों न- यही तो हैं हमारे कबीरः अक्खड़. फक्कड़ और फकीर। निडर और सांची-सांची ही कहने वाले। हर रूढि को तोड़ा । हर सामाजिक कुरीति के खिलाफ आवाज उठाई। बखिया उधेड़ी । साथ ही मन की उस लगन, भटकन और अनंत ज्ञान पिपासा को भी शांत करते रहे निरंतर।
दार्शनिक समाज सेवी व रहस्यवादी, गूढ़ परन्तु सहज और रसिक कवि का रोचक व प्रभाव शाली समिश्रण हैं कबीर के व्यक्तित्व में, मानो भोले बाबा की प्रसाद में मिली घुटी हुई ठंडई हो, प्रेरित और तृप्त करती-सी। मुर्दों के गांव की भी खबर रखी इन्होने और माया महा ठगनी की भी। वैरागी आंखें कमंडल के जल सी सदा इष्ट और अभिष्ट की तलाश में छलकती ही रहीं। इसपर से तुर्रा यह कि बाजार में खड़े होकर आवाज दी कि जो घर फूंके आपनो, चलै हमारे साथ।
अद्भुत थे कबीर और अद्भुत था उनका प्रभाव जिसने जाति-धर्म की हर सीमा को लांघा। हिन्दु-मुस्लिम सिख तीनों ने ही इन्हें मन से अपनाया, अपना-अपना दावा किया। गुररुग्रंध साहब में भी इनके सैकड़ों दोहे और साखी सम्मिलित हैं। फिर भी ना तो किसी से दोस्ती रही इनकी और ना ही बैर।कुछ ने तो इन्हें साक्षात अवतार तक मान लिया। यथार्थवादी होकर भी समता व समन्वय के सपने को जिया है कबीर ने अपना जीवन और कम साहस का काम नहीं था यह उस वक्त भी।
घर से लहरतारा और कबीरचौरा दोनों ही ज्यादा दूर नहीं थे। जहाँ जीवन के शुरुआती बीस साल बिताए, जीवन के ‘कखग’ सीखे। यह भी एक अद्भुत संयोग ही था कि जन्म भी कबीर चौरा अस्पताल में ही हुआ, जिसका नाम बदलकर छठे दशक में शिवप्रसाद गुप्त अस्पताल कर दिया गया था परन्तु मेरे जैसों के लिए कबीर से दूर रह पाना संभव ही नहीं रहा कभी। मानो पहली सांस से ही जुड़ गई थी कबीर से।
स्कूल की बस भी तो दिन में दो बार काई लगे लहरतारा तालाब के सामने से ही मुझे लेकर गुजरती थी, जिसकी सीड़ियों पर नीरू जुलाहे और नीमा को शिशु कबीर मिले थे। बड़ी रहस्यमय दिखती थी वह जगह। पूरे तालाब पर एक चटक तोतई रंग की कांपती काई हमेशा कुछ कहती-सी, परन्तु आसपास कोई नहीं। बनारस धीरे-धीरे बदलने वाला शहर है। पचास व साठ के उन दो दशकों में भी तलाब के पीछे गरीब मुस्लिम कारीगर जुलाहे, रंगरेज और चमारों की ही बस्ती थी तब भी। शहर का वह हिस्सा निर्जन व बेहद शांत ही रहता था । चार कदम वापस शहर की तरफ मुडो तो वापस वही चहल पहल भरा विश्वेश्वर गंज का चौराह और घुमावदार पतली गली पार करते ही गायघाट और बगल में ही कबीर के गुरु रामदास का घाट। और तब अतीत के पन्ने पलट घाट आते जाते कबीर का रास्ता भी बालमन ने कई-कई बार नापा था । कबीर को याद करना वाकई में बचपन और बनारस की ओर ही मुड़ना है मेरे लिए।
निरक्षर और साक्षर सभी के लिए दोहे हैं कबीर के खजाने में। घर के बड़ों के मुंह से , माली और नौकर-चाकरों के मुंह से , शिक्षकों के मुंह से , पाठ्यक्रम में भी, जहां तक याद है चारो तरफ कबीर ही गूंजते थे तब। सुबह बाबा जब मंदिर में श्रंगार के लिए बेला, चमेली और हार सिंगार के फूल भिजवाते तो सुनाई देता -माली आवत देख के कलियाँ रहीं पुकार, फूली फूलि चुन लीन्ह, काल हमारी बार।।…या फिर चलते-चलते सड़क पर कोई अपनी अनंत यात्रा पर दिख जाता तो – आया है सो जाएगा राजा रंक फकीर। एक सिंहासन चढ़ चला, एक बंधा जंजीर।। कबीर से मेरी मुलाकात बहुत छोटी उम्र में ही हो गई थी, जब मेरे बाबूजी को कोई बात कहनी होती, तो अक्सर कबीर के दोहों से ही समझाते। कभी ताऊ जी से कहते- बड़ा हुआ तो क्या हुआ. जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।। या फिर ताई जी जिनका आधा दिन सबपर हुकुम चलाते और डांटते ही बीतता था , उनसे कहते-ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय। औरन को सीतल करे आपहु शीतल होय।। कभी माँ से -माला तो कर मे फिरै जीभ फिरै मुख मांहि। मनुआ तो चहुँ दिस फिरे, यह तो सिमरन नाहिं।। या उनके मित्र खान चाचा जिनके साथ अक्सर शाम को फिल्म देखने जाते थे और विभिन्न विषयों पर बहस होती रहती थी। अक्सर उनकी बातचीत में भी आ ही जाते कबीर-कांकर पाथर बीनकर मस्जिद लीन्हि चुनाय, ता चढ़ मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय?—हम बच्चों पर आलस चढ़ता तो तुरंत -काल करे सो आज कर आज करे सो अब पल में परलय होएगी, बहुरि करेगो कब।। सुनने को मिल जाता। और तब हम भी एक दोहा ढूंढ ही लाए थे -क्षमा बड़न को चाहिए , छोटन को उत्पात….। हमारे जीवन के ताने बाने में रचे रमे रहते कबीर। शायद वो पहले कबीर पन्थी थे जिनसे मुझे कबीर और कविता का परिचय मिला। जीने की नीति थे ये दोहे बचपन से ही। रही सही कसर पूरी कर दी स्कूल के प्रोजेक्ट ने जो आठवीं कक्षा में काशी पर किया था। पहली बार पता चला था कि भारत में हिन्दु, मुसलमान और ईसाई धर्म ही नहीं, जैन, बौद्ध और सिख भी है, पारसी भी रहते हैं। राधा संप्रदायी और कबीर पंथी व हरिजन हैं । पहली बार सबको देखा, मिली और जाति और वर्ग आदि के निरर्थक भेद को जाना-समझा।
कबीर और भारत , भारत व कबीर शायद एक दूसरे के पर्यायवाची हैं हमारी पीढ़ी की स्मृति में। तुलसी और कबीर अक्सर दोनों की तुलना मन में उठती है। दोनों के पास जीवन के गहन अनुभव के मंथन से जन्मा चिंतन और दर्शन था और एक अति संवेदनशील और कोमल हृदय भी। फलतः दोनों ही समाज सुधारक होने के बावजूद जनजन के प्रिय और संवेदन शील कवि व दार्शनिक बने। दोनों को ही आज भी जितना पढ़ा जाता है उससे अधिक जन-जन को कंठस्थ हैं ये। और इन सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ही अनन्य राम भक्त हैं। यह बात दूसरी है कि एक के राम सगुण हैं तो दूसरे के निर्गुण। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है भारतीय चेतना में। काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत को आज भी शायद सर्वाधिक याद किया जाता है। इनके दोहे कवि, दार्शनिक और समाजसुधारक तीनों की ही सोच का समन्वय लिए हुए हैं। इनकी खरी बानी आज भी गृहस्थ और सन्यासी दोनों को ही एक सी प्रिय है। दोनों के ही सृजन में सभी के लिए अथाह ज्ञान के साथ आत्मबल और भक्ति रस लबालब है। आश्चर्य नहीं कि दोनों ही हमारे आशु चिंतन के पर्याय बन चुके हैं। दोनों के ही लक्ष और संदेश एक थे। समाज को जोड़ने की ललक एक थी। पिछड़ों और असहाय का त्याग न करने का आग्रह भी एक ही था।
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित हुआ न कोय। ढाई आखर प्रेम का पड़ै सो पंडित होय।।
आश्चर्य नहीं, कि छह सौ साल पहले जीवन की किताब से सारे वेदान्त और दर्शन का सार और सूफी-सी सादगी लिए अनमोल इन दोहॉ को अनपढ कबीर ने तब लिखा, और आज बड़े -बड़े विद्वान इन पर शोध व मंथन कर रहे हैं।

अवधूता युगन युगन हम योगी,
आवै ना जाय मिटै ना कबहूं, सबद अनहत भोगी।

सभी ठौर जमात हमरी, सब ही ठौर पर मेला।
हम सब माय, सब हैं हम माय, हम है बहुरी अकेला।

हम ही सिद्ध समाधि हम ही मौनी, हम बोले।
रूप सरूप अरूप दिखा के, हम ही हम ते खेलें।

कहे कबीर सुनो भाई साधो, ना हीं न कोई इच्छा।
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं, खेलूं सहज स्वेच्छा।

शैल अग्रवाल

संपर्कः shailagrawal@hotmail.com

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