यादों के झरोखे सेः शन्नो अग्रवाल

यादों के झरोखे से अतीत के वे साये
जिन्हें हम सालों बाद भी भूल न पाये
अब हममे से कोई दादी है कोई नानी है
और हम सबकी बस यही कहानी है।

हम सब अपने-अपने अतीत से जुड़े हुये हैं जिसकी भूली बिसरी यादें कभी-कभी हमें आकर छेड़ने लगती हैं। बचपन के उन दिनों के झोंके अक्सर आकर सहला जाया करते हैं।

‘मायका’
बचपन से लेकर शादी होने तक मेरा समय भारत में ही बीता। मेरे मायके के आसपास कुछ मील दूर पर कुछ गाँव हुआ करते थे। गर्मी के दिनों में तड़के उठकर हम छोटे बच्चे अपने दादा जी के साथ बाहों की ओर टहलने जाते थे। कच्चे-पक्के आम बटोरते, बत्तखों, बंदर, मोर और भी बहुत सारे वन पंछियों को देखते हुये कभी-कभी हम लोग किसी गाँव तक भी पहुँच जाते थे। वहाँ के घर, पोखर, गाय, भैंसें, बकरियाँ, कुयें, घरों की कच्ची दीवारों पर चिपके सूखते हुये उपले, नंगे पैरों धूल भरे पाँवों से मिमियाती बकरियों को हाँकते हुये लोग, ओस भरे हरे-भरे खेतों की सुंदरता सब कुछ यादों में अब भी बसे हैं। चलते हुये जब हम एक छोटी पुलिया के ऊपर से गुजरते थे तो उसके नीचे एक तालाब था। मेरे दादा जी अपनी छड़ी से पानी की गहराई को टटोलते हुये उसमें घुस जाते थे। और कई सारे कमल के फूल उनकी डंडी समेत उखाड़ कर ले आते थे। हम बच्चे उन फूलों के बीज खाते थे व दादा जी उनकी डंडियों को कुशलता से छील कर उन्हें कुछ तोड़-मोड़कर उनकी मालायें बनाकर हम बच्चों को पहनने को देते थे। फिर हम सब सुबह के उगते सूरज की यात्रा के साथ अपने घर उछल-कूद करते हुये वापस पहुँचते थे। जीवन के वह कितने सुनहरे दिन थे!
मेरे बचपन बता तू चला क्यों गया
इस जमाने के गम भी हमें दे गया।

सर्दियों में भी मस्ती थी:

तब बिजली के हीटर न थे
सब एक जगह बैठते थे
लकड़ी या कोयले की आग
जलाकर हाथ-पैर सेंकते थे
गजक, रेबड़ी, गन्ने का रस
मूँगफली और शकरकंद
और चूल्हे पर बनी रोटियाँ
खाने में था कितना आनंद।

‘बच्चों की पत्रिकायें’
क्या ही मजे थे बचपन के जमाने के, पत्रिकाओं में खो जाने के, उन्हें छुपाकर भाई-बहनों को खिझाने के, बिस्तर में लेटकर उन्हें पढ़ते हुये सपनों में खो जाने के। लेखक कितनी लुभावनी और रोमांचित करने वाली कहानियाँ लिखते थे। वह मेरे बचपन का एक अनोखा हिस्सा था। पढ़ाई के बाद समय काटने को बच्चों के साहित्य के साथ दादी-नानी की भूत-प्रेतों की कहानियाँ भी हुआ करती थीं।
जिन्हें सुनते हुये हम सभी बच्चे रजाई में दुबक कर सो जाते थे। और अगर आँख खुली तो खूँटी पर टंगे कपड़ों का साया भूत होने का अहसास कराता था। और तब डर के मारे हालत खराब हो जाती थी।

‘बिजली से जुड़ी यादें’
बचपन में कितना कुछ देखा हम लोगों ने। मैंने तो लालटेन की रोशनी में दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की थी। गर्मी की रातों में छत पर जब ताश खेलते थे तब भी लालटेन और तेल के लैंप ही सहारा थे। फिर हमारे कस्बे में जब बिजली रानी पधारीं तो हम बच्चे लोग खुशी से झूम उठे थे।
हमारे लिये स्विच ऑन/ऑफ करना जैसे तमाशा हो गया था। जब रोशनी से सारा आँगन व वरामदा भर जाता था तो जैसे हम किसी परी लोक मे पहुँच जाते थे। फिर भी अम्मा हर शाम को काफी सालों तक दिया-बाती के समय लालटेन जलाकर उसके पैर छूती थीं।

‘शर्बत और सत्तू’
गर्मी के दिनों में सुबह नाश्ते में हम लोग जवार, लइया या चने के सत्तू को ठंडे पानी में चीनी मिलाकर खाते थे। उन दिनों चाय का प्रचलन नहीं था। दूध हलवा आदि जैसी चीजें ही खाते थे। एक बार जब मैं स्कूल की एक सहेली के घर गयी तो उसने चाय पिलाई मुझे। और वह नया अनुभव मैंने घर में आकर सबको बताया। फिर बाद में तो सभी लोगों को चाय का चस्का लग गया था। मेरी दादी आटे के चोकर से बड़ी स्वादिष्ट लपसी बनाती थीं। चोकर को रात भर भिगोकर उसमे से जो भी छानकर निकलता था उसे घी में गुड़ या चीनी के साथ मिलाकर लपसी बनाती थीं। वह हलवाई की दुकान की बनी चीजेँ नहीँ खाती थीं। लेकिन हम बच्चे लोग सब कुछ खाते रहते थे। मैं उस समय छोटी थी। बाद में हम लोगों को घासलेट के दौर से भी गुजरना पड़ा। अब तो भयंकर फास्ट फूड का जमाना आ गया है। आज के बच्चों को हमारी बचपन की बातें हैरत में डाल देंगी। अब तो cereal, milkshake और hot chocolate का जमाना है। आगे और क्या होगा उससे हम अभी अनभिज्ञ हैं। जो भी होगा वो देखा जायेगा। अपुन तो तब तक इस दुनिया से नौ, दो ग्यारह हो चुके होंगे।

‘फुरसत में गपशप’
उन दिनों अगर किसी के पास फुरसत न भी होती थी तो भी लोग गपशप के लिये समय निकाल लेते थे। अड़ोसी-पड़ोसी तक भी हाल पूछने आ जाते थे। शादी होने के बाद भी हम सब चचेरे, फुफेरे, मौसेरे बहन-भाई कभी मिलने पर बचपन के वह किस्से सुनाने को बेताब रहते थे। दिन हो या रात इन बातों के लिये सबके पास समय मौजूद रहता था। और मायके की तो कुछ अलग ही बात होती है। वह यादें अक्सर जीवंत हो उठती हैं।

‘उन दिनों की दावतें’
अब भले ही दावतों में कई प्रकार का खाना बनने लगा है किंतु मायके की तरफ अब भी कुम्हड़ा (जिसे लोग कद्दू, सीताफल, गंगाफल आदि नामों से भी जानते हैं) की सब्जी को शुभ शकुन की तरह माना जाता है। मेरे बचपन की दावतों में कच्चे केले, अरबी, लौकी, आलू आदि की तरकारियाँ अधिक प्रचलन में थीं। बूँदी का रायता तो होता ही था। साथ में मीठी सोंठ भी जो अदरक, किशमिश, खजूर, पके केले आदि मिलाकर इमली के गूदे के साथ बनती है। उन दावतों का अपना ही मजा होता था। आज की पीढ़ी को क्या पता कि पंगत में बैठकर पत्तलों पर खाना खाने का मजा क्या होता है। तब लोग कुल्हड़ में पानी, शर्बत, लस्सी, दूध और चाय आदि पीते थे।

‘मेरी अम्मा’
माँ चाहे अधिक पढ़ी-लिखी हो या कम उसकी कीमत उसके बच्चों के लिये किसी तरह कम नहीं होती। वह ऐसी धुरी है जिसके चारों तरफ़ घर-संसार घूमता रहता है। बचपन में जब स्कूल से घर लौटते थे तो आँखें तुरंत अम्मा को ढूँढने लगती थीं। तख्ती-बस्ता एक तरफ पटक कर पहला सवाल होता था,”अम्मा कहाँ है?” और माँ न दिखी कुछ देर को तो बेचैनी होने लगती थी। माँ कितना ही मारे-कूटे पर उसकी ममता कम नहीं होती। और न ही बच्चों का अपनी माँ से लगाव कम होता है। दुनिया में अगर कोई सबसे अधिक सुरक्षित महसूस करता है तो वह है माँ का साथ व उसकी छाया पाकर। उसकी सारी नसीहतें भी बच्चों के भले के लिये ही होती हैं। मेरी अम्मा घर की अकेली बहू होने से सारा दिन व्यस्त रहती थीं और सभी की सुख-सुविधा का ध्यान रखती थीं। उनकी अनुपस्थिति में घर की रौनक कहीं खो जाती थी। वह अपने बचपन के कुछ किस्से भी सुनाया करती थीं। उनके बचपन के किस्सों में से एक किस्सा था उनके मायके के घर के बाहर लगे पीपरा के पेड़ पर रहने वाली चुड़ैल का जो उल्टे पैरों पर चलती थी। और लोगों के बताने के अनुसार रात में वहाँ से गुजरने वाले लोगों को कभी-कभी दिखती थी। एक और किस्सा याद आता है ननिहाल में पड़ोस के पुराने मकान का। अम्मा बताती थीं कि उसमें रहने वाले लोग बहुत अमीर हैं। सुना जाता है कि उनके पुरखों के पास बहुत खजाना था। कहते हैं कि उस घर में एक तहखाना है जिसमें तमाम सोने-चाँदी और पुरानी कीमती चीजों का खजाना भरा है। पर वहाँ कोई नहीं जा सकता। क्योंकि उस तहखाने के खजाना की रक्षा नाग का एक जोड़ा करता है। ऐसे किस्से सुनकर हमें रात में बाथरूम जाने से भी डर लगता था। और किसी को जगाना पड़ता था।

‘संयुक्त परिवार’
सोचती हूँ कि परिवारों का वह पुराना ढांचा ही सही था जिसमें सभी पारवारिक सदस्य मिलजुल कर रहते थे और एक दूसरे का सहारा बनते थे। वैसे थोड़ी बहुत खटर-पटर कहाँ नहीं होती। पर यदि उसे नजरअंदाज कर दें तो एक दूसरे का मुसीबत में साथ देकर जीवन कट जाया करता था। इंसान परिवार का अंग बना रहता था। संस्कार भी मायने रखते हैं। किंतु आज के आधुनिक समाज में एक दूसरे की देखा-देखी में बच्चों की जैसे-जैसे सोच बदलती गयी, उन संस्कारों का प्रभाव भी कम होता गया। संयुक्त परिवार बिखरते गये। और एक दूसरे का सहारा छूटता गया।

‘होली के रंग’
मन में जैसे रंगों के गुब्बारे फूटने लगे हैं। कल्पना में बचपन के होली के दिन के सीन उभरने लगे हैं। हम सभी लोग होली के दिन कोई पुरानी पोशाक पहनकर होली खेलते थे। उन दिनों की उमंग को बयां नहीं किया जा सकता। रंगों से खेलकर बाद में नहा-धोकर लक्क-दक्क कपड़े पहकर गुझियाँ व अन्य पकवान खाने-खिलाने में भी कितना आनंद था। आह! वह दिन अब वापस नहीं लौटेंगे। उन दिनों की बात ही कुछ और थी।
न प्रदूषन की बातें पानी पर भी छूट
दुकानों पर मचती थी रंगों की लूट।

‘हम और स्कूल’
आजकल तो फिर भी गनीमत है। पर काफी समय पहले कई जगहों में स्कूलों की इमारतों की क्या हालत होती थी इसे सुनकर आप दंग रह जायेंगे। या तो आपको दुख होगा या फिर हँसी आयेगी। उस जमाने में उस छोटे से कस्बे में स्कूल होना ही बड़ी बात थी। आठवीं कक्षा तक मैं जिस स्कूल में पढ़ी उसके दरवाजों पर कुंडी नहीं थीं। और अगर थीं भी तो वह काम नहीं करती थीं। इसलिये छुट्टी के दिनों उसमें तमाम बकरियाँ आकर कब्जा कर लेती थीं और उपद्रव करके गंदगी मचाती थीं। वह स्कूल सिर्फ लड़कियों के लिये ही था। इसलिये घर में भाई लोग चिढ़ाया करते थे कि मैं बकरियों वाले स्कूल में पढ़ती हूँ। उस स्कूल के कमरों में ठंडक रहने से सर्दी के दिनों में हम सब बच्चे स्कूल के प्रांगण में धूप में बैठ कर पढ़ते थे। हम बच्चे लोग चटाई पर और टीचर जी कुर्सी पर बैठती थीं। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये स्कूल की हालत भी खस्ता होती गयी। उस पर किसी ने कभी तवज्जो नहीं दी। Beggars can’t be choosers वाली हमारी हालत थी। आठवीं पास करके जब इंटर कॉलेज में आई तो वहाँ co education थी। इसपर जब लोगों ने आपत्ति की तो उस बिल्डिंग से कुछ दूर हटकर लड़कियों को पढ़ाने का प्रावधान किया गया। जो बिल्डिंग तैयार हुई उसमें खपड़ैल डाली गई। और उस स्कूल का आँगन कभी पक्का नहीं कराया गया। बरसात में कई बार हम लोग फिसल भी जाते थे। वहाँ सिर्फ लेडी टीचर्स ही पढ़ाती थीं। बस कभी-कभार प्रिंसिपल साहब दर्शन दे जाते थे जिसे हम अपना सौभाग्य समझते थे। उनका इतना सम्मान होता था कि वह हमें भगवान के समान लगते थे। खैर, कम से कम किसी ने हम लड़कियों की पढ़ाई के बारे में सोचा तो। इसलिये जो भी और जैसा भी वह स्कूल था हम उसे अपनी किस्मत समझकर परम उल्लास से पढ़ाई करते थे।

‘शादी-ब्याह, नाच-गाना’
जब मैं छोटी थी उन दिनों घरों में किसी भी खुशी के अवसर पर आँगन या बरामदे में ढेर सारी औरतें बैठ कर ढोल-मजीरा लेकर ऐसे ही मीठे-मीठे गीत गाया करती थीं। जिनसे पूरा घर गुंजित हो जाता था। उन गीतों में एक खास तरह का आकर्षण होता था। समरोह के समापन पर सबके घर जाने के पहले हर किसी को मिट्टी के सकोरों में या दोनों में मिठाई दी जाती थी। उसमें कभी लड्डू, बूंदी, बर्फी, जलेबी, इमरती, हलवा और बालूशाही आदि हुआ करते थे। और यदि बताशे दिये गये तो कागज के लिफाफों में दिये जाते थे। वरना औरतें इन बताशों को अपने रूमालों में बाँध लिया करती थीं। उन दिनों रूमालों का बहुत ही चलन था। पर्स का फैशन न होने से लेडीज इनमें ही पैसे या रुपये भी बांधकर साथ में ले जाया करती थीं। फिर समय के साथ पर्स आये और पैसे रखकर देने वाले शगुन के लिफाफे भी। हर बदलने वाला समय अपने साथ कुछ नया लेकर आता है और आता रहेगा।

‘वह आँगन और क्यारी’
उस समय मेरे मायके में बहुत विशाल आँगन हुआ करता था। अब वहाँ सब बदल गया है। हाँ, उन दिनों जगह की कमी नहीं थी। संभ्रांत घरानों के घर बहुत बड़े हुआ करते थे। आँगन की क्यारी में लोग तुलसी का पौधा, कुछ फूलों के पौधे और कुछ पेड़ भी लगाते थे। चिड़ियों और कौओं की आवाज़ से सुबह कुनमुनाती थी। शाम को ठंडी हवा में खुली छत पर हम लोग टहला करते थे। वह सुबह-शाम बहुत याद आती हैं।

‘रसोईघर’
माँ का वह प्यार-दुलार
और खाना बनाते हुये
करना हमारा इंतज़ार
है बचपन की मधुर कहानी
तब चौके होते थे सादे से
पर माँ थी रसोई की रानी।

मेरी अम्मा के हाथों में खाना बनाने की अद्भुत कला थी। तरह-तरह के व्यंजन बनाने में वह निपुण थीं।

‘पुरानी चीजें और कपड़े’
‘यादें हैं, यादों का क्या।’ कहना आसान है, किंतु उम्र के साथ घटती हुई याददाश्त होने पर भी अक्सर ही अनजाने, अनचाहे यादों की पोटली से यादें भरभरा कर निकलने लगती हैं। पीछा ही नहीं छोड़तीं। हम सबके बचपन की कुछ अनोखी यादें होती हैं जिन्हें हम चाहकर भी भुला नहीं पाते। पुराने कपड़ों का इस्तेमाल कैसे करना है यह मेरी अम्मा खूब जानती थीं। जब बड़ी बहन के कपड़े छोटे हो जाते थे तो उनकी फ्रॉक या शलवार कुर्ता आदि मुझे दे दिये जाते थे जिन्हें पहनकर मैं खुशी से फूली नहीं समाती थी। लगता था जैसे बिल्ली के भाग छींका टूटा हो। मैं उन कपड़ों को भी छोटे से एक संदूक में बहुत संभाल कर रखती थी। अपने कपड़ों में वृद्धि देखकर बहुत खुशी होती थी। उनमें रफू करके व टूटे बटन फिर से लगाकर पहनना आदि साधारण और किफायती बातें होती थीं। अब तो जरा सा भी कोई कपड़ा फटा या कोई बटन टूटा तो उसे फेंक देते हैं लोग या फिर उसका पोंछा आदि बना लेते हैं।

‘बहनों का साथ’
कितना कुछ याद आ रहा है। गन्ना को ठंडो-ठंडो रस याद आइ गओ। और उससे बनी अम्मा के हाथ की रसाउर भी। चिड़ियों जैसे साथ खाना, साथ चहचहाना। बचपन में माँ जब मेरी बड़ी बहन व मुझमें लड़ाई होते देखती थी तो कहा करती थी कि ”अभी तो लड़ रही हो किंतु किसी दिन तुम दोनों एक दूसरे को देखने को तरस जाओगी। बहनें व बेटियाँ चिरैयों की तरह होती हैं जो आज यहाँ तो कल वहाँ।” आज भी माँ की यह बात अक्सर याद आती है। सच ही तो कहा था उन्होंने। पर उस समय उनकी यह बात समझ नहीं आती थी। जब शादी होने के बाद सात समुंदर पार आई तो हम सभी एक दूसरे को देखने को वाकई में तरस गये। कई सालों पहले अम्मा इस दुनिया से चली गईं और दोनों बहनें भी।

‘हरसिंगार, जामुन और जंगलजलेबी’
बचपन की यादों में हरसिंगार भी महकने लगा है जिसे पारिजात भी कहते हैं। मेरे मायके और ननिहाल दोनो जगह यह पेड़ हुआ करते थे। नारंगी डंडी पर सफेद कोमल नाजुक से फूल आज फिर यादों में खुशबू भरने लगे हैं। घर के पिछवाड़े एक कुआँ, नीम, छोटे-छोटे लाल रंग के फूलों की छुईमुई की बेल जो एक दीवाल पर चढ़कर लिपटी रहती थी, कटैया के फूलों के झाड़, पपीते के पेड़ और एक हरसिंगार का पेड़ भी था। कुछ जंगली फूल भी वहाँ उगे हुये थे। किंतु हरसिंगार की बात ही कुछ और थी। उसके फूलों को तोड़ना नहीं पड़ता था। सुबह तड़के उठने पर हवा के झोंकों से गिरे जमीन पर बिछे उसके सुकोमल फूलों को हम झोली में भर लेते थे। उन्हें पूजा के लिये भी एकत्र किया जाता था। और कभी-कभी सुई-धागा से उनकी माला बनाकर गले में भी हम बच्चे लोग पहना करते थे। गर्मी की दोपहर में घूरे पर उगे कटैया के पीले फूल, जिन पर आकर तितलियाँ उड़ती थीं, उन्हें भी तोड़कर अपनी झोली में भरकर हम एक दूसरे पर फेंका करते थे। घर की आँगन की क्यारी में गुलाबास, बेला, चमेली, गुलाब और रातरानी के फूल महका करते थे। गर्मी के मौसम में हम सब बड़े से आँगन में चारपाइयों पर सोते थे। और भोर की बेला में क्यारी में लगे उस रातरानी के पेड़ के फूलों की खुशबू पूरे आँगन में बिखर जाती थी। मदहोश हवा के झोंके जब साँसों में समाते थे तो बिस्तर से उठने को मन नहीं होता था। बेला के सफेद फूलों को बालों में भी सजाना मन को बड़ा लुभाता था। और हाँ, जंगल जलेबी और जामुन का पेड़ तो भूले ही जा रही हूँ। जंगल-जलेबी के पेड़ के फल का गूदा मीठा और हल्के हरे और सफेद रंग का होता है। जंगल-जलेबी और जामुन के फल हम संभल-संभल कर पैर रखते हुये कभी दीवाल पर चढ़कर या कभी किसी के कंधे पर चढ़ कर हाथों से लपक-लपक कर तोड़ा करते थे। जिनके घर में जामुन का पेड़ था वह दादी जब हमें देख लेती थीं फल तोड़ते हुये तो बहुत चिल्लाया करती थीं। और मेरी अम्मा से आकर शिकायत करती थीं। अम्मा के घूँसे और चाँटे खाने के कुछ समय बाद हम फिर वैसे के वैसे ही रहते थे। चुराकर फल तोड़ कर खाने में जो आनंद होता है उसका वर्णन करना बहुत कठिन है। घर के पीछे की गली में खेलना भी उस सीधे-सादे बचपन का एक हिस्सा हुआ करता था…और भी न जाने क्या-क्या। आज वह यादें फिर से महकने लगी हैं।
बागों में कोयल
कुहुकने लगी हैं
वह यादें फिर से
महकने लगी हैं
उन यादों में है
बचपन का खजाना
शहतूत, जामुन और
अमरूदों का खाना
आंवले तोड़ते थे
पेड़ों पर चढ़कर और
सीखा आम की
गुठलियों से सीटी बनाना।

अब घुटने चरमराते हैं तो
वह दिन याद आते हैं
हम ऐसी दौड़ लगाते थे
जैसे हवा में उड़ते जाते थे।

‘बिल्ली के सिर पर लोटा’
एक बार की बात है। गर्मियों के दिन थे। रात में आँगन में पास-पास पड़ी चारपाइयों पर सब लोग सोये हुये थे। पूरी तरह भोर भी न होने पाई थी कि रसोई घर से बर्तन खनकने की आवाजें आने लगीं। और फिर वह आवाजें आँगन में भी सुनाई देने लगी। सबकी नींद खुल गयी। देखा तो एक बिल्ली आँगन में बौखलायी सी सिर पटकती हुई इधर-उधर भाग रही थी। उसके सिर पर एक लोटा फँसा हुआ था। और सारे आँगन और रसोई घर में दूध बिखरा हुया था। रात में अम्मा ने आँगन में खूँटी से लटके सींके पर दूध का लोटा रखने की वजाय रसोई घर की जाली लगी अलमारी में रख दिया था। क्योंकि आँगन में लगे सींके पर रखने पर वह बिल्ली बहुत उछ्ल-कूद मचाती थी। और हम सबकी नींद खराब करती थी। रात में छत से उतर कर उसने रसोई घर का दरवाजा खुला देखकर दूध-मलाई ढूँढकर खाने की सोची। और किसी तरह उछल-कूद कर अलमारी की सिटकनी खोलने में सफल हो गयी। उसने लोटे में मुँह डाल कर जब दूध पिया तो उसका सिर उसमे फँस गया और तब घबरा कर उसने सिर पटकना शुरू किया कि शायद इस तरह लोटा उसके सिर के बाहर आ जाये। बिल्ली को देखते ही बड़े भाई ने आव देखा न ताव। और एक बड़ा सा डंडा लाकर वह उस बिल्ली को मारने लगे,‘’आज इसे ऐसा सबक सिखाऊँगा कि इसे जिंदगी भर अपनी नानी याद आयेगी।‘’

वह बिल्ली म्याऊँ-म्याऊँ करके चारों तरफ भाग रही थी। उसकी आँखें तो लोटे के अंदर थीं इसलिये उसे कुछ दिख नहीं रहा था। और उसकी चीखें पूरे घर में गूँज रहीं थीं। सारे बच्चे तमाशा देखते हुये उस बिल्ली के पीछे भाग रहे थे। लेकिन अम्मा यह सब न देख सकीं। उन्होंने आकर भाई की पीठ पर एक धौल जमाई और उनके हाथ से डंडा छीनते हुये चिल्लाईं,”अगर यह बिलइया मरि गई तौ तुमह बहुत पाप लगिहय। और उस पाप से मुकती पाउन को एक सोने की बिलइया बनबाइ के दान में देनी पड़िहय।‘’ किसी तरह भाई के दिमाग मे यह बात समझ में आ गयी। तो अब उन्होंने हाथ से लोटा खींचना शुरू किया। कुछ बच्चे कसकर बिल्ली को पकड़े हुये थे। लोटा उसके सिर में इस बुरी तरह फँसा हुआ था कि लग रहा था कि खींचते हुये कहीं उस बिल्ली की जान न निकल जाये। इस खींचतान में किसी तरह जब उसका सिर लोटे के बाहर निकला तो उसने न इधर देखा न उधर और म्याऊँ-म्याऊँ करके घर के बाहर भागते हुये ऐसी दौड़ लगायी कि उस दिन के बाद वह हमारे घर में या घर के आस-पास कभी दोबारा नजर नहीं आयी। सोचा होगा कि ‘’जान बची और लाखों पाये।’‘ उस दिन के बाद जब कभी इस घटना का जिक्र छिड़ता तो अम्मा खूब हँसतीं और कहतीं,”उस दिन वह नासपीटी बिलइया ऐसी सरपट भागी कि उहि दिन के बाद हमारे घर में नाय दिखायी दई। उसने बहुतय दुखी करो हमय। अब उससे हमारो पिंड छूटि गओ।”

‘डाकखाना और डाकिया’
उन दिनों चिट्ठियों की कुछ बात ही और थी। जब हफ्तों या महीनों की बेचैनी और इन्तज़ार के बाद कोई चिट्ठी-पत्री आती थी तो हम सब खुशी से चिल्लाकर कहते थे ”चिट्ठी आ गई, चिट्ठी आ गई।” और लपक-लपक कर एक दूसरे के हाथों से छीनकर उस चिट्ठी को पढ़ते थे। कोई बढ़िया खबर हुई तो उन दिनों डाकिया को इनाम भी दिया जाता था। और अगर कोई संदेश जल्दी से भिजवाना हो कहीं तो पोस्ट मास्टर साहब से टेलीग्राम भिजवाया जाता था। उनकी बहुत इज्जत की जाती थी। अब तो ईमेल या वीडियो पर चैट से मिनटों में ही संदेशों का आदान-प्रदान हो जाता है। और पता भी नहीं चलता कि किसने किसे क्या लिखा है। पहले कोई प्राइवेसी जैसा शब्द ही नहीं था।
आह! वह दिन भी क्या दिन थे।

‘चुन्नी’
माँ के पल्लू की तरह ही बचपन में हमारी चुन्नी यानि ओढ़नी भी बहुत काम की हुआ करती थी। स्कूल में लइया-चने, घर में खील, बताशे, चने, मूँगफली, पॉपकॉर्न आदि लेकर आँगन और छत पर खेलते-कूदते खाते थे। गर्मी के मौसम में बागों की तरफ घूमने जाने में चुन्नी का अहम रोल हुआ करता था। तमाम कच्ची-पक्की अम्बी, शहतूत, अमरूद, जामुन और आंवला जैसे चीजें भर लाते थे। अगर कहीं चेहरा धोने की जरूरत पड़ी तो वह तौलिया का काम भी करती थी। कबड्डी आदि खेलते हुये भी सहेली की चुन्नी आसानी से पकड़ में आ जाती थी। जब अम्मा घर का काम करवाती थीं तो चुन्नी को कमर में खोंस लेती थी।

‘अपनों को खोना’
समय-समय पर लोगों की अपनों से बिछड़ने का गम भी जाना है। पर नियति का खेल चलता ही रहता है। और हम सब बेबस से देखते रहते हैं, उस दुख को सहते रहते हैं। मैने अतीत में कितने ही अपनों को खोया है। सोचकर मन दहल जाता है। दुखों और संघर्षों पर कई कविताएं भी लिख चुकी हूँ। जब मेरे एक बड़े भाई की मृत्यु मोटर साइकिल दुर्घटना में हुई तो वह केवल 28 साल के थे।

मायका, प्रियजन और जो अन्य लोग चले गये उन्हें हम किसी भी तरह वापस नहीं ला सकते। जो भी रह गये हैं उनकी हम कदर करें। किसी को पता नहीं कि किसका साथ कितने दिनों तक है।

-शन्नो अग्रवाल

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