बापू व्यक्ति नहीं संस्कृतिः, बहुत प्रिय रहा मुझे यह शीर्षक।
सैंतीस वर्ष के आकाशवाणी के सफ़र में 25 वर्ष लगातार अन्य कार्यक्रमों के साथ हिंदी कार्यक्रम विभाग मेरे निर्देशन में रहा. इसी दौरान 1994 में राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की 125वीं जयंती मनाई गई. हमारे जालंधर केंद्र ने भी अनेक कार्यक्रम वर्ष भर के लिए सोचे.श्री लक्ष्मेंद्र चोपड़ा उसी वर्ष केंद्र निदेशक के रूप में जालंधर आये थे.कार्यक्रमों के लिए उनकी सोच और उत्साह की सीमा आकाश से भी ऊँची थी.
क्यों न इस अवसर पर बापू की आत्मकथा “ सत्य के प्रयोग “ का पाठ अपने श्रोताओं को सुनाया जाए. पंजाब है, तो पंजाबी में. पंजाबी अनुवाद की ढूंढ मची. पर पढ़ कर सुनाना रेडियो का मुहावरा नहीं. वार्ता यानि बातचीत का रूप ही रेडियो की सफल परम्परा है.
“इसलिए रश्मि जी आप रेडियो शैली में यह अनुवाद पंजाबी में शुरू कीजिये “ चोपड़ा साहब का आदेश सिर माथे पर लिए हम शुरू हो गए. हर शुक्रवार को आकाशवाणी के प्रसिद्ध “गांधी-चर्चा “कार्यक्रम में इसका प्रसारण इतना लोकप्रिय रहा कि इस श्रृंखला को तीन बाऱ दोहराया भी गया.
यहाँ कहना और बताना कुछ और चाहती हूँ।
यह अनुवाद करते हुए जो अनुभव हुए और जो जीवन में परिवर्तन आया उस पर आज भी हैरान हूँ. बचपन में कभी कहानी के रूप में गांधी जी के नक़ल ना करने का प्रसंग पढ़ा करते थे. अनुवाद करते हुए लगातार उत्सुकता बनी रही – आखिर था क्या यह शख्स? जितनी बाऱ पढ़ा उनको उतनी बाऱ जीवन में गहरे और गहरे उतरते हुए दिखे. सत्य के प्रयोग के लिए बापू ने अपने शरीर अपने जीवन अपनी सोच और अपने कर्म को ही अस्त्र और शस्त्र बना दिया था. स्व से परे होकर व्यष्टि से समष्टि को सम्मुख रखना अपने आप में चुनौती है. बापू करते चले गए. सारी प्रक्रिया क्रियात्मक है यह समझाने के लिए ही उसे आत्मकथा के रूप में हमें सौग़ात स्वरुप दे गए. अपनी गलतियों की आत्मस्वीकृति, मात्र नहीं, एक बल है एक प्रेरणा है कि सत्य ही एकमात्र सम्बल है, उसीका हाथ थामो. जीवन का दूसरा नाम कठिनाइयां ही है पर चले चलो अपनी हिम्मत से. बस याद रहे कि कर्तव्य सबसे ऊपर होता है.
जी कर्तव्य सबसे ऊपर होता है, यह प्रश्न बनकर मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ कर गया . गाँधी चर्चा में सत्य के प्रयोग का अनुवाद और प्रसारण साथ साथ ही चल रहा था. कोशिश रहती कि एडवांस में रहें अनुवाद किन्तु कभी अन्य कार्यक्रमों की प्राथमिकता कभी घरेलू व्यस्तता या प्रकरण का लम्बा होना , रुकावट बनता.
उस दिन भी ऐसा ही हुआ. एक दिन शेष था प्रसारण में. सोचा आज शाम घर पर बैठ कर अनुवाद कर लूँगी और कल प्रवेश कुमार को दे दूँगी. प्रवेश कुमार हमारे सीनियर उदघोषक उसे अपनी आवाज़ देते थे. एक बापू का प्रिय भजन लगा कर प्रोग्राम रिकॉर्ड किया जाता था. प्रसारण का समय निश्चित था प्रातः 7.05.
उस दिन 7 बजे शाम को दफ्तर से घर पहुंची तो पतिदेव की तबियत काफ़ी ख़राब थी कई दिनों से दिल की बीमारी परेशान कर रही थी. डॉक्टर के पास गए तो जैसे दृश्य ही कुछ और हो गया. डॉ ने वहीं के वहीं अस्पताल में दाखिल कर लिया. फिर तो जैसे स्थिति हाथों से जाती रही. एंजियोग्राफी टेस्ट और उसी दौरान हृदयाघात और बायपास सर्जरी.दिन कहाँ रात कहाँ, मेरे अपने होश उड़े हुए थे.
ऑपरेशन हो गया था. अभी आई सी यू में थे पतिदेव. मैं बाहर बेंच पर बैठी थी क्योकि अस्पताल के नियमनुसार जब तक मरीज़ कमरे में नहीं जाता, तब तक आपको कमरा नहीं मिल सकता था.
अचानक याद आया ओह! कल का ‘गाँधी चर्चा ‘ प्रोग्राम. अभी तो अनुवाद भी करना था, प्रोग्राम भी बनाना था. क्या करूँ!
पर लगा बापू आ खड़े हुए हैं साथ में. क्या करते वो ऐसे में !!!
मैंने किसी तरह प्रवेश को सन्देशा भेज कर बुलाया. वो आया तो उसे मेरे घर भेजा और पुस्तक मंगवाई. कोई जगह तो थी नहीं वहाँ. इसलिए रिसेप्शन के काउंटर पर ही खड़े होकर प्रकरण का अनुवाद किया
रात बहुत हो गई थी. प्रवेश ने सुबह वह आलेख लाइव पढ़ा भजन आदि बजाया.
भागा दौड़ी हुई हम दोनों की पर प्रोग्राम अपने निश्चित समय पर और अनुवाद भी अपने क्रमवार ही प्रसारित हुआ.
“सत्य के प्रयोग “का अनुवाद करते करते एक धारणा बहुत दृढ़ हो गई थी कि यदि आप अपने कर्तव्य के प्रति सच्चे हैं आपकी नीयत अपने काम के प्रति नेक है तो ईश्वर कहें या प्रकृति आपका साथ देती है. इसी कृपा के तहत कभी ऐसा ना हुआ कि मेरा कोई कार्यक्रम अपने समय पर ठीक-ठाक प्रसारित ना हुआ हो. मेरे साथ श्री प्रवेश कुमार भी इसी रंग में ढलते रहे
और एक टीम के रूप में सुचारु रूप से कार्य होता गया.
आज बहुत से वैचारिक मतभेद और प्रश्न सुनती हूँ, लोग किसी को नहीं छोड़ते. इतना बड़ा लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भला और कहाँ?
किन्तु कथनी और करनी में अंतर तभी पता चलता है जब ऊँट पहाड़ के नीचे से निकलता है
सादर नमन बापू को जो हमें इतना आत्मिक साहस दे गए।
शेष फिर कभी.
@डॉ
डॉ रश्मि खुराना,
23-7 -1953, जालंधर पंजाब से हूँ।हिन्दी साहित्य में एम. ए. पी. एच. डी., डी लिट् (मानद) उपाधि प्राप्त हूँ भारतीय प्रसारण सेवा आकाशवाणी All India Radio से Deputy Director के पद से सेवानिवृत्त हूँ . अपने 37 वर्ष के रेडियो के सफ़र में मैंने हिंदी पंजाबी अंग्रेज़ी उर्दु भाषा के कार्यक्रम विभागों का कुशल निर्देशन किया। क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यक्रमों की संरचना की। एक(broadcaster) प्रसारणकर्मी और वक्ता के रूप में एक अलग पहचान बनाई है। जनसम्पर्क में आना और विभिन्न वर्गों की समस्याओं से ओतप्रोत बात करने में मेरी विशेष रूचि रहती है . विभिन्न यू जी सी, यूनेस्को, अंतराष्ट्रीय व राष्ट्रीय सेमिनार में रिसोर्स पर्सनके रूप में सक्रिय रहती हूँ।सेवानिवृत्ति के बाद स्वयं को पूर्णतया साहित्य लेखन को समर्पित कर दिया है.
अब तक मेरी हिन्दी, अंग्रेज़ी व पंजाबी में पंन्द्रह पुस्तकें कहानी संग्रह, रेडियो संस्मरण, काव्य संकलन बाल साहित्य, अनुवाद रूप में आ चुकीं है, जिनमें महात्मा गाँधी की आत्मकथा का पंजाबी अनुवाद “सच दे तजर्बे “ तीन बाऱ रेडियो जालंधर से प्रसारित हो चुका है आजकल यह A I R Patiala से प्रसारित हो रहा है
स्वयं मैं एक संवेदनशील हृदय रखती हूँ। मानव मन को पढ़ने और अति सूक्ष्म भावनाओं को समझने में रूचि है। इसके साथ ही लेखकीय दायित्व के प्रति भी उतनी ही सजग हूँ। अपने पात्रों को, अपनी काव्य रचनाओं को दृढ़ता व सकारात्मकता से प्रस्तुत करतीं हूँ।
अनेक सम्मान और पुरस्कारों के बाद भी मैं अपने श्रोता व पाठकों को ही अपनी उपलब्धि मानती हूँ। निरन्तर अखबारों व पत्रिकाओं में लिखती रहती हूँ ।
विदेश आकर रहते हुए भी स्वतंत्र लेखन में सक्रिय हूँ । भारतीय दूतावास लंदन की पत्रिका “ भारत भवन “ में भी रचनाएं प्रकाशित होती रहतीं हैं।
बरमिंघम की अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘ गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय ’की मैं सदस्य व अध्यक्ष प्रकाशन विभाग हूँ।हॉल ही में यू. के. इंग्लैंड में रह रहे 29 प्रवासी कवियों का एक संकलन मैंने सम्पादित किया है “ हर पल वसंत रचते हैं” जिसकी साहित्य – वर्ग में भूरि भूरि प्रशंसा हुई है।
शिक्षा-मंच यू. के. काव्य -मंच की अध्यक्ष (म. का. म.का प्रकोष्ठ ) के रूप में हिन्दी का प्रचार प्रसार करती हूँ।
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