जल जीवन का प्रतीक है हमारा देश तो पूरी तरह से जल संस्कृति में रचा है। यदि जल नहीं होता तो सृष्टि ही नहीं होती। सृष्टि के प्रारंभ से ही जल का विशेष महत्व रहा है। हिंदू धर्म के आदिग्रंथों और पुराणों में भी जल के महत्व और महिमा का वर्णन किया गया है। हिंदू धर्म में किसी भी पूजा-पाठ की शुरुआत में सबसे पहले शुद्ध जल का छिड़काव कर शुद्धिकरण की जाती है और जल से भरा कलश स्थापित किया जाता है। जिस समाज में प्यासे को पानी पिलाना पुण्य समझा जाता था आज उसी समाज में बोतल बंद पेयजल का व्यापार रहा है। पिछले वर्षों में हमारे देश में विकास के नाम पर जिन प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन किया गया है, उनमें नदी-जल के साथ भूजल संसाधन भी शामिल है। भूजल दोहन से भूजलस्तर में तेजी से कमी आई है, जिससे देश के अधिकांश हिस्सों में पेयजल की समस्या दिनों दिन गहराती जा रही है। जिम्मेदार लोग अपने इलाके के पानी को अपने-अपने ढंग से रोकने के तौर-तरीकों को फिर से याद करें। इन तरीकों से बनने वाले तालाब पुराने ढर्रे के न माने जाएं। भूजल बहुत तेजी से नीचे गिरा है। अपने खेतों को ऐसी फसलों से मुक्त कर लेना चाहिए, जिनकी प्यास बढ़ी है। हम पानी पीते तो हैं, मगर पानी के बारे में जानने की कोशिश नहीं करते। हालांकि जल संरक्षण एक नागरिक के तौर पर भी हमारा दायित्व है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए (छ) के मुताबिक, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है- वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना। दुनिया की कुल आबादी में से लगभग 18 प्रतिशत लोग और 15 प्रतिशत मवेशी भारत में रहते हैं। लेकिन दुनिया की कुल जमीन में से हमारे पास मात्र 2 प्रतिशत भूमि और मीठे पानी के 4 प्रतिशत संसाधन हैं। अनुमानों के अनुसार, साल 1951 में मीठे पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता 5177 घन मीटर थी जो 2019 में लगभग 1368 घन मीटर रह गयी, जो 2025 में घटकर संभवतः 1293 घन मीटर रह जाएगी। यदि यह गिरावट जारी रही तो वर्ष 2050 में मीठे पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटकर 1140 घन मीटर ही रह जाएगी ।
ऋग्वेद में वर्णित है कि जल आनंद का स्रोत है, ऊर्जा का भंडार है। कल्याणकारी है। पवित्र करने वाला है और मां की तरह पोषक तथा जीवनदाता है। शिवपुराण में कहा गया है कि भगवान शिव स्वयं ही जल हैं। इससे जुड़ा श्लोक इस प्रकार है।
संजीवनं समस्तस्य जगतः सलिलात्मकम्।
भव इत्युच्यते रूपं भवस्य परमात्मनः॥
इसका अर्थ है जो जल समस्त जगत के प्राणियों में जीवन का संचार करता है वह जल स्वयं उस परमात्मा शिव का रूप है। इसीलिए जल का अपव्यय नहीं वरन उसका महत्व समझकर उसकी पूजा करनी चाहिए। बता दें श्रावण में सभी शिव मंदिरों के आस-पास पूजन सामग्रियों की दुकानें सजने लगती हैं। भगवान भोलेनाथ के प्रिय बिल्व पत्र से लेकर धतूरा और तरह-तरह के पुष्पों की मालाएं लेकर भक्त पूजा के लिए तैयार हैं।
मत्स्य पुराण में कहा गया है-
शरद काले स्थितं यत् स्यात दुक्त फलदायकम्
वाजपेयति राजाभयां हेमंते शिशिरे स्थितम्
अध्वमेघ संयं प्राह वसंत समये स्थितम्
ग्रीष्मअपि तत्स्थितं तोयं राज सूयाद् विशिस्यते।
इसका अर्थ है कि, जलाशय में वर्षाकाल तक ही जल रहता है, जो कि अग्निस्त्रोत यज्ञ का सीमित अवधि तक फल देने वाला है. हेमंत और शिशिर काल तक रहने वाला जल वाजपेय और अतिराम जैसे यज्ञ का फल देता है। वसंतकाल तक रहने वाला जल अश्वमेघ यज्ञ के समान फल देता है और जो जल ग्रीष्मकाल तक रहता है, वह राजसूय यज्ञ के समान फल देता है। यही कारण है कि हिंदू संस्कृति में आध्यात्मिक और धार्मिक अनुष्ठानों में जल महत्वपूर्ण है। वेद, उपनिषद, स्मृतियों और नीति ग्रथों में जल के महत्व पर जोर दिया गया है।
ऋग्वेद में कहा गया है-
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।
देवा भवत वाजिन:।
इसका अर्थ है- हे देवों, तुम अपनी उन्नति के लिए जल के भीतर मौजूद अमृत और औषधि को जानकर जल के प्रयोग से ज्ञानी बनो।
महर्षि वेदव्यास जी महाभारत के सभापर्व में कहते हैं-
आत्मप्रदानं सौम्यत्वमभ्दयश्चैवोपजीवनम्।
यानी परहितार्थ आत्मदान, सौम्यत्वं तथा दूसरों को जीवनदान की शिक्षा जल से लेनी चाहिए.
तुलसीदास जी ने लिखा
“ छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।“
नदियां जो पानी का मुख्य स्रोत है, वे प्रदूषण की चपेट में आ गई हैं। इनमें शहरों का गंदा पानी बहा दिया जाता है। कारखानों ने निकलने वाला जहरीला पदार्थ इन नदियों के पानी में घोलने वालों पर जिम्मेदारों की नजर नहीं जाती है। आज इनका पानी इतना जहरीला हो गया है कि इससे भयंकर बीमारियां फैलने लगी हैं। नदी जल में निवास करने वाले जीव-जन्तुओं का जीवन भी प्रदूषण के कारण विलुप्त होने की कगार पर है। सरकार तथा कई सामाजिक संस्थाएं इन्हें बचाने के लिए प्रयास कर रही हैं। परन्तु उनके सभी प्रयास असफल रहे हैं। यदि ऐसा ही रहा तो हमारी जलनिधियां, गंदे नाले में बदल जाएंगी। प्रबुद्धजीवियों का मानना है यदि सरकारें तय कर लें तो जलनिधियों को बचाया जा सकता है। ईमानदारी से इन्हें संरक्षित किए जाने का प्रयास होना चाहिए। पूर्व की सरकारें रहीं हो या फिर मौजूदा केंद्र व प्रदेश सरकार, सभी ने नदियों को बचाने की योजना तो तैयार की। जो प्रयास हुए, उनमें धन बचाने से अधिक कुछ नहीं किया गया है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, देश की 96 फीसदी नदियां 10 से 100 किलोमीटर की दूरी ही तय कर पाती हैं। आंकड़ों के अनुसार, सिर्फ तीन फीसदी नदियां ही 500 से तीन हजार किलोमीटर या इससे अधिक की दूरी तय करती हैं।
भारत में नदियों को ईश्वर की तरह पूजा जाता है। भारत में नदियां विश्वास, आशा, संस्कृति और पवित्रता का प्रतीक हैं। साथ ही वे लाखों लोगों की आजीविका का स्रोत हैं। नदियों के लिए लोगों में जुनून की जरूरत है। जुनून और लोग एक साथ मिलकर प्रशासन को नदी के कायाकल्प की दिशा में काम करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।सभ्यताएं नदियों की गोद में पुष्पित पल्लवित होती हैं। नदियों के बिना किसी भी सभ्यता का विस्तार नहीं हो सकता है नदियों के बिना भारतीय सभ्यता अधूरी है। नदियों के बिना सभ्यताओं का विस्तार संभव नहीं है, वे इसकी प्राणवायु हैं । सभ्यता और संस्कृति कभी भी नदियों के जिक्र किए बिना पूरी नहीं हो सकती। नदी की पवित्र धारा ने भारत भूमि के हर पहलू को आत्मसात कर लिया है। यह न केवल जल देती है, बल्कि अन्न और रोजगार के अवसर भी देती है। भारतीय संस्कृति में नदियों को पवित्र मान कर उनकी पूजा-अर्चना की परंपरा सदियों से चली आ रही है। नदियाँ सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की जननी हैं। प्राचीन सभ्यताओं का विकास नदी तटों के समीप ही हुआ है। नदी तटों के समीप विकसित होने के कारण ही इन प्राचीन सभ्यताओं का नामकरण नदी सभ्यताओं के रूप में किया गया है। भारत की प्राचीन मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु नदी घाटी के किनारे हुआ। नदियां लाखों लोगों की आजीविका का स्रोत हैं। किसी भी अन्य सभ्यता से बहुत लंबे समय तक हमने नदियों को धर्म से जोड़ कर इन्हें स्वच्छ और पवित्र भी बनाए रखा। यह विडंबना ही है कि हमारी आस्था की पवित्र और संस्कृति से जुड़ी नदियां प्रदूषित हो रही हैं। शास्त्रों और पुराणों में भी नदियों को पवित्र माना गया है जीवन के सुखद या दु:खद सभी अवसरों पर भारतीय मान्यताओं के अनुसार गंगा स्नान को अत्यधिक महलवपूणर्् माना जाता है। पूजन में जल-पूजन तथा जल-स्नान की विशेष महत्त है। इसके बिना यज्ञ और पूजन सफल नहीं माने जाते। जल को बुराइयों का संहारक माना गया है। बच्चों के जन्मोपरांत कुआं पूजन की भी परंपरा है। ऐसा माना जाता है कि कुआं पूजन के बाद बच्चे को जल का स्पर्श कराकर उसे जल पिलाना आरंभ करना चाहिए। प्राचीन काल में कुएं ही जल प्राप्ति के साधन होते थे। इसीलिए जल को जीवन मानते हुए बच्चे की दीर्घायु की कामना से कुएं का पूजन किया जाता था। वस्तुत: जल को नदियों, सरोवरों, कुएं या कलश के रूप में पूजे जाने के पीछे यही कारण है कि जल जीवन का आधार है। ऋषि-मुनि भी नदियों के तटों पर ही निवास करते रहे हैं। सभी तीर्थस्थल नदियों और सागर तट पर स्थित हैं। इतिहास में भी इस बात का प्रमाण मिलता है कि सभी प्राचीन सभ्यताएं नदियों के तट पर ही विकसित हुई है। सागर और नदियां हमारे लिए प्रकृति की अमूल्य उपहार हैं। नदियाँ सामाजिक व सांस्कृतिक रचनात्मक कार्यों का केन्द्र स्थल रही हैं। विशेष अवसरों एवं त्योहारों के समय करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। यहाँ समय-समय पर नदियों के किनारे विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है जिनमें विभिन्न वर्गों के लोग बिना किसी भेदभाव के हिस्सा लेते हैं। नदियों के तट पर कुम्भ, सिंहस्थ जैसे विशाल मेले दुनिया में केवल भारत में ही देखने में आते हैं, जहाँ करोड़ों लोग एकत्र होते हैं। इन अवसरों पर विभिन्न स्थानों से आने वाले व्यक्ति अपने विचारों व संस्कृति का आदान-प्रदान करते हैं।नदी तट पर ही छठ-पूजन का विशेष विधान है। शाम के समय और दूसरे दिन प्रात:काल वहां सूर्यदेव की पूजा की जाती है। नदियों के तटों पर विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन किया जाता है। नर्मदा नदी के किनारे किए जाने वाला निमाड़ महोत्सव ऐसा ही एक उत्सव है जो पूरे देश में प्रसिद्ध है। इस अवसर पर विभिन्न क्षेत्रों के रचनाकर्मी व कलाकार अपनी रचनाओं व कलाओं का प्रदर्शन करते हैं। नदियों के नाम से त्योहारों को भारत में ही मनाया जाता है। ‘गंगादशमी’ गंगानदी को समर्पित ऐसा ही एक त्योहार है। नदियों की परिक्रमा की प्रथा भी लोगों को एक दूसरे की संस्कृति व रचनात्मकता से अवगत कराती है। नदियाँ साहित्य में भी विशिष्ट स्थान रखती हैं। नदियों पर चालीसा, आरती, भजन लिखे गए हैं।
मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति इस कदर बढ़ रही है कि वह जीवनदायी नदियों के मूल स्वरूप से भी खिलवाड़ करने से नहीं चूकता। यदि यही हाल रहा तो नदियों के प्रवाह के अनियमित होने का परिणाम मानव के साथ-साथ अन्य जीव प्रजातियों को भी भोगना होगा जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में असन्तुलन उत्पन्न होगा। ऐसी स्थिति से बचने के लिये समाज को चाहिए कि नदियों की महत्ता को समझें और उनके मूल स्वरूप को बनाए रखने का प्रयत्न करें ताकि धरती पर जीवन अपने विविध रूपों में खिलखिलाता रहे। बिना बुलाए, बिना सरकारी भत्ते या सुविधा के एक करोड़ से अधिक लोग पवित्र नदियों के तट पर लगने वाले कुम्भ जैसे विशेष मेलों में इकट्ठे हो जाते हैं। अविवेकपूर्ण विकास और लालची प्रवृत्ति के चलते मानव ने नदियों को केवल स्वार्थ सिद्धि का माध्यम मान लिया। पश्चिम की पूँजीवादी सोच प्रकृति के संसाधनों का भरपूर दोहन कर उस पर एकाधिकार का दावा करती रही है। इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक रूप से अविरल बहने वाली नदियों को मानव ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये कभी मोड़ा तो कभी उस पर बाँध बनाया। जल धाराओं को जैसे चाहा वैसे मोड़ने की प्रवृत्ति ने उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी में बदलाव लाने के साथ-साथ विस्थापन और भावनात्मक समस्याओं को भी जन्म दिया बाँधों के निर्माण के बाद अब मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति उसके पानी और अन्य लाभों के उपयोग को लेकर अपनी-अपनी दावेदारी जताने लगी है।
ध्यानार्थ
जलधाराएं नहीं जीवनधाराएं हैं नदियां
नदियां सिर्फ जलधाराएं नहीं जीवनधाराएं हैं। नदियों के किनारे जन्मी मानव सभ्यता ने इन्ही नदियों को गटर बना दिया या फिर उत्खनन का अड्डा। नदियों के सूखने के बाद सभ्यताओं का मरना भी निश्चित है। नदियां भारतीय संस्कृति, अध्यात्म और आस्था की धाराएं है । नदियां लाखों लोगों की आजीविका का स्रोत हैं। किसी भी अन्य सभ्यता से बहुत लंबे समय तक हमने नदियों को धर्म से जोड़ कर इन्हें स्वच्छ और पवित्र भी बनाए रखा। यह विडंबना ही है कि हमारी आस्था की पवित्र और संस्कृति से जुड़ी नदियां प्रदूषित हो रही हैं। पहले देश भर में लोग, पीने के पानी के लिए, कपड़े धोने, नहाने या बस तैरने के लिए आस-पास किसी धारा या नदी तक चले जाया करते थे। आज ऐसा कुछ भी करने का सवाल ही नहीं उठता। और अगर ऐसा करते भी हैं तो सेहत पर उसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। नदियों के प्रदूषण और सफाई दोनों ही मुद्दों पर जमकर बरसों से राजनीति होती आ रही है। वैसे तो हर दिन समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरूरी है, लेकिन छोटी नदियों पर ध्यान देना अधिक जरूरी है। गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है, पर ये नदियां बड़ी इसीलिए बनती है, क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियां आ कर मिलती हैं। यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी। यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा। छोटी नदियां अक्सर गांव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं। कई बार एक ही नदी के अलग-अलग गांव में अलग-अलग नाम होते हैं। बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है। एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में सैकड़ों ऐसी छोटी नदियां हैं, जो उपेक्षित हैं, उनके अस्तित्व पर खतरा है। बीते दशक में ही नदी पर घाट, पुलिया के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया, लेकिन उसमें पानी की आवक के रास्ते बंद कर दिए गए। आज नदी के नाम पर नाला रह गया है। इसकी धारा पूरी तरह सूख गई है। जहां कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन से बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और दलदली बना दिया गया है। शहरी सीमा में एक तो जगह-जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए, उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया, फिर संकट मोचन पहाड़ियाें पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे। कभी बरसात की हर बूंद पहाड़ पर रुकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को पोषित करती थी। यहां बन गए हजारों मकानों का मल-मूत्र और गंदा पानी सीधे नदी में गिर कर उसे नाला बना रहा है।
नदी जिंदा थी तो सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे। दशकों पहले तक नदियां कल कल बहती रहती थी। तालाबों के कारण कुओं में पानी रहता था, लेकिन आज वह खुद अपने ही अस्तित्व से जूझ रही हैं। नदी की मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है। नदी के कछार ही नहीं, प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लिए हैं। कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है। कई नदियों में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है। नदी अब त्रासदी बन गई है। आज नदी के आसपास रहने वाले लोग मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से सार्वजनिक हैंडपंप से पानी लाने को मजबूर हैं। भूजल के लिए पंप रोपे जाते हैं। इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहां से आएगा? छोटी नदियां धरती के तापमान को नियंत्रित रखने, मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं। नदियों के किनारे से अतिक्रमण हटाने, उसमें से बालू-रेत उत्खनन को नियंत्रित करने, नदी की गहराई के लिए उसकी समय-समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात, समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा। अंधाधुंध रेत खनन, जमीन पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं है। उनको शातिर तरीके से नाला बता दिया जाता है। सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तंत्र का दस्तावेजीकरण हो, फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए। नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें। नदी में पानी रहेगा तो तालाब, जोहड़, समृद्ध रहेंगे। नदी के किनारे कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक तंत्र विकसित हो। सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिम्मा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए, जैसे कि रखरखाव के लिये जल पंचायत है। हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन-देन चलता था। नदी से तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाएं तो उनका पानी नदी के जरिये से दूसरे तालाबों में बह जाता था।
भारत पानी पर बांध बनाने के दर्शन पर चल रहा है, जबकि अमेरिका और यूरोप ने दशकों से बांध बनाना बंद कर दिया है। यह इस तथ्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि बांध, नदियों और उनके जल विज्ञान, पारिस्थितिकी और जंगलों को प्रभावित करते हैं। जल, जंगल और जमीन बचाना केवल पर्यावरणविदों या फिर सरकार का काम नहीं है, हम सभी इस पर निर्भर हैं और इनके संरक्षण के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। जल निधियां हैं जो जीवन और आजीविका को बनाए रखती हैं। सरकार को भावी पीढ़ी के लिए इन बहुमूल्य जल संसाधनों के संरक्षण के लिए एक रोडमैप बनाना होगा और पानी के राजनीतिक वादे करना बंद करना पड़ेगा। हम अपने सामने उभरे जल संकट के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। जबकि हमने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया। जल निधियों के प्रति उपेक्षाओं और मनमानियों का नतीजा साफ दिखाई देता है। जीवनदायिनी सदानीराओं का ये वो दर्द है जिसके हर पहलू का शायद एक आम इंसान को अंदाजा भी नहीं होता होगा।
कभी हमारे पूर्वज इन्हीं जल निधियाें के किनारे भटकते हुए जीवन की आस में यहां बस गए थे। उन्होंने यहां खेत बनाये, मवेशी पाले, गांव बसाया जिसके साथ गीत-लोक-समाज आया। आज वही जीवन बीज जल-धारा जीवन क्षय का कारण है। अगर हमने अपनी नदियों के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा, इनके मिटते अस्तित्व को लेकर चिंतन नहीं किया तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को बर्बादी की कगार पर ले जाकर छोड़ देंगे। जीवनदाई नदियों का जल इतना दूषित है कि पीने योग्य नहीं बचा है। इसमें घुले विषैले रसायन, कैंसर जैसी घातक बीमारियों को फैलाने का कारण बन रहे हैं। नदियों में संकट सिर्फ अंधाधुंध रेत, मौरंग खनन या बांध बांधने, कचरा, मूर्तियां, रसायन प्रवाहित करने तक ही नहीं है। नदियों में संकट इससे कहीं गहरा और घातक है। सबसे चिंतनीय तथ्य है कि हम अब भी नहीं जागे हैं। हमें यही लग रहा है कि जो भी होगा, सरकार से होगा। ऐसा नहीं है, नदियों के संरक्षण को लेकर समय-समय पर सरकारी योजनाएं, बड़े प्रोजेक्ट बनते हैं। लेकिन इनके पुनरुद्धार, सौंदर्यीकरण या फिर संरक्षण में कोई प्रभाव नहीं होता है। कई बड़े घोटाले नदियों के सरंक्षण को लेकर हो चुके हैं। निकट भविष्य में ऐसे और घोटोले हो जाएंगे, इस बात पर कोई संशय नहीं है।
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) का मानना है यदि नदियों के सूखने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो अगले कुछ वर्षों में 25 फीसदी भारत रेगिस्तान जैसा होगा। वैदिक काल में जिन पवित्र नदियों का उल्लेख किया जाता है, उनकी संख्या अक्सर सात होती है। आज, भारत में सात पवित्र नदियां हैं, जिन्हें अक्सर सात गंगाएं कहा जाता है। इनके बारे में माना जाता है कि वे पूरे भारत को पवित्र जल की आपूर्ति करती हैं। ऐसा माना जा रहा है कि सरस्वती पृथ्वी से लुप्त हो गई थी, भूमिगत रूप से बहती थी। यमुना, जो हिमालय से बहती हैं, उत्तर भारत से होकर मथुरा में कृष्ण के जन्मस्थान से होकर गुजरती हैं। प्रयागराज में गंगा के साथ अपने संगम तक जाती हैं। गंगा न केवल एक पवित्र नदी है बल्कि परमात्मा का एक रूप है। उसे “शक्ति” या स्त्री ऊर्जा कहा जाता है, और कहा जाता है कि वह नदी के रूप में महान भगवान शिव की स्त्री समकक्ष शक्ति है।
एक दैनिक समाचार पत्र ने बीते दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड में जमीनी स्तर पर नदियों की पड़ताल की थी। चारों राज्य में ही करीब पौने दो सौ नदियां सूखी अथवा सूखने के कगार पर मिली हैं। झारखंड, बिहार और उत्तराखंड में ही 146 से अधिक छोटी नदियां सूख चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में मझोले स्तर की 30 से ज्यादा नदियां सूखी हैं। छोटी नदियों की संख्या तो सैकड़ों में पहुंच जाती है। पूर्वांचल के 10 जिलों में ही करीब 61 नदियां बहती हैं, इनमें से 37 तो गर्मी का मौसम शुरू होते ही सूख जाती हैं। ब्रज की 25 नदियों के बारे में स्पष्ट हुआ कि यह सूखने की स्थिति में रहती हैं। प्रयागराज में गंगा, यमुना और वरुणा को छोड़ बाकी नदियां सूखी पड़ी हैं। रांची का दिल कहे जाने वाले चार जलप्रपात दशम, हुंडरू, सीता और जोन्हा का स्वरूप ही बिगड़ गया है। कभी सालभर कलकल करने वाले ये झरने मार्च महीने में ही सूख जाते हैं। उत्तराखंड में 461 प्राकृतिक स्रोत ऐसे हैं, जिनमें महज 25 फीसदी पानी रह गया है। उत्तर बिहार की दो सबसे बड़ी नदियां बूढ़ी गंडक और बागमती सूखने की कगार पर पहुंच गई हैं।
हमारी संस्कृति को एक सूत्र में पिरोने वाले वेदों में नदियों की महिमा विस्तार से वर्णित है। नदियों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए पर्यावरणविद काका कालेलकर ने लिखा है, जीवन और मृत्यु, दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है। उनकी मुख्य नदी तो गंगा हैं। यह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती हैं और पाताल में भी। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं। जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहां वर्षा के आधार पर ही खेती होती है, उसे देवमातृक कहते हैं। जबकि जो भूमि इस प्रकार वर्षा पर आधारित नहीं है, नदी के पानी से सिंचाई होती है और निश्चित फसल देने वाली होती है, उसे नदीमातृक कहते हैं। भारतवर्ष में जिन लोगों ने भूमि के इस प्रकार दो हिस्से किए, उन्होंने नदी को कितना महत्त्व दिया था, यह हम आसानी से समझ सकते हैं। पंजाब का नाम ही उन्होंने सप्त-सिंधु रखा। गंगा-यमुना के बीच के प्रदेशों को अंतर्वेदी (दो-आब) नाम दिया गया।
गंगा के तट पर रहने वाले कई पुरोहित परिवार, नदी आश्रित अपने-आपको गंगापुत्रा कहने में गर्व अनुभव करते हैं। राजा को राज्यपद देते समय प्रजा जब चार समुद्रों का और सात नदियों का जल लाकर उससे राजा का अभिषेक करती, तभी यह माना जाता था कि अब राजा राज्य करने का अधिकारी हो गया। भगवान की नित्य पूजा करते समय भी सभी नदियों को अपने छोटे से कलश में आकर बैठने की प्रार्थना अवश्य होती है। आज हम नदियों को महत्त्व देने वाली बात भूलकर उन्हें बर्बाद करने पर तुले हुए हैं। इसी का नतीजा है कि जल के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है।
हमारे उत्तरी क्षेत्र को गंगा और यमुना ने ही संसार का सबसे विस्तृत उर्वर क्षेत्र बनाया है। पश्चिम अपनी पांच नदियों के कारण पंचनद प्रदेश कहलाता है। ये पांचों नदियां वैदिक और पौराणिक काल की हैं। इनमें से सतलुज नदी वेदों-पुराणों में जहां शतद्रू के नाम से विख्यात थी, वहीं ब्यास बिपाशा के नाम से जानी जाती थी। नर्मदा, महानदी, ताप्ति और सोन नदियां जहां मध्य भारत का गौरव हैं, वहीं दक्षिण भारत कृष्णा, कावेरी और गोदावरी के कारण धन-धन्य से भरपूर रहा है। उत्तर-पूर्व भारत में ब्रह्मपुत्रा और तीस्ता के उपकारों को भला कौन भूल सकता है। इन सबके बीच भी सैकड़ों नदियां ऐसी हैं, जो सदियों से देश के जन-गण के लिए प्राकृतिक नीति आयोग का काम करती आ रही हैं। न तो हम भगवान राम के जीवन चरित्र की साक्षी सरयू को भूल सकते हैं न गौतम बुद्ध, महावीर के बिहार में विहार करती गंडक नदी को भूल सकते हैं और न ही लाखों भारतीयों के आध्यात्मिक समागम कुंभ को अनदेखा कर सकते हैं।
पुण्यदायिनी इन नदियों का ही प्रताप है कि जितनी विविधता भरी और उपजाऊ भूमि भारत में है, उतनी दुनिया में और कहीं नहीं। देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद हम जितने समझदार, शिक्षित हुए उतना ही हमारी जलनिधियों पर अत्याचार होता चला गया। एक बात और यहां पर चिंतन योग्य है, यदि सरकारों ने जलनिधियाें को उपेक्षित न बनाया होता तो आज प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करते समय हमारे बच्चे जान पाते कि अपने देश की नदियों और पहाड़ों के कितने सुंदर नाम और कितना महत्त्व था। भारत का मूल (जलनिधियां) मिटाने वाली वोटजुटाऊ राजनीति ने योजनाबद्ध तरीके से इन्हें लगभग मिटा ही डाला है। नदियों की निर्मलता से आज भी हम अपने जीवन को निर्मल और पवित्र बनाए रखने की प्रेरणा लेते हैं। आवश्यकता है, इसे संकल्प के रूप में अपनाकर साकार करने की।
विकास की गाद, नदियों के पाट समेटने में लगी हुई है। आज भी हम लाेग इन रूखी-सूखी नदियों में अपने जीवन का स्रोत और सार खोजते हैं। हमारा वैदिक और पौराणिक साहित्य नदियों की स्तुतियों और पूजा-अर्चना से भरा पड़ा है। लेकिन इन्हें बचाए रखने का विधान कहीं खो गया लगता है। आज हमने अपने सारे सरल काम जटिल कर लिए हैं। हम, अपने अनेकानेक सामाजिक दायित्व बिसरा चुके हैं। नदियों के प्रति भी हमारे कर्तव्य बाधित और भ्रमित हो चले हैं। अनदेखी के चलते ही सरस्वती नदी लुप्त हुई। कई और नदियां विलुप्ति होने की कगार पर हैं। नदियों के संरक्षण पर लगातार योजनाएं बनती हैं। सरकारें भारी-भरकम बजट इनकी साफ-सफाई, ट्रीटमेंट प्लांट आदि पर खर्च करती हैं। हकीकत में नदियां अपनी सफाई स्वयं ही बरसात के मौसम में कर लेती हैं और सफेदपोशों को कमाई का अवसर मिल जाता है।
नदियों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। एक ओर नदियों का जलप्रवाह लगातार घट रहा है, दूसरी ओर उनमें प्रदूषण की मात्रा चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई है। बढ़ती बांध, पनबिजली, सिंचाई परियोजनाओं, भूजल दोहन, वनविनाश, बाढ़ भूमि अतिक्रमण और अवैध खनन के कारण हमारी नदियों की जैवविविधता पर विपरीत प्रभाव सामने आ रहे हैं। नदी आश्रितों मछुवारों, मल्लाहों, किसानों की आजीविका पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इन सबके बीच, नदियों को बचाने के सरकारी प्रयास न केवल नाकाफी और निष्फल साबित हो रहे है, अपितु अब यह स्पष्ट है कि नदी विरोधी सरकारी योजनाओं के चलते ही छोटी बड़ी जलधाराएं सूख रही हैं। वास्तव में नदी संरक्षण संबंधी नियम कानूनों और व्यापक जनभागीदारी के अभाव के चलते आज हमारी जीवनदायनी नदियां, खुद के स्वछंद बहते जल को तरस रही है।
केवल सरकार के प्रयासों से नदियां साफ नहीं हो सकती हैं, इसके लिए जन-सहयोग भी जरूरी है। हमें वास्तव में नदियों का सम्मान करना सीखना होगा। अन्यथा आने वाले समय में बाढ, सूखा, जल संकट भूमि प्रदूषण ही नहीं अपितु उत्तरांचल जैसी भयावह प्राकृतिक आपदाएं भी झेलनी होंगी। सरकार की तमाम कोशिशों और योजनाओं के बावजूद नदियों में प्रदूषण खतरनाक स्तर तक बढ़ गया है। कई नदियां तो विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी हैं। इसका सीधा असर प्राकृतिक संतुलन पर पड़ रहा है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक 36 राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में से 31 में नदियों का प्रवाह प्रदूषित है। पिछले तीन सालों में देखा गया है कि खतरनाक रूप से प्रदूषित 45 प्रवाह ऐसे हैं, जहां के पानी की गुणवत्ता बेहद खराब है।
धरती मां को हम इंसानी रूप में देखें तो नदियां रक्तवाहिनी और झरने-तालाब धमनियां हैं। बेतहाशा दोहन से असंख्य धमनियां सूख चुकी हैं, रक्तवाहिनी सिकुड़ रही हैं और वह जीव तंत्र मरने की कगार पर है जो जमीन से जुड़ा है। वेद, पुराण, विज्ञान सबने जिन्हें जीवनदायिनी का दर्जा दिया वो नदियां निष्प्राण हो चली हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड की सूखती नदियों के अनिश्चित भविष्य पर पहाड़ों में दूर दराज के इलाकों में बसे लोग रोजमर्रा की जरूरतों के लिए प्राकृतिक जल धाराओं पर निर्भर हैं। विगत पांच वर्ष पहले तक जो जलधारा करीब पांच इंच मोटी हुआ करती थी वह अब सिकुड़ कर दो इंच रह गई है। संकेत साफ है कि जलनिधियों में जल संकट गहरा रहा है। कोसी, गोमती, गरुड़गंगा, गगास, पश्चिमी रामगंगा, बिनो, सुयाल, नाना कोसी, खुलगाड़, कुजगढ़, दाबका, गौला, कालसा, पनार, क्वैराला, लोहावती, लधिया, पूर्व नयार, पश्चिमी नयार, रान्दीगाड़, खो नदी, आटागाड़, सौंग, रिस्पना, बिंदाल, स्वारना, आसन, टोंस, अगलाड, अमलावा, हेवल, ह्यूल, टकोलीगाड़, जलकूर, कमल आदि नदियों में गर्मियों के दिन पानी बहुत कम रह जाता है।
देवभूमि उत्तराखंड में पहाड़ों से कलकल बहने वाली नदियों का गला सूखने लगा है। राज्य की 65 नदियां सूख चुकी हैं और 250 सूखने की कगार पर हैं। कभी साल भर पानी से लबाबल रहने वाले हजारों प्राकृतिक जल स्रोत अब बरसात के अलावा कभी भरे नहीं दिखते हैं। कभी जल-जंगल से संपन्न इस राज्य में बदलते समय के साथ पानी अनमोल होता जा रहा है। बीते तीन दशक की बात करें तो 35 नदियों में पानी की मात्रा 50 से 75 फीसदी तक कम हुई है। बौर, नाना कोसी, खुलगाड़, स्वाल, दाबका, गौला, कालसा, पश्चिमी रामगंगा, पनार, लधिया, मंडल, बिनो, सोना, रिस्पना, निगलाट, शिप्रा, कल्याणी, फीका, ढेला, रामगाड़, लोहावती, बिनोद, सौंग, आसन, इंद्रावती, नंधौर आदि नदियां तेजी से दम तोड़ रही हैं। जिससे राज्य की पेयजल और सिंचाई व्यवस्था प्रभावित होना स्वाभाविक है।
ध्यानार्थ
नहीं मिल पाया नदियों को ‘जीवन का अधिकार’
साल 2017 में वर्ल्ड वॉटर डे के दिन उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एक बेहद अहम फैसला दिया। कोर्ट ने अपने फैसले में गंगा, यमुना और उसकी सहायक नदियों को किसी ज़िन्दा व्यक्ति का दर्ज़ा दिया था। इसका मतलब ये है कि नदियों के पास भी जीने का अधिकार है और ऐसे में इंसानों को उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा वो अन्य इंसानों से करते हैं। लेकिन, सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में अपनी याचिका दायर की। इस याचिका में सरकार ने कई वजहों को सामने रखते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। सरकार ने कुछ दलीलों में से एक दलील थी कि अगर नदी जीवित मानी जा रही है तो क्या उसकी वजह से जान जाने पर उसे सजा भी दी जाएगी और एक बाढ़ की स्थिति में भी यह अधिकार उपयोगी नहीं होगा। अमर उजाला में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तर प्रदेश नियंत्रण बोर्ड ने साल 2018 में यमुना नदी के प्रदूषण की रिपोर्ट दी थी। इस रिपोर्ट ने जल निगम और यमुना एक्शन प्लान को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया। आगरा और मथुरा में यमुना नदी पूरे प्रदेश में सबसे गंदी और नाले जैसी प्रतीत होती है। जबकि इस प्लान के तहत यहां सबसे ज्यादा खर्च सफाई के लिए हुआ है।
ध्यानार्थ
बेंगलुरु के जल संकट चेतने का संदेश
देश की आईटी राजधानी कहे जाने वाले, बंगलूरू में लोग पानी की बूंद-बूंद को भी तरस रहे हैं। हालात यहां तक आ गए हैं कि कर्नाटक जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड ने कई कामों में पेयजल के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी है। आदेशों का पालन नहीं करने पर जुर्माना लगाने की बात भी कही गई है। बेंगलुरू में लगातार पानी का संकट बढ़ता जा रहा है। बेंगलुरु को 145 लीटर करोड़ पानी कावेरी नदी से मिलता है, 60 करोड़ लीटर बानी बोरवेल से आता है। अब ये दोनों ही स्त्रोत सूख रहे हैं और आईटी हब में हाहाकार मच चुका है।
2016 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बेंगलुरु के 90 प्रतिशत से अधिक जलनिधियों पर अतिक्रमण किया गया है। इसके लिए लापरवाह विकास और कंक्रीटीकरण दोषी हैं। ठोस अपशिष्ट को डंप करने से जल निकायों की क्षमता भी कम हो जाती है। बेलगाम निर्माण, झील के पारिस्थितिकी तंत्र का बिगड़ना, बिना सोचे-समझे सफेद टॉपिंग और शहर का कंक्रीटीकरण जलभृतों के पर्याप्त रिचार्ज को रोकता है। इन सभी ने वर्तमान जल संकट में योगदान दिया है। शहरीकरण शहर के जलनिधियों को ख़त्म कर रहा है। झीलें और तालाब प्राकृतिक कुंड हैं जो वर्षा जल एकत्र कर, भूजल स्तर को फिर से भरते हैं। जब ये झीलें निष्क्रिय हो जाती हैं, तो प्रकृति की जल संचयन प्रणाली प्रभावित होती है। मिश्रण में जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित वर्षा पैटर्न जोड़ें और जल आपूर्ति और भी गड़बड़ा जाती है।अनियंत्रित शहरीकरण एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा है। अधिकांश भारतीय शहरों में जल निकायों पर अतिक्रमण कर लिया गया है।
प्रवीण पांडेय ( संस्थापक – बुंदेलखंड राष्ट्रीय समिति )
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