माह विशेषः मौत कुछ कविताएँ

हँसती रहने देना

जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे
इन आँखों को
हँसती रहने देना!

हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने अनजाने) सौ झूठ कहे

पर आँखों ने
हार, दुःख, अवसान, मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

इस पार
उन्हें जब आवे दिन
ले जावे
पर उस पार
उन्हें
फिर भी आलोक कथा
सच्ची कहने देना
अपलक
हँसती रहने देना
जब आवे दिन!
अज्ञेय

मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
– गुलज़ार

आज सुनी मृत्‍यु की खबर
और दहल गया
हालांकि यह मृत्‍यु थी मां की
हरि की मां

और जब यह फोन आया
मैं मां के पास था
मैंने मां को देखा
वह सो रही थी
मैंने हमेशा की तरह रजाई में दुबकी
उसकी सांसों का चलना देखा
उसका माथा छुआ
वह ठण्‍ड में डूबा था
लेकिन सांसें चल रही थीं

इसमें आश्‍वस्‍त होने के बाद भी एक भय था
मैं अपनी मां को देख रहा था
कि जैसे उस मां को जिसकी अभी-अभी खबर मैंने सुनी
और भीतर तक दहल गया

एक मां के न होने से कितनी सूनी हो गई दुनिया

लीलाधर जगूड़ी

अंत में,

अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।

अन्यथा
इसके पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर
फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में
समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।

‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से—
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

नभ के सीमाहीन पटल पर
एक चमकती रेखा चलकर
लुप्त शून्य में होती- बुझता एक निशा का दीप दुलारा !
देखो टूट रहा है तारा !

हुआ न उड्डगण में क्रंदन भी,
गिरे न आंसू के दो कण भी,
किसके उर में आह उठेगी होता जब लघु अंत हमारा !
देखो, टूट रहा है तारा !

यह परवशता या निर्ममता
निर्बलता या बल की क्षमता
मिटता एक, देखता रहता दूऱ खड़ा तारक दल सारा !
देखो, टूट रहा है तारा ।

हरिवंश राय बच्चन


झर गए पात
झर गये पात
बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

नव कोपल के आते आते
टूट गये सब के सब नाते
रीम करे इस नव पल्लव को
पड़े नहीं पीड़ा सहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

कहीं रंग है, कहीं राग है
कहीं चंग है, कहीं फैग है
और धूसरित पात नाथ को
टुक टुक देखे शाख बिरहनी
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

पवन पाश में पड़े पात ये
जनम-मरण में रहे साथ ये
“वृंदावन” की श्लथ बाहों में
समा गयी ऋतु की “मृगनयनी”
झर गये पात बिसर गई टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी?

-बाल कवि बैरागी

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