माह के कविः अमित आनंद पांडेय

उस गुलाब ने
सबसे पहले दिखलाईं
अपनी कोमल पंखुरियां
गंध बिखराई
फिर खिल कर बिहँसा
इठलाया कोशिश की
बाग़ में सबसे सुन्दर दिखने की
और झर गया आखिर में
थक हार कर !

अमरता किस्सों की बात है महज़़

सुनो
सुनो तो
आज के रोज़ कह लेने दो

मैं जब भी
कविता लिखता हूँ
मैं भोगता हूँ
मेरा ऊट-पटांग
“मैं”

नहीं तो
मैं
तुम्हारा मुकम्मल
“तुम” जीता हूँ

बीत रहे दिन / तुम नहीं बदले लेकिन

दरवाजे के
कैक्टस पर
तितलियाँ आयीं हैं आज,

रंगीन
तितलियाँ…
नन्ही नाजुक
मखमल सी कोमल,

अब
शायद
कंटीले कैक्टस पे
खिले
कोई-
फूल!!

रुको भाई
ठहरो तो
मत चिल्लाओ….
रुक जाओ!

मैं
सपने बुन रहा हूँ
और तुम्हे महगाई की पडी है
मेरी प्रेयसी के आगे
तुम्हारी प्याज खडी है,

चिल्लाओ नहीं यार
सुनो गजलें
खाओ प्यार!

क्या हुआ कि
महंगाई मे भूखे हों
ह्म्म्म
तभी तो इतने अशिष्ट और रूखे हो..

जाने दो यार

काले धन की बात न करो
वो काला है
तुम हाथ लगाओगे?
उस धन से अपने बच्चे की दवाई
ला पाओगे?

छोड़ भी यार….

भूल जाओ
क्या फर्क पड़ता है
अपने आस-पास जिन्दा ही कौन है
जो-
मंहगाई मे मरता है!


दौड़ो….
दुबक जाओ
अपनी बिल मे
कहीं कोई कांच गिरा है
छनाक………. इश्श
वो क्या ?? ?
कोई बिल्ली?
आहा कोई झबरा कुत्ता ??
बाप रे भागो
भागो रे जान बचाओ!!
सहमे रहो
सांस रोके रखो
कोई आहट है
थमो वो कुचल देगा . . . उफ़
क्या क्या ख़याल आते हैं
इस चूहे से मन में!!


माँ!!
कहाँ से शुरुआत करूँ?
लिखने की
तुम पर
तुम तो विषय -वस्तु की
शाश्वत शब्द शृंखला हो!

ममता हो तुम!
करुणा हो, दया हो
त्याग, तपस्या और सृजन-कर्ता हो!

यहाँ तक कि
संसार की समस्त उत्कृष्ट भावनाएं
तुम में ही
समाहित हैं
प्रवाहित हैं
विश्राम पाती है श्रद्धा,
तुम्हारे ही चरणों में!

झरता है आशीष
तुम्हारे वरद हस्त से
और-
अधरों की स्नेह सिक्त स्मिति में
तमाम
कलुषित भंगिमाओं को नकारती हुयी
लक्ष लक्ष अनाथों की
सनाथ-कर्ता !

मेरी अकिंचन प्रवंचनाओ को
तुम ही तो
स्वीकारती हो!

जिसकी बातों से
टपकता था
मीठा शहद
झरा करते थे
तमाम फूल
जूही के
चंपा के,

आज
उसकी
आवाज मे
अंगार भर गया
कौन!

प्रश्न चुप है
उत्तर मौन!


कल शाम
पिछवाड़े के कच्चे मकान मे मिला
रमवापुर वाली काकी का कंगन!
अधजला टेढ़ा
काला पड़ चुका
चार साल पुराना कंगन!

याद आ गया
चलचित्र सा
अनबीता व्यतीत!!

काकी की डोली
काका का सेहरा
बैलगाड़ियों भर दहेज़
लाल लाल साड़ियाँ
दुहात्थे लड्डू!!

काकी के हाथ की महीन रोटियाँ
सर का पल्लू
नाक की चमकती लौंग!

दादी का गुस्सा
काका की लाठी
काकी की नीली पीठ
नाक का खून
टूटी हुयी चूडियाँ
“सब याद आ गयीं”

और इसी चांदी के कंगन के साथ
एक दिन गायब हो गयीं
“काकी”
काका के हिसाब से
“बिगवा” उठा ले गया उनको!

और सहसा
मेरे पैरों तले ज़मीन
दरक उठी….
तो क्या वो “बिगवा”
यही रहता है
मेरे ही घर के पुराने कच्चे मकान मे!!

कुकुरमक्खियों
यह सब्र का इम्तिहान है

हम दहाड़ देंगे अब

अपने रक्ताभ मुह से
अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ

दहाड़ के वक़्त / ऊंची उठी होगी हमारी पूँछ
हमारा पार्श्व / हमारे मुख से भी ज्यादा होगा रक्तिम

हम दहाड़ेंगे तुमको निन्दित करने तक

बेशक
तुम इसे मानते रहो / महज़ हमारी

“बनरघुडकी”

झुकी कमर
बुझी बुझी सी आँखों वाला….
पानी के घड़े ढोता “बूढ़ा”
दूर
पूरब से भर के लाता
इच्छाओं का आसमान
और बिखेर देता
एक एक कतरा उम्मीद!

धान की नन्ही कोंपलें
खिल उठती थीं
बिहंस पड़ते … तमाम नदी पोखर
खिलक पड़ते “दादुर”!!

अपने काम के बीच
बूढ़ा
जाने कब सजा लेता अपनी चिलम
उसकी तड़क
उसकी चमक……
और फिर रफ़्तार दुगुनी हो उठती
बूढ़े के घड़ों की!

जिसकी प्रतीक्षा
मेरा पूरा गाँव
मेरे खेत खलिहान
सब करते थे
वो बूढ़ा
अभी तक नहीं आया मेरे गाँव की पगडण्डी तक

शायद
सुदूर पूरब में दरक गया हो कोई ताल
या
भटक गया हो राह
या
अब कभी भी ना आएगा
पुरवा के रथ का सारथि
वो बूढ़ा!!

अमित आनंद पांडेय
( 27-11-77 से 1-6-24)

अद्भुत कवि और अपनत्व भरा स्नेही व्यक्तित्व।
अब बस स्मृति शेष।
तुम्हारी कविताएँ ही तुम्हारी याद बनकर रहेंगी।

लेखनी परिवार और तुम्हारी अग्रजा की तरफ से नम श्रद्धांजलि अनुज।
भगवान तुम्हें अपने श्री चरणों में स्थान दे। परिवार को असह्य दुख सहने की शक्ति दे, और उनका ध्यान रखे।

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