मन बंजाराः कुछ यादें, कुछ बातें-शैल अग्रवाल

यात्रा रोमांच भी है और परेशानी भी। मुसीबत भी और आनंद भी। दुनिया भर के वैविध्य और वैभव के बावजूद भी पर पहला प्यार सदैव भारत ही रहा है मेरा। तभी तो स्मृतियाँ प्रायः वहीं जाकर रम जाती है; चाहे कहीं भी और कितना भी घूम लूँ। बिना भारत की धरती के, वहाँ के हालचाल लिए मानो सब अधूरा-सा ही तो रह जाता है। सौभाग्य ही था कि वर्ष 2017-18 में चार महीनों में जल्दी-जल्दी दो बार भारत जाने के अवसर मिले और सिर्फ एक पर्यटक की तरह भी घूमने गए हम अपने ही देश में।

गोवा, मुंबई, भुवनेश्वर, कोणार्क और जगन्नाथ पुरी, पर फेहरिस्त बेहद विविध और रोचक ही रही और आनंद दायी भी। नए अनुभव और पुरानी यादों का हमेशा अद्भुत समिश्रण ही तो रहता है सदा भारत।

पांचाल प्रदेश फरुक्खाबाद में दुर्वासा ऋषि का आश्रम देखा हमने जो अब एक सफल गोशाला भी है। पूर्णतः रोमांचित करने वाला अनुभव बैठे था वह भी। मानो हम टाइम मशीन में बैठकर महाभारत काल में जा बैठे हों, परन्तु अपने स्वभाव के विपरीत न तो पत्थर के दुर्वासा ऋषि क्रोध ही कर पा रहे थे और ना ही किसी को श्राप ही दे पा रहे थे। ध्यानमग्न और शांत ही दिखे पूरे समय।

बनारस में नौका बिहार करते समय रात के अंधेरे में काशी को गोदी में समेटे गंगा मां के दर्शन का एकबार फिर से सौभाग्य मिला और एक बार फिर मन में वही भावों का आलोड़न ही था । एक तऱफ जहाँ घाट की रंग-बिरंगी रोशनी की परछाँइयाँ मन में अभूतपूर्व शांति और उल्लास भर रही थीं, वहीं दूसरी तरफ जलती चिताओं की लपटें उदास विरक्ति…वही कौन था…कैसा था…तरह तरह के सवाल और जवाब और वही असह्य गंध थी।

भारत में पर्यटन के नाम पर सिर्फ तीर्थ यात्राएं ही थीं अभीतक, जो कि हमारे ज्ञानी पूर्वजों ने बहुत सोच-समझकर चारो दिशाओं और दुर्गम प्राकृतिक क्षेत्रों में नियोजित की थीं ताकि धर्म के बहाने ही पूरा भारत भ्रमण किया जा सके । परन्तु आज विश्वग्राम के चलते स्थान-स्थान पर मनोरंजक पर्यटक स्थल बन चुके हैं , जहाँ आप धार्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक और मनोरंजक यात्राएं भी कर सकते हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों के भोजन और वेश भूषा आदि का आनंद ले सकते हैं। शहरी जिनके लिए ग्रामीण जन-जीवन एक अजूबा-सा है , चाहें तो उसका भी भरपूर आनंद ले सकते हैं। हाल ही की कच्छ की यात्रा और रान महोत्सव के शिविर में रहना एक ऐसा ही अनुभव था। यूँ तो शादी के बाद तीन दिन पहलगाम में भी तम्बू में रहे थे जो कि नदी के किनारे बहुत ही रम्य स्थान में थे और हर आधुनिक सुविधा से सज्ज थे। श्रीनगर में शिकारों में रहना भी अपने आप में एक सुखद अनुभव था। खिलन मर्ग और गुलमर्ग की कौटेज …वाकई अभी भी बहुत कुछ है कश्मीर में जो स्विटजरलैंड सा ही सुंदर है भारत में। कश्मीरी कपड़ों में सिर्फ फोटो ही नहीं खिंचवाई थी एक कश्मीरी परिवार जिससे पहलगांव क्लब में मुलाकात हुई थी उनके यहाँ भी उनके आमंत्रण पर एक ब्रिज की शाम और रात गुजारी थी हमने।

निश्चिय ही खुली सड़क पर दौड़ते हुए चीते का सामने आ जाना जितना रोमांचित करता है, भय देता है, सफारी पार्क में वह अनुभूति नहीं मिल सकती। जैसाकि हमारे साथ रानीखेत से कसौली जाते वक्त हुआ था। पर मजे की बात यह थी कि हम चीते से डर रहे थे और चीता हमसे। परन्तु कार की हेडलाइट पड़ते ही यह जा और वह जा, लोमड़ी-सा ही तो भाग गया था वह ।…

कई मंदिर भी देखे- पुरी का, लिंगराज का। परन्तु पुरी के पास रघुराजपुर गांव में घूमना अपने आप में एक अभूतपूर्व अनुभव रहा। कागज और सिल्क पर पेन्टिंग के अलावा स्थानीय कलाकार ताड़ के पत्तों पर अपनी लेखुनी से अद्भुत आकृतियाँ उकेर रहै थे और फिर उन्हें काली स्याही में भरकर खूबसूरत कलाकृतियों का रूप दे दिया जाता था। हमने भी उनकी लेखुनी के साथ ताड़ के एक पत्ते पर अपना हाथ अजमाया और फिर जब उसने एक कलाकार की तरह हमारा अभिनंदन किया और हमें एक तस्बीर तुरंत ही कागज पर खींचकर सौगात में दी तो हमारा मन भी एक बार तो बच्चे-सा ही किलक उठा था। हमने भी तुरंत ही वह लेखुनी और एक पेन्टिंग व कुछ छोटी मोटी दूसरी कलाकृतियाँ खरीदकर अपनी कृतज्ञता जताई और धरोहर की तरह उन्हें समेटकर बेहद पुलकित मन से उन समर्पित कलाकारों से विदा ली।

कोणार्क जाना तो मानो मन में पलता एक सपना था जाने कितने वर्षों बाद साकार हुआ। रोमांच वैसा ही था जो रामेश्वर के पुल से खड़े होकर श्री लंका को देखने पर महसूस हुआ था और संतोष भी वही था जो कन्याकुमारी में विवेकानंद टापू पर खड़े होकर मिला था। हम इतिहास को जी रहे थे उन पलों में। वहाँ जाकर जो खुशी हुई वह अपने आप में एक उपलब्धि जैसी थी। कोणार्क भव्य है और अतीत के सारे गौरव को आज भी वैसे ही अक्षुण्ण रखे हुए है। पत्थर पर कटाई और कशीदाकारी के जितने रोचक और सूक्ष्म नमूने हमें भारत में मिलते हैं, पूरे विश्व में आज भी बेजोड़ हैं, वह भी सभ्यता के आदिकाल से । खजुराहो, कोणार्क , मीनाक्षी मन्दिर और रनकपुर आदि कई ऐसी जगहें थीं जिन्होंने अपनी बारीकी और भव्यता से पूर्णतः अचंभित किया है और केदारनाथ , अमरनाथ आदि जिन्होंने अपनी दुरुहता और रहस्यमय वातावरण से।

कोणार्क और पुरी के बीच स्थित ऱेत की आकृतियों का वह संग्रहालय भी शायद ही कभी भूल पाऊँ, अद्भुत कलाकृतियाँ थीं वह भी पत्थर या काष्ठ पर नहीं, भुरभुरी रेत पर बनी।
पुरी में सागर किनारे वह मोती बेचने वाला भी भुलाए नहीं भूलता , जिसने तीन दिन तक रोज इंतजार किया क्योंकि बुखार के रहते वहाँ वापस नहीं लौट पाई थी और उससे मैंने वादा किया था कि आऊंगी अवश्य, उसकी कुछ मालाएँ अवश्य ही लूंगी। फिर जब आई और बाद में अंधेरे में अकेली बैठी लहरों को देख रही थी तो दूर बैठा वह भी मेरी चौकीदारी करता रहा था। फिर अंत में होटल के अंदर पहुंचाकर ही गया था। ऐसा क्यों? सामने ही तो होटल था- पूछने पर बोला- दीदी आपको अकेला छोड़कर भला मैं कैसे जाता! अपरिचितों से इतना स्नेह और इतनी परवाह…मन अनजाने ही भीग-भीग गया। शायद दीदी शब्द का ही वह जादू था।
परिजनों और मित्रों से मिलने-जुलने के साथ-साथ भारत के विभिन्न प्रान्तों के भ्रमण में कई अविस्मरणीय पल आए। परन्तु वह आत्म संतोष और आत्मीयता का अनुभव जो भारत में होता है कहीं और संभव ही नहीं।

हाल ही में मौरिशस जाने का मौका मिला था।

पहुंचकर लगा ही नहीं कि हम भारत के ही किसी हिस्से में नहीं हैं। शुरु में पांच तारा होटल की परिचारिका हमें इंगलैंड से आया जानकर एक शब्द हिन्दी का नहीं बोलती थीं। धीरे-धीरे हमारे साथ खुलकर हिंदी में बात करने लगीं।मौरिशस में अभी तक दो तरह के लोग मिले- अधिकांश वो जो हिन्दू और हिन्दुस्तानी कहने और कहलवाने मात्र से गौरव से भर जाते हैं, बहुत अपनेपन के साथ आपसे जुड़ जाते हैं। और दूसरे वे जिन्हें खुदको भारत से जुड़ना अच्छा नहीं लगता, ये खुदको पक्का मौरिशियन कहते हैं, पर हाँ ये औरतें भी माथे पर छोटी सी बिन्दी अवश्य लगाती हैं। पर ये पहली किस्म के लोग ही हैं जिन्होंने मौरिशस को मिनी हिन्दुस्तान बना रखा है। ये जी जान से इन पांचतारा होटलों में आपकी खातिर करते हैं और एक पारिवारिक माहौल पैदा कर देते हैं। ऐसे ही थे पिछले होटल के हिन्दुस्तानी सेक्सन के कुक वीर जिन्होंने हर तरह से ध्यान रखा हमारा। लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिले हैं। गलती से कुछ मुंह से निकल जाए और अगले दिन वही मेनु में रहता था। प्लेट तक खुद लगाकर लाते….मौरिशस का वाकई में खातिरदारी में जवाब नहीं। और शायद यह भी एक बड़ा राज है मौरिशस का एक सफल और पहली पसंद का पर्यटन गन्तव्य स्थल बन जाने में।
मौरिशश के पांचसितारा होटल में भी एक दिन भारतीय रहन-सहन का आयोजन किया गया था। यूरोपियन के लिए मौरिशियन-भारतीय परिवार में एक दिन खाना-पीना और वक्त गुजारना निश्चय ही एक अच्छा अनुभव रहा होगा। हमने वहाँ अपना वह दिन वहीं समुद्र के किनारे होटल में ही गुजारा था। आधुनिक सुख-सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध हैं-बूढ़े-बच्चे, जवान सभी के लिए इन पर्यटक स्थलों पर और आप जब चाहो तभी किसी देश और प्रांत के भोजन का आनंद उठा सकते हो । कुछ भी दुनिया के किसी भी देश और कोने का खरीद सकते हो। और हो भी क्यों ना, पहले जहाँ सिर्फ साधु सन्यासी और ज्ञानी-ध्यानी जान की जोखिम उठाकर यात्राएँ करते थे, अब सभी करते हैं, कर सकते हैं अपनी रुचि और सामर्थ अनुसार। इंद्रलोक सी सुविधाओं से भरपूर नित नए पर्यटन के प्रचार और आमंत्रणों की वजह से माया लोक में खोए बच्चे से डूब जाते हैं हम इन यात्राओं में। क्या खोज रहे हैं और कहाँ जाना है जाने बगैर ही निकल पड़ते हैं अपनी बैटरी रिचार्ज करने।

हर यात्रा अलग रही है अपना अलग ही स्वाद लिए हुए।

याद आ रही है ट्यूनिशिया की वह यात्रा जहाँ अचानक ही रंग में भंग हो गया था और हमारी बनाना बोट उलट गई थी। सब डूबते-डूबते बचे थे। या फिर फ्रैंकफर्ट में वह पल भी कम डरावना नहीं था जब जहाज 4 घंटे लेट हो गया था और सभी भारतीय पासपोर्ट धारियों की जहाज के अंदर ही गिनती की गई थी। पूरा नाजियों का इतिहास याद करके मन कांप उठा था उस पल। वह तो बाद में ही पता चल पाया था कि ऐसा बस सिर्फ इसलिए हुआ कि भारत से आए कोई मंत्री जी और उनकी पार्टी जहाज में वापस लौटने के बजाय अभी भी एयरपोर्ट पर सनग्लासेज ही खरीद रही थी और एक साथ 11 व्यक्तियों को छोड़कर जहाज नहीं उड़ सकता था।

मां बाप के संग बचपन में घूमे उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों और विद्यार्थी जीवन में गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ों की सैर ( मुख्यतः नैनीताल) को भूल जाऊं, ब्रिटेन के समुद्री किनारे, पहाणों और हरे भरे बाग-बगीचे और सरसों के खेत जिनके बीच रोज ही घूमे हैं, उन्हें ही क्यों, हर प्रिय नदी झरने के किनारे, रोमांचक जंगल और समुद्र की लहरें, सभी को भूल जाऊँ तो भी पहली यादगार यायावरी स्कैंडिनेवियन देशों की की थी, जिसमें कई अनजान देश ( स्वीडेन, डेनमार्क, नौर्वे और फिनलैंड घूमे थे, उनके बीच में रहे थे। इसी यात्रा के दौरान जर्मनी के ब्लैक फौरेस्ट से भी गुजरना हुआ था जो अपने आप में एक यादगार और रोमांचक अनुभव था। इंगलैंड में तो रहना ही था, प्रवास के शुरुआती दिनों में ही यूरोप और यूरोपियन संस्कृति का भी थोड़ा बहुत अनुभव हुआ , उसे थोड़ा बहुत जाना और समझा।

जहाँ मेरे लिए कई चीजें नई थीं, यूरोपियन भी कभी हमारे खूबसूरत भारतीय परिधानों की तरफ आकर्षित होते तो कभी नाक की लौंग पर। जब संगम फिल्म देखी थी तो विश्वास नहीं हुआ था कि वाकई में इन्हें हम भारतीय इतने अच्छे लगते हैं, बस इनकी नफरत की कहानियाँ ही सुनी थीं पर यूरोप घूमते विशेषकर स्वीडेन डेनमार्क और पैरिस में कई बार सुनने को मिला कि साडी कितनी सुंदर है, बाल कितने सुंदर है बिल्कुल मरमेड की तरह । और यह नाक की कील जब धूप में चमकती है तो बहुत ही सुंदर लगती है। क्या ऊपर से चिपकाई है , हम भी ट्राइ कर सकते हैं क्या…वगैरह वगैरह। तब सत्तर के शुरुवाती और मध्य के वर्षों में शायद इतने भारतीय नहीं दिखते थे इन्हें और दिखते भी थे तो कम ही, जिन्हें अपनी भारतीय संस्कृति की खूबसूरती पर पूरा विश्वास था और पूरे आत्म विश्वास के साथ इन्हें समझा सकते थे कि भारत सिर्फ भूखे-नंगों का ही देश नहीं।

कुछ स्थानीय परिवारों से मिलना-जुलना हुआ । अक्सर रात में नाइट क्लब और स्थानीय सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने का मन बन जाता था। एक ऐसा भी क्लब था जहाँ पांच साल से छोटे बच्चे के साथ जाने की अनुमति नहीं थी और तब ऐसे में हमें स्थानीय और विश्वशनीय परिवार में बेटी की निजी बेबी-सिटिंग करवानी पड़ी थी, जो कि उस मंहगे नाइट क्लब की टिकट जितनी ही मंहगी थी पर सार्वजनिक क्रश में बेटी को छोड़ना पतिदेव को मंजूर नहीं था और बिना बेटी की सुरक्षा के प्रति पूर्णतः संतुष्ट हुए शो देख ही नहीं सकते थे। इन देशों के लोग भी उतने ही सहृदयता से बच्चों की देखभाल करते है जितने की हम आप। लौटे तो खिलौनों से लदी-फंदी बेटी ने हंसकर ही स्वागत किया था हमारा। शुरु में थोड़ा बहुत सहमी थी पर बाद में उसके हमउम्र बच्चों के साथ खुश-खुश खेलती रही थी। बच्चों की छटी इंद्रिय हम बड़ों से अधिक तीव्र होती है।

छोटे से कैंप और दो साल की बेटी को लेकर अकेले ही तो चल पड़े थे हम दोनों इस रोमांचक पर्यटन पर । घूमते-घूमते जहाँ भी मन रमता, वहीं रुक जाते थे। देखते-देखते तम्बू गड़ते ही, मिनटों में रैनबसेरा तैयार हो जाता था हमारा। शयनकक्ष और चौके के साथ दो भाग थे इसमें। जबतक सोने के बिस्तर आदि व्यवस्थित होते उसी तम्बू के आगे के हिस्से में जो मिनटों में चौके और बैठकी की शकल ले लेता था , झटपट कुछ हलका-फुलका गरम भारतीय मसालेदार खाना तैयार हो जाता जो दोपहर के बाहर के यूरोपियन खाने से कहीं अधिक स्वादिष्ट जान पड़ता हमारी पक्की भारतीय स्वाद ग्रंथियों को। पंद्रह उन बेफिक्र दिनों की करीब करीब हर शाम की यही ड्रिल थी, सिवाय चारो देशों की राजधानियों के जहाँ दो-दो रात रुके थे हम और जहाँ सौभाग्यवश हमें भारतीय रेस्तोरैंत भी मिल गए थे, वरना शाकाहारियों का गुजारा तो पनीर टमाटर और खीरे की सैंडविच और फल आदि खाकर ही होता था उन दिनों। ये यूरोप में बेहद आरामदेह और हर तरह की सुख-सुविधाओं से भरपूर पर्यटकों के लिए बने तम्बुओं के शहर हैं, जहाँ बजार भी हैं और क्लब भी। वाशेटेरिया नहाने और कपड़े धोने व सुखाने की हर सुविधा के साथ । बच्चों के लिए पार्क भी । इनकी तर्ज पर भारत में भी बन रहे हैं शिविर शहर पर्यटक स्थलों पर। परन्तु भारत में ये शिविर बेहद मंहगे हैं और सिर्फ अमीर ही इनका आनंद ले सकते हैं। जबकि यूरोप में ये शिविर उत्साही पर्यटकों के लिए हैं और हर रेंज के हैं ताकि अमीर-गरीब सभी इनका आनंद ले सकें। वह पहली यूरोप यात्रा की यादें आज भी रोमांचित करती हैं । तबसे अबतक लगातार ही घूमने जाते रहे हैं पर वे पहली दो यात्राएं जो पांचतारा होटल नहीं , तम्बुओं में एक पर्यटक सी घूमकर थोड़े रफ अन्दाज में की थीं, आज भी मन गुदगुदाती हैं ।

यह वे दिन थे जब यूरोप के कुछ देश जैसे बेलजियम फ्रांस आदि में लोग अंग्रेजी बोलने से कतराते थे और फ्रेंच न आने की वजह से हमें कई बार अभिनय करके इच्छित वस्तु और मार्ग के लिए पूछना पड़ता था। हद तो तब हुई थी जब ब्रसेल्स में पिस्सी बौय देखने जाना था और रास्ता भटके, थके पतिदेव उसी मुद्रा को करके वहाँ पहुँचने का रास्ता पूछने लगे थे। मैंने तो असमंजस और शरम से आँखें बन्द कर ली थीं, पर वह वयोवृद्ध सज्जन तुरंत ही समझ गया था और बहुत प्यार से प्रसिद्ध लैंडमार्क के रास्ते का मानचित्र खींचकर इन्हें दे दिया था, जिसके सहारे हम आराम से पहुँच भी गए थे।

वक़्त बहुत आगे निकल चुका है। सुख-सुविधाओं में कई गुना वृद्धि हो चुकी है और हम भी उम्र के उस पड़ाव पर आ चुके हैं जिसे लोग परिपक्व कहते हैं। फिर भी आज भी तो चित्र-सी ही स्पष्ट रहती हैं सारी मुस्कुराती-खिलखिलाती यादें और वक्त-बेवक्त हंसाने-रुलाने एक ठीट सहेली-सी लौटती ही आती हैं ।…

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शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्र shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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