विश्व की सभी संस्कृतियों में मृत्यु अत्यन्त गहन विचारणा का केन्द्र है। इस संसार में गति का बने रहना ही जीवन है। गति का रुक जाना, संसरण का समाप्त हो जाना मृत्यु है। मृत्यु को सर्वत्र भय के रुप में देखा गया है, अन्त समझा गया है। इसलिये सभी उपासना पन्थ और सभी सांस्कृतिक जीवन यत्न मृत्यु को टालने का यत्न हैं। आधुनिक विज्ञान की समस्त प्रगति भी इसी मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की मानवी जिजीविषा का परिणाम हैं। किन्तु इस समग्र संसार में कोई एक घटना अनिवार्य और प्रत्येक के द्वारा दुर्निवार है तो वह है मृत्यु। सभी जानते हैं कि जातस्य ध्रुवो म्रुत्युः। पर इस संबन्ध में मजेदार बात यह है कि इस् सुनिश्चित तथा शाश्वत घटना पर विश्व के समस्त शास्त्रों मे अत्यन्त स्वल्प वर्णन प्राप्त होता है कि मृत्यु क्या है?
मृत्यु का विचार इतना इतना भय भरने वाला है कि व्यक्ति इसका चिन्तन भी नहीं करना चाहता । बस जिस किसी तरह इसको टालना चाहता है, इससे बचना चाहता है। पर यह मृत्यु है कि मनुष्य जाति के सभी प्रयासों को निष्फल करती हुई शाश्वत और अटल है। जो शाश्वत है वह मरता नहीं, उसक अन्त नहीं होता है जो घटित होता है वह काल और देश की सीमा में घटित होता है। यह घटित घटना काल और देश की सीमा में ही अन्त को भी प्राप्त करता है। इस दृष्टि को सामने रख कर के विचार करने पर तो मृत्यु ही शाश्वत है। जब मृत्यु शाश्वत और दुर्निवार है तो इससे भय कैसा जब यह घटना नहीं है तो इसको रोका भी कैसे जा सकता है। संभवतया यही कारण है कि तत्वद्रष्टा और धर्मवेत्ता इसको स्वीकार करते हुये इससे परे का विचार करते हैं।
मृत्यु पर सोचना भी भयकारी है इस पर लिखने का साहस भी नहीं था किन्तु इस भावदशा के होते हुये भी लिखने के अनेक कारण हैं उन सब की चर्चा तो अलग निबन्ध का विषय हो जायेगा। किन्तु एक कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि मै काशी में रहता हूँ जो हिन्दु धर्म संस्थान में मृत्यु का श्रेष्ठ स्थान है, मोक्षदायक है इस हेतु वरेण्य है। प्रत्येक हिन्दू काशी में मरने को मंगलपर्व मानता है। अतः काशी में रहते हुये मृत्यु का विचार तो करना ही चाहिये।
समस्त विश्व में जो अमंगल है वह इस स्थान पर् मंगलकारी कैसे हो जाता है। श्मशान और कब्रिस्तान मनुष्य के लिये मंगल पर्व तो कभी नहीं समझे गये हैं। पर यह काशी अजूबा है यह नगर महाश्मशान कहा गया है अहर्निश् जलने वाली चिताग्नि ही इसकी पहचान है, पर इस महाश्मशान का एक नाम आनन्दवन है। इस नाम ने ही मुझे चौंकाया है जगाया है कि काशी में रहना तभी सार्थक है। मृत्यु को जाना जाय, मरना क्या है इस को समझा जाय।
इस दिशा मे जब विचार शुरु किया तो स्वाभाविक रुप से मानव अनुभव के सबसे प्राचीन लेख वेदों की और ध्यान जाना ही चाहिये। अतएव मैने इसे वेदों में तलाशने की कोशिश की। वेद में मृत्यु को दूर रखने के अनेक यत्न दिखायी देते हैं। किन्तु मृत्यु का स्वरुप का विवेचन सम्पूर्ण वैदिक संहिताओं में कहीं दिखायी नहीं देता है। जीवनोत्तर जीवन की बात तो है, पुनर्जन्म के सूत्र भी दिखाई देते हैं पर् मृत्यु का रहस्य विवेचित नहीं है। हाँ यह प्रश्न जरुर खडा किया गया है कि यह जगत् कहाँ से आता है और कहाँ विलीन हो जाता हैं। किन्तु इस बात का निर्देश नहीं मिलता कि मृत्यु अपने आप में क्या है इसका रहस्य क्या है ?
अब यह विचारणीय अवश्य है कि स्वरुप विवेचित न होने पर भी इस का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ सन्दर्भ में होता है तो यह् अर्थ सन्दर्भ क्या है और इसके पर्याय क्या क्या है? इस दृष्टि से विचार करने पर यह अर्थ बहुविध अर्थ ध्वनित करता है। कोशो मे प्राणवियोग, पञ्चता, कालधर्म दिष्टान्त,प्रलय अत्यय, अन्त, नाश, वियोग, निधन दीर्घनिद्रा, निमीलन, अवसान, विलय आदि जाने कितने शब्दार्थ पर्याय प्राप्त होते हैं। इन में अनेक ऐसे हैं जो मजेदार है प्रचलित अर्थ को नवीन सन्दर्भ भी देते हैं। साथ ही साथ अनेक रहस्यों को उजागर भी करते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अर्थ है नाश शब्द। ना शब्द का अर्थ है नष्ट हो जाना किन्तु ध्यान रहे नाश का तात्पर्य सर्वनाश नहीं है। अपितु रुप परिवर्तन मात्र है- न आश् अर्थात् ऐसा नहीं था। एक पदार्थ जब दुसरे पदार्थ का रुप ग्रहण करता है तो उसे प्रथम को नष्ट होना पडता है।
कारण रुप पदार्थ या वस्तु के नष्ट हुये बिना कार्य रुप पदार्थ उत्पन्न नही होता है। नैयायिक इसी को ध्वन्स कहते है, कपालध्वंस से ही घट उत्पन्न होता है। जो नष्ट हो करके उत्पन्न करता है वही कारण है। इसको सृष्टि के आरंभवादी विचार से समझा जा सकता है। कारण कार्य को नष्ट हो करके ही उत्पन्न करता है, इस नाश में वस्तु का सर्वथा अपलाप नहीं होता है। एक का अन्त दूसरे का आरंभ बन कर के प्रकट होता है। यदि सत्कार्यवादी दृष्टि से विचार किया जाय तो वस्तु तो नष्ट ही नहीं होती है। जिसे हम मृत्यु के रुप में समझतें हैं वह मात्र रुप अपरिवर्तन है। रुप बदलता है वस्तु वही रहती है। वस्तु की सत्ता में परिवर्तन बिना किसी पदार्थ का रुप और गुण में परिर्तन ही पुराने का तिरोभाव और नये का आविर्भाव है। अब यह प्रश्न जरुर है कि जब मृत्यु या परिवर्तन वास्तविक न हो कर प्रतीति मात्र है तो यह वास्तविक भय क्यों उत्पन्न करती है। मनुष्य स्वयं की सत्ता के साथ साथ उससे जुडा जो कुछ है उसको चिर् स्थायी क्यॊं बनाना चाहता है। इसका उत्तर न तो वैज्ञानिक विधि से मिलना संभव दिखता है न ही तर्क और युक्ति से दिया जाना ही संभव है।
मृत्यु का विचार करते समय स्वाभाविक रुप से चर-अचर, स्थावर-जंगम सबका विचार न उपस्थित हो कर मात्र मनुष्य के ही मृत्यु की बात कौंधती है। शायद इसलिये कि हमने मान लिया है कि ’न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं किञ्चित्’। यही कारण है कि मानव की मृत्यु ही मृत्यु विषयक चिन्तन का केन्द्र बनती है। मानव जीवन के सापेक्ष ही हम अन्यों के जीवन मरण का विचार करने के लिये बाध्य हैं। लेकिन मानव जीवन में मृत्यु एक ऐसी घटना है जो या तो जुगुप्सा पैदा करती है अथव क्रोध उत्पन्न करता है। किन्तु यह एक वास्तविकता है जिसमें सबको हिस्सा लेना ही पडता है। एक ऐसा विराट है जिसमें सबका जीवन डूब जाता है। लेकिन यह इस स्थिति में ही होता है जब जीवन अर्थ नहीं मालूम होता। जीवन का अर्थ यदि बन्धन है तो ऐन्द्रिक अनुभव का जीवन ही है, अर्थात् बंधा हुआ जीवन अपूर्णता के बोध से लबालब जीवन। सर्वत्र खण्ड दृष्टि का जीवन ही यदि वास्तविक जीवन है तो मृत्यु क्या है? प्रत्येक यह मानता है कि मृत्यु जीवन का विलोम है अर्थात् जीवन खण्ड है तो मृत्यु को अखण्ड होना चाहिये, जीवन सान्त है तो मृत्यु को अनन्त तथा जीवन के प्रतीति की दशा में यथार्थ होना चाहिये। परन्तु कोई न तो इसको स्वीकार करता है न तो किसी कॊ इसे स्वीकार ही करना चाहिये। मृत्यु शब्द के कॊशीय अर्थ में पर्याय रूप में एक शब्द प्राप्त होता है’ कालधर्म’। यह कालधर्म ्शब्द बहुत कुछ बातें कहता है। काल एक निर्विच्छिन्न गति है अप्रतिहत घूमता रहता है। कभी नहीं रुकता यही उसका धर्म है। यदि अविच्छिन्न्ता नहीं है तो काल नहीं है। काल तो सबका कारण है ’कालो जगतः कारणं’। अब इस आलोक में देखने पर मृत्यु स्वयं अघटित है और अघटित रहते हुये किसी अन्य घटना का कारण बनता है। मृत्यु अन्त नहीं है अनन्त की यात्रा है, कालधर्म है। एक के बाद दूसरी घटना के होने का निमित्त कारण है। मृत्यु न होती तो संसरण कैसे होता। संसरण है तो जीवन है अर्थात् म्रुत्यु है तो जीवन है। जन्म और मृत्यु में पूरकता है। जन्म बिना मृत्यु नहीं है तो यह् भी सत्य है की बिना मृत्यु के जीवन का भी मूल्य नहीं समझा जा सकता है। यही मृत्यु का मूल्य है जो जीवन को भी मूल्यवान बनाता है।
इस सन्दर्भ में विचार को आगे बढाया जाय तो यह समझ में आने लगता है कि जिसे हम जीवन का अन्त या नाश समझते हैं वह वास्तव में जीवन का हेतु है। बुद्ध ने तो स्पष्टतः जाति ,जरा और मरण को भव का हेतु कहा है। यह मरण ही है जो भव की परिवर्तनशील सत्ता को संभव बनाता है।
अब इस प्रश्न पर् विचार किया जा सकता है कि यदि मृत्यु इतनी महत्वपूर्ण तथा त्रैकालिक सत्ता वाली है तो यह् इतनी दुःखदायी क्यों है। इस पर तनिक भी विचार किया जायेगा तो ध्यान आता है कि दुःख म्रुत्यु का नहीं है बल्कि जीवन में जो कुछ ज्यादा है उन सबके छूट जाने का होता है। यह अर्जित के प्रति लोभ, मोह है। इस लोभ और मोह से मुक्ति तभी है है जब इनको जीवन से अलग समझा जाय। लेकिन भूत द्रव्यों और भौतिक संबन्धों को अपने जीवन का अविभाज्य भाग मान लेने पर इस विलगाव का बोध दुःख है। इस दुःख से मुक्ति विलगाव और जुडाव की दृष्टि का परिवर्तन ही है। यही ज्ञान है। इसको इस दृष्टि से समझा जाय कि आचार्य को मृत्यु कहा गया है ’आचार्यो मृत्युः’ । आचार्य को मृत्यु कहने का तात्पर्य है कि जो ज्ञान देता है वह् मृत्यु समान है। जिसको ज्ञान चाहिये उसे अपने को मिटाना पडता है॥ सभी सस्कार पूर्वधारणायें सब को मिटा कर ही ज्ञान मिलता है। जब बुद्धि में पूर्व के संस्कार ठूँसे हुये हों तो ज्ञान कैसे समायेगा। नया तो तभी प्रवेश पा सकता है। जब पुराने को हटाया जाय। पुराने को हटाने और नये के लिये जगह बनाने की प्रक्रिया का नाम मृत्यु है।
संसार भी ऐसे ही चलता है, कल्पना कीजिये कि दुनिया में हजारो वर्ष उम्र वाले बूढे लोगो से भरी हुई है। तो कैसा विद्रूप होगा संसार का वह चित्र। निष्क्रिय तथा भरी भरी जिसमें नये को बमुश्किल जगह मिलेगी। प्रत्येक व्यक्ति अपनेमें अपना इतिहास होगा। फिर रावण और कंस जैसे राक्षस भी शाश्वत हो जायेगें। इनके मरने की कल्पना भी नहीं हो सकती है क्योंकि मृत्यु तो कल्पित भी नहीं हो सकेगी। कभी कोई राक्षसी शक्ति पराजित नहीं नष्ट नहीं होगी क्योकि मृत्यु के अभाव में सब शाश्वत हो जायेगें। फिर इस न समाप्त होने वाली स्थिति को जीवन तो नहीं कहा जा सकता है।
यह मिटना और मिटने का कालधर्म नवीनता की अनिवार्य शर्त है। इसीलिये काशी में मृत्यु मंगल है। यह नगर मरण की मंगलवादिता के कारण ही अविनाशी नगर है॥ जहाँ मरना उत्सव होगा वहीं नित्यता हो सकती है। प्रवाही नित्यता और कुटस्थ नित्यता दोनो मृत्यु से ही पहचाने जाते हैं। यदि निर्बन्ध होना निर्ग्रन्थ होना मुक्ति है तो यह भी मृत्यु की पूर्वापेक्षा तो करता ही है। बन्धन का नाश तो बन्धन के कारण और बन्धन हेतु दोनो की मृत्यु ही है। अर्थात् मुक्ति तो मरना है। जन्म तो मृत्यु का हेतु है। जन्म बांधता है। जो बंधता है उसको मुक्त होना ही चाहिये। वह इसी जन्म में हो जाय तो मंगल है। अर्थत् मुक्ति की तैयारी के साथ मरना मंगल है। यदि मुक्ति कै तैयारीपूर्वक मरण नहीं है तो यह मृत्यु नही है अपितु रुप परिवर्तन मात्र है। एक बन्धन से दुसरे बन्धन में जाना मात्र है। अतः म्रुत्यु को मंगलमय बनाना ही उचित जीवन ध्येय है। इस ध्येय की संप्राप्ति ही म्रुत्यु से मुक्ति की अवाप्ति है अर्थात अमरत्व की प्राप्ति है।
डा. रजनीश शुक्ला
सर्वाधिकार सुरक्षित @ www.lekhni.net
Copyrights @www.lekhni.net