अभी हाल ही में हम सब एक ऐसी घटना के गवाह बने जिसकी कल्पना भी शायद किसी ने कभी नहीं की होगी- पुलिसवालों का धरना प्रदर्शन वो भी अपनी ही सुरक्षा के लिए| कितनी अजीब बात है ना जिन पुलिसवालों पर सबकी सुरक्षा की जिम्मेदारी है वो अपनी ही सुरक्षा के लिए धरने पर बैठे, प्रदर्शन किया| प्रथमदृष्टया इसके मूल में वकीलों और पुलिसवालों के बीच हुआ एक झगड़ा है, जिसने बाद में एक हिंसक रूप ले लिया| किन्तु इस प्रकार के वकीलों और पुलिसवालों के बीच झगड़े पहले भी होते रहे हैं, और कई बार वकील हड़ताल पर भी बैठे हैं| परन्तु ऐसा कभी नहीं हुआ की पुलिसवाले हड़ताल पर गए हों| उन्होंने अपने उच्च अधिकारीयों कि बात तक सुनने से इंकार किया हो और वापस जाओ-वापस जाओ के नारे लगाये हों|
सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि पुलिस और फौज जैसी वर्दीधारी सेवाओं में हड़ताल या धरना प्रदर्शन की अनुमति नहीं होती है, यहाँ तक कि अपने हितों की रक्षा के लिए इन सेवाओं में यूनियन भी नहीं बनती है| कानून में भी शायद ऐसा ही प्रावधान है| और ऐसी अनुमति ना देना आवश्यक भी है, क्योंकि अगर सुरक्षा तंत्र हड़ताल पर चला गया, तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी|
तो फिर क्यूँ ये पुलिसवाले अपनी ड्यूटी छोड़ कर धरने पर बैठे थे| क्या वाकई में वकीलों और उनके बीच हुआ झगड़ा इसका कारण था| क्या कोई ऐसा मान सकता है कि पुलिसवाले वकीलों से पिटकर अपनी सुरक्षा कि गुहार लगा रहे थे| जी नहीं, इस रोष और दुःख का मूल कारण था पुलिस के उच्च अधिकारीयों की अकर्मण्यता, उनकी संवेदनहीनता और अपने मातहत अधिकारियों व कर्मचारियों के हितों के प्रति उनकी उदासीनता|
हम सब जानते हैं कि हमारे देश में अधिकतर विभागों की प्रशासनिक व्यवस्था आज भी अंग्रेजों के ज़माने से बदली नहीं गयी है| जहाँ एक निश्चित पद से ऊपर भारतीय नाममात्र के होते थे| अब देश आजाद होने के बाद उन पदों पर भारतीय ही हैं, किन्तु प्रशासनिक व्यवस्था आज भी वही है, जहाँ उच्च अधिकारी को माई-बाप माना जाता है| खास तौर पर पुलिस और फौज जैसी वर्दीधारी सेवाओं में वर्दी और अनुशासन के नाम पर उच्च अधिकारीयों द्वारा अपने मातहतों का शोषण एक सामान्य सी बात लगती है|और अगर कोई हिम्मत करके आवाज उठाता भी है तो सब मिलकर देश की सुरक्षा के नाम पर उसकी आवाज दबा देते हैं|
हम अगर ध्यान से देखें तो ये धरना प्रदर्शन की घटना कोई अचानक हुए संघर्ष का प्रतिफल नहीं है अपितु दशकों से हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ एक वर्ग का उद्घोष है की बस अब बहुत हुआ अब और नहीं सहेंगे| जो हमारे बाप-दादा नहीं कर सके हम करेंगे| अपने लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर व्यवस्था बनायेंगे| कर्मचारी ये समझ गए कि उनके मार खाने से उच्च अधिकारीयों को कोई फर्क नहीं पड़ा| यहाँ तक कि कोई ठोस कार्यवाही भी होती नहीं दिखाई दी| मिल रहे थे तो सिर्फ झूठे आश्वासन कि हम तो एक परिवार कि तरह हैं, वगैरह वगैरह| परन्तु इस बार लोगों ने ये झूठे आश्वासन सुनने से इंकार कर दिया|
सोचने वाली बात है कि क्या कारण है कि इस धरने प्रदर्शन में निरीक्षक के ऊपर के अधिकारी ना के बराबर थे| क्योंकि उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि उनका मातहत किस स्थिति में अपनी नौकरी कर रहा है, कहाँ पिट रहा है, उसके सामान्य मानवीय अधिकार भी उसे मिल रहे हैं या नहीं | उन्हें तो बस अपने एसी कमरों में बैठकर आदेश देने हैं| अभी कुछ समय पहले सोशल साइट्स पर एक चित्र प्रकाशित हुआ था, जिसमें एक मजदूर गड्ढा खोद रहा है, और बहुत सारे सुपरवाइजर और मैनेजर दूर खड़े उसका निरीक्षण कर रहे हैं| हमारे देश में बहुत सारे विभागों का हाल यही है| सुपरवाइजर और मैनेजर के स्तर पर नए-नए पद सृजित किये जा रहें हैं, जिनके पास ना सही मायने में कोई काम है ना जिम्मेदारी, ऐसे में क्षेत्र में जिसे काम करना है उसपर अनावश्यक दबाव बनाने के अतिरिक्त वे करेंगे भी क्या|
फिर जरा सोंचिये जो अधिकारी/कर्मचारी विभाग का वास्तविक कार्य करता है उसे मिलता क्या है| क्या कारण है कि पुलिस के एक कमिश्नर साहब को कार्यालय में एक सर्वसुविधा संपन्न आलीशान कमरा दिया जाता है और एक सिपाही के पास बैठने की जगह तक नहीं, क्या कारण है कि उन्हें रहने के लिए एक आलीशान बंगला दिया जाता है और सिपाही को जिन सरकारी क्वार्टर में रहना पड़ता है उनसे तो साहेब के बंगले के सर्वेंट क्वार्टर बढ़िया होते हैं| आखिर ये भेद-भाव क्यूँ| अंग्रेजों के ज़माने में तो चलो गोर-काले का भेद था, अब क्या| अब हम सब बराबर क्यूँ नहीं हो पा रहे हैं| आखिर वो कमिश्नर साहब और सिपाही दोनों उसी संविधान के नीचे अपना-अपना काम कर रहे हैं| तो क्यूँ एक को हम जानवरों से भी बदतर जिंदगी जीने पर विवश कर देते हैं| क्या जिन सरकारी पैसों का उपयोग साहेब के कार्यालय व बंगले के टाइल्स और परदे बदलने में किया जाता है उसका सही उपयोग करके सिपाही का जीवन बेहतर नहीं कर सकते हैं| सब कुछ किया जा सकता है अगर करना चाहें तो|
खैर अब तो बहुत देर हो चुकी है, लोगों ने आवाज उठाना शुरू कर दिया है, कुछ लोगों को टीवी पर बोलते देखकर अच्छा लगा कि नौकरी जाती है तो जाये अब हम और शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे|
यकीन मानिये अब ये सब यहीं नहीं रुकेगा, इस तरह की घटनाएँ निरंतर होंगी| और भी विभागों में अन्दर ही अन्दर एक ज्वालामुखी सुलग रहा है| लोग ये समझ चुके हैं कि अब हमें अपने स्वाभिमान के लिए खुद ही लड़ना होगा|
अरे जिस देश में प्रधानमंत्री स्वयं को प्रधानसेवक कहता हो, वीआईपी संस्कृति का विरोध करता हो, वहां पर उच्च अधिकारी अपने मातहतों का शोषण कैसे कर सकते हैं| आवश्यकता है अपने अन्दर के इन्सान को ढूँढने कि जो जीवन की भागदौड़ में, जिम्मेदारियों के बोझ तले कहीं खो गया है|
लेकिन ये अवस्था भी कोई बहुत बेहतर परिणाम नहीं लाएगी, बल्कि यूँ अगर सारे विभाग सड़क पर आ गए तो अराजकता फ़ैल जाएगी| सरकार को इसके लिए अतिशीघ्र उपाय करने होंगे जिससे कर्मचारियों व उच्च अधिकारीयों के बीच दिनों दिन बढ़ती इस खाई को पाटकर इस आने वाली विपदा को टाला जा सके|
अर्जित मिश्रा
सीतापुर
9473808236
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