पुस्तक समीक्षाः गोवर्धन यादवः अप्रैल/ मई 2015

 feather penबर्फ़ सी गर्मीः राज हीरामन

इस निर्दयस्त समय में जहाँ स्वार्थ और लोलुपता की आंधी चल रही हो, जहाँ  गलाकाट स्पर्धाएं चल रही हों, सिर्फ़ धन बटॊरने के लिए नित नए फ़ंडॆ ईजाद किए जा रहे हों, जहाँ आचार-विचार और परंपराओं की धज्जियां उडाई जा रही हों, जहाँ आदमी के संवेदना-जगत को क्षत-विक्षत करते हुए उसे खण्डहर में तब्दील किया जा रहा हो,जहाँ खुदगर्जी, फ़रेब और औपचारिकता ही आदमी की पहचान बनती जा रही हो, जहाँ आदमी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की जमीन लगातार छॊटी होती जा रही हो. शब्द-रूप,रस तथा गंध के संवेदनों, भावभूमि के  मूल्यवर्ती अहसासों और क्रिया-कलापॊं से वह लगातार अजनवी बनता जा रहा हो, ऎसे कठिन   समय में  राज हीरामन का कथा-संग्रह बर्फ़ सी गर्मी का आना शुभ संकेत तो है ही,साथ ही        यह आशा भी बंधती है कि वे विलुप्त होती जा रही मानवता को बचाने के लिए जद्दोजहद करते   देखे जा सकते है. उनकी कहानियों को पढकर राहत मिलती है. वे एक नयी चेतना और ऊर्जा के  साथ उन तमाम तरह के मकडजालों को काट फ़ेंकने में समर्थ दिखाई देते हैं. उनकी लेखनी में  एक प्रकार की विकलता और छटपटाहट स्पस्ट रूप से दिखाई देती है.

मारीशस में जन्में कवि-कथाकार से मेरी मुलाकात उन्हीं के देश मारीशस में हुई थी. आपके अब तक दस कविता संग्रह, तीन कहानी संग्रह, एक साक्षात्कार संग्रह, एक आलेख संग्रह प्रकाशित हुए है. अनेकानेक सम्मानॊ से सम्मानीत होने के अलावा आपने चार किताबों का संपादन भी किया है. वर्तमान में आप महात्मा गांधी संस्थान के सृजनात्मक एवं लेखन विभाग में “रिमझिम” तथा वसंत पत्रिका के वरिष्ठ उप-संपादक हैं.

बर्फ़ सी गर्मी कहानी संग्रह में दस कहानियां हैं. बर्फ़ सी गर्मी तथा लेट अस ब्रेक  कहानियां विदेशी पृष्ठ-भूमि पर लिखी गई कहानियाँ हैं. माँ-दाई-माँ, घर वह बडा, मर गया  पर जिंदा था, मानवाधिकार, साहिल, प्रेरणा, खेत सुमन के हो गए और धनराज. इन   कहानियों  के किरदार, किरदारों की मनोदशा-मनोव्यथा,आदि कहानियों की अपनी जमीन मारीशस की है.

बर्फ़ सी गर्मी शीर्षक चौंकाता है. सहज ही मन में प्रश्नाकुलता पैदा होती है कि भला बर्फ़  में गर्मी कैसे हो सकती है.?. लेकिन जैसे-जैसे आप कहानी के भीतर उतरते हैं, तो पता चल  जाता है कि आखिर वह गर्मी किस प्रकार की थी.

उत्तरी व्हेल्स के एक छॊटे से शहर की कहानी है यह. इसमें एक अविवाहित पात्रा  है,जिसका नाम मारगारेट है. उसका एक भाई है, जिसका नाम आंद्रे है. वह जानलेवा बिमारी में   ग्रसित एक अस्पताल में भरती है. वह रोज उससे मिलने जाती है. आंद्रे के दो बेटे मारिस और  जान रील हैं,जो कुछ ही दूरी पर मानचेस्टर शहर में रहते हैं. पर अपने पिता को न कभी  शामारैल ओल्ड होम केयर में देखने आए और ना ही अस्पताल में. उसकी एक बेटी भी है  मारिया. मारिया इसी शहर के दूसरे छॊर पर रहती है,कभी-कभी अपने बाप को देखने और  पूछताछ करने आ जाती है.

वह दिन भी शीघ्र ही आ जाता है जब आंद्रे की मृत्यु हो जाती है. खबर मिलते ही मोरिस और जान अपनी-अपनी पत्नियों और दो-दो युवा पुत्रों और पुत्र वधुओं के साथ आ पहुंचते हैं. जैसा   कि वहाँ ईसाई धर्म प्रचलित है. उस धर्म के मुताबिक उसकी अंत्येष्टी की जाती है. बनाये गए  गढ्ढे में शव को उतारकर मिट्टी डाली जाती है. मिट्टी तब तक डाली जाती है,जब तक जमीन        को समतल नहीं बना दिया जाता. इसके बाद धन्यवाद भाषण देने का रिवाज है. मारगारेट आंद्रे  के बेटॊं से दो शब्द अपने पिता के बारे में कहने का आग्रह करती है. लेकिन वे हिम्मत नहीं जुटा  पाते. कहते भी तो क्या कहते? कहने के लिए कुछ भी तो नहीं था दोनो के पास. क्या वे यह  कहते कि अपने पिता के जिंदा रहते हुए उन्होंने कभी उसकी परवाह नहीं की और न ही कभी  उससे मिलने आए?

दोनो को आगे न बढता देख, मारगारेट जान के बेटे आनथनी को आगे करती है.   आनथनी विश्वविद्यालय में जेनेटिक इंजिनियरिंग का छात्र था. बोलने में माहिर, निर्भिक, और न  हीं किसी प्रकार की कोई झिझक थी उसमें. शब्दों का भण्डार था उसके पास. काफ़ी कुछ कहते  हुए और अंत में सभी के प्रति धन्यवाद देते हुए उसने कहा-“एक गया पर सबको इकठ्ठा कर        गया. यही हमारे जीवन की शुरुआत है. अतः मृत्यु के बाद भी जीवन है इसके बाद सभी  बारी-बारी से गले मिलते हैं. मिलने से एक ऊर्जा उत्पन्न होती है और मन पर बरसों-बरस से  जमी बर्फ़ पिघल-पिघल कर आँखों के माध्यम से आँसू बन कर बहने लगती है.

       लेट अस ब्रेक= इस कहानी की पृष्ठभूमि इंग्लैण्ड की है. डानियल अरबों-खरबों का मालिक है. पति बदलने में माहिर सुजन उसके जीवन में आती है. पांच साल तक वैवाहिक जीवन बीता चुकने के बाद एक दिन वह डानियल से कहती है=”लेट अस ब्रेक”.और वह उसे छॊडकर चली जाती है. घर में बरसों से काम कर रही “मेरी” का अचानक उसके जीवन में प्रवेश हो जाता है. इंगलैण्ड में किस तरह जीवन जिया जाता है, उसको उजागर करती चलती है यह कहानी.

       माँ-दाई-माँ… एक खुद्दार महिला के इर्दगिर्द घूमती कहानी है यह. व्यस्ततम जीवन यापन कर रहे एक वकील,जिसकी पत्नि का देहान्त हो गया है. सारे संस्कारों को निपटा चुकने के बाद जब वकील साहब अपने घर में बरसों से काम कर रही दाई को साडियाँ और पैसे देना चाहते हैं, तो वह दसियों साडियों में से केवल एक साडी और नोटॊं के पुलंदे में से एक नोट निकाल कर यह कहते हुए चल देती है “-नहीं साहब ! मैं इस सबके लिए बहुत छॊटी हूँ”.

मनोविज्ञानिक तरीके से आगे बढती कहानी” मर गया पर जिन्दा था,दुखों से भयाक्रांत हो उठने वाले माला और गुलशन किस तरह से बागी हो उठते हैं मानवाधिकार, रागिनी की कमनीय काया से प्रभावित अभयानंद उसे अपनी कम्पनी में बडॆ-बडॆ अवसर उपलब्ध करवाता है, लेकिन जब वह उसे छॊड देता है, तो सहसा रागिनी किस तरह उसके लिए प्रेरणा बन जाती है अपने नाटकीय अंदाज से बढती कहानी आपको बांधे रखती है. हरिदेव और सुमन के अद्भुत चरित्र को आप कहानी”खेत सुमन के हो गए” में देख सकते हैं. एक पेन्शनर बाप धनराज खुद भूखों मरने पर विवश है, जबकि उसकी बेटी उसके पैसों पर मजे उडाती है,मार्मिक कहानी बन पडी है. कलम के धनी हीरामनजी ने भाषागत मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से कहानियों को प्रभावशाली बनाने में कोई कसर नहीं छॊडी है.

अंत में मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ  इंदौर के डा. राकेश त्रिपाठीजी को, जिन्होंने श्री राज हीरामनजी के अनुरोध पर मुझे यह कहानी संग्रह” बर्फ़ सी जमी गर्मी” और काव्य संग्रह “नमि मेरी आँखें” समीक्षार्थ भिजवाईं.

मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस कहानी संग्रह का पुरजोर स्वागत होगा. भविष्य में आपके अनेकानेक संग्रह प्रकाशित होंगे.  निश्चित ही आपकी साहित्यिक यात्रा मारीशस और भारत को जोडॆ रखने में “सेतु” की भूमिका का निर्वहन करेगी.

एक सार्थक कहानी संग्रह मुझ तक भिजवाने के लिए पुनः आपका हार्दिक आभार.

भवदीय

गोवर्धन यादव

103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)480001              (संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति)               09424356400

 

अंत में अपनी ओर से न चाहते हुए भी.

मेरे लिए यह सुखद संयोग बना कि महात्मा गांधी की कर्मस्थलि वर्धा में कार्यरत साहित्यिक/बौद्धिक संस्था अभ्युदय बहुउद्देशीय संगोष्ठी ने माह मई 2014 में मारीशस भ्रमण का कार्यक्रम न बनाया होता, और हिन्दी भवन भोपाल द्वारा मुझे आर्थिक संबल प्रदान न किया गया  होता तो मारीशस मेरे लिए अब तक मात्र एक कल्पना-लोक/दिवास्वपन ही बना रहता. मारीशस की यात्रा करते हुए मेरी मुलाकात इस संग्रह के लेखक हीरामनजी से, विश्व हिंदी संस्थान के डिप्टी सेक्रेटरी श्री गंगाधर सुखलाल”गुलशन”, प्रख्यात लघुकथाकार-साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर, कला एवं सांस्कृतिक मंत्रालय में सलाहकार श्री राजनारायण गुट्टी, महात्मा गांधी संस्थान की वरिष्ठ प्राध्यापिका डा.अलका धनपत, विश्वहिंदी संस्थान की निदेशक डा.व्ही.डी.कुंजल, डा.हेमराज, प्रल्हाद रामशरण,इन्द्रदेव भोला, धनराज शंभु, डा.विनोदबाला अरुण,सूर्यदेव सिबोरत,डा रेशमी रामधोनी,श्रीमती ऊषा बासगीत तथा अन्य हिन्दी के बडॆ लेखकों से शायद ही हो पाती. और न ही मारीशस के महामहीम राष्ट्रपति माननीय कैलाश प्रयागजी से भेंट हुई होती. डा.अलका धनपतजी ने सिर्फ़ हमें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सचिवालय में कार्यरत प्राध्यापकों से भेंट करवाई, वहीं उनके अथक प्रयास से मुझे मारीशस आकाशवाणी से अपना साक्षात्कार प्रसारित करने का सुअवसर उपलब्ध करवाया. आपके ही मार्गदर्शन में मैंने अपने दो कहानी संग्रह “महुआ के वृक्ष” “तीस बरस घाटी”, हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक मान.श्री कैलाशचंद्र पंतजी की कृति” संस्कार,संस्कृति और समाज”, डाक निदेशक श्री के.के यादव और उनकी धर्मपत्नि श्रीमती आकांक्षा यादव की “अभिलाषा(काव्य-संग्रह),जंगल में क्रिकेट,चांद पर पानी आदि मारीशस के वाचनालय के लिए संस्था की निदेशक डा.व्ही.डी.कुंजल को भेंट में देने का सुअवसर प्राप्त हुआ होता.और न ही मानव-संग्रहालय के निदेशक श्री देव काहुलेसुरजी से आत्मीय भेंट हुई होती.

भारत को अपने पूर्वजॊं का घर मानते हुए सारे मारीशवासी अपने को अहोभागी मानते हैं और यहाँ की प्रचलित रीति-रिवाजों को, अपने पूर्वजों के द्वारा ले जाई गई रामायण, सुखसागर, तथा अन्य धार्मिक ग्रंथ तथा साथ ले जाई गई सामग्रियों को सहेजकर रखे हुए हैं. हालांकि यहाँ की राजभाषा अंग्रेजी है, बावजूद इसके ये लोग आपस में क्रोयले (मिश्रित भाषा),तथा हिन्दी को अधिकाधिक प्रयोग में लाते हैं. सारे साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार तथा उन्न्नयन के लिए प्राणपन से जुटे हुए हैं. विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना ही इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि वे किस तरह भारत से और भाषा हिन्दी से कितना अनन्य लगाव रखते हैं.

 

 

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