कहानी समकालीनः दिए की लौः शैल अग्रवाल

Diye ki lau
‘मार उडारी नि चिड़िए, तू मार उड़ारी…’
हॉल के कोने-कोने से गूँजती मधुर धुन और भारत की भिन्न-भिन्न वेश-भूषा में सजे ब्रेक डान्स और भांगड़ा की लय बीच भाव-भंगिमा बदलते नर्तक-नर्तकियाँ। सामने स्टेज पर भारी रेशमी परदे और उन पर आते जाते लोगों की लंबी-लंबी थिरकती साँप-सी बलखाती आदमकद परछाइयाँ, ऱंग-बिरंगी बीम्स पर चढ़ी हुई और उनसे भी ज़्यादा तेज़ नाचती…
माहौल में पूरी तरह से डूबी पैरिस की आँखे कोने-कोने का जायज़ा लेने लगीं, कहीं मेंहदी, चूड़ी, और बिंदी की डिज़ाइनों का ढेर, तो कहीं हँस-हँसकर सब कुछ छाँटती-ख़रीदती किशोरियाँ। कहीं भारत की हस्तकला में डूबे तरुण, तो कहीं मंत्रमुग्ध अपनी हस्त रेखाओं में भविष्य ढूँढ़ता विद्यार्थियों का जत्था। एक जोशीला और रंगीन माहौल था विद्यालय के उस प्रांगण में मानो नन्हा भारत बादलों के पंख चढ़ उतर आया हो वहाँ पर, अपना सारा उल्लास और समन्वय समेटे हुए।
गोरे काले सभी देश और भूषा के बच्चे माथे पर टीका लगाए, माला पहने घूम रहे थे। हाथ की बनी रंग-बिरंगी और आकर्षक तैरती हुई मोमबत्तियाँ, किताबें, खिलौने, कपड़े सभी कुछ तो था वहाँ पर और माहौल को परवान चढ़ा रही थी महकती चंदन चमेली की मोमबत्तियों के धुएँ में गडमड बगल के रसोईघर से उठती ज़ायकेदार छोले, पकौड़ियों और गुलाबजामुनों की सोंधी-सोंधी महक, हँसी कहकहों और प्यार के रस में पूर्णतः पगी-रची।
पैरिस को लगा कि यह स्टूडेंट यूनियन का हॉल नहीं, अलादीन की जादुई गुफ़ा थी। सभी कुछ तो था यहाँ पर एक मस्त और यादगार शाम के लिए सिवाय अविक के, अ़विक जो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था। मंच पर होने का पूरा आनंद उठाते किशोर-किशोरियों से खुद को छुपाती-बचाती बेचैन पैरिस तुरंत ही बाहर भी आ गई।..

“दिवाली-मेला देखने चल रहे हो ना अविक। बोलो अविक, चल रहे हो ना, सभी तो हैं वहाँ पर?”
शोर-शराबेसे दूर अपने कमरे में गाना सुनते अविक से पैरिस पलट-पलटकर पूछे जा रही थी, पर अविक तो मानो सबसे परे मनपसंद स्वर-लहरियों में डूब संगीत-समाधि ले चुका था। सारी आतुरता, मेला सब कुछ भूल मंत्र-मुग्धा-सी पैरिस वहीं ज़मीन पर ही उसके सामने बैठ गई और चुपचाप एकटक देखने लगी उसे।
डूबते सूरज की गुलाबी सुनहरी आभा में नहाया, आँख बंद किए संगीत का आनंद लेता अविक और भी ज़्यादा अलग और चित्र-सा सुंदर दिख रहा था, अपने नाम-सा ही विभोर और संकल्पित। मेपल वृक्ष की घनी पत्तियों से छन-छनकर आती धूप ने कमरे में हर दीवार, हर वस्तु पर रंगमंच के पर्दे-सा मनोहारी और रहस्यमय दृश्य अंकित कर दिया था। खिड़की के फ्रेम को खुद में समेटे धूप की आड़ी तिरछी किरनों के बीच गुँथी पत्तियाँ सुर और लय की ताल पर परछाई बनी चारो तरफ़ थिरक रही थीं और शाम के इस सुरमई धुँधलके में अविक एक बार फिर उसे इस दुनिया का नहीं, देवदूत-सा अलौकिक लगा उसे, उसके हर सपने को पूरा करने में समर्थ। इतना सुंदर कि खुद को रोको ना, पीछे ना हटो तो उसे तो प्यार तक किया जा सकता है।
अपनी इस बेतुकी सोच से बचने के लिए पैरिस ने आँखें बंद कर लीं, पर बंद आँखों में भी तो वही बैठा मुस्कुरा रहा था। हारकर पैरिस ने खुद से लड़ना छोड़ दिया, बुराई भी क्या थी इसमें! ये रिश्ते विद्यालय के इन्हीं दिनों में ही तो जुड़ पाते हैं, अविस्मरणीय प्रेम-कहानियों से विद्यालय की स्मारिकाएँ भरी पड़ी हैं। उसके अपने माँ-बाप भी तो यहीं मिले थे !
मालकोंस के आरोह-अवरोह पर तैरते सुर अंतिम झंकार से गुज़र चुके थे और सितार एक बहुत ही घुमावदार और नाजुक मीड़ लेकर कब का थम चुका था। एकटक देखने की अब अविक की बारी थी। हमेशा चहकती रहने वाली पैरिस यों गुमसुम और चुपचाप भी तो कम आकर्षक नहीं लग रही थी।
“कहाँ खो गई पैरिस?” अविक ने आवाज़ दी।
“कहीं भी तो नहीं, बस अपनी पालतू चिड़िया से बात कर रही थी।”
सोच की चुटकी भर-भर अपने संगमरमरी गालों पर संध्या का सारा गुलाल मलती पैरिस हड़बड़ाकर जग गई।
“चिड़िया, प़र मुझे तो कोई चिड़िया नहीं दिखाई देती यहाँ पर?” अविक आश्चर्य-चकित था।
“तुम नहीं जानते अविक, हम सब अपने-अपने सर के घोंसले में एक बाबरी चिड़िया पाले रहते हैं, जिसे बहुत प्यार करते हैं हम और चाहे-अनचाहे, जब मनचाहे यह हमसे बात करने लग जाती है। हमें खुद से भरमाती है। और तब हम सारी दुनिया भूल उसमें, उसकी बातों में खो जाते हैं।”
पैरिस ने बड़े ही सूफियाना अंदाज़ से अपनी सारी भावनाओं को समेट लिया। चिड़िया का तो पता नहीं पर सामने बैठी पगली सहेली अविक को बहुत ही रोचक लगी।
“जानती हो पैरिस, जब मेरी माँ बनारस में पढ़ रही थीं तो ये बीटल्स भी वहीं पर भारतीय संगीत सीख रहे थे। और आज देखो वह पूर्व की तपस्या और पश्चिम की तकनिकियों ने कैसा जादुई नशा बुन डाला है। रवि शंकर भी तो बनारस के ही हैं जिनकी पहल से सितार का जादू पश्चिमी देशों तक चल पाया।”
“कंधे पर झूलते सुनहरे बालों के गुच्छे से खेलती पैरिस धीरे-धीरे बनारस की गलियों में खोने लगी थी, बनारस जिसे उसने बस किताबों में ही पढ़ा और तस्वीरों में ही देखा था, “अच्छा तो तुम्हारी माँ बनारस से हैं, जहाँ के बिस्मिल्ला खाँ बहुत अच्छी शहनाई बजाते हैं और जहाँ की सिल्क बहुत ही सुंदर और मशहूर हैं। जहाँ सूरज की पहली किरन के लहरों पर उतरते ही घाट और मंदिर दोनों एक साथ जग जाते हैं, अलौकिक और रहस्यमय दिखने लग जाते हैं। जो भारत का सबसे पुराना शहर माना जाता है। कहते हैं लौर्ड शिवा ने खुद अपने त्रिशूल पर बसाया था इसे। काशी भी तो कहते हैं इसीको, क्या कभी तुम मुझे वहाँ पर ले चलोगे अविक?”
उत्साहित पैरिस अविक से बहुत कुछ एक ही साँस में कहना और जानना चाहती थी।”हाँ, हाँ क्यों नहीं, तुम तो बनारस के बारे में बहुत कुछ जानती हो।” अविक ने मुस्कराकर जवाब दिया।
“नहीं, जानती तो नहीं पर जानना ज़रूर चाहती हूँ, इसीलिए तो मैंने इंडियौलाजी पढ़ने का निश्चय लिया। क्या गंगा के किनारे बसी काशी भी इतनी ही सुंदर है जितना कि कैम रिवर के किनारे बसा यह कैंब्रिज शहर?”
सेंट जॉन्स कॉलेज के रोइंग क्लब में जाते, पुल के ऊपर से गुज़रते, नीचे बहती नावों और पथरीली सकरी गलियों से गुज़रते कई बार जाने क्यों उसने भी तो केंब्रिज की तुलना बनारस से की ही है। अविक अब पैरिस की बातों में पूरणतः खो चुका था,
“हाँ, सुंदर तो है, कितना सुंदर इसका निश्चय तो तुम्हें खुद ही वहाँ जाकर उसे देख-समझकर करना पड़ेगा। भारत अभी एक गरीब देश है पैरिस, और गरीबी की अपनी अलग समस्याएँ होती है। समानता होते हुए भी बनारस और केंब्रिज की तुलना करना सही नहीं होगा। दोनों ही विद्वानों के सुंदर शहर हैं, पर अलग-अलग। अपनी-अपनी तरह के।”

“जानते हो अविक, मैंने तो यह भी सोचा है किमैं अपनी बेटी का नाम काशी ही रखूँगी, जैसे कि मेरे माँ बाप ने मेरा नाम पैरिस रखा था क्यों कि मेरी संरचना पैरिस में ही तो हुई थी।”
पैरिस अपनी रौ में डूबी बोले जा रही थी और केंब्रिज के छात्रावास के उस एकाकी कमरे में बैठा अठ्ठारह वर्षीय अविक कान तक बीरबहूटी-सा लाल होता चला गया। सामने बैठी यह मात्र हफ्तेभर की सहपाठिनी पैरिस कितनी खुली और बेबाक है, ऐसी बातें करने, ऐसे सपने देखने में क्या इसे ज़रा भी संकोच नहीं होता !
पर दोष इसका भी तो नहीं, इनकी तो संस्कृति ही ऐसी है। लड़की हों या लड़के, यहाँ अपने योग्य साथी ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी तो इन पर खुद ही होती है। वैसे भी मात्र लड़कों के स्कूल में पढ़े और संकोची स्वभाव के अविक को लड़कियों से इतनी खुलकर बात करने की आदत नहीं थी, होने वाले बच्चों के नाम के बारे में तो हरगिज़ ही नहीं। भविष्य पर लटके इस ताले की चाभी तो प्राय: बड़ों के ही हाथ होती है उनके समाज में।
बातें कोई ख़तरनाक और नज़दीकी मोड़ लें इसके पहले ही वह इस वार्तालाप को फिसलने से रोक देना चाहता था। अविक अभी सोच ही रहा था कि एक हाथ में बीयर की बोतल और दूसरे से एक-दूसरे को सँभाले रूपम और सानिया ने धावा बोल दिया।
“चलो-चलो, उठो हम सभी दिवाली मेला देखने चल रहे हैं अभी इसी वक्त। बहुत ज़बर्दस्त मेला लगा है आज। खाना, फायरवर्क्स सभी कुछ है वहाँ पर। जेम्स का फ़ोन आया था। केंब्रिज एशियन एसोसियेशन ने एक फैशन शो भी रखा है। हम सभी उसमें भाग लेंगे। “
इसके पहले कि अविक कोई जवाब दे तीनों ने उसे हाथों-हाथ उठा लिया। नई दोस्ती और नई यूनिवर्सिटी का नया-नशा… वैसे भी यह रिफ्रेशर सप्ताह ही तो था और रिफ्रेशर सप्ताह का क्या मतलब है, चारों चंद दिनों में ही अच्छी तरह से जान चुके थे-रोज़ एक नई पार्टी, एक नई एसोसियेशन, एक नया हंगामा। गंभीर पढ़ाई में डूबने के पहले बचपन और यादों को खुद से अलग करने का एक अनूठा और बेफिक्र यूरोपियन अंदाज़। ‘ अरे आज तो दिवाली है ना, रुको मैं अभी कपड़े बदलकर आता हूँ, पहले हम सब मिलकर पूजा करेंगे फिर दिवाली मेले में चलेंगे।‘
सुरुचिपूर्ण नए कपड़ों में गणेश और लक्ष्मी की प्रतिमा के आगे दीप जलाता, नहाया-धोया अविक और भी ज़्यादा ओजस्वी और सौम्य लगा पैरिस को। यही नहीं अविक ने मित्र-मंडली को माँ के हाथ की स्वादिष्ट मिठाई और खाना भी लाकर दिया। सानिया और रूपम तो तुरंत ही खाने पर टूट पड़े, पर पैरिस हिरनी-सी बड़ी-बड़ी आँखों से पूछ रही थी, “क्या मैं भी एक दिया जला सकती हूँ अविक?”
“क्यों नहीं ज़रूर…”
प्यार और प्रशंसा से उसकी तरफ़ देखते हुए अविक तुरंत ही अंदर गया और एक धूपबत्ती उसकी फैली हथेलियों पर लाकर रख दी।
“अभी तो बस इससे ही काम चला लो पैरिस, मेरे पास बस एक ही दिया था। लौटकर हम सब मिलकर बहुत सारे दिए जलाएँगे और फुलझड़ियाँ भी चलाएँगे, माँ ने वह भी तो रख दी हैं मेरे साथ। यह मेरी पहली दिवाली हैं जब मैं घर पर नहीं हूँ। माँ तो बहुत ज़ोर-शोर से दिवाली मनाती हैं। घंटे डेढ़ घंटे तो पूजा की तैयारी और मोमबत्तियाँ व दिए जलाने में ही लग जाते हैं। सबके लिए कपड़े, उपहार, हफ्तों ख़रीदारी और तैयारियाँ ही चलती रहती हैं हमारी भी। तुम्हारे क्रिसमस की तरह हम हिंदुओं का भी तो यह बड़ा त्योहार है। “
“उस दिन राम चौदह वर्ष के बनवास के बाद अयोध्यासे वापस लौटे थे ना? “
पैरिस बीच में ही बात काट कर बोल पड़ी।
“अरे पैरिस तुम तो मेरे से भी ज़्यादाजानती हो।” रूपम एशियन होने के बावजूद भी कुछ न जानने की वजह से एक अजीब-सी शर्मिंदगी महसूस कर रहा था।
अविक उसकी मन:स्थिति समझ सकता था, प्राय: उसके सभी भारतीय मित्रों का यही हाल था। ऐसा नहीं था कि उन्हें भारत और भारतीयता के प्रति आकर्षण नहीं था, बस जीविका की आपाधापी में डूबे माँ बाप के पास इतना समय ही नहीं होता था कि दो मिनट पास बैठते, उन्हें भारत, भारतीय संस्कृति के बारे में बता या समझा पाते। माँ बाप के साथ बैठकर फुरसत से दो बातें करना तो दूर, अक्सर उनके दर्शन तक दुर्लभ हो जाते थे बिचारों के लिए। अविक का मन दर्द और सहानुभूति से भर आया।
“अगर तुम लोग चाहो तो अगले वर्ष मेरे घर चल सकते हो दिवाली पर। खुद ही देख लेना दिवाली कैसे मनाई जाती है और आइ एम श्योर माँ भी बहुत खुश होंगी तुम सबसे मिलकर।”
“पर उसमें तो अभी पूरा एक साल बाकी है अविक”, पैरिस की आवाज़ निराशा में डूबी हुई थी।
वे बात कर ही रहे थे कि फ़ोन की घंटी बज पड़ी। लाइन पर माँ ही थीं।
“पूजा कर ली, अविक बेटा?”
“हाँ माँ, मेरे कुछ मित्र भी हैं, यहीं पर और हम सब मिलकर दिवाली मेला देखने जा रहे हैं। दिवाली के बारे में सबकुछ जानने को बहुत ही उत्सुक हैं, ये लोग।”
“अगर ऐसी बात है तो, इन सबको लेकर घर ही आ जा न। हम सब दिवाली मिलकर मनाएँगे।”
अविक की आँखें खुशी से चमकने लगीं “पूछता हूँ माँ।”
इस आमंत्रण पर सभी खुश थे और निश्चय यह हुआ कि केंब्रिज और लंदन की घंटे भर की दूरी कुछ भी ज़्यादा नहीं। पहले मेला फिर माँ के साथ दिवाली।
पर मेले का भीड़ भरा माहौल चारों मित्रों को दस मिनट से भी ज़्यादा न रोक पाया। सभी का कहना था कि यह तो बस एक बाज़ार जैसा है …ब़स कोई भी एक और पार्टी। उन्हें तो पारंपारिक भारतीय अंदाज़ में दिवाली मनानी हैं और चारों अविक के घर माँ के साथ दिवाली मनाने चल पड़े।

अशोक के पत्तों में गुँथी फेयरी लाइट और उनके बीच-बीच लटकी छोटी-छोटी घंटियाँ, नीचे करीने से माला-सी सजी दियों की लंबी कतार और सामने प्रवेश द्वार पर ही फूलों की घूमती रंगोली के बीच कमल के आकार की दीप्त मोहक मोमबत्ती। लक्ष्मी के स्वागत में सजे सँवरे घर के बंदनवार ने नन्हीं-नन्हीं घंटियों से गूँजकर मेहमानों का स्वागत किया। माँ हाथ में पूजा की थाली लिए दरवाज़े पर ही खड़ी मिलीं उन्हें। और वहीं माथे पर तिलक लगाकर स्वागत किया उन्होंने अपने मेहमानों का।
“यह क्या माँ?”
“यह नए वर्ष के लिए मेरी तरफ़ से मंगल कामना और तुम्हारा भारतीय अंदाज़ में स्वागत है।” माँ ने मुस्कुराकर कहा, “जैसे शायद अयोध्या वासियों ने कभी अपने राम का किया होगा।“
माँ के इतना कहते ही चारों बच्चों ने खुद को बहुत ही ज़िम्मेदार और विशिष्ट महसूस किया।
“और अब हमें क्या करना चाहिए?”
तीनों के एकसाथ पूछने पर माँ ने उन्हें बताया कि- “ मैं अभी-अभी मैं पूजा से उठी हूँ। भारत में तो बच्चे बड़ों के पैर छूते हैं पर तुम सब मुझे नमस्ते कर लो, ऐसे। ”
माँ ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते की, पर इसके पहले कि माँ का वाक्य पूरा हो चारों एक साथ माँ के आगे झुके हुए थे, और चारों का दायाँ हाथ माँ के चरणों पर था।
हर्ष और प्यार से गदगद माँ ने चारों को गले से लगा लिया। बच्चों के लिए ही नहीं,अविक की माँ के लिए भी यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। हर्षातिरेक से छलके आसुओं को और खुद को सँभालती वह बस इतना ही कह पाई,
”खूब खुश रहो, माँ बाप का नाम रौशन करो। चलो तुम अब सब हाथ मुँह धोकर तरोताज़ा हो लो तब तक मैं खाना गरम करती हूँ, बिस्तर पर तुम तीनों के लिए कुछ नए कपड़े रखे हैं, जल्दीसे पहनकर आओ। दिवाली की पूजा नए कपड़े पहन कर ही की जाती है। माँ कह रहे हो तो यह बात भी माननी पड़ेगी तुम्हे, मुझे अच्छा लगेगा।”
“जरूर माँ, पर पहले हम खाना गरम करने और खाने की मेज़ लगाने में आपकी मदद करेंगे फिर आप जैसे चाहोगी वैसे ही दिवाली मनाएँगे।” आदतन मजबूर सहृदय पैरिस एकबार फिर तुरंत ही बोल पड़ी थी और फिर तो चारों बच्चों ने “हाँ, माँ आप अब आराम कीजिए बाकी का काम अब हम करेंगे।” की एक स्वर में तुमुल घोषणा कर दी।
आनन-फानन बातों-बातों में ही सारा खाना गरम होकर कब खाने की मेज़ पर पहुँचा किसी को पता भी न चल पाया और अगले पाँच मिनटों में ही अविक रूपम सानिया और पैरिस चारों ही माँ के दिए भारतीय कपड़ों में जलते हुए दिए से जगमग थे। सबने मिलकर लक्ष्मी की मूर्ति पर फूल चढ़ाए और फिर खील बताशे भी। कौन-सी मिठाई खाई जाए, कौन-सी छोड़ी जाए- निश्चय करना एक कठिन समस्या हो चली थी अब उनके लिए। बारबार माँ का प्यार भरा आग्रह और साथ में बेहद सलीके से सजा अति स्वादिष्ट भोजन। बाहर छूटते अनार और चकरी में ज़्यादा जोश था या पाँचों के मन में। आज तो शायद भगवान भी यह निश्चय नहीं कर पाते।
“हमारे भारत में तो घर भर के मिठाई बनती है और अगले दिन सब मिलने जुलने वालों और गरीबों में बाँटी जाती है। गाना बजाना, मिलना जुलना सभी कुछ चलता रहता है इन तीन-चार दिन। पहले धन-तेरस, फिर छोटी और बड़ी दिवाली, पड़वा और भैयादूज, पूरे पाँच दिन का त्योहार है यह। नए कपड़े, खिलौने, खूब मौज मस्ती रहती है, बच्चे-बड़े सभी की।“
माँ बच्चों के से जोश से बोले जा रही थीं। कमरे में लौटते ही माँ ने ढोलक और हारमोनियम निकाल लिए। अविक तबले पर माँ हारमोनियम पर। गाने बजाने की महफिल ऐसी चली कि सुबह ही हो जाती अगर माँ बीच में ही न रोक देतीं, “ अरे…अभी तो हमें ताश भी खेलने हैं।“
“ताश?”
सबके मुँह आश्चर्य से खुले हुए थे।
“ हाँ, आज के दिन ताश भी तो खेलते हैं।“
गंभीर और भारी भरकम समझी जाने वाली भारतीय सभ्यता का यह एक नया और अनूठा पहलू था पैरिस के लिए।
‘कोई भी खेल माँ?’
”नहीं, तीन पत्ती।”
”तीन पत्ती क्या?”
रूपम, पैरिस और सानिया तीनों आश्चर्य-चकित एकसाथ ही बोल पड़े।
”यू मीन बैग पर यह तो जुआ है माँ।”
”नहीं, जुआ तब कहा जाएगा जब हम अपनी सामर्थ्य से ज़्यादा दाँव पर लगा दें और हार जीत बर्दाश्त करने लायक न रहें। अपना नुकसान कर लें। हर चीज़ के दो पहलू होते हैं, इस खेल से हम सीखते हैं कि लालच से कैसे बचा जाता है और संयम क्या है। पर दिवाली पर ताश खेलने का रिवाज तो महज़ अगले साल का शुभ-अशुभ देखने के लिए हैं।”
चारों बच्चों को पाँच-पाँच पौंड देकर माँ काउंटर निकाल लाई और खेल के नियम समझाते हुए माँ ने पत्ते बाँट दिए। हरेक के पास पाँच-पाँच पेन्स के सौ काउंटर थे। जैसे-जैसे पैसे खतम होंगे खिलाड़ी हटता जाएगा- माँ ने निर्णायक अंदाज़ में समझाया। सबसे पहले माँ ही खेल से निकलीं। और खेल में सबसे कमज़ोर फूल-सी नाजुक पैरिस के पास जा बैठीं। माँ के सहयोग से अंत में पैरिस और रूपम ही जीते। पैरिस के पास बीस पौंड और रूपम के पास पाँच पौंड थे। पैरिस ने पैसे लौटाने चाहे, पर माँ ने यह कहकर वापस कर दिए कि “नहीं-नहीं यह तो तुम्हारी अमानत है, आजकी इस शुभ रात्रि में माँ और लक्ष्मी का आशीर्वाद।”
‘आशीर्वाद’ शब्द को पैरिस एक ही रात में पहचानने लगी थी। उसने स्वत: ही उठकर माँ के पैर छू लिए। माँ के लिए सबकुछ बहुत ही अप्रत्याशित था बरसों से अजन्मी बेटी के लिए उमड़ता प्यार आँखों से बह निकला, “कभी-कभी अविक के साथ मिलने तो आएगी ना?”
भावातिरेक की वजह से रूँधे गले से वह बस इतना ही कह पाई।
अगली सुबह पैरिस अविक के कमरे में पैरों से ज़मीन कुरेदती खड़ी थी।
“उम्मीद है तुम बुरा नहीं मानोगे अविक और कॉलेज के बॉल में मेरे साथी बनकर चलोगे। यह दो टिकटें तुमसे पूछे बगैर ही ख़रीद ली थीं मैंने।”
“नहीं।”अविक के शब्द पैरिस पर बिजली की तरह गिरे।
“मैं जिसके साथ भी बॉल में जाऊँगा उसकी टिकट भी मैं ही खरीदूँगा, वह नहीं। उस साथी को पसंद करने का अधिकार सिर्फ़ मेरी माँ का है, मेरा तक नहीं।”
इससे पहले कि अपने अजन्मे सपने, काशी को सीने से लगाए खड़ी पैरिस के आँसू उसे विचलित कर पाएँ, बुत-सी खड़ी पैरिस को वहीं छोड़ अविक कमरे से बाहर निकल आया, बिना देखे और जाने कि बाहर खड़ी मुस्कुराती माँ ने न सिर्फ़ सब कुछ देख और सुन लिया था अपितु समझ और जान भी लिया था, वह भी आज नहीं कल ही, जब नीले रंग के बनारसी जाल के दुपट्टे से सर ढके पूजा की थाली हाथ में पकड़े दिए की लौ-सी जलती पैरिस भगवान से भी ज़्यादा अविक पर ही ध्यान दे रही थी। माँ ने पहचान लिया था अपनी परी को, परी जिसकी कहानी वह अपने राजकुमार को सुनाया करती थीं, आज खुद ही चलकर उनके घर में आ गई है।
अगले दिन लौटते समय खाने के डिब्बे के साथ माँ के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा भी था।
“दो टिकटें हैं यह,” मुस्कुराती माँ जाने किस खुशी के सातवें आसमान पर जा बैठी थीं।
“मैंने खरीदी हैं। और सुन, मेरी परी को साथ लेकर ही तू बॉल में जाएगा।”
“परी? यह पैरिस माँ की परी कबसे हो गई !” अविक दंग था, “पर इसे तो अभी हम ठीक से जानते तक नहीं माँ, और इसे तो कुछ भी नहीं आता, ना रोटी, ना गीता, ना रामायण और फिर मैं भी तो बहुत छोटा हूँ अभी।”
“सच्चे साथी और सच्ची निष्ठा को पहचानना सीखो अविक। जहाँ तक सवाल रोटी, गीता और रामायण का है, मैं सिखा दूँगी यह सब कुछ इसे। और हर छोटा कभी ना कभी तो बड़ा होता ही है। खुशी-खुशी इंतज़ार कर लूँगी मैं उस दिन का, तुम हाँ करके तो देखो।”
अविक अवाक खड़ा देख रहा था यह कैसा जादू जानती है पैरिस, एक ही रात में माँ के ऊपर काबू कर लिया। माँ पूरी तरह से उस पर फिदा हैं, शायद वही जादू जिससे बचने के लिए वह पिछले एक महीने से रोज़ नए उपाय ढूँढ़ रहा था। अविक ने मुड़कर गौर से एक बार फिर उस जादूगर के तिलिस्म को समझना चाहा, पर पैरिस तो उसी जाने पहचाने सरल भाव से बस एकटक उसे ही देखे जा रही थी और माँ पैरिस को। …. रंग और जाति की सारी विभिन्नताओं के बाद भी अविक को दोनों की ही आखें एक-सी और जानी-पहचानी लगीं, प्यार से लबालब भरी और छलकती हुई।…

शैल अग्रवाल
बरमिंघम, यू.के
आणविक संकेतःshailagrawal@hotmail.com

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