प्रभु श्रीराम जहाँ-जहाँ से भी गुजरे तीर्थ बन गए।
‘निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह :
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह’
रावण के आतंक को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देने के लिए राम जी ने सारंग उठाकर प्रतिज्ञा की कि वे रावण के आतंकवाद को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देंगे. जिस स्थान पर प्रभु ने प्रतिज्ञा की थी, उस स्थान को सिद्धा पर्वत के नाम से जाना जाता है।
प्रभु श्री रामजी की अयोध्या से नुवारा एलिया (लंका) तक की यात्रा हमें आज भी चमत्कृत करती है. त्रेतायुग में घटित इस अद्भुत घटना पर हम यदि गौर करें तो पाते हैं कि अयोध्या का एक राजकुमार ,जिसका प्रातःकल राज्याभिषेक होने वाला था, राज-पाठ का त्याग कर, अयोध्या से नुवारा इलिया तक नंगे पाँव चलकर, दुर्दांत रावण के घर में घुसकर उसका सफाया करता है और रसातल में जा रहे सनातन धर्म की पुनर्स्थापना कर शांति स्थापित करता हैं. इसे विश्व के इतिहास की पहली महानतम और अन्तिम अनोखी यात्रा कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. ऐसी युगान्तकारी घटनाएं अचानक ही हुआ करती है।
जब विश्वामित्रजी आकर महाराज दशरथ जी से राम और लक्ष्मण को मांगते है तो पिता के कहने पर राम चल देते हैं. यह भविष्य के चौदह वर्ष के वनवास की पूर्व की तैयारी थी. उसका पूर्वाभ्यास था. उन्होंने पिता की आज्ञा मांगी और चुपचाप चल दिये. लेकिन बाद के वर्षों में वनवास क्यों गए? क्या उन्होंने इसके लिए आज्ञा दी थी?. नहीं. पिता ने तो एकबार भी अपने मुखार्विद से उन्हें वन जाने की आज्ञा नहीं दी और न ही राज-पत्र पर हस्ताक्षर ही किए थे. केवल माता के वचनों को उन्होंने पिता की आज्ञा मानी और तत्काल वन की ओर चल दिये..
महर्षि विश्वामित्र के साथ अपने अनुज के साथ वन जाते हुए वे निश्चिंत थे कि उनके साथ कोई तो है. उन्हें इस बात का अहसास बराबर बना रहा था. लेकिन दूसरी यात्रा में दोनों भाई तो साथ थे ही, लेकिन इस बार सीताजी भी उनके साथ में थीं. अतः वे सावधानीपूर्वक तथा सतर्कता के साथ यात्रा कर रहे थे.
प्रभु श्रीराम वन में आएं और प्रकृति बेखबर रहे, ऐसा होना संभव नहीं था. उसने भी अपने आप को खूब सजाया-संवारा, सोलह श्रृंगार किया,ताकि तीनों यात्री आनंदित रहें. बिना किसी थकावट के निर्द्वंद्व वनों में भ्रमण करते रहें.
उनके आगमन का समाचार पाकर अनेक प्रकार के पंछी-पखेरु अपने कलरव से वन को गुँजायमान करने लगे.. आसमान को छूती पर्वत श्रेणियाँ, हरियाली से अच्छादित होने लगीं. मौसम. खिलखिलाने लगा. नदी जो अब तक चुपके-चुपके, सहमी-सहमी प्रवहमान हो रही थी, का स्वर गूँजने लगता है. वह कलकल-छलछल के स्वर निनादित करती हुई बह निकलती है. या कभी अपना करतब दिखाने के लिए पर्वत के शिखर से कूदने-फ़ंलागने भी लगती है. प्रसन्नता से लबरेज होकर हिरण चौंकड़ी भरने लगते हैं. अपना रूप-रंग प्रदर्शित करने के लिए वे मार्ग के एक ओर खड़े रहकर, उन्हें अपनी ओर आता देखते हैं. शाखामृग उछल-कूद करने लगते हैं. पेड़ों ने नए परिधान पहन लिये. उनकी डालियाँ फ़लों से लद गयीं . पेड़ों से चिपकीं ,रंग-बिरंगे फ़ूलों से लदी लतिकाएं हवा में लहराते हुए झूलने लगी. आम्र-मंजरी की मादक महक वातावरण को सम्मोहित करने लगीं. हर कोई उत्सव में था. हर तरफ़ उत्सव –उत्सव ही था.
पहाड़ी नदियों के गीतों को सुनना, कभी ऊँचे पहाड़ से छलांग लगाकर, झरने के रूप में नीचे उतरती नदी की कलाबाजियों को देखना, दूर-दूर तक फ़ैले गाँवों में बजती प्रकृति-नटि के अनूठे रागों को सुनना, कितने ही रंग और रूप बदलते आसमान के नीचे बैठना, राम को बहुत भाता है. उनका मन इन्हीं में रमता है. वनों के एकांत उन्हें प्रिय है. राजमहल की चाहरदिवारी में उन्हें घुटन होती है. उनका मन बार-बार प्रकृति के खुले वातावरण में निकल आने को छटपटाता है. अपनी उद्देश्यपूर्ण यात्रा के साथ-साथ कुदरत की इसी स्वभाविक उड़ान को देखने और समझने के लिए वे राजमहल से निकलने में देर नहीं लगाते. पिता रुक जाने के लिए बार-बार अनुनय करते, माता कौसलया नहीं चाहती कि राम वन को जाए. लेकिन राम ने एक बार जो ठान लिया, तो फ़िर वे अवज्ञा की सीमा लांघकर भी उसे पूरा करते हैं.
प्रकृति की हर धड़कन में कुदरत के रचियता के श्रृंगारिक- मन की खूबसूरत अभिव्यक्ति होती है. हमारे प्राचीन महाकाव्यों में जो प्रकृति वर्णित है, वह मात्र कवियों की अतिश्योक्ति नहीं है, वरन भारत का सच है. कालीदास जी का मेघदूत हो या फ़िर ऋतुसंहार, या फिर महाकवि वाल्मीकि जी की रामायण हो अथवा संत गोस्वामी तुलसीदास जी का रामचरित मानस हो, वे जिस भारत के वनों-पर्वतों –नदियों की महागाथा कहते नहीं थकते, वह भारत आज भी मौजूद है, उपास्थित है.
वनगमन, दरअसल एक यात्रा ही है….यात्रा का पर्याय ही है. वनगमन का तात्पर्य तो अपने देश को जानना –पहचानना भी है.. उसकी ऊर्जा को, उसकी जीवन-शक्ति को जानना और पहचानना भी है. एक मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक और अध्यातम से जुड़ने का सशक्त माध्यम है. जब हमारी मूल प्रकृति पर हमारा आधिपत्य होने लगता है , तो एक विलक्षण सृजनात्मकता का उदय होता है. इस तरह राम अपनी मूल प्रकृति तक पहुँचे.
राम किस तरह निखरेंगे, वे किस तरह अपनी स्वभाविक प्रवृत्ति से जन-नायक बनेंगे, माता कैकेई बखूबी जानती थीं. यही कारण था कि वे जन-नायक कहलाए. इसका सारा श्रेय, यदि किसी को जाता है तो वह माता कैकेई जी को जाता है.
अपने वनवास के समय प्रभु श्री रामजी जिस-जिस भी स्थानों पर, जिस-जिस भी नदियों के तटों से गुजरे अथवा उन्होंने जहाँ-जहाँ निवास किया, वे सभी तीर्थ बन गए. आइए, हम अयोध्या से चित्रकूट तक की यात्रा में उन स्थानों के बारे में जानकारी लेते हैं,
अयोध्या से चित्रकूट तक की यात्रा और मार्ग में पड़ने वाली नदियाँ
मार्ग में पड़ने वाली नदियां और उनका महात्म्य
सरयू नदी.
दरस परस मज्जन अरु पाना / हरइ पाप कह बेद पुराना / नदी पुनीत अमित महिमा अति / कही न सकइ सारदा विमत मति.
भावार्थ- वेद-पुराण कहते है कि श्री सरयू जी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है. यह नदी बड़ी ही पवित्र है, जिसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वती भी नहीं कह सकती.
अवधपुरी मम पुरी सुहावनि / उत्तर दिशि बह सरयू पावनि /
परम पूज्य संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपाई के माध्यम से सरयू नदी को अयोध्या की पहचान का प्रमुख प्रतीक बनाया है.
पयोधरैः पुण्यजनांगनानां निर्विष्ठहेमाम्बुजरेणु यस्याः ब्राह्मांसरः कारणमाप्तवाचो बुद्धेरिवाव्यक्टमुदाहरन्ति
कहते है कि भगवान श्रीराम की बाललीला का दर्शन करने के लिए सरयू का आगमन इस धरती पर त्रेतायुग में श्रीराम के अवतार के पहले हुआ था. पुराणों के अनुसार सरयू का अवतार गंगा से भी पहले हुआ. अयोध्या में भगवान का पूजन बिना सरयू जल के नहीं होता है. सरयू को ब्रह्मचारिणी बताया गया है. इसी कारण इस नदी के जल में स्नान का विशेष महत्व है. महाभारत के भीष्म पर्व में सरयू का नाम उल्लेख है. रामचारितमानस में सरयू की महिमा का वखान करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-* अवधपुरी मम पुरी सुहावनि / उत्तर दिश बह सरयू पावनि. तुलसीदास जी ने इस चौपाई से *सरयू नदी* को अयोध्या की प्रमुख पहचान के रूप में प्रस्तुत किया है. रामजी की जन्मभूमि अयोध्या की उतर दिशा में पावन सलिला सरयू जी बह रही है. रामायण काल में सरयू कोसल जनपद की प्रमुख नदी थी.
पाणिनि ने अपनी पुस्तक अष्टाध्यायी में सरयू का नाम का उल्लेख किया है. पद्मपुराण के उत्तर खंड में भी सरयू नदी का महिमा का बखान है. लोकभाषा में कहा जाता है कि-* सरयू में नित दूध बहत है मूरख जाने पानी* अर्थात पावन सलिला सरयू में निरन्तर दूध जैसा लाभदायक अमृत बह रहा है, मूर्ख जिसे पानी समझते हैं.
मान्यताओं के अनुसार ब्रह्माजी ने हिमालय पर्वत में बहुत ही सुन्दर क्षेत्र में एक सरोवर का निर्माण किया. उस सरोवर का नाम * मानस-सरोवर* पड़ा. इस सरोवर से निकली नदी.*सरयू* नाम से लोक प्रसिद्ध हुई. सरयू मानस सरोवर से पहले कड़याली नाम से बहती है. कालिदास ने *रघुवंश महाकाव्यम* पुस्तक में लिखा है कि श्रीराम सरयू को जननी के समान पूजनीय कहते हैं. सरयू तट पर अनेक यज्ञों का वर्णन कालिदास जी ने अपने महाकाव्य में किया है.
सरयू नदी वशिष्ठ की पुत्री होने से प्रभु श्रीराम उन्हें अपनी बहन मानते है,जिससे उनका एक नाम *वशिष्ठी* भी है.
कौशल देश की पुण्य नदी सरयू का उल्लेख वेदों-पुराणों में भी मिलता है. सरयू का भावार्थ है-वेगवाला या बहने वाला. ऋग्वेद में इसे पुरीषिणी कहा गया अर्थात-पुत्रों की इच्छा पूर्ण करने वाली. इक्ष्वाकु राजाओं से इच्छित नदी है.. भगवान शिव ने सरयू की महिमा समझाते हुए पार्वती जी से कहा है- “ सामीप्यं न जहाति यत्र सरयूः पुण्या नदी सर्वदा” अर्थात- अयोध्यापुरी के निकट, पुण्यों की वृद्धि करने वाली सरयू नदी प्रवाहित है, जिसका सामीप्यु सरयू कभी नहीं छोड़ती. सरयू प्रातः स्मरणीय पुण्य नदियों में से एक है. भागवत पुराण में भी भारत की मोक्षदायिनी नदियों में इसकी गणना की गयी है. महाभारत के अनुसार इसका उद्गम मानसरोवर (ब्रह्मसर) से है. अध्यात्म रामायण में भी इसका उद्गम मानसरोवर से ही माना गया है. यह हिमालय से निकलती गंगा की सप्तधाराऒं में से एक है और इसका जल समस्त पापों को दूर करने वाला है. इसी सरयू नदी के * गोप्रतार तीर्थ* में गोता लगाकर श्रीरामजी अयोध्यावासियों सहित अपने परमधाम को गए थे. यह इतना पवित्र है कि यहाँ जो स्नान करता है, वह योगियों के लिए अति दुर्लभ श्रीरामधाम को प्राप्त करता है. इतना ही नहीं स्कंदपुराण के अनुसार सबको मुक्तिप्रदान करने वाला तीर्थराज प्रयाग भी अपने पापों को धोने के लिए कार्तिक स्नान हेतु पधारते हैं. * यत्र प्रयागराजोपि स्नातुमायाति कार्तिक.// शुध्द्यर्थ साधुकामो सौ प्रयागो मुनि सत्तम*
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अयोध्या से प्रस्थान करते हुए प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने कौसल जनपद को लाँघते हुए आगे जाना और वेदश्रुति, गोमती एवं स्यन्दिका नदियों को पार करना.
वेदश्रुति.
ततो वेदश्रुतिं नाम शिववारिवहाम नदीम् :उत्तीर्याभिमुख् प्रायदगस्त्याध्युषितां (10)
वेदश्रुति नदी का महात्म्य
वेदश्रुति, सरस्वती नदी का ही एक नाम है. यह एक पौराणिक नदी जिसका वर्णन वेदों में मिलता है. सरस्वती नदी को प्लाक्ष्वती या वेदवती भी कहा जाता है. ऋगवेद में सरस्वती नदी को अन्नवती और उदकवती के नाम से भी जाना जाता है. वैदिक काल में सरस्वती को परम पवित्र नदी माना जाता था. इसके पानी से ऋषियों ने वेद रचे और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया. यह हिमाचल प्रदेश के सिरमौर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलती थी. यह अंबाला, कुरुक्षेत्र, कैथल होते हुए पटियाला राज्य में प्रवेश करती थी, फ़िर सिरसा जिले की दृशद्वती ( कांधार ) नदी में मिल जाती थी. सरस्वती नदी का लुप्त होना ही हड़प्पा सभ्यता के शहर धौलावीरा के नष्ट होने की प्रमुख वजह थी. इस कथा को न सिर्फ़ सरस्वती के श्राप से जोड़कर देखा जाता है, बल्कि इसे पुराणों में धरती पर जल के आगमन की पहली कथा के तौर पर देखा जाता है..
वर्तमान में आप चारों धामों में से एक बद्रीनाथ धाम जाते हैं, तो यहाँ माणा गाँव के समीप पहाड़ी सोतों से गर्जना के साथ सरस्वती नदी का उद्गम होता हुआ देखते हैं. हालांकि कुछ दूर चलने के बाद ही यह नदी उसी गाँव की सीमा से भूमिगत हो जाती है. सरस्वती नदी का जल यहाँ क्यों विलुप्त हो जाता है, इसके पीछे की एक कथा है जो कि महाभारत काल से जुड़ती है.
इसके अनुसार महर्षि वेदव्यास के आग्रह पर विनायक श्रीगणेश ने महाभारत कथा का लेखन यहीं बद्रीनाथ धाम के पास स्थित एक गुफ़ा में किया था. जिस समय श्री गणेश जी व्यास जी से सुनकर श्लोक लिखते, तब सरस्वती नदी अपनी तेज गर्जना के साथ उन्हें परेशान करती, इससे वह सही श्लोक नहीं सुन पा रहे थे. उन्होंने देवी से अपने वेग और प्रवाह को मंद करने के लिए कहा, लेकिन देवी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. तब क्रोध में आए गणेशजी ने उन्हें भूमिगत हो जाने का श्राप दिया, इसके कारण ही हिमालय की कंदराऒं से निकलती सरस्वती नदी माणा गाँव की ही सीमाओं पर धरती के भीतर लुप्त होती दिखाई देती है.
कहते हैं कि प्राचीन काल में तीर्थराज प्रयाग में तीनों नदियों का संगम होता था,लेकिन जब श्राप के कारण सरस्वती नदी लुप्त हो गई, तब यहाँ गंगा-जमुना का संगम होता दिखता है, लेकिन मान्यता है कि आज भी सरस्वती नदी की एक धारा भूमिगत होकर ही इन नदियों के साथ मिलती है और यहाँ अदृश्य त्रिवेणी का निर्माण करती है.
वाल्मीकि रामायण में जब भरत कैकय देश से अयोध्या पहुँचते हैं तब उनके आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है. आदिकवि वाल्मीकि लिखते हैं-“ सरस्वती च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्य्स्यानां भारूण्ड प्राविशद्वनम्” यानी भरत ने सरस्वती नदी के साथ गंगा और यमुना के युग्म वाले विशाल जल भंडार को पार किया.
सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत के अध्याय 35 से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है. इन स्थानों की यात्रा बलराम जी ने की थी, जिस स्थान पर मरुभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे “विनशन” कहते थे. महाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है. सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किए थे. वर्णन है कि कर्ण ने भी जीवन का अंतिम दान सरस्वती नदी के तट पर ही किया था. महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है.
भागवत और अकेस्ता में सरस्वती
श्रीमद्भागवत(5,18,19) में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है “मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु”. मेघदूर पूर्वमेघ” में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है. वे लिखते है कि-“कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्तः शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेभ कृष्णः” कालांतर में सरस्वती का नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर सरस्वती कहा जाने लगा. यहाँ तक कि पारसियों के धर्मग्रंथ “अवेस्ता”में भी सरस्वती का नाम “ हरहवती” मिलता है. सरस्वती नदी सिर्फ़ एक देवी नहीं, एक नदी नहीं, जल का मात्र एक प्रवाह नहीं, बल्कि युगों और सदियों से हमारी सभ्यता और विरासत को अपने में समेटने वाली धरोहर है.
शीतल एवं सुखद जल बहाने वाली वेदश्रुति नामक नदी को पार करते हुए श्रीरामचन्द्रजी अगस्त्य सेवित दक्षिण-दिशा की ओर बढ़ चले.
गत्वा तु सुरिचं कालं तत:शीतवहां नदीम् : गोमतीं गोयूतानूपापतरत् सागरड्गमाम् (11)
तमसा प्रथम दिवस करि वासू : दूसर गोमति तीर निवासू.
गोमती नदी-
भारत के उत्तरप्रदेश में बहने वाली एक नदी है, जो गंगा नदी की एक प्रमुख उपनदी है. भागवत पुराण के अनुसार यह पाँच दिव्य नदियों में से एक है.
दीर्घकाल तक चलकर उन्होंने समुद्रगामी गोमती नदी को पार किया, जो शीतल जल का स्त्रोत बहाती थी. उसके कछार में बहुत-सी गौएँ विचरती थीं.
गोमती नदी-भारत के उत्तरप्रदेश राज्य से बहने वाली एक नदी है, जो गंगा नदी के एक प्रमुख उपनदी है, गोमती को हिन्दू एक पवित्र नदी मानते है और भागवत पुराण के अनुसार यह पाँच दिव्य नदियों में से एक है. हिंदू मान्यता के अनुसार गोमती वशिष्ठ जी की पुत्री हैं और भागवत पुराण के अनुसार भारत की पाँच पारलौकिक नदियों में से एक है.
गोमतीं चाप्यतिक्रम्य राघव: शीघ्रगैर्हयै: मयूरह्साभिरुतां ततार स्यन्दिकां नदीम् (12 अयो.पंचाश: सर्ग वा. रा.)
स्यन्दिका नदी-
कोसल राज्य की एक नदी है. यह नदी पुराणों में बहुत प्रसिद्ध है. वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका उल्लेख मिलता है. इसके किनारे पर मोर,और हंसों के कलरव गूंजित हुआ करते थे. इन पक्षियों की मघुर स्वरों को सुनते हुए रामजी क्रमशः आगे प्रस्थित हुए.
विशाल और रमणीय कोसल देश की सीमा को पार करके लक्ष्मण के बड़े भाई बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजी ने अयोध्या की ओर अपना मुख किया और हाथ जोड़कर विनती की कि वनवास की अवधि पूरे करके महाराज के ऋण से उऋण हो, मैं पुनः लौटकर तुम्हारा दर्शन करूँगा और अपने माता-पिता से मिलूँगा.
श्री रामजी ने श्रृंगवेरपुर में गंगा जी के पावन तट पर पहुँचकर रात्रि में विश्राम किया.
त्रिपथगामी दिव्य गंगा
तत्र त्रिपथगां दिव्यां शीततोयाम शैवलाम् दर्दश राघवो गंगा रम्यामृषिनिषेविताम्
नदियों के कारण ही हमारी भूमि शस्य श्यामला बन पायी है. भारत भूमि पुण्य भूमि है. नदियों के किनारे ऋषि-मुनियों ने निवास करते हुए अनेक ग्रंथों की रचनाएं की थी.
तत त्रिपथगं दिव्यां शीततोयाम शैवलाम् : ददर्श राघवो ग्गा रम्यामृषिनिषेविताम्(12) पंचशः सर्ग वा.रा.)
श्री रघुनाथजी ने त्रिपथगामिनी दिव्य नदी गंगा का दर्शन किया, जो शीतल जल से भरी हुई,सेवारों से रहित तथा रमणीय थीं. बहुत-से महर्षि उनका सेवन करते थे.
गंगा नदी और उसका महत्व.
पतितोद्धार्णि जाह्ववि गंगे खण्डित गिरिवरमण्डित भंगे/ भीष्म जननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये.
गंगा जी आसपास के वातावरण को महर्षि वाल्मीकी जी से बहुत ही सुंदर वर्णन किया है, जो चित्त को भावविभोर कर देता है. वे लिखते हैं कि गंगाजी के तट पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बहुत-से सुन्दर आश्रम बने थे, जो उन देवनदी की शोभा बढ़ाते थे. समय-समय पर हर्षभरी अप्सराएँ भी उतरकर जलकुण्डका सेवन करती हैं. वे गंगा सबका कल्याण करने वाली हैं.(13) देवता, दानव,गन्धर्व और किन्नर उस शिवस्वरूपा भागीरथी की शोभा बढ़ाते हैं. नागों और गन्धर्वों की पत्नियाँ भी उनके जलका सदा सेवन करती हैं.(14) गंगा के दोनों तटॊं पर देवताओं के बहुत-से उद्यान भी हैं. वे देवताओं के क्रीड़ा के लिए आकाश में भी विद्यमान हैं और वहाँ देवपद्मिनी के रूप में विख्यात है.
तटों से टकराते जल को लेकर वाल्मिकी जी बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है. वे लिखते हैं कि प्रस्तरखंडॊं से गंगाजी के जल के टकराव से जो शब्द होता है, वह मानों उनका अट्टहास है. जल से फेण प्रकट होता है, वही उन दिव्य नदी का निर्मल हास है. कहीं तो उनका जल वेणी के आकार का है और कहीं वे भँवरों से सुशोभित हैं.. आगे वे लिखते हैं- कहीं उनका जल निश्चल एवं गहरा है. कहीं वे वेग से व्याप्त है. कहीं उनके जल से और कहीं बज्रपात आदि के समान भयंकर नाद सुनाई पड़ता है..देवताओं के समुदाय उस जल में उतरकर गोते लगाते हैं. कहीं-कहीं उनका जल नील कमलों से अथवा कुमुदों से आच्छादित होता है. तो कहीं पर निर्मल बालुका-राशि का.
गंगा के तटों पर हंसों और सारसों के कलरव गूँजते रहते हैं. चकवे उस देवनदी की शोभा बढ़ाते हैं. सदा मदमस्त रहने वाले विहंगम उनके जल पर मंडराते रहते हैं. कहीं तटवर्ती वृक्ष मालाकार होकर उनकी शोभा बढ़ाते हैं. कहीं तो उनका जल खिले हुए उत्पलों ( नीला कमल या निम्फ़िया नौचली. संस्कृत में इसे कुवलय भी कहते हैं. यह एक औषधी पौधा है. अमरकोष के मुताबिक इसे कुष्ठम, व्याधि, परिभव्यम, वाप्यम, पाकलम भी कहा जाता है.) सा दिखता है.
देवनदी ( श्री विष्णु जी के चरणों से प्राकट्य होने के कारण ही इन्हें देवनदी कहा जाता है.) के तटवर्ती वनों में मदमत्त दिग्गजों,जंगली हाथियों को देखा जा सकता है. सागरवंशी राजा भगीरथ के तपोमय तेज से जो जिनका शंकरजी की जटाजूट से इनका अवतरण हुआ था.
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गंगा जी के तट पर रात्रि विश्राम करने के बाद श्रीरामजी ने अपने अनुज लक्ष्मण को पास बुलाकर कहा-“ तात ! भगवती रात्रि व्यतीत हो गयी. अतः सौम्य ! अब हमें तीव्र गति से बहने वाली समुद्रगामी गंगाजी के पार उतरना चाहिये.
लक्ष्मण ने श्रीराम जी का कथन का अभिप्राय समझकर गुह्य और सुमंत्र को बुलाया. रामजी का आदेश शिरोधार्य कर निषादराज ने अपने सचिवों को बुलाया और आदेश देते हुए कहा-“ तुम शीघ्र ही एक मजबूत और सुगमतापूर्वक खेने वाली तथा सुंदर नाव घाट पर पहुँचा दो.
रामजी ने मंत्री सुमंत को बहुतेरे परामर्श देते हुए कहा कि आप अयोध्या लौट जाएं.
नोट- वाल्मीकि रामायण में निषादराज द्वारा नाव पर न बैठने देना और पग-प्रक्षालन के लिए विवश कर देने वाला प्रसंग नहीं है.).
लक्ष्मण और सीता जी के सहित श्रीराम का प्रयाग में गंगा-यमुना के समीप भरद्वाज-आश्रम में जाना. मुनि के द्वारा उनका अतिथिसत्कार, फ़िर चित्रकूट पर्वत पर ठहरने का आदेश. देना.
प्रयागराज की महिमा
“संगमु सिंहासन सुठि सोहा : छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा”
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ.
गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रयाग की महिमा का वर्णन करते हुए बताया कि –“गंगा,यमुना, सरस्वती का संगम ही तीर्थराज का सिंहासन है. अक्षय वट वृक्ष उसका छत्र है तथा गंगा जी और यमुना जी की तरंगे (लहरें) चँवर है, जिन्हें देखकर ही दुःख दरिद्रता नष्ट हो जाता है.
तीर्थानामुत्तम तीर्थे प्रयागाख्यमनुत्तम्
अर्थात- जैसे ग्रहों में सूर्य तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा है, वैसे ही तीर्थों में प्रयागराज सर्वोत्तम है.
प्रभु श्रीराम ने सुमंत्र जी को बिदा करने के पश्चात उन्होंने नाव से गंगा पार की, केवट को भक्ति का वरदान दिया. गंगाजी से आशीर्वाद लिया और प्रयाग पहुँचे
तेहि दिन भयउ बिपट तर बासु : लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू , प्रातः प्रातकृत करि रघुराई : तीरथराजु दीख प्रभु जाई.
रामजी ने वृक्ष के नीचे विश्राम किया.प्रातःकाल नित्यक्रिया से निवृत्त होने के पश्चात उन्होंने “तीर्थराज” के दर्शन किए. तीर्थराज माने तीर्थों का राजा. राजा हैं तो उनके मंत्री-संत्री, रानी और मित्र सलाहकार भी होंगे. तुलसी इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- चारि पदारथ भरा भँडारू : पुन्य प्रदेश देस अति चारु”- अर्थात-एक ऐसा पुण्य प्रदेश है, जो चारॊं पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष.) से परिपूर्ण है. यहाँ पदारथ का अर्थ पुरुषार्थ से है.
उसकी संपन्नता का बयान करने के पश्चात गोस्वामी जी बताते हैं कि प्रयागराज का सुरक्षा कवच कैसा है. छेत्र अगम गड़्हु गाढ़ सुहावा : सपनेहु नहिं प्रतिपच्छिन्ह आया : सेन सकल बर बीरा : कलुष अनीक दलन रनवीरा. अर्थात- यह किले जैसा क्षेत्र अतीव दुर्गम है. एक ऐसा गढ़ (दुर्ग) जिसे स्वपन में भी शत्रु (पाप)जीत नहीं सकते. प्रयाग के भीतर जितने भी तीर्थ हैं वे इसके वीर-सैनिक हैं जो बड़े रणवीर हैं और पाप की सेना को पराजित करने में सक्षम है.
मत्स्यपुराण के अनुसार- मार्कण्डॆय ऋषि युधिष्ठिर से कहते हैं कि प्रयाग की साठ हजार वीर धनुर्धर गंगा की रक्षा करते हैं तथा सात घोड़ों से जुते हुए रथ पर चलने वाले सूर्य यमुना की देखभाल करते हैं. इसके अतिरिक्त इंद्र, भगवान विष्णु, महेश्वर भी इसकी रक्षा करते हैं.
धन्विनौ तौ गत्वा लम्बमाने दिवाकरे : गंगायमुयो: संधौ प्रापतुर्निलयं मुने:
श्री राम लक्ष्मण सूर्यास्त होते-होते तथा आपस में बातचीत करते-करते गंगा-यमुना के संगम के समीप भरद्वाज के आश्रम पर जा पहुँचे. भरद्वाज मुनि ने उन सबको नाना प्रकार के अन्न, रस और जंगली फ़ल-फूल प्रदान किये.और कहा –गंगा-यमुना इन दोनों महानदियों के संगम के पास यह स्थान बड़ा ही पवित्र और एकान्त है, यहाँ की प्राकतिक छटा भी मनोरम है,अतः तुम यहीं सूखपूर्वक निवास करो.”
रामजी ने बतलाया कि मेरे जनपद के लोग यहां से बहुत निकट पड़ते हैं. वे मुझे और सीता को देखने के लिए प्राय़: आते-जाते रहेंगे. इस कारण यहाँ निवास करना मुझे ठीक नहीं लग रहा है.यह सुनकर महामुनि ने रामजी से कहा- दशकोश इतस्तात गिरिर्यस्मिन निवत्स्यसि: महर्षिसेवित: पुण्य: पर्वत: शुभदर्शन:..तात ! यहाँ से दस कोस की दूरी पर एक सुन्दर और महर्षियों द्वारा सेवित परम पवित्र पर्वत है, जिस पर तुम्हें निवास करना होगा. यह सुविख्यात चित्रकूट पर्वत नाना प्रकार के वृक्षों से हरा-भरा है.
सरित्प्रस्रवणप्रस्थान् दरीकन्दरनिर्झरान् : चरर: सीतया सार्धं नन्दिष्यति मनस्वत.
हे रघुनन्दन ! मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जलस्त्रोत, पर्वत शिखर, गुफ़ा, कन्दरा और झरने तुम्हारे देखने में आयेंगे. वह पर्वत सीता के साथ विचरने के लिए तुम्हारे मनको आनन्द प्रदान करेगा.
चित्रकूट
सुरम्यमासाद्य तु चित्रकूटं, नदी च तां माल्यवर्ती सुतीर्थाम् : ननन्द हृष्टो मृगपक्षिजुष्टां : जहौ च दुःखं पुरविप्रावासत्
अर्थात- चित्रकूट पर्वत बड़ा ही रमणीय है. वहाँ उत्तम तीर्थों से सुशोभित माल्यवती (मन्दाकिनी) नदी बहती है ,जिसका बहुत-से पशुपक्षी सेवन करते हैं. उस पर्वत और नदी का सामिप्य पाकर श्रीरामचन्द्रजी को बड़ा हर्ष और आनंद हुआ. वे नगर से दूर वन में आने के कारण होने वाले कष्ट भूल गये.
पयस्वनी/मन्दाकिनी नदी के पावन तट पर स्थित चित्रकूट भगवान श्री रामजी की कर्मभूमि है. उन्होंने यहाँ 11 वर्ष, 11 महिने और 11 दिन बिताए थे. इसी स्थान पर भरत-मिलाप हुआ था. चित्रकूट अपनी नैसर्गिक सौंदर्य और आध्यात्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध है. यह एक प्राकृतिक तीर्थस्थल है. यह वह भूमि है, जहाँ भगवान विष्णु ने राम के रूप में वनवास काटा था, तो ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना के लिए यहाँ यज्ञ किया था और उस यज्ञ से प्रकट हुआ शिवलिंग धर्मनगरी चित्रकूट के क्षेत्रपाल के रूप में आज भी विराजमान है. इसे ब्रह्मपुरी के नाम से भी जाना जाता है. इसे कामदगिरि भी कहा जाता है. श्रीरामजी ने पर्वत को वरदान दिया और कहा कि अब आप कामद हो जाएँगे और जो भी आपकी परिक्रमा करेगा, उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जाएगी और हमारी भी कृपा उस पर बनी रहेगी. इसी कारण इस पर्वत को कामदगिरि कहा जाने लगा और यहाँ विराजमान हुए कामतानाथ भगवान राम के ही स्वरूप हैं.
मन्दाकिनी नदी-
इसे परम पवित्र नदी माना जाता है. मान्यता है कि माता सती अनुसुइया ने कड़ी तपस्या करके इस नदी को प्रकट किया था. यह यमुना की एक छोटी सहायक नदी है. यह मध्यप्रदेश के सतना जिले से निकलती है और उत्तरप्रदेश के कर्वी में यमुना में मिल जाती है. चित्रकूट से लगभग 15 किमी दूर सती अनुसुइया मंदिर के पास से इसका उद्गम केंद्र माना जाता है. मान्यता है कि इसमें स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनोकामनाएँ पूरी होती है. बनवास काल में प्रभु श्रीराम इसी पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया करते थे और इसके जल से मतगजेन्द्रनाथ का जलाभिषेक किया करते थे. जिस स्थान में प्रभु श्रीराम जी ने डुबकी लगाई थी उसे आज “रामघाट” के नाम से जाना जाता है.
चित्रकूट में सुखपूर्वक रहते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने दण्डकारन्य़ की ओर प्रस्थान करने से पूर्व अत्रि जी के आश्रम पर गये थे..
सोSत्रेराश्रममासाद्य तं ववन्दे महायशाः : तं चापि भगवानत्रि: पुत्रवत् प्रत्यपद्यत.( अयो. सप्तदशाधिकम:सर्गः-5)
अत्रि जी के आश्रम में पहुँचकर महायशस्वी श्री रामजी ने उन्हें प्रणाम किया तथा भगवान अत्रि ने भी उन्हें पुत्र की भांति स्नेहपूर्वक अपनाया. अत्रि जी ने उन्हें अपनी धर्मपरायणा तपस्विनी अनसूया का परिचय देते उनके पास जाने को कहा. अनसूया जी ने सीता जी को इच्छानुसार वर मांगने को कहा. उन्हें बहुमूल्य सीख और वस्त्राभूषण दिये.
इदं दिव्यं वरं माल्यं वस्त्रामाभरणानि च :अंगराग च वैदेहि महार्हमनुलेपनम् मया दत्तमिदं सीते तव गात्राणि शोभयेत् अनुरूपमसंक्लिष्टं नित्यमेव भविष्यति. (अष्टाधिकशततम:सर्ग 19-20)
यह सुन्दर हार,यह वस्त्र, ये आभूषण, यह अंगराग और बहुमूल्य अनुलेपन मैं तुम्हें देती हूँ. विदेहनन्दिनी सीते ! मेरी दी हुई ये वस्तुएँ तुम्हारे अंगों की शोभा बढ़ायेंगी. ये सब तुम्हारे ही योग्य है और सदा उपयोग में लायी जाने पर निर्दोष एवं निर्विकार रहेंगी.
अंगरागेण दिव्येन लिप्तांगी जनमात्मजे : शोभयिष्यसि भर्तारं यथा श्रीरइष्णुमव्ययम् (27)
सीताजी को आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा- “जनककिशोरी ! इस दिव्य अंगराग् को अंगों में लगाकर तुम अपने पति कि उसी प्रकार से सुशोभित करोगी, जैसे लक्ष्मी अविनाशी भगवान विष्णु की शोभा बढ़ाती है.
भगवान श्रीरामजी ने प्रसन्नता के साथ वहाँ रात्रि भर निवास किया. रात बीतने पर जब सभी वनवासी तपस्वी मुनि स्नान करके अग्निहोत्र कर चुके, तब पुरुषसिंह श्रीराम और् लक्ष्मण ने उनसे जाने के लिए आज्ञा मांगी.
एष पन्था महिर्षीणां फ़लान्याहरतां वने : अनेन तु वनं दुर्ग गन्तु राघव ते क्षयम् (21)
अत्रि मुनि जी ने राम से कहा-“ रघुकुलभूषण ! यही वह मार्ग है जिससे महर्षि लोग वन के भीतर फल-फूल लेने के लिये जाते हैं. आपको भी इसी मार्ग से दुर्गम वन (दण्डकारण्य) में प्रवेश करना चाहिए.
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गोवर्धन यादव
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16-02-2025