प्यार दो कथाएँ- पद्मा मिश्रा


इंतजार कब तक
दोपहर के दो बज रहे थे ,सीमा ने उचटती सी नजर घड़ी पर डाली, अभी चार बजे उसे कोर्ट जाना है. एक महत्वपूर्ण केस पर बहस के लिए और अभी तो उसे तैयारभी होना है….वह न जाने कब तक सोती रही थी. आँखों में आंसू भी सूख चुके थे. दर्द की परछाइयां शायद नींद के आगोश में जाकर मन की गहराईयों में कहीं विलीन हो चुकी थीं. …वह धीरे से उठी.. बाथरूम में जाकर ठन्डे पानी से हाथ ,पाँव, चेहरा धोया और धो पोंछ कर बहा दिया उदासी, दर्द की शेष रही लकीरों को. ..पानी की बूंदों में घुल गए मन के आंसू. मेक अप की हलकी परतों में चेहरे और आँखों की सूजन को छिपाकर सादी साड़ी में सुसज्जित मिसेज सीमा भारद्वाज ,एक कुशल अधिवक्ता, नगर की प्रसिद्द लेखिका, समाजसेविका चल पड़ी अपने मंजिल की सीढियां तय करने. …जिन्दगी का यह रूप उसका निजी था. ..एक भोगा हुआ यथार्थ.. उसकी कविताओं की तरह काल्पनिक नहीं.सच्चाई के धरातल पर खडी आज सीमा भारद्वाज लड़ रही थी ..,जिन्दगी के अनेक मोर्चों पर. –एक साथ -,पति,बच्चे,गृहस्थी, उनसे जुड़ी परेशानियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियां, ..सभी कुछ..!
आज सुबह से ही वातावरण तनावग्रस्त था. पति सौरभ नाराज थे और तनाव की लकीरें उनके चेहरें पर साफ़ साफ़ नजर आ रही थीं. ..कारण भी स्पष्ट नहीं था…अलमारी की सफाई न होने, या कप टूटने जैसी छोटी छोटी बातों पर भी उनका गुस्सा भड़क सकता था, ..यह तो वह जानती थी, पर इस हद तक?..वह अनुमान नहीं लगा सकी थी. ..बेटियां अपना होमवर्क कर रही थीं, और वह किचन में व्यस्त थी. ..अचानक आई विपत्ति की तरह उनका चीखना चिल्लाना सुन वह बदहवास हो दौड़ी थी, आलमारी में बिखरी किताबें उसका मुंह चिढ़ा रही थीं. और सौरभ जोर जोर से बस डांटे जा रहे थे. वह उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगी,अपनी सफाई में अभी कुछ कहने को मुंह खोला ही था क़ि लहराती हुई एक किताब उसके पांवों से टकराई, ..और फिर एक जोरदार थप्पड़..
बातों के शूल अपमान की हदें पार कर चुके थे, वह बस चुपचाप रोती रही, और रोते रोते ही बिस्तर पर गिरकर सो गयी. किसी ने उसे जगाया भी नहीं. … बेटियां स्कूल जा चुकी थीं…सौरभ अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रहे थे. उठी तो सब कुछ शांत था, …एक तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति .उसने राहत की सांस ली.उसे अपने अपमान और दर्द की बात याद नहीं आई, बल्कि -”घर में शांति है, यह बात उसे सुकून देने वाली लगी. …शायद हर आम परिवार में घुटती.. जूझती हर नारी ऐसा ही सोचती है…वह इस अन्याय के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकती या यों कहें क़ि आवाज उठाना भी नहीं चाहती, …….नारी विमर्श और नारी उत्पीडन के के लिए लिखने वाली ..उनके हक़ के लिए सामाजिक संस्थाओं के साथ आवाज मिलाती सीमा भारद्वाज अपने घर के दायरों में कैद …कितनी विवश.. कितनी निरुपाय थी, ..यह बात सीमा के अतिरिक्त कौन समझ सकता था?..पर वह कायर नहीं थी. वह एक हद तक खुद को स्वार्थी ही मानती थी. घर की शांति के लिए, बच्चों के भविष्य के लिए, खुद सौरभ के स्वास्थ्य के लिए, और दूसरों के सामने खुद को ,परिवार को लज्जित होने से बचाने के लिए.वह चुपचाप वर्षों से यह सब सहती आ रही थी.
सौरभ के पिता नहीं थे, माँ बचपन में ही चल बसी थी. सौतेली माँ ने पाला था, पर उस पालन पोषण की कीमत उसके पिता की सम्पत्ति पर अपने सम्पूर्ण अधिकार के रूप में पाना चाहती थीं. और यह उन्होंने कर दिखाया धोखे से कागजों पर सौरभ के हस्ताक्षर लेकर. पर पिता की छोडी जमीन का एक बड़ा हिस्सा सौरभ के बेटे के नाम था, जो उनकी आँखों में खटकता रहता था. वह जब तब सौरभ को फोन कर ,उससे बहस करके ,अपशब्दों से , उसको अपमानित करती रहती थीं.बस वे तनाव ग्रस्त हो अपना गुस्सा कभी उस पर ,कभी बच्चों पर निकाला करते थे.
इस आपाधापी में उसे बेहद प्यार करने वाला उसका अपना सौरभ कहीं खो गया था. प्रेम की बेल ही सुख़ गयी हो जैसे.. वह जितना समझाती ,वह उतना ही भड़क उठते. फलस्वरूप उसने अपना सब कुछ समय पर छोड़ दिया था. वह जान रही थी क़ि आज भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा. उसने गहरी सांस ली. ….कार ड्राइव करते हुए सीमा अपनी सोच में इतनी डूब गयी थी क़ि सामने से आते एक ट्रक से टक्कर होते होते बची.वह काँप उठी..अगर मर जाती तो? ….अच्छा ही होता न ,..सब खटरागों से मुक्ति मिल जाती. ..अपनी इस क्षणिक कायरता पर मन ही मन मुस्करा उठी सीमा. मौत भी उसके भाग्य क़ि तरह उससे कतरा कर निकल गयी. ….कोर्ट आ गया था, जाने -अनजाने कई चेहरे नजर आ रहे थे. बाहर खडी गाड़ियों की कतार में गाड़ी पार्क कर वह कक्ष में जैसे ही घुसी, उसके मित्र सामने ही मिल गए थे. सीनियर से बातें करती हुई वह कोर्ट के अन्दर चली गई थी. आज बहस के दौरान सीमा नारी प्रतारणा के विरोध में जम कर बोली थी, शायद उसकी अपनी पीड़ा ,बेबसी एक माध्यम पाकर मुखरित हो उठी थी. सभी आज एक नई सीमा भारद्वाज को देख रहे थे. कोर्ट से लौटी तो तन मन थक कर चूर थे. एक कप चाय पीकर वह पलंग पर लेती ही थी क़ि ‘कोमल जी’ का फोन आ गया -”मिलन संघ में एक कवि गोष्ठी है, आजाइए, कब से फोन लगा रहा हूँ”. —”मै सोचूंगी कोमल भाई, अभी तो बहुत थकी हुई हूँ”, उसने आँखे बन्द कर लीं.
बच्चे स्कूल से आ गए थे. सीमा का मन आज बहुत ही आकुल व्याकुल था. मन की बोझिलता को कम करने के लिए उसने कवि गोष्ठी में शामिल होने का मन बना लिया.बच्चों और सौरभ के लिए सब्जी बना कर और आटा भी गुंध कर फ्रिजमे रखदिया, शाम को लौट कर रोटियां बना लेगी. , थोड़ी देर बाद कवि गोष्ठी के लिए तैयार होकर सौरभ को चाय दे ,,शाम को लौटने की बात बता कर बाहर आते समय उसने सुना -”देर होने पर फोन कर देना,” सौरभ कह रहे थे. यह सुलह की औपचरिकता थी.बच्चों को खाना खा लेने की हिदायत दे वह बाहर आ गयी.
कवि गोष्ठी में मंच सञ्चालन करते समय ..पढी जाती कविताओं पर दाद देती, हर भावपूर्ण पंक्ति पर अपनी टिप्पणी देती, ..श्रोताओं की तालियों में गुम होती …अपने मन के हाहाकार को सीमा साफ़ साफ़ सुन प् रही थी.तभी कोमल जी ने उसका नाम पुकारा–”’अब मै आमंत्रित करता हूँ -अपने नगर की शान ,स्वयं सरस्वती स्वरूपा सीमा भारद्वाज को ”…वह शांत मनसे डायरी के पृष्ठ पलटने लगी. सोचा तो था क़ि प्रकृति प्रेम या पर्यावरण पर कोई सुनाएगी परभींगी आँखों ने यह कौन सी कविता ढूंढ़ निकली थी?…कविता के शब्द गूंज रहे थे”….जिन्दगी और सच्चाई के बीच ,…एक लम्बा फासला तय करती है,..ओरत की जिन्दगी …रोटियां बनाते.. आँगन बुहारते.. क्या एक पल के लिए भी ..किसी ने सोचा?..कब टूटीं उसके सपनो की साँसें?..कब गिरे संवेदनाओं के ताजमहल?”
कविता के शब्द आँखों से आंसू बन पिघल रहे थे, ”सीमा जी, आप ठीक तो हैं न?”अनीता सिंह ने उसकी और पानी का गिलास बढाया था. ”हाँ, मै ठीक हूँ”… पानी पीकर वह कुछ स्वस्थ हो गयी थी.
….जिन्दगी कुछ और आगे बढ़ गयी थी.. सौरभ अब और भी अधिक क्रोधी हो गए थे. और जिम्मेदारियों से दूर भागने लगे थे. बेटे की शिक्षा, बेटियों को पढ़ना और उनके विवाह आदि सारे कार्य सीमा नेअकेले ही किये थे. …..पर वर्षों बाद इन डूबती उतराती साँसों के बीच …मन में पल रही एक अंतहीन प्रतीक्षा थी क़ि …आज न सही कल.. कभी उसका साथी लौट आएगा उसके पास …उसे भी तो मेरे साथ की जरुरत होगी, ”…जीवन की अनंत यात्रा पर वह अकेली नहीं होगी, उसे ले जाने वाले चार हाथों में उसका चिर साथी भी शामिल होगा. …अपने प्यार की पालकी उठाये……………बस इंतजार ही तो था ..एक अंतहीन इंतजार..आखिर कब तक ???

तुम तक जाने की राह
सर्दियां धीमे-धीमे विदा ले रही थीं,,अब मौसम में उतनी ठंड नहीं थी, केवल उसका अहसास बाकी था,, फरवरी के महीने में अक्सर हल्की ठंड के साथ साथ फूलों का खुशनुमा मौसम दस्तक दे रहा होता है,,
रानी चुपचाप खेतों की मेड़ पर बैठी हुई अपने आप में ही कहीं गुम थी,वह रोज ऐसा ही किया करती थी, घर के सारे काम निपटा कर,अम्मा जी और बाबूजी के आराम के लिए ओसारे में चले जाने पर, यहां खेतों की ओर चली आती,थी,चारो ओर फैले खूबसूरत सरसों के खेतों में फैली हरियाली को देखकर उसे अपने पति रामसिंह की याद आती थी,वह इन खेतों को देखकर बहुत खुश होता, और उसके पीले दुपट्टे को लहराते हुए कहता**देख रानी,, सरसों के पीले फूल मुझे तेरे पीले दुपट्टे जैसे ही लगते हैं, यहां से वहां तक फैले हुए,,ये मुझे वहां ऊंचे पहाड़ों पर बर्फीले तूफान के बीच भी बहुत याद आते हैं,,तब मन को बहुत सुकून मिलता है,,इस बार जब फरवरी की गुलाबी सर्दियों में आऊंगा तो ढेर सारे फूल अपने साथी जवानों के लिए भी ले जाऊंगा,, और तुझे भी पहाड़ों की सैर पर ले जाऊंगा,देखना कितनी ठंड पड़ती है वहां**
रानी बस चुपचाप मुस्कराते हुए उसे देखती रहती,अभी साल भर पहले नया नया ब्याह हुआ था उसका,,वे रात भर जाग कर बातें करते रहते, हल्की ठंड वाली फरवरी की रातें, बसंत की अगवानी करती, और खुशबुओं के परों पर तैरते से ,वे दिन तो जैसे पंख लगा कर बहुत जल्द ही उड गये और शादी के छह महीने बाद ही रामसिंह ड्यूटी पर चला गया,, और रानी अकेली हो गई, सुदूर पंजाब के सरसों के पीले खेतों से निकल कर उसकी यादें ठंडे पहाड़ों पर पहुंच जाती थी,, जहां वह अपनी सोचों में रामसिंह के साथ पहाड़ों से एक नया रिश्ता बना रही होती,,, दुश्मनों की बरसती गोलियों के बीच खंदकों में छिपे जवानों के साथ उनके सुख दुख बांटती,,, बाजार में शाहजी की दुकान पर लगे कैलेंडर की लड़की की तरह वह भी पीले पीले फूलों की टोकरी उठाए,,शाल का एक सिरा दांतों में दबाए,, जवानों को फूल बांटती,,उसका यह मोहक सपना जल्दी ही टूट जाता जब अम्मा उसे ही पुकारती हुई खेतों तक चली आती थी,*रानी,ओ रानी,चल कुड़िए,,चल बेटा,,शाम हो चली है*
*आई अम्मा,, और वह अम्मा के हाथ थामे हुए घर लौट आती थी,,,यह सिलसिला जारी रहता था,, लेकिन इधर कुछ दिनों से उसे रामसिंह की बहुत याद आ रही थी,,उसका जी चाहता था कि सामने खेतों के पार बहती सतलज नदी को पार कर उस पार पहुंच जाए,,बस पकड़ कर अपने रामसिंह के पास पहुंच जाए, पर यह संभव नहीं था,,सब कुछ अनजाना अनदेखा सा था,, उसके और रामसिंह के बीच गुलाबी ठंड वाली फरवरी की रातें,,,सरसों के पीले खेत,सतलज नदी और पहाड़ थे,उसकी जिंदगी में दूर दूर तक फैले हुए,,
उसे आज भी वो दिन याद है जब उसके सुहाग रामसिंह के लापता होने की खबर मिली थी,,
उस दिन न जाने क्यों अनमना सा महसूस हो रहा था, पर क्य़ो,रानी समझ नहीं पा रही थी,,एक अनहोनी की आंशका उसे डराती रहती थी इन दिनों जब से कुछ जवानों के साथ घटी बुरी घटनाओं के बारे में पता चला कि आधी रात को दुश्मन अचानक घुस आए,,, और गोलियों से भून दिया,,,रानी ये सब भुला देना चाहती थी, लेकिन मन की उदासी का क्या करें !!!त‍भी पड़ोस की गुड्डो दौड़ी आई**भाभी जल्दी चलो, फौज से कोई आया है,,*रानी खेतों में दौड़ लगाती भागती चली गई,, शायद रामसिंह आ गया”पर सामने कुर्सी पर बैठे दूसरे जवान को देख कर ठिठक गयी,,बाबूजी चुपचाप चौकी पर सिर झुकाए हुए बैठे थे,, मां उसे देख कर गले से लगा लेती हैं,बिलख उठी मां,,*रानी तेरा रामसिंह लापता हो गया है, सेना उसे तलाश करने में जुटी है,,ये क्या हो गया बेटी,,,*
रानी कुछ बोल नहीं सकी, चुपचाप सबको देखती रही,, फिर जोर से विलाप कर उठी*कहां गया मेरा रामसिंह,,बोलो न वीरजी,,आप सच सच बोलो,,*
*हम तलाश कर रहे हैं बहन,उम्मीद है कि वह मिल जाए,,आगे की रब जाने**
उस दिन के बाद से न रामसिंह लौटा न उसकी कोई खबर आई, लेकिन रानी का इंतजार खतम नहीं हुआ,आज भी वह खेतों में जाकर कुछ देर यादों में खो जाती है,पीले सरसों के फूलों को बड़े जतन से सहेज कर डिब्बे में रखती है,उसका मन अपनी कल्पना में सतलुज नदी को पार कर बस से पहाड़ों पर पहुंच जाना चाहता है, रामसिंह के साथ पहाड़ों की शीतलता को महसूस करना चाहता है,, पर वह जानती है कि ऐसा नहीं हो सकता,यह इंतजार लंबा है शायद फौज में काम करने वाले हर फौजी की पत्नियां ये लबा इंतजार करती रहती है,यही उनकी नियति है शायद,, फरवरी की सर्दियां बीत रही थी,,पीले लाल फूलों से खेत भर गये थे,,रानी का पीला दुपट्टा एक बार फिर,,,उसके आंसुओं से भर गया था,,,,

पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर झारखंड..

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