दो लघुकथाएँः सुरेन्द्र अरोड़ा


निमंत्रण

” मेहमानों की लिस्ट पूरी हुई। अब कार्ड बांटने का काम रह गया।”

” मम्मी ! आपने बनवारी का नाम लिख लिया न ? ”

” ये बनवारी कौन है ? ”

‘ मम्मी ! बनवारी ही तो हर सुबह हमारी दोनों गाडिओं को चमकाता है। हर इतवार कार के अंदर जमीं धूल – मिट्टी को भी साफ़ करता है। मेरे आफिस के सब लोग अक्सर मुझे कम्प्लीमेंट देते हैं कि कार को मेंटेन करना तो कोई आरुषि से सीखे। हमेशा साफ़ – सुथरी और चमकदार। ”

” बेटा,यही तो बनवारी की ड्यूटी है। और किस काम के पैसे लेता है ? ”

” मम्मी ! हम जिसे भी इन्वाइट कर रहे हैं , वो तो कभी न हमारे किसी दुःख में आये ,न ही किसी जरुरत के समय हमारे साथ दिखे। बनवारी तो बिना नागा हमारी गाड़ियों को अपने बच्चे की तरह नहलाता है।उसकी वजह से कारों की सफाई की हर टेंशन हवा हुई रहती है। ”

” आरुषि ! ये उसका काम है बेटे ! इसी काम की तो पगार लेता है। ”

” मम्मी प्लीज। जहाँ इतने लोग आयेंगें , एक वो भी आ गया तो क्या फर्क पड़ जायेगा? ”

” कैसी बातें करती हो आरुषि ? अकेला नहीं आएगा। कम से कम चार लोग होंगें उसके साथ। सबको मिला दो तो खाने की हर प्लेट के सौलह सौ के हिसाब से पूरे आठ हजार बनते हैं। समझो मेरी बच्ची। शादी में वैसे ही हम ओवर बजट हो चुके हैं। ” मम्मी अनमनी हो उठी।

” नाराज क्यों होती हो मम्मा ! मैंने तो इसलिए याद दिलाया कि पिछले हफ्ते ही , इन्हीं बातों पर आपके छपे हुए आलेख की वजह से आपको सम्मानित किया गया है। ”

‘ ठीक है न , तुम्हारा मन है तो लिख लो उसका नाम भी।”

कसक
दिन ढलने के बाद शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी और वो कमरे में अकेला था । उसने अपने सोफे को ही बैड की तरह कर इस्तमाल कर लिया। ऐसे में कई बार वो मोबाईल पर पुराने फिल्मी गाने सुनने लगता था । आज , उन गानों के सुरीलेपन के बीच उसके दिमाग की नसों में वे कोमल और संगीतमय पल एक बार फिर जीवन्त हो उठे जो उसने , शिखा के साथ गुजारे थे । शिखा बड़ी शीद्द्त से उसकी हर क्रिया पर अपनी सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दोनों ने एक – दूसरे को बिना कहे बहुत कुछ देने की ठान ली थी।उन दिनों उसे कभी लगता ही नहीं था कि इस जिंदगी में वो कभी एक – दूसरे से अलग भी हो सकते हैं। कुदरत का अतीत कुछ भी हो ,उसके भविष्य के गर्भ में क्या है ,कोई नहीं जानता।

हालात कुछ ऐसे बने कि उसकी लाख मिन्नतों के बाद भी शिखा उससे अलग हो गई और वो भी ऐसी कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी तरफ नहीं देखा ।

वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया ।

समय की चढ़ी धूल में भले ही उसकी छपटाहट में कुछ कमी आ गयी पर अलगाव के इतने साल बाद भी उसे बहुत बार लगता कि शिखा के सानिध्य में बीते हुए वे साल भले ही बहुत सुरीले थे पर अब वे उसके जहन पर परत दर परत इस कदर चिपके हैं कि अब वे कभी – कभी किसी बोझ से लगते हैं ।

जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर शिखा के ही करीब पाता । उसके अन्दर का हर कोश शिखा से मिलने या कम से कम एक बार ही सही , बात करने के लिये बेताब हो जाता। जबकी वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , ” कभी – कभी समय अगर बेहद इंद्रधनुषी होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना बदरंग कैसे हो जाता है ? ”

वो अपने ही सवालों से टकराकर रह जाता ।

आज की शाम के पुराने गानों के साथ वो , फिर अपनी इसी कसक में डूब गया था, जिसमें सिर्फ दर्द ही था । इस दर्द को हल्का करने की गरज से उसने मोबाईल में से मेसेज वाला आपशन निकाल कर शिखा का नम्बर निकाला और लिखा , ” समय के तार कितने भी कठोर हो जाएँ , उनका तारत्त्व कभी समाप्त नहीं होता।तमाम प्रहारों के बाद भी , यादें कभी मिटती नहीं है। ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । ”

उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां सेंड वाले बटन की तरफ बढ़ी तो ठिठक गयीं ।

उसने मोबाईल से मेसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के स्विच की तरफ अपना हाथ बढ़ा दिया । कमरे में रोशनी पसर गई । अँधेरा बाहर चला गया।

गाने अब भी पहले की तरह ही बज रहे थे। रौशनी में उसे दीवार पर टंगा वो केलेंडर दिखाई दिया जिसमें समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर क्षितिज पर नजरें टिकाये मुस्कुरा रहा था ।

उसे लगा कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये ।

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा , डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन

साहिबाबाद – 201005

मो : 9911127277

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