तुलना
वह अपने टैरेस पर गमलों में लगे फूलों की तुलना अनायास अमर के गमलोंवाले फूलों से करने लगा।
क्या बात है आखिर? हम दोनों ने एक साथ, एक तरह के एक साइज के पौधे खरीदे थे। फिर उसके फूल इतने भरे-भरे, इतने बड़े-बड़े और इतने खूबसूरत कैसे?
वह अपने घर के नन्हें, बेतरतीब बिखरे से पुष्पों को गौर से देखते हुए सोच रहा था। छोटी-नन्हीं कलियाँ, छाटे-छोटे फूल, पीले पत्ते।
आखिर उससे रहा नहीं गया। धमक पड़ा उसी दम अमर के घर। टैरेस में ही चाय-नाश्ता लिया।
“तुम्हारे घर खिले फूलों को देखता हूँ, तो एक ईर्ष्या सी होती है। आखिर ये इतने बड़े, खूबसूरत कैसे ? क्या डालते हो इसमें यार?”
“कुछ भी तो नहीं। बस, थोड़ी सी मेहनत। और ढेर सारा प्यार-दुलार!”
बताते हुए फूलों सी मुस्कराहट अमर के होठों पर आ बिराजी।
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फैसला
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उन्हें याद है, वे देर तक बोर्ड को देखते रहे थे। अंदर प्रवेश का मन नहीं, मजबूरी की पोटली साथ।
मन के अंदर के सन्नाटे बोर्डवाली इमारत के सामने घुटने टेकें, इससे पूर्व वे गायत्री की यादों को भरपूर जी लेना चाहते थे। दो महीने पहले ही गुजरी थी। खटारा गाड़ी एक पहिए के भरोसे।
तीनों बच्चे आए थे। श्राद्ध कर्म के दूसरे दिन ही उनकी अतिशय व्यस्तता ने उन्हें वापस बुला लिया था। यहाँ भी लैपटॉप पर काम में बिजी। बड़े बेटे मुकेश के लिए ठीक श्राद्ध के समय फोन आ गया था और उसे ऑफिस के जरूरी काम में उलझना पड़ा था।
न उन तीनों ने कहा, न उनकी इच्छा थी, वे साथ नहीं गए। बस, गायत्री की याद को घर के कोने-कतरे में ढूँढते रहे। आज के बच्चों की अबूझ व्यस्त जीवनचर्या का एहसास था उन्हें।
थोड़ी देर में वे अंदर थे, रिटायर्ड जज, बुजुर्ग डॉक्टर, बच्चों के घर से फेंकी गई वृद्धा, पिटकर संपत्ति छीन अपने घर से निकाले गए बाप, पैर टूटी माँ आदि के पास।
तब फोन पर बेटे के “क्यों” का जवाब दिया था,
“यहाँ या वहाँ अकेले सूने कमरों में भटकते रहने से तो अच्छा है न जी।”
आज दसेक दिनों में ही अखबार बाँचते, कैरम खेलते हुए वे अपने हमउम्र दोस्तों के बीच युवावस्था के ठहाकों को जी रहे हैं। बोर्ड का ‘संध्या छाया’ अपने होने पर इतरा रहा है।
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अनिता रश्मि