समय कभी न व्यर्थ गंवाओ
पूरब की खिड़की से झाँका ,
नन्हा बालक भोला भाला |
अरे -अरे यह तो सूरज है ,
आया ओढ़े लाल दुशाला |
हवा चल पड़ी ठंडी- ठंडी ,
डाली फूलों को दुलरातीं |
नदियों, झरनों, तालाबों के,
नीले जल पर चंवर डुलाती |
किरणों के घोड़े पर बैठी ,
धूप आ गई मस्ती करती |
अलसाये प्राणी पौधों में ,
नई ताज़गी ऊर्जा भरती |
उड़ने लगे परिंदे नभ में ,
तितली भँवरे भी इठलाये |
किये बिना ही देर दौड़कर ,
फूलों पर आकर मंडराए |
सूरज ने सन्देश दिया है ,
जल्दी उठो काम पर जाओ |
पाना है अपनी मंजिल तो ,
समय कभी न व्यर्थ गंवाओ
मेंढ़क दफ्तर कैसे जाए
सूट पहनकर,बूट पहनकर,
और लगाकर टाई।
जाना था दफ्तर, मेंढ़क ने,
अपनी बाईक उठाई।
किक पर कूदा उचक उचककर,
पूरा जोर लगाया।
पर बेचारा मेंढ़क बाईक,
चालू न कर पाया।
अब तो था लाचार पहुँच वह,
कैसे दफ्तर पाए।
टर्राने के सिवाय उसे अब,
कुछ भी समझ न आये।
सुबह के अखवार में
क्या- क्या छपा,लिखा क्या- क्या है,
सुबह के अखबार में।
एक राह चलती महिला का,
छीना हार झपट्टे से।
स्कूटी से जाती लड़की,
फँस कर गिरी दुपट्टे से।
कुत्ता मरा एक मंत्री का,
जूड़ी ताप बुखार में।
शाला की बस गिरी खाई में,
बच्चे दबकर मर गए बीस।
पिटी एक बच्ची टीचर से,
चुका न जो पाई थी फीस।
चाँदी चढ़ गई सोना लुढ़का,
रंगों के त्यौहार में।
मुनियाँ यह सब पढ़ती है तो,
उसे अजूबा लगता है।
रोज- रोज अखवारों में क्यों,
उल्टा सीधा छपता है।
क्या सचमुच में ऐसा होता,
होगा इस संसार में !
क्यों न रस्ता मुझे सुझातीं
सुबह -सुबह से चें -चें चूँ -चूँ,
खपरेलों पर शोर मचाती।
मुर्गों की तो याद नहीं है,
गौरैया ही मुझे जगाती।
चहंग -चंहंग छप्पर पर करती,
शोर मचाती थी आँगन में।
उसकी चपल चंचला चितवन,
अब तक बसी हुई जेहन में।
उठजा लल्ला ,उठजा पुतरा,
कह कह कर वह मुझे जगाती|
,
आँगन के दरवाजे से ही,
भीतर आती कूद -कूद कर।
ढूंढ -ढूंढ कर चुनके दाने,
मुंह में भरती झपट -झपट कर।
कभी मटकती कभी लपकती,
कत्थक जैसा नाच दिखाती।
आँखों में तुम बसी अभी तक,
पता नहीं कब वापस आओ।
मोबाइल पर बात करो या,
लेंड लाइन पर फोन लगाओ।
किसी कबूतर के हाथों से,
चिट्ठी भी तो नहीं भिजातीं ।
तुम्हीं बताओ अब गौरैया,
कैसे तुम वापस आओगी।
छत ,मुंडेर ,खपरैलों पर तुम,
फिर मीठे गाने गाओगी।
चुपके से कानों में आकर,
क्यों न रस्ता मुझे सुझातीं |
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
12 शिवम् सुंदरम नगर छिंदवाड़ा म प्र