गीत और ग़ज़लः हरी किशन राज़दान ‘राज़’


सौ गिले शिकवे हैं लेकिन वो हमारे हैं तो हैं
क्या करे दरिया भी आख़िर दो किनारे हैं तो हैं

एक उनकी ज़िंदगी है एक अपनी ज़िंदगी
और कुछ गैरों के भी इनमें गुज़ारे हैं तो हैं

चल रहे हैं आबपा धूप में सहराओं की
फिर भी आँखों में हमारी चाँद तारे हैं तो हैं

हर जगह मौजूद है रहमत भी उसकी कम नहीं
अब खुदा भी क्या करे कुछ ग़म के मारे हैं तो हैं

राज़ जो भी कर सके हमने किया सबके लिए
ख़ुद मगर हम आज तन्हा बेसहारे हैं तो हैं

तू क्या मैं हूँ, मैं क्या तू है
क्या समझूँ मैं, कैसा तू है

मैं समझा यह घर है मेरा
घर तेरा है, मेरा तू है

सारे दुख ख़ुद ढूँढ़े मैंने
ग़म हैं मेरे, रुसवा तू है

जब ठोकर खाकर गिरता हूँ
लेकर मुझको चलता तू है

क्यों इल्ज़ाम ज़माने को दूँ
जो होता है करता तू है

करते हैं दोनों मनमानी
तुझ सा मैं हूँ मुझ सा तू है

अब आपस में पर्दा कैसा
‘राज़’ यहाँ मैं हूँ या तू है

मुहब्बत में ख़ुशी और दर्द का रिश्ता पुराना है
कभी हँसना हँसाना है कभी रोना रुलाना है

जो डूबे इश्क़ में करते हैं सब वादे वफ़ाओं के
पता भी है कि मुश्किल ऐसे वादों का निभाना है

उन्हें होती है कोई या न कोई रोज़ मजबूरी
कहें कैसे कि सच है या फ़क़त उनका बहाना है

अजब होती है दिल की कैफ़ियत जब सामने हों वो
पता लगता नहीं रोना कि हमको मुस्कुराना है

अगर वो आएं तो आते ही पहली बात कहते हैं
हमारे पास कम है वक़्त और जल्दी भी जाना है

लगाकर जो वो आंखों में, नज़र से मुस्कुराते हैं
वही काजल हमें अब उनकी आंखों से चुराना है

जरूरत ‘राज़’ की उन को कभी पड़ जाए तो देखो
उन्हें मालूम है सब किस तरह हम को बुलाना है

गुलशन में नहीं ख़ार हो, ऐसा नहीं होता
दुश्मन न कोई यार हो, ऐसा नहीं होता

कैसा भी हो कोई मगर, उस का भी जहां में
कोई न तलबगार हो, ऐसा नहीं होता

इंसां जो कभी आ न सके काम किसी के
इतना कोई लाचार हो, ऐसा नहीं होता

बातों में तो जान अपनी लुटा सकता है, लेकिन
मरने को भी तैयार हो, ऐसा नहीं होता

कितना भी दुखी क्यों ना हो इस दुनिया में, कोई
जीने से वह बेज़ार हो, ऐसा नहीं होता

महफ़िल में बहुत होते हैं दुश्मन तो, मगर ‘राज़’
कोई भी न दिलदार हो, ऐसा नहीं होता

जनाब हरी किशन राज़दान ‘राज़’ जी उर्दू के जाने माने शायर हैं, मुंबई में उस्ताद शायरों में उनका शुमार है. शायरी के संग्रह ‘हर लम्हा और’ ‘दिल से उठा धुंआ’ व् एक कत्ता संग्रह “क़तरा-क़तरा’ भी मंज़रे आम पर मौजूद है. उनकी शायरी तुलसीदास की तरह स्वान्तः सुखाय है-व् आज के हालत में ज़िंदगी जीने का करीना भी हैं, और ज़िंदगी जी रहे इंसान का आईना भी. उनकी ग़ज़लों के गुंचे से चुनिन्दा ग़ज़ल अनेक बेहतरीन गायकों ने गाईं हैं. इस लिंक पर उनकी शायरी सुनी जा सकती हैं: www.gauravchopraghazal.com
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