गीत और ग़ज़लः निंदा फ़ाज़ली


इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी |

खूँख्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी |

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी |

हिन्दू भी मज़े में है मुसलमाँ भी मज़े में
इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी |

उठता* है दिलो-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही
ये ‘मीर’ का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी |

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो ग़लत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो ग़लत है

वो चाँद रहगुज़र का, साथी जो था सफ़र का
था मोजिज़ा नज़र का
हर बार की नज़र से रोशन वह मोजिज़ हो
यह बात तो ग़लत है

है बात उसकी अच्छी, लगती है दिल को सच्ची
फिर भी है थोड़ी कच्ची
जो उसका हादसा है मेरा भी तजुर्बा हो
यह बात तो ग़लत है

दरिया है बहता पानी, हर मौज है रवानी
रुकती नहीं कहानी
जितना लिखा गया है उतना ही वाकया हो
यह बात तो ग़लत है

वे युग है कारोबारी, हर शय है इश्तहारी
राजा हो या भिखारी
शोहरत है जिसकी जितनी, उतना ही मर्तवा हो
यह बात तो ग़लत है


सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

इधर उधर कई मंज़िल हैं चल सको तो चलो
बने बनाये हैं साँचे जो ढल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम सम्भल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चन्द उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफ़ूस रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज, धुआँ धुआँ है फ़िज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो

निंदा फ़ाज़ली

आधुनिक कबीर कहे जाने वाले निंदा पाजली की रचनाएँ सहज शब्दावली और दार्शनिक पुट के साथ कबीर की तरह ही सीधे मन को छूती हैं।

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