गीत और ग़ज़लः दीपक शर्मा


दिल की गीली ज़मीं पर ख्वाबों का बिस्तरा
ख़्वाबों को मिल रहा जहाँ सिरे से एक सिरा

कोसो की दूरियां ख़त्म हो गई लम्हात में
आँखों को मूँद जब भी तसव्वुर कीया तेरा

महकता रहा तमाम दिन मैं देख ख्वाब एक
साये संग तेरे रात भर साया लिपटा था मेरा

देखी गई है उसमें बहुत इंसानियत की लौ
जग ने बुझा दिया चिराग जो कह के सिरफिरा

चलने दो ज़रा हवा ख़ुद ही हो जायेंगे बेनकाब
पत्ते सब ज़र्द उड़ जायेंगे रह जाएगा दरख्त हरा

आदत ये हुमें आपकी कतई अच्छी नहीं लगती
गलती भी की और ख़ुद से पहले आंसू दिए गिरा

कोई भी तो नहीं जहान में समझा है तुझे “दीपक”
तन्हाई में दो बात चल तू ख़ुद से कर ले ज़रा


मैं ना हिंदू ,ना सिक्ख ,ना मुसलमान हूँ
कोई मजहब नही मेरा फ़क़त इन्सान हूँ।

मुझे क्यूँ बांटते हो क़ौमों में ज़ुबानों में
मै सिर से पावँ तलक सिर्फ हिंदुस्तान हूँ।

वक़्त के इशारों से दुनिया चला करती है
तू भी मेहमान है मैं भी मेहमान हूँ।

तेरी नज़र में राह का एक दरख्त सही
न जाने कितने परिंदों का पर मकान हूँ ।

ज़म्हुरिअत है या बदनिज़ामी की नज़ीर
ज़र्रा भी चीख़ कर कहता है आसमान हूँ ।

बग़ैर शहादत के आज़ादी कहाँ मिलती है
आज भी मुल्क़ कराहता है लहूलुहान हूँ ।

वतन पे ईमान ला पहले बाद दावा करना
कोई हिन्दू हूँ मैं सिख हूँ,या मुसलमान हूँ।

खुदाया सब्र का मेरे न और इम्तिहान लो
अमन की लहरों में सिमटा हुआ उफान हूँ ।

जला मंदिर में तो आरती हो गया “दीपक”
रोशन हो मज्जिद में कहता है मैं अजान हूँ।


आजकल खून में अब पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही

क्या रिवाज़ ,क्या त्यौहार,क्या लिबासों की कहें
कहीं अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही

बदलते दौर में हालात हो गए यूँ बदहाल
हकीक़त सच न रही , कहानी कहानी न रही

कुछ इस कदर छा गए हम पर यूँ अजनबी साये
अब तो जुबान भी यार अपनी हिन्दुस्तानी न रही

अपनों में गैरों का अहसास यूँ होता है इमरोज़
पहले जैसी जो खुशहाल अब जिंदगानी न रही

क्यूँ हर मंज़र मुझे एक सा ही दिखता है “दीपक ”
रौनक – रौनक न रही, वीरानी वीरानी न रही .

बहुत से लोग हैं जो ज़िन्दा हैं पर मरों में हैं
और कुछ लोग मरकर भी ज़िंदा दिलों में हैं।

शिकायत आसमाँ से बिजलियों की फिर करना
स्वाह करने वाले कुछ गद्दार चिराग़ घरों में हैं।

हैं न हौसला न माद्दा पर हक़ चाहिये फ़लक़ पर
परिन्दे देख तो पहले कुब्बत क्या तेरे परों में हैं।

सियासत रोज़ एक नया शगूफ़ा पैदा कर देती है
उठना बैठना रोज़ मुहाफ़िज़ों का मुखविरों में है।

जो भी शख़्स अपनी मादरे-वतन रुसवा करता है
वो ना तो मुस्लिमों है और ना ही काफिरों में है।

आज दौलतपरस्ती हर रिश्ते का अंजाम हो गई
वतनपरस्ती तो हम जैसे ही कुछ सिरफिरों में हैं।

मज़हब मुल्क की सरहद ख़ामोशी से पहरा देता है
मज़हब ना मज़्ज़िदों में है ना ही मन्दिरों में है।

बड़े बेअदब लोग “दीपक” ख़ुद को अदबी कहते हैं
सियासती भूख खुद ही देख लो कई शायरों में है।


उमर के साथ साथ किरदार बदलता रहा
शख्सियत औरत रही , प्यार बदलता रहा .

बेटी ,बहिन ,बीबी , माँ , ना जाने क्या क्या
नाम औरत का दहर हर बार बदलता रहा .

हालात ख्वादिनों के सदियोँ से नहीं बदले
सदियाँ निकलती रहीं संसार बदलता रहा .

प्यार ,चाहत ,इश्क ,राहत ,मेरी जान हयात
मायने एक रहे पर मर्द बात बदलता रहा .

किसी का बोझ नहीं लम्हा उठा सकता इंसान
कोंख में पलकर ज़िस्म आकार बदलता रहा .

सियासत ,बज़ारत,तिज़ारत तो कभी हुकूमत
औरत बिकती रही और बाज़ार बदलता रहा .

बातों से कब तलक देगा तसल्ली जग “दीपक ”
करार कोई दे न सका बस क़रार बदलता रहा

दीपक शर्मा

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