गीत और ग़ज़लः तारा चन्द ‘नादान’


मुहब्बत का दुनिया में जो भी बदल है, वही तो ग़ज़ल है
किसी चंगे मन की कठौती का जल है, वही तो ग़ज़ल है

ज़माने में नफ़रत का जो-जो भी हल है, वही तो ग़ज़ल है
किसी के लिए आँख होती सजल है, वही तो ग़ज़ल है

उसूलों पे अपने जो रहती अटल है, वही तो ग़ज़ल है
कहीं जा के मन को जो करती विकल है, वही तो ग़ज़ल है

ये जीवन की मुश्किल-सी पुरपेच, पथरीली, पुरख़ार राहें
इन्हें जो कोई सोच करती सरल है, वही तो ग़ज़ल है

ये दुनिया गुनाहों का दलदल है यारो, मगर ये समझ लो
खिला बीच में इसके जो इक कँवल है, वही तो ग़ज़ल है

थिरक उट्ठा चन्दा, मचल उट्ठीं लहरें, ज़रा-सा जो छेड़ा
जो इक झील की ख़ामुशी में ख़लल है, वही तो ग़ज़ल है

शजर नेकियों का लगाया था तूने जो औरों की ख़ातिर
अब आने को उसमें जो मीठा-सा फल है, वही तो ग़ज़ल है

गुमसुम सा कुल जहान है ये आज क्या हुआ
सदमे में आसमान है ये आज क्या हुआ

चेहरा है ज़र्द फूल का सहमी है हर कली
हैरान बाग़बान है ये आज क्या हुआ

तपने लगी है रूह भी ऐसी हवा चली
आफ़त में आई जान है ये आज क्या हुआ

दुबके हैं घोंसलों में परिंदे, चहक है गुम
ख़ामोश हर ज़ुबान है ये आज क्या हुआ

इसके दरो-दीवार की रौनक किधर गईं
ये तो मेरा मकान है ये आज क्या हुआ

अपनी तमाम उम्र की नादानियों का अब
सिर पे ये इम्तिहान है ये आज क्या हुआ

कसमें वफ़ा की, प्यार के वादे, मिलन की शब
बाक़ी न इक निशान है  ये आज क्या हुआ

ख़ुश हूँ इस नादानी पर
आग लिखा है पानी पर

तन-मन वार दिया हमने
तेरी एक निशानी पर

गुल-बूटे क्या फबते हैं
उसकी चूनर धानी पर

काम करो कुछ तो ऐसा
हो कुछ गर्व जवानी पर

दुनिया ने तोहमत रक्खी
सूरज जैसे दानी पर

इकलौता ही भारी है
वो किरदार कहानी पर

कैसे हम विश्वास करें
इस दुनिया-ए-फ़ानी पर

ये कसक मेरे दिल में कहीं, बस चुभी की चुभी रह गई
एक  दूरी जो थी दरमियाँ, वो बनी की बनी रह गई

इक तरफ सपने पाले रहे, इक तरफ दिल सँभाले रहे
दिल में ख्वाहिश जो थी वो मेरी, बस धरी की धरी रह गई

दिल ने वादा वफ़ा भी किया, हर सितम उसका हँसकर सहा
फिर भी उसकी नज़र मुझपे ही, क्यूँ तनी की तनी रह गई

सब्र की इंतेहा हो चली, ज़ीस्त की शाम भी लो ढली
बात मुद्दत से जो दिल में थी, वो दबी की दबी रह गई

वक़्ते रुख़सत जब उसने कहा, अलविदा,अलविदा,अलविदा
उस घड़ी आँख उस पर मेरी, बस जमी की जमी रह गई

बस उसकी इक नज़र से चाँदनी है, धूप खिलती है
बिना मर्ज़ी के उसकी कब भला पत्ती भी हिलती है

शजर तूने लगाया, फल नहीं आए तो ग़म कैसा
परिंदों को ठिकाना, राही को छाया तो मिलती है

रफ़ूगर हैं कहाँ अब वो जो तुरपाई करें इनकी
वो बस इक माँ ही है जो हर फटे रिश्ते को सिलती है

न जाने सोच ज़हरीली हुई, पानी, हवा या क्या
लहू ऐसा हुआ, एक-एक रग भीतर से छिलती है

ग़रीबी झेल ही लेती है गर्मी, सर्दी, बरसातें
रईसों से भला कोई कहाँ तकलीफ़ झिलती है

प्यार को हम ईमान बनाकर बैठे है
हम तुमको भगवान बनाकर बैठे हैं

जान हमारी लेने पर आमादा जो
उसको अपनी जान बनाकर बैठे हैं

सपनों को दफनाया है चुपके चुपके
भीतर एक मसान बनाकर बैठे हैं

उठती हैं जो हिज्र की रातों में दिल से
उन आहों को गान बनाकर बैठे हैं

कितना कुछ झेला है दानिश्वर बनकर
अब ख़ुद को ‘नादान’ बनाकर बैठे हैं


नाम : ताराचन्द शर्मा

साहित्यिक उपनाम: ‘नादान’

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