गीत और ग़ज़लः ताराचन्द शर्मा नादान


शजर  से  टूट कर  पत्ते  का  कोई  दर नहीं  होता
कटा जो अपनी मिट्टी से, फिर उसका घर नहीं होता

हज़ारों  ख़्वाब लेकर  दूसरों के  घर चले जाओ
पराई  रौशनी  का  अपना-सा  मंज़र  नहीं होता

ज़ड़ें जिसकी रहीं क़ायम, कभी उस पेड़ पर यारो
हज़ारों आँधियाँ गुज़रें, असर  तिलभर नहीं होता

हम अपने  हौसलों के पंख गर पहचान लें पहले
तो फिर परवाज़ करने में कोई भी डर नहीं होता

सँभालो क़द ज़रा ‘नादान’, चादर के मुताबिक़ तुम
वगरना  पैर  ढकने  पर,  ढका हो सर,  नहीं  होता

वादियाँ सहमी हुईं हैं, आज के इस दौर में
तितलियाँ सहमी हुईं हैं, आज के इस दौर में

कौन अपना कौन बेगाना है बस इस बात से
बेटियाँ   सहमी हुईं हैं, आज के इस दौर में

दो हैं हम लेकिन हमारा एक हो, इस सोच से
गोदियाँ   सहमी  हुईं हैं, आज के इस दौर में

जाने क्या मंज़र दिखाई दे इसी डर से फ़क़त
खिड़कियाँ सहमी हुईं हैं आज के इस दौर में

आग मज़हब की न जाने फूँक डाले कब किसे
बस्तियाँ सहमी  हुईं  हैं, आज के इस दौर में

धीरे  से   आवाज़ लगाई फिर उसने
पायल-सी मन में छनकाई फिर उसने

फिर उसने छेड़ा है  दिल के तारों को
सपनों को दे  दी अँगड़ाई फिर उसने

फिर उसने पलकों की कोरों से झाँका
नज़रों की शमशीर चलाई फिर उसने

फिर उसने मेरे क़दमों को रोका है
राह नई इक और दिखाई फिर उसने

फिर उसने झाँका है दिल के दरिया में
पानी  पर  तस्वीर  बनाई फिर उसने

तुम सोचते  हो  जैसा, मैं  वैसा  कभी न था
चेहरे   पे  मेरे  दूसरा   चेहरा  कभी न था

अपनी  बनाई राह पे ही  तय  किया सफ़र
था भीड़ में, पर उसका मैं हिस्सा कभी न था

मैंने भले ही हारी  कि  जीती  हों बाज़ियाँ
लेकिन किसी के हाथ का मोहरा कभी न था

यारब ! हुआ है आज क्या सूरज को पीलिया
ऐसा  फ़ज़ा  का  रंग तो  पीला कभी न था

कहने से क्या किसी के तअल्लुक़ बिगाड़ ले
‘नादान’ इतना कान का कच्चा कभी न था

सिर्फ़  हाथों  की  लकीरें,  मेरा  सरमाया नहीं
इक धड़कता दिल भी है जो मैंने दिखलाया नहीं

भर चले हैं घाव पिछली रुत के कितने दिन हुए
ज़ख़्म  ताज़ा  तेरी जानिब  से कोई आया नहीं

ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ बदलेंगीं क्या मेरा मिज़ाज
कौन-सा  है   दर्द  जिसको  मैंने  अपनाया नहीं

जब लगी ठोकर कहीं तो फिर उठा, उठकर चला
ग़लतियों से  सीख  ली है, उनको दोहराया नहीं

ज़िंदगी  की   धूप  ऐ ‘नादान’  ढलने   को  हुई
क्यों तुझे अब तक भी जीने का हुनर आया नहीं

तय न कर पाए जिसे इंसान, इतना भी नहीं
ज़िंदगी का  रास्ता,  वीरान  इतना भी नहीं

उफ़ ! कयामत देखिए पत्थर बँधे हैं पाँव में
पर हमारा हौसला, बेजान  इतना भी नहीं

गर्दिश-ए-हालात ने  भूखा सुलाया  हो  भले
ग़ैर  का हक़  लूँ मैं  बेईमान  इतना भी नहीं

वो भले कितना भी हो सौदागरी का बादशाह
इल्म  का  सौदा करे, धनवान इतना भी नहीं

मैं  सियासत  से  भले   ही  दूर रहता हूँ सदा
पर न समझूँ मैं इसे ‘नादान’ इतना भी नहीं

तारा चन्द ‘नादान’

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