गीत और ग़ज़लः आशीष दशोत्तर


चल दिए तुम राहे-उल्फत में अकेला छोड़कर
आसमां से ला रहे थे हम सितारे तोड़कर।

पूछिए मत रात कैसी दहशतों से घिर गईं
छुप गए कुछ लोग गलियों में पटाखे फोड़कर।

वक़्त बदले या सियासत भी कभी बदले अगर
लोग बढ़ जाते हैं आगे कुछ नए गठजोड़ कर।

देखकर सूरत को अपनी ये अचानक क्या हुआ
रख दिया सारे ही उसने आईनों को तोड़कर।

उम्र की दहलीज़ पर पहुंचे तो याद आया हमें
कुछ किताबों के सफे हमने रखे थे मोड़कर।

झोंपड़ी को जोड़कर दुनिया से जो भी खुष हुए
अब जरा आषीश दिखलाए दिलों को जोड़कर।


बीते कल के लोग थे सच्चे,बिल्कुल सीधे-सादे थे
उनकी बातें उनके जैसी,उनके वादे,वादे थे।

भूले उसको हम तो उसकी लाज तलक ना रख पाए
जिस पगड़ी को अपने पुरखे रहते बांधे-बांधे थे।

ऐसे लोगों को उनकी औक़ात दिखाना लाजि़म था
सारी दुनिया अपने सर जो फिरते लादे-लादे थे।

कितनी-कितनी बदली दुनिया,ऐसी-वैसी सत्ता भी
राजा थे हर युग में राजा,आखिर प्यादे,प्यादे थे।

तुमने मेरे भीतर आकर दिल को रोशन कर डाला
तेरे बिन तो पूरे हो कर भी हम आधे-आधे थे।

आंगन में आशीष खड़ी दीवारें अब तो रोती हैं
जिस आंगन में हम बचपन में कितना कूदे-फांदे थे।


क्या कहें बेहोश को और क्या कहें बाहोश को
रख लिया हो हर किसी ने सर पे जो पापोश को।

सख़्ततर हों रास्ते और मंजि़लें भी दूर हों
छोड़ना बेहतर ही होगा मखमली आगोश को।

सर घमंडी को झुकाना ही पड़ा है उस घड़ी
मात कछुए से मिली है जब यहां खरगोश को।

खुद की नज़रों में सयाने लोग थे बाहोश पर
छेड़ते ही जा रहे थे फिर किसी मदहोश को।

मुश्किलें तो रोज़ ही कमज़ोर करने आएंगी
कम न होने दीजिएगा आप अपने जोश को।

फै़सला आशीष जाने क्या हुआ होगा वहां
क्या सज़ा दी है अदालत ने लबे-ख़ामोश को।


कुछ खुशियों के ताने-बाने
कुछ गम के भी हैं अफसाने।

दिल छोटा सा है पर उसमें
कितने-कितने हैं तहखाने।

सागर भी ख़ामोश खड़ा था
छलके जब ये दो पैमाने।

अपने वाले कैसे-कैसे
शातिर भी हैं और सयाने।

नाम कभी था जाना-माना
उनके अब ना ठौर-ठिकाने।

वो नफ़रत के सौदागर हैं
हम निकले हैं प्यार जताने।

महकी धरती उस पल देखो
बिखरे हैं जब दाने-दाने।

-आशीष दशोत्तर
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