बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े़, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले,
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी!
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेजारी,
कब तक सरमाए के धंदे, कब तक यह सरमायादारी,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मज़बूर नहीं हम,
मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है,
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है,
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है,
बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!
जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है|
मगर वो आज भी बर्हम नहीं है|
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना,
तेरी ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म नहीं है|
बहुत कुछ और भी है जहाँ में,
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है|
मेरी बर्बादियों के हम्नशिनों,
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है|
अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं,
अभी तो आँख भी पुर्नम नहीं है|
‘मज़ाज़’ एक बादाकश तो है यक़ीनन,
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है|
असरारुल हक़ “मजाज़”
(19 अक्तूबर 1911 – 5 दिसम्बर 1955)