रागरंगः काशी- पद्मा मिश्रा

विभिन्न संस्कृतियों, आस्थाओं , एवं सृजन की अनूठी कर्मभूमि –काशी

जहाँ कल कल बहती गंगा शिव का वंदन करती है,
प्रिय विश्वनाथ के चरणो का अभिनंदन करती है,
यह सुबह बनारस की नभ में जब लाली छाती है
लहरों पर नर्तन करते दीपक, पंछी गीत सुनाते हैं
उस पावन नगरी को हम सादर शीश झुकाते हैं,
ये है मेरा बनारस, ज्ञान विज्ञान और संस्कृतियों की जन्मभूमि,, यहां गंगा की पवित्रता कण कण में समाहित होती हुई काशी विश्वनाथ का अभिषेक करती है ,,जो चिता भूमि भी है और तपोभूमि भी,, एक विशिष्ट,अनूठी परंपराओं का शहर,,, जिसे समझ पाना बिल्कुल सरल नहीं है,,अपनी सहजता में भी विशिष्टता समेटे हुए काशी नगरी का सामाजिक परिवेश और चिंतन ज्ञान पिपासुओ के लिए संस्कारधानी है,,
आरंभ से ही काशी का नगर चरित्र विशिष्ट रहा है, उत्तर भारत की सामान्य नगर परिकल्पना से इसकी परिकल्पना भिन्न रही है, वस्तुत:भारत के धार्मिक समाज के लिए बनारस एक तरह का आप्रवजन क्षेत्र रहा है, इसीलिए वाराणसी का व्यक्तित्व पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक नगर के रूप में विकसित न होकर अखिल भारतीय रुप में बना है,मद्रासी,गुजराती, पंजाबी, बंगाली और कई तरह की मिश्रित संस्कृतियां
यहां आई और इस पवित्र भूमि का एक अभिन्न अंग बनकर रचती बसती गई है,,, अन्य नगर बसते हैं, उजड़ते रहते हैं परंतु बनारस लगातार बसता रहा है, इसलिए काल और बदलते समय की पहचान उसके शब्दों और परिवेश में दिखाई देती है,,
वाराणसी के स्थान नामों की विशेषता पर शोध करती हुई डा सरितकिशोरी श्रीवास्तव लिखती हैं**इस नगर में एक और नगर बसता है जो तीर्थों, कुंडों,पुष्करो, जलाशयों और नदी घाटों तथा श्मशानों से बना हुआ है और दूसरा नगर विभिन्न सम्राटों, राजनेताओं की आकांक्षाओं से निर्मित है,**
काशी संस्कृति और परंपराओं में जीता जागता शहर है, धार्मिक रूप में इसे शिवधाम भी कहा जाता है , शिव अर्थात कल्याण,,जो संसार के कल्याण के लिए सतत् वंदनीय, है, पूज्यनीय है वहीं शिव है,जो नीलकंठ बन गरल पान कर सकते हैं,वह‌ शिव है,, अतः शिव‌ यहा के कण कण में निवास करते हैं,,हर हर महादेव की प्रतिध्वनि यहां के परिवेश और संस्कारों में गूंजती है,
वेदों, पुराणों, में वर्णित काशी के अतिरिक्त पुराकथाओ, लोककथाओं, में भी एक काशी बसती है जो मनुष्य और मनुष्येतर जीवों का भी केन्द्र रही है,बनारस की पूजा, उपासना पद्धति में अभिचार, त्योहार, व्यवहार, इष्ट एवं प्रसाद की कल्पना, मिट्टी के पात्र,बखीर,रोट,चना, गुड़,सोहारी,मलीदा, हलवा,भोग,आदि शब्द और उनके अर्थगत प्रयोग भी शामिल हैं,,,रात के सन्नाटे में जलती हुई चिंताओं का दृश्य जहां वैराग्य भाव जगाता है वहीं मोक्ष प्राप्त करने के लिए साधुओं, संन्यासियों, अघोरियों की पूजा जागती है,, और इसके ठीक विपरीत दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती जीवन को धर्म अर्थ काम और मोक्ष की कामना के साथ जीने की उर्जा प्रदान करती है,यह जिजीविषा संजीवनी में बदल जाती है,,
यहां किसी भी पूजा,व्रत की कल्पना गंगा के बिना नहीं हो सकती,, गंगा में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है यह विश्वास जन जन में व्याप्त है,
गंगा काशी की आत्मा हैं, जिनके बिना काशी नगरी की कल्पना नहीं की जा सकती,गोमुख से निकलती हुई गंगा गंगोत्री के उदगम से गरजती हुई, उफनती हुई जब काशी में पहुंचती है तो धनुषाकार रूप में पूरे नगर को घेरती हैं, और शांत हो जाती है, मानों अपने आराध्य भगवान शिव के समीप आकर समर्पण की मुद्रा में ,विनत हो जाती है,, जिसके सौंदर्य का वर्णन करते हुए भारतेन्दु जी ने कहा था*नव उज्जवल जलधार हार हीरक सी सोहति,बिच बिच छहरति बूंद मध्य मुक्तामनि पोहति,,लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत,जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत**भारतेन्दु जी के ये शब्द गंगा और काशी की संस्कृति में रची बसी देवनदी को सुंदर परिभाषा देते हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय के डा वेद प्रकाश शुक्ल जी की काव्य पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगी -**इक नदिया को मान दिया है,हर हर गंगे
सबका ही उपकार किया है,हर हर गंगे,
सुबह बनारस होती है,ओ दोस्त तभी तो,
कहने को आधी दुनिया है,भर हर गंगे*
पुरातत्व, पौराणिक कथाओं, भूगोल,कला और इतिहास का एक सम्यक संयोजन बनारस भारतीय संस्कृति का गरिमा पूर्ण केन्द्र है , यद्यपि मुख्य रूप से हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म से जुड़ी काशी नगरी पूजा, अनुष्ठान और धार्मिक विश्वासों की विरासत भी संभाले हुए हैं,, वैदिक एवं धार्मिक परंपराओं का शहर बनारस अपनी रामलीलाओं के लिए भी प्रसिद्ध है, विशेष रूप से मेरी स्मृतियों में कैद है भरत मिलाप और उस अवसर पर लगने वाले मेलों की,,नगर के नाटी इमली क्षेत्र में राम लक्ष्मण और सीता के साथ वन से वापस लौटने पर भरत और शत्रुघ्न के मिलन की‌ लीला मन मोह लेती है, और हाथी पर बैठकर काशी नरेश दोनों हाथ जोड़कर अपनी जनता का अभिवादन स्वीकार करते हैं तथा चारों ओर घरो की छतों से, सड़कों पर**हर हर महादेव*के नारों से आकाश गूंज उठता है,काशी नरेश चारों भाइयों को प्रणाम कर उन्हें सोने की एक एक गिन्नी भेंट करते हैं,,घन्डैल का मेला, जैतपुरा और चेतगंज की नककटैया,, गंगा दशहरा, नवरात्रि में आयोजित पूजा स्थलों पर भी मेले लगते हैं, जहां मुख्य रूप से चूड़ा और रेवड़ी खरीदी और खाई जाती है,,आज बनारसी खान पान की चर्चा होती है तो सबसे पहले कचौड़ी जलेबी,, केसरिया दूध,लवगलता मगही ,पान आदि याद आते हैं,, और उनको खाने वालों की भीड़ भी चौंक चौराहों पर दिख जाती है,यह बनारसी ठाट और संस्कृति का भी एक हिस्सा है, एक मधुर परंपरा है जिसमें वरिष्ठ साहित्यकार, और अधिकारियों को भी देखा जा सकता है,जो बनारसी पान खाने के लिए कहीं भी दिख जाएंगे,बी एच यू के अनेक प्रोफेसर और छात्र छात्राओं की भीड़ लंका चौक पर यत्र तत्र नजर आ ही जाती है,,
बनारस पहला ऐसा शहर है जिससे उसकी संस्कृति, परंपराओं और सृजन को कभी अलग नहीं किया जा सकता है,, आधुनिकता के हजार बदलावों के बावजूद जिसकी मौलिकता,प्राचीनता आज भी मौजूद हैं,मिटी नहीं है,
वरिष् साहित्यकार डॉ जितेन्द्र नाथ मिश्र जी कहते हैं कि काशी की संस्कृति भारतीय संस्कृति की परिचायक है,यह भारत की धर्मधानी है,यह पचोपासना का शहर है,यह किसी एक मत या संप्रदाय से प्रभावित न होकर समानता का प्रतीक है, यहां की संस्कृति में भाईचारा, स्नेह सद्भावना का समावेश है जो ऊंच नीच नहीं जानती,, यहां हर हर महादेव और हर हर गंगे का नाद है तो अजान भी सुनाई देती है,, राजनीतिक दांव पेंच और विवादों को छोड़ दिया जाय तो काशी की कर्मभूमि में सभी समान है, कोई अंतर या विद्वेष नहीं दिखाई पड़ता,, जिसने कबीर जैसे संत को जन्म दिया तो भारतेन्दु जी भी इसी माटी की उपज है,
काशी का साहित्य कभी भी राजदरबारी नहीं रहा, यहां का साहित्य सृजन विश्व विजयी मानवता की अभ्यर्थना करता है,, समरसता और सद्भावना का मार्ग प्रशस्त करता है,,
यहां की मिट्टी में घुली मिली है कबीर की मस्ती और फक्कडपन जो‌ हर अनाचार और कुरीतियों के विरोध में लड़ने का साहस प्रदान करती है,,, उन्होंने हिंदू और मुसलमान में कभी भी भेद नहीं किया, दोनों को फटकारा,, अहंकार, द्वेष और जाति धर्म के नाम पर विद्वेष,कलह फैलाने के लिए**हिंदू अपनी करै बड़ाई,गागर छुअन न देई,
वेश्या के पायन तर सोवै,यह कैसी हिदुआई,, वहीं पर मुसलमानों को भी धिक्कारा**कंकर पत्थर जोरि के मस्जिद लियो बनाय,ता चढि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?*
वाराणसी ने कबीर के अतिरिक्त अनेक प्रसिद्ध विद्वानों, बुद्धिजीवियों, को जन्म दिया है जो शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में अपनी अमिट पहचान बना चुके हैं,,
हिंदी साहित्य के भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक हिंदी साहित्य का केंद्र काशी ही रहा है,जिसने साहित्य गंगा प्रवाहित करते हुए समस्त विश्व को शांति का संदेश भी दिया है, कबीरदास, रैदास, तुलसीदास, और आधुनिक युग के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद अनवरत काशी के साहित्य को समृद्ध बनाया,जो केवल पुस्तकों में सिमट कर ही रहा बल्कि जन जन की पीर बनकर उनकी चेतना में समाहित हुआ और फिर जीवन संदेश बन गया,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो अवधेश प्रधान जी कहते हैं**हिंदी साहित्य के निर्माण एवं विकास में नवजागरण का गढ़ काशी ही रही,कबीर जहां मध्यकाल में साहित्यिक चेतना के शिखर पर आसीन रहे, वहीं नामदेव और रामानंद भी आए, जिन्होंने कबीर जैसा संत कवि समाज को दिया,
तुलसीदास जी ने राम के माध्यम से समाज को सही राह दिखाई और रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने की सीख दी,,बनारस का अस्सी घाट उनकी कृति और संघर्षों का साक्षी रहा है,,
हिंदी साहित्य में काशी के अवदान को आधुनिक काल में काशीनाथ सिंह,केदार सिंह, और नामवर सिंह भी शामिल हैं,, साहित्य के केंद्र काशी ने सदैव संवेदनात्मक अनुभूति को ही स्वीकार किया है लेकिन प्रगति काल में जब साहित्य का केंद्र दिल्ली की ओर उन्मुख होने लगा तो इसी संवेदनशील काशी की आत्मा ने हास्य व्यंग्य्य परंपरा की एक नयी पीढ़ी को जन्म दिया जिसमें बेढब बनारसी,भैयाजी बनारसी, चोंच जी, और संपूर्णानंद जैसे कवियों, साहित्यकारों ने व्यंग्य की धार से सामाजिक कुरीतियों पर जम कर प्रहार किया,,जब बेढब बनारसी कहते हैं –*
जीवन में मैं कुछ कर न सका
देखा था उनको गाड़ी में
कुछ नीली नीली साड़ी में
वह स्टेशन पर उतर गईं
मैं उनपे थोड़ा मर न सका,,इतनी सरल हास्य से भरी कविता जीवन की नीरसता को कम करती है,, वहीं काशी की धरती पर जन्मे,पले बढ़े नजीर बनारसी की रचना –जीवन की निराशा और विपरीत परिस्थितियों के सामने सशक्त व्यंग्य के माध्यम से चुनौती बन खड़ी रहती है —
अंधेरा आया था, हमसे रोशनी की भीख मांगने
हम अपना घर न‌ जलाते तो क्या करते,,,
काशी की बोली,भाषा मीठी देशी अहसास से भरी हुई अंतर्मन को स्पर्श करती है,,*का हो,का हाल चाल हौ,चला भाय,पान खायल जाई**ये मिठास जैसे अंतर्मन में उतर जाती है,,,यही कारण है कि यहां के मौलिक साहित्य सृजन से कभी बनारसीपन नहीं गया,,यह ठेठ बनारसीपन और उसकी माटी ने ही यहां के साहित्य को उर्जा दी है, उसे सशक्त बनाया है,, धूमिल की कविता के रूप में काशी के साहित्य ने सवाल पूछने की ताकत दी, कवि विवेक अस्थाना जी की पंक्तियां दिल तक उतर जाती है,**भोजपुरी बतियाता हूं, बतियाने देना
सुनो बनारस आता हूं,पर जाने देना
देखो रजा,कसम है तुमको,रोक न लेना देखो हमको
हवा तुम्हारी,खुशबू मिट्टी, यादें थोड़ी सी खटमिट्ठी,
बांध पोटली में थोड़ा सा अपने संग ले जाता हूं,ले जाने देना**
इन कलमकारों ने काशी को गढ़ा है, साहित्य और समाज को एक नयी दिशा दी है,और
साहित्य को एक अनुपम उपहार के रुप में काशी नागरी प्रचारिणी सभा का आविर्भाव मील का पत्थर बना, आज भी काशी नागरी प्रचारिणी सभा साहित्य का गढ़ माना जाता है,अनेक कवियों, साहित्यकारों की कर्मस्थली रहा है यह संस्थान,,जो बनारस की शान है,
महामना मदनमोहन मालवीय जी का विद्या मंदिर,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की चर्चा के बिना बनारस की कल्पना अधूरी है, जो नगर के केन्द्र में स्थित उसका गौरव,आन बान और शान का सुदृढ़ प्रतीक है, जिसके कारण ही हमारी काशी को सर्व विद्या की राजधानी के नाम से अभिहित किया गया है,
मधुर मनोहर अतीव सुंदर यह सर्व विद्या की राजधानी
यह तीन लोकों से न्यारी काशी
सुज्ञान धर्म और सत्य राशी
बसी है गंगा के रम्य तट पर यह सर्व विद्या की राजधानी*
शिक्षा, ज्ञान विज्ञान के साथ साथ कला, और शिल्प के क्षेत्र में भी शायद बनारस की तुलना किसी भी अन्य क्षेत्र से नहीं की जा सकती या उसके समकक्ष पहुंचना दुर्लभ है, सुंदर सिल्क के कपड़ों पर की गई नक्काशी और जरी की कढ़ाई से बुनी हुई बनारसी साड़ियां विश्व प्रसिद्ध हैं, यहां के बुनकर कुशल,अपनी कला में सिद्ध हस्त एवं परिश्रमी हैं,जिनकी बुनी हुई साड़ियां विदेशौ में भी भेजी जाती है, जिनके बिना किसी बेटी की विदाई नहीं होती,,यह है बनारस का असली चेहरा,,जो रेशमी धागों को गूंथकर सुंदर कलाकारी में बदल सकते हैं तो जाने अनजाने रिश्ते नातों को भी एक सूत्र में पिरोना जानते हैं,
संगीत,नाटक एवं मनोरंजन वाराणसी की संस्कृति में इस तरह घुल गये है कि वह संगीत और कला के प्रमुख केन्द्र के रुप में भी जाना जाता है,, गीत,गजल,ठुमरी, शहनाई, संगीत, नृत्य की कलाएं मानो काशी नगरी का श्रृंगार है, जिन्होंने काशी के परिवेश को सजाया संवारा है, पद्मश्री बिस्मिल्लाह खान हों या शंभू महाराज,बिरजू महाराज,सितारा देवी, सभी ने बनारस को बनारस बनाया है,
काशी से लगाव रखने और उसके सौन्दर्य से अभिभूत पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार कहती हैं काशी में साहित्य संस्कृति और संगीत का अथाह भंडार है, यहां की गंगा जमुनी तहजीब और संस्कृति इस शहर को पूरी दुनिया में अलग पहचान देती है कला, नृत्य, दर्शन, मीमांसा अनुशीलन, अध्ययन काशी नगरी की समृद्ध विरासत का गवाह है,काशी से लगाव रखने और उसके सौन्दर्य से अभिभूत पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार कहती हैं काशी में साहित्य संस्कृति और संगीत का अथाह भंडार है, यहां की गंगा जमुनी तहजीब और संस्कृति इस शहर को पूरी दुनिया में अलग पहचान देती है कला, नृत्य, दर्शन, मीमांसा अनुशीलन, अध्ययन काशी नगरी की समृद्ध विरासत का गवाह है,
काशी की अपनी एक विशेषता जिसमें संगीत एक महत्वपूर्ण कड़ी रही है,,,भगवान शिव के ताण्डव नृत्य की अभिव्यक्ति में और उसमें धारण किये हुए डमरू के ध्वनि से संगीत व नृत्य कला का स्रोत माना जा सकता है,,,संगीत स्थान, समय, भाव व्यक्ति के अन्दर अन्तरर्निहित तरंगों की उच्च अवस्था से संगीत में निहित विभिन्न स्वरूपों की रचना होती है और वो विभिन्न रूपों में भावाभिव्यक्त होता है अतः काशी में शुरू से ही परम्पराओं के आदान-प्रदान हुए जिसके फलस्वरूप धार्मिक सत्संग, भजन-कीर्तन तथा अनेक विविध प्रकार के कार्यक्रमों के आयोजन होने लगे जिसमें सगीतज्ञों को अपनी कला को निखारने का अवसर प्रदान हुआ। साथ ही काशी और आस-पास के क्षेत्रों के आम लोगों का जीवन व लोक परम्परा, लोक जीवन (धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक) समृद्ध रहा है जिससे निश्चित रूप से संगीत विद्या में संगीतज्ञों को सृजनात्मक रूप देने में सहायता मिली , हमारी काशी में बड़े-बड़े संगीतकारों ने संगीत की सेवा की यहां के संगीत को देश-विदेश में पहचान दिलाई,
कितना भी कहा या लिखा जाय काशी को शब्दों के छोटे से कलेवर में बांध पाना असम्भव है,जो कुछ भी मैं सृजित कर पाई वह मेरे बनारस की शिवता और गंगा को समर्पित करती हूं,,
यह मेरा शहर बनारस है, मस्ती ही जीवन दर्शन
जो वैरागी हैं,योगी भी,अनुराग बहाते हैं
जो शव पर शिव की शक्ति लिए तांडव रच जाते हैं
उस पावन नगरी को हम सादर शीश झुकाते हैं
यह मेरा शहर बनारस है,,
हर हर महादेव,,


पद्मा मिश्रा,
जमशेदपुर झारखंड

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