अभी सुबह के 4:00 ही बज रहे थे, वातावरण में गर्मी की उमस थी। मेरी आंख भी आज जल्दी खुल गई और जब मैंने अपने आसपास देखा तो पता चला कि मेरा चचेरा भाई सुदर्शन शायद उठकर बाहर चला गया था। इतनी सुबह भला क्या काम हो सकता है! मैंने भी सुबह-सुबह आलसियों की तरह बिस्तर पर पड़े रहने की बजाय उठकर बाहर कहीं घूम आने का निश्चय किया। बाहर आया तो अपने पड़ोसी विपिन के दरवाजे पर कुछ लोगों को खड़े देख कर बातें करते हुए देखा। सुदर्शन भी वहीं खड़ा था ।
क्या बात हुई? सुदर्शन से मैंने पूछा, तो सुदर्शन ने बताया कि धरमू काका आज भोर में उठकर कहीं चले गए। 10 दिनों से बिस्तर पर थे एकदम कमजोर और लाचार। उनमें चलने की भी ताकत नहीं थी।
इतने बीमार थे तो भला कितनी दूर जा सकते हैं? चलो मिलकर उन्हें ढूंढते हैं।
मैंने थोड़ी तत्परता दिखाई और कुछ लोगों को साथ लेकर खेतों के रास्ते शहर की ओर चल पड़ा। जाते हुए रास्ते में हर कोना ,मोड़, खेत- खलिहान यहां तक कि पेड़ों एवं झाड़ियों के झुरमुट में भी हमने उन्हें खोजा पर वह कहीं दिखाई नहीं दिए। खेतों में भटकते हुए करीब 1 घंटे का समय बीत गया तब हम सभी थोड़ी देर के लिए वहीं पर बैठ गए। सुबह का समय था, लोग तो अभी उठे भी नहीं होंगे जब काका घर से निकल पड़े होंगे, भला उन्हें जाते हुए कौन देख पाया होगा ?
बड़े दुखी मन से विपिन बोला।
मैंने उसे समझाते हुए कहा, ” निराश मत हो, यही कहीं होंगे”
“आप जानते नहीं भैया उनकी जिद बहुत पक्की होती है, कल बहुओं से दवा और खर्च के नाम पर बहस हो गई थी यह ठहरे स्वाभिमानी, किसी की सेवा भी मुफ्त में कभी नहीं लेनी चाही,तो ताना मारना कैसे सह लेते!”
हां, तुम ठीक कहते हो धर्मू काका को तो मैं बचपन से जानता था पूरे गांव में बेहद जिंदादिल और सम्मानित बुजुर्ग और अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में कभी पीछे नहीं हटे । गांव से बाहर शहर में उनकी छोटी सी दुकान थी । उनके जैसा वेल्डिंग करने वाला आस-पास के गांव या शहर में भी कोई नहीं था। वे संयुक्त परिवार के पूरे हिमायती थे। बड़े भाई की मृत्यु हो जाने पर भतीजे विपिन के परिवार को भी अपने पुत्र के समान है- इसमें विश्वास करते थे। उस समय गांव में फैली हुई महामारी ने उनके परिवार के कई सदस्यों को निगल लिया था, उनके बड़े भाई भाभी उनका एक पुत्र और उसकी पत्नी। अपने बेटे के साथ भतीजे को भी कलेजे से लगा पाला था। कर्तव्यों को पूरी गरिमा के साथ अपनाया था और यही बात आगे चलकर बेटे से मनमुटाव का कारण भी बन गई परंतु काका के व्यवहार में जरा भी कमी नहीं आई थी। उनका जीवन घड़ी की सुईयों के हिसाब से चलता था ,दिन की शुरुआत सुबह के 4:00 बजे से होती थी जब, हे गोविंद राखो शरण अब तो जीवन हारे- वाला भजन वातावरण में गूंजता था।
सभी समझ जाते थे कि के लिए खेतों की ओर जा रहे हैं वहां से लौटते समय
श्रीमन्नारायण नारायण का जाप करते रहते थे कुएं की जगत पर बैठकर।
“काशी, काशी सर्व पापनाशी “, कहते हुए ठंडे पानी से जी भर स्नान करते थे। ये सारे क्रिया कलाप उनके साथ इस तरह जुड़े हुए थे कि कोई भी आंखें बंद कर बता सकता था कि वे इस समय क्या कर रहे हैं। फिर तैयार होकर बैठे तो कभी अपनी साइकिल निकालते और शहर की और अपनी दुकान पर चल पड़ते थे, लौटते थे तो गांव के सिवान से ही अपने पोते पोतियों को पुकारना शुरू करते थे और वे सभी उनके आने की प्रतीक्षा करते रहते थे।
पर समय के साथ सब कुछ बदल जाता है,रिश्ते ,पद,, गरिमा और संबंधों की मधुरता भी । भतीजों के ब्याह के बाद नई बहू आई तो उन्हें काका की सेवा करना या उनका धार्मिक नियम,व्रत,उपवास और उनसे जुड़ी साफ-सफाई से ऊब होने लगी थी। अब घर का काम करें या काका के ठाकुर जी की सेवा टहल!
यह सब उन्हें जी का जंजाल लगता था। अब काका के पास कोई अच्छी संपत्ति भी नहीं थी जिसके लिए वे कोई कठिनाई उठातीं, फिर उनकी बहू भी तो थी उनकी सेवा के लिए तो फिर वही क्यों करें !
धीरे-धीरे काका की सेवा में कमी आने लगी और उनकी उपेक्षा भी होने लगी थी। बेटे या भतीजे भी घर में बहुओं के बीच आपसी कलह को बचाने के लिए मौन रह जाते थे। पर उन सबका यूँ मौन रहकर काका की अवहेलना को चुपचाप देखते रहना काका को मर्मांतक तक पीड़ा पहुंचाता था। जिन बच्चों का मुंह देखकर उन्होंने भरी जवानी में पत्नी पुत्र और भाई भाभी की मौत का गहरा सदमा भी झेल लिया था आज वही उनको सम्मान देना भी भूल गए थे! वह जो कुछ भी कमाते सब भतीजे और बेटे को बराबर देते थे फिर कमी कहां रह गई?
बदले में थोड़ा सा परिवार का सुख और अपने बुजुर्गों का आदर, बच्चों का प्यार उनके सारे मन के घाव भुला देता पर यह भी नहीं मिला तो उन्हें भी अपने घर परिवार की उलझन में पारिवारिक कलह और अपमान से दूर शांति की चाह होने लगी और उनका सारा जीवन भर आध्यात्म की ओर झुकने लगा था। खूब पूजा-पाठ करते रामायण पढ़ कर गांव वालों को सुनाते फिर भी मन नहीं लगता तो उठ कर हरिद्वार के आश्रम में जाकर रहने लगते थे कभी-कभी महीने 2 महीने तक भी काका लौट कर नहीं आते तो बेटा या भतीजा उनकी खोज खबर ले उन्हें मना कर ले आते थे। पर थोड़े समय बाद ही फिर कोई बात या घटना उन्हें दुखी करती तो वह वापस शहर लौट जाते थे।
परिवार से दूरी और विरागी भावनाएं उन्हें जीवन से तटस्थ बना रही थी। पर कभी-कभी अपनी असमय बिछुड़ी पत्नी और दुधमुंहे शिशु की याद उन्हें भाव विह्लल बना देती तो फिर गांव लौट आते। फिर थोड़े समय तक सब कुछ ठीक चलता और फिर एक दिन अचानक अपनों का अपमान उन्हें अध्यात्म की ओर खींचता और वे वापस अपनी दुनिया में लौट जाते कभी क्रोध में क्षुब्ध हो बेटे या भतीजों से कहते, “देखना एक दिन लावारिस ही मर जाऊंगा पर तुम्हें अपने अंतिम संस्कार का भी मौका नहीं दूंगा भले डोम मुझे उठा कर फेंक दे।”
मैं चौंक पड़ा और विपिन की ओर देखा वह भी सोच में डूबा हुआ था आज उसे भी संभवतः काका की यही बातें याद आ रही होंगी ।
तभी कुछ लोग आते हुए दिखाई दिए पर निराशा ही मिली ,काका कहीं नहीं थे सब ने मिलकर शहर चलने और एक बार अस्पताल में खोज लेने की सलाह दी और यदि वहां भी नहीं मिले तो पुलिस में रिपोर्ट लिखा दी जाएगी। विपिन की आंखों में आंसू झिलमिला उठे। काका का बेटा रामेश्वर भी उदास था ।
शहर जाकर हमने अलग-अलग टोलियां बनाकर , हर अस्पताल, मंदिर ,धर्मशाला में उन्हें बहुत खोजा पर इस नाम का कोई भी आदमी नहीं मिला। जाने क्या सोचकर मैं अकेला ही विपिन को साथ ले अस्पताल के स्टाफ से मिला और सारी बातें बताई तो उन्होंने अपने रजिस्टर में देखकर एक कर्मचारी को बुलाया और धीरे से कुछ पूछा पहले तो वह चुप रहा फिर उसने हमें जो कुछ बताया वह बहुत मर्मस्पर्शी था, “आज दिन में करीब 3:00 बजे एक वृद्ध व्यक्ति जो गले हुए कपड़ों में था और बहुत बीमार भी था आकर भर्ती हुआ था हमने ग्लूकोज चढ़ाने की कोशिश की पर करीब 1 घंटे बाद ही उसकी मृत्यु हो गई थी अस्पताल के रजिस्टर में उनका कोई पता नहीं था उन्होंने अपने आप को लावारिस लिखवाया था और मरते समय अपना शरीर अस्पताल को दान कर अपना अंगूठा लगाया था क्योंकि उनका हाथ पूरी तरह सूजा हुआ था और वे हस्ताक्षर नहीं कर सकते थे या करना ही नहीं चाहते थे। अभी अभी उनकी उनकी इच्छा अनुसार उनका दाह संस्कार कर उनके बचे खुचे अवशेष को बड़े अस्पताल भेज दिया गया है अब तो उनकी पहचान भी मुश्किल होगी।”
उस कर्मचारी की बातों ने हमें दहला दिया था ,भगवान ना करे कि वह हमारे काका ही हो।
“यदि आप चाहें तो उनका सामान देखकर पहचान कर ले।” कर्मचारी ने बताया।
हम सब धड़कते दिल से वहां पहुंचे। सामान देखकर विपिन और रामेश्वर दहाड़े मार कर रो पड़े,यह काका का ही सामान था। उनका गेरुआ कुर्ता और गमछा जिस के एक कोने पर उनकी बड़ी पोती ने अपने हाथों से ओम काढा था ।
हाय काका यह आपने क्या किया। आप अनाथ नहीं थे।- विपिन रोता रहा। रामेश्वर को चुप कराना मुश्किल लग रहा था।
अरे बाबूजी मां तो चली गई पर आज तो आपने हमें अनाथ बना दिया इतने बड़े परिवार के रहते आप लावारिस कैसे हो गए ?
होनी अपना काम कर गई थी, काका का स्वाभिमान जीत गया था। बच्चे गांव वाले सभी दुखी थे। एक-एक कर सभी चले गए सिर्फ उनके कपड़े वहीं पड़े थे उनका प्रतीक बनकर लावारिस से।
दूर कहीं किसी मंदिर से गीता की पंक्तियां सुनाई दे रही थी,
* वासांसि जीर्णानि यथा विहाय*……
पद्मा मिश्रा, जमशेदपुर
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