कहानी समकालीनः पियानो टीचर -शैल अग्रवाल


‘क्रिस नहीं रहा।’ सुबह-सुबह जब खबर मिली तो विश्वास नहीं हुआ।
‘ पर यह कैसे संभव है, उसका जीवन तो लहरों के खिलाफ तैरने जैसा ही रहा सदा, पर वह डूबा नहीं कभी, बहादुरी से जूझा है। फिर आज अचानक यह खबर….कैसे सच हो सकती है? कल शाम तक तो बिल्कुल ठीक था !’
कई सवाल होठों पर और प्रश्न आँखों में तैर आए थे।
‘हाँ, मम्मी। खबर सच है। हम अभी उसके घर होकर आए हैं। पूरा घर जल गया और साथ में क्रिस भी। दमकल वाले पहुँच तो गए थे पर बचा नहीं पाए…असंभव से असंभव भी कभी-कभी सच बनकर सामने आ खड़ा होता है ।’
वह हाँफती-सी कहे जा रही थी।
कुरसी का सहारा लेकर बैठी तो घंटों लग गए उठने तक में। क्रिस की यादें, क्रिस का चेहरा आँखों से हट ही नहीं रहा था …मुस्कुराता चेहरा और बेहद विनम्र व सुसंस्कृत स्वभाव। सारी तकलीफ और शारीरिक मजबूरियों के बाद भी, बर्फ , आंधी-पानी, चाहे कुछ भी हो, वह अपने डगमग पैरों के साथ वक्त पर पहुँच ही जाता था। संगीत सिर्फ जीवकोपार्जन ही नहीं, जीने की वजह थी उसके लिए। वह भूखा रह सकता था परन्तु पियानो से दूर अधिक देर तक नहीं।

जब नन्ही-नन्ही उंगलियों से मोजार्ट और बेथोवेन बहते तो उसकी खुशी और आँखों की चमक सूरज-सी चमकती। संगीत जिंदा रहेगा, जबतक आदमी जिन्दा है, विश्वास पक्का होने लगता उसका।

क्रिस अब इस दुनिया में नहीं है। परन्तु क्रिस से ही कला के दीवाने कई कलाकार आज भी हैं इस दुनिया में, जो अपनी साधना में लीन, दीन-दुनिया से बेखबर सब कुछ भूल सकते हैं सिवाय उस कला या कृति के जिसने उन्हें दीवाना बना रखा है। ऐसे में समाज का ही नहीं , हर इंसान का फर्ज बनता है कि उनका ध्यान रखे। उनके कल्पना के पंखों को उड़ने के लिए खुला आकाश दे,,,मन जाने क्या-क्या समझाने लगा था पर बहुत देर हो चुकी थी। क्रिस तो अब हर मदद से दूर जा चुका था। आकाश में जा बसा तारा था अब हमारे लिए, सिर्फ यादों में टिमिटमाता।

दीवानगी की हद तक पहुँच चुका उसका संगीत से लगाव, उसे विशिष्ट तो बनाता ही था, सभी का प्यारा भी।

गुणों के आगे उसकी मजबूरियों पर किसी का ध्यान तक न जाता था। टेढ़े-मेड़े चलने के बावजूद भी अपाहिज नहीं था क्रिस, एक सशक्त और श्रद्धेय व्यक्ति की तरह ही उभर कर आता था उसका व्यक्तित्व किसी के भी आगे। अमीर बाप का वह कलाकार भले ही अपने अनीर व्यापारी पिता के यपनों पर खरा न उतर पया हो , एक विलझण और समर्पित कलाकार था।

कल ही की तो बात थी जब वह आया था… उसी लगन से पोते को ट्यूशन भी दिया था उसने। अधिकांशतः बहू ही उसके लिए कौफी बनाती थी। पर आज वह घर पर नहीं थी तो मैंने उठकर कौफी बना दी थी। साथ में दो डाइजेस्टिव के बिस्कुट भी रख दिए थे तश्तरी में। और इतने पर ही ‘ आभार, आप कितनी दयालु हैं।‘ मुस्कुराकर कहा था उसने।

बेहद विनम्र था क्रिस। या फिर इतना अकेला था कि जरा भी कोई उसके लिए कुछ कर देता तो उसे बहुत महसूस होता । या शायद अच्छे लोगों की यही खासियत होती है कि जरा से भी आतिथ्य को भी बेहद कृतघ्नता से गृहण करते हैं ।

साधारण-सी घटना और बात थी यह उसके लिए भी और मेरे लिए भी।

परिवार के सदस्य-सा हो चुका था क्रिस हम सभी के लिए। इस घटना के याद आने की या जिक्र की कोई जरूरत ही नहीं थी, अगर अगले दिन ही सुबह-सुबह वह भयावह खबर नहीं मिल जाती क्रिस को लेकर।

मैं चुप थी और सन्न भी।

शब्द अटके रिकौर्ड से खुद को अभी भी दोहराए जा रहे थे, ‘ क्रिस नहीं रहा । कल रात उसके घर में आग लग गई और वह उसी में….’
‘ क्या मतलब बचने की भी कोशिश नहीं की?’

‘ पता नहीं? शायद उठ ही न पाया हो?’

‘स्वस्थ लोगों के लिए भी जिन्दगी कठिन है आजकल, फिर वह तो अकेला रहता था। शायद अवसाद में हो!’…

‘ पुलिस दरवाजा तोड़कर घर में घुसी थी। पर उसे बचा नहीं पाई थी। आधे जले उस घर में उन्हें उसकी लाश ही मिली । हम सभी अभी-अभी उसके घर होकर आए हैं। मिल जुलकर चन्दा जमा कर रहे हैं ताकि उसे एक सम्मानजनक अंतिम विदा दे सकें। इतना तो फर्ज बनता ही है हमारा भी?’

‘ हाँ-हाँ, क्यों नहीं? करना ही चाहिए। पिछले पांच साल से बच्चों को पियानो च्यूशन दे रहा था। परिवार के सदस्य-सा ही तो था ।‘
मेरा भी गला भर आया था अब तो।
….

पंद्रह दिन बाद जब उसकी अंतिम विदा हुई तो आयोजन भव्य था। उसकी साधारण जिन्दगी और सादे रहन-सहन से कई-कई गुना भव्य।
भाई-भतीजे , बहन , परिवार के सभी अन्य सदस्य आए थे ।

भाई ने बातों-बातों में बताया-‘ हम दो ही भाई थे और एक बहन। क्रिस सबसे छोटा। क्रिसमस के दिन पैदा हुआ था तो माँ-बाप ने नाम क्रिस रखा। बचपन में ही पोलियो का शिकार हो गया था क्रिस । पर अपनी शारीरिक कमजोरी को कभी आड़े नहीं आने दिया क्रिस ने।

पढ़ने-लिखने में सबसे तेज। और संगीत में तो विलक्षण। वजीफे पर ही पूरी पढ़ाई की और न्यू कासल से म्यूजिक में मास्टर की डिग्री भी ली। वह भी प्रथम श्रेणी में। पर पिता को यह सब पसंद नहीं आता था, उसका रात दिन यूँ पियानो में ही खोए रहना। लम्बा -चौड़ा कारों का व्यापार था उनका। पांच-पांच शो रूम थे उनके, जिनमें सैकड़ों लोग काम करते थे। चाहता तो आराम से जिन्दगी निकल सकती थी उसकी। पर उसने तो संगीत को ही अपनी जिन्दगी बना लिया था। पहली ही डांट पर घर छोड़ दिया। साल में बस एक दिन घर जरूर आता था वह भी एक-एक सदस्य के लिए तोहफा लेकर। क्योंकि माँ से वादा किया था उसने कि अपने जन्मदिन पर जरूर आकर मिलेगा उनसे वह, चाहे कहीं पर भी हो वह, कितनी भी दूर क्यों नहीं!

और उसने अपना वादा निभाया भी बखूबी। पर खुद परिवार से कभी कोई मदद नहीं ली कभी । न तो आर्थिक और ना ही किसी और तरह की। चाहता तो हम दोनों की तरह वह भी बहुत आराम से जी सकता था। एक संपन्न परिवार का शहजादा था वह भी। पिता के पास और हमारे पास बहुत कुछ था। पर उसे तो यही जिन्दगी पसंद थी। बस पियानो ही चाहिए था चौबीसो घंटे संगत के लिए। और पिता जी को ये सड़क छाप कलाकार असफल और समाज पर बोझ लगते थे। पर क्रिस का तो सब कुछ था संगीत। उनकी सोच से समझौता कैसे कर पाता?

अपनी जरूरत भर पैसा कमा ही लेता था वह।

या तो संगीत कौनसर्ट में वक्त निकलता था उसका या फिर बच्चों को पियानो सिखाने में। और कोई शौक भी तो नहीं था उसे। उसकी तो छुट्टियाँ भी इन्ही संगीत यात्रा और आयोजनों में ही बीतती थीं। सुनते हैं खुद एक अच्छा कलाकार ही नहीं, अच्छा शिक्षक भी था क्रिस? ‘

‘ हो भी क्यों न, अच्छा विद्यार्थी ही तो अच्छा शिक्षक बन पाता है।‘

कितना अजनबी था बड़ा भाई छोटे भाई के स्वभाव से अब मुझे सच में आश्चर्य हो रहा था। वाकई में जिन्दगी कितना दूर ले जाती है अपनों को अपनों से- न दुख में साथी न सुख में। साथी तो दूर कई बार तो महक तक नहीं मिलती किसी भावना और जरूरत की ! पर भाई तो भाई, जाने किस मलाल में बोले जा रहा था वह, ‘ बस दुख इस बात का है कि सब कुछ होते हुए भी, इतनी अकेली और इतनी कठिनाई में जिन्दगी निकाली इसने। कुछ भी तो हासिल नहीं हुआ। बेमौत ही मरा। हमें भी इतना उदासीन नहीं होना चाहिए था इसकी तरफ से, इसकी चुप्पी की चीख को सुनना चाहिए था।‘

पियानो ट्यूशन करके जो मिलता उसी में गुजर करता था क्रिस। जो बन पाता-जैसे-तैसे कर ही लेता था अपना गुजारा। पर यूँ इस तरह से दुखद और एकाकी अंत…भाई की आँख में भी आँसू थे और मेरी भी।

खामोशियाँ भी तो कराहती हैं, चीख बनकर गूंजती हैं। फिर कला तो है ही या तो अंतस की चीख या फिर नम मुस्कान…कभी खुली धूप-सी। तो कभी नम बदली-सी भी।

याद आया बहू ने बताया था कि उस दिन कमरा तोहफों से और अधजले रंग-बिरंगे कागज और रिबन से भरा पड़ा था और उस अगले दिन क्रिसमस ही तो था , जब उसे अपने परिवार से मिलने जाना था…पर नियति ने तो दूसरी ही यात्रा चुन रखी थी उसके लिए।….
और आज नई साल का पहला दिन…एक संकल्प मन में स्वतः ही उभर रहा था, इतनी जागरूकता तो होनी ही चाहिए परिवार में, समाज में कि कोई अपनी ही चीखों में डूबकर आत्महत्या न कर पाए।

‘वह नहीं आता था तो तुम लोग ही मिलने आ जाते कभी-कभी?’ होठ बुदबुदाए…परिवार ने भी तो कोई खोज-खबर नहीं ली उसकी !

जबाब नहीं, मेरा वह सवाल अब एक मलाल बनकर हम दोनों की ही आँखों में तैर रहा था और एक-दूसरे की नजरें चुराकर अपनी-अपनी भीगी पलकें तुरंत पोंछ भी ली थीं हमने। ख़ुश था क्रिस पियानो-टीचर की तरह जिन्दगी गुज़ारकर। संगीत उसका पहला प्यार था और आखिरी भी।

हम जैसे कई सुरक्षा के मजबूत किनारों पर बैठे-बैठे ही जिन्दगी गुजार देते हैं पर उबर नहीं पाते मन की भँवरों से और क्रिस जैसे डूबकर भी तर जाते हैं। यही नहीं, यादों के भंवर में डूबते-उतराते आजीवन साथ रहते हैं अपने चाहने वालों के भी।

आज भी बाजार में या किसी कोने पर जब भी कोई गिटार बजाता, गाता दिख जाता है, तो क्रिस का मुस्कुराता चेहरा पीछे से झांकने लग जाता है, जिसके बाप ने घर से निकालते समय कहा था कि देखता हूँ कि तुम अपनी इस लूली-लंगड़ी असंभव जिन्दगी को कैसे जी पाते हो मेरी सहायता के बिना? और हाथ खुद-बखुद ही बटुए तक चले जाते हैं ।….

शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
shailagrawala@gmail.com

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