चहल-पहल भरा समुद्र के किनारे बसा एक खूबसूरत शहर था वह, बारह महीने की धूमधाम वाला। बारहो महीने किसी-न-किसी बहाने एक मेला सा लगा ही रहता था। कुछ-न-कुछ चलता ही रहता था। कभी मिस वर्ड तो कभी लेबर पार्टी का सालाना अधिवेशन। नए-नए थियेटर और शो भी आते-जाते रहते थे , वही जो लंदन वाले देखकर थक चुके होते थे ।…
क्रिसमस पर तो पूरे तीन महीनों की अनोखी सजावट भी होती थी बिजलियों की। यंत्र-चलित खिलौनों से भरी वे झिलमिल झालरें और जगमग ट्राम, परी लोक सा सज जाता था सब तीन महीनों के लिए। दूर-दूर से आते थे लोग देखने। पर अगर सैलानियों को भूल जाएँ तो बूढों का शहर था वह, अवकाश प्राप्त बूढों का। रहने वाले अधिकांश वृद्ध ही थे। उनमें भी आदमी कम और महिलाएँ अधिक थीं। जीती अधिक हैं न ये, सुना तो यही था उसने।
सभी बाँहों और ट्रालियों में सिर से ऊपर तक सामन भरे दौड़ते-भागते ही दिखते, वह भी शाम के धुँधलके तक। जब तक कि सारी दुकानें बन्द न हो जाएँ। भीड़ लगी रहती थी दुकानों में, मानो मुफ़्त का बट रहा हो सब कुछ। वैसे भी पैसों की फ़िक्र किसे थी, अमीर देश था वह। उसके देश जैसा देश नहीं था यह, जहाँ सभी के बस का नहीं, बेजरूरत के ही ख़रीददारी का यह खेल खेल पाना, वह भी ज़िन्दगी की शाम में ! पर ख़रीददारी करने आना, इन दुकानों में घूमना तो उनके एकाकी जीवन की सबसे दिलचस्प गतिविधि थी।
एक उदासी भी देखी थी उसने कई धुंधली और सिलेटी बूढ़ी आँखों में।
सड़क की दूसरी तरफ़ बस रेत ही रेत और हाहाकार करता समंदर। भुलाए नहीं भूलता जो!
किनारे-किनारे घूमने वालों के लिए मीलों लम्बी एक पगडंडीनुमा घुमावदार सड़क, जहां वह भी एकाघ-बार बेटी को घुमाने ले गई थी, लहरों की तरह ही लम्बी चलती ही जाती थी सडक। बीच-बीच में आठ दस सीढ़ियाँ नीचे उतर जाओ, तो शानदार प्रौमेनाड दिख जाता था। यानी कि रेत के अथाह विस्तार को फलांगता एक लम्बा और आकर्षक पुल, जो समुद्र की उछाल खाती लहरों को उस खूबसूरत शहर से जोड़े रखता था । बाज़ार व मनोरंजन दोनों ही साथ-साथ एक ही जगह पर। लहरें इतनी ऊँची, कभी-कभी तो बगल की झिर्रियों से उछलकर पूरा भिगो दें पुल पर चलने वालों को। पर अच्छी लगती थी खुली गुनगुनी धूप में लहरों की वह छेड़छाड़ भी उसे तो।…
कितने रंग बदलता था आसमान तक वहॅा पर। चर्च की उँची-उँची खिड़कियों के रंग-बिरंगे काँचों पर चमकती तेज धूप, जब निकलती तो आँखें चुंधिया देती थी। कभी भुरभुरी रेत की गीली कलुछाई आभा, कितना कुछ था लुभाने को, उसे बहलाने को वहाँ पर -खास करके वह समुंदर के किनारे की ठंडी गीली हवा का मछली और शैवाल की महक में डूबकर उस तक आना और पल में ही उसे तरोताजा कर जाना, चुम्बकीय ही तो था चहल-पहल और सन्नाटे का मिलाजुला मेला।
गर्म सुनहली धूप तक में एक मादकता रहती।
चर्च की ऊंची खिडकियों में चित्रित ईशू की वे जीवन कथाएँ और उनमें जड़े रंग-बिरंगे कांच – जब -जब धूप उन पर पड़ती , नीला कांच तो बिल्कुल नीलम-सा ही चमकने लग जाता था। विस्मित-सी कितनी बार देखती ही रह जाती थी वह उस धूपछांवी खेल खेलते आकाश को। कुछ दिन ही हुए थे उसे आए हुए, फिर भी चप्पा-चप्पा घूम चुकी थी वह शहर का, विशेषतः समुद्र के किनारे पर तो रोज ही आ जाती थी किसी-न-किसी बहाने।
वह, यानी नीलोफर सिकंद, स्थानीय अस्पताल में नियुक्त सर्जिकल रजिस्ट्रार रवि सिकंद की जहीन और शांत दिखती बेचैन पत्नी।
समुद्र का किनारा क्या पूरा परीलोक ही समझो फैला रहता था सदा विस्मित आँखों के आगे। जब चटक धूप को समेट लेती थी सिलेटी बदली, तब भी । आइस्क्रीम और जूस की दुकानें । गरम हौट-डौग और चाय-काफी, वह भी देर रात तक । भुनते पौपकौर्न की महक तो अक्सर ही उसे भी खरीदने पर मजबूर कर ही देती थी। तरह-तरह की स्लौट-मशीन और खेल भी तो थे भरमाने और बहलाने को। इनाम जीतो और पैसे हारो। एक बार जीतने की ज़िद में खाने की ख़रीद-दारी के लिए रखे सारे पैसे हारने के बाद दूर ही रहने लगी थी वह इस सबसे तो। चाहे वह बन्दूक के निशाने का खेल हो या काँटे से रबर की मछली और बतख़ उठाने वाला। बच्ची तो नहीं थी कि यूँ मन बहलाती रहती अपना! कौन उदास नहीं इस जिन्दगी में? घर-परिवार और बेटी की जिम्मेदारी थी अब उसपर। कभी बड़ी-सी गुड़िया तो कभी चार फ़ीट का भालू, सब धूल ही तो खाते थे वैसे भी घर में पहुँचकर। और रोज़ ही तो खरीदकर ले जाती थी वह एक खिलौना अपनी बेटी के लिए। बेटी आँख भरकर बस देख भर ले, वही । बहुत प्यार करती है अपनी बेटी से। जी भरकर खेलने, खुश रहने की उम्र भी तो थी बेटी की। यह बात दूसरी थी कि वही अधिक खेलती थी, बेटी कम ही हाथ लगाती थी खिलौनों को। उसे तो माँ की गोदी ही सबसे अच्छी लगती थी। साल भर की ही तो थी बेटी तब।
समुद्र के किनारे रेत पर, पर भीड़-ही-भीड़ दिखती। क़िले बनाते बच्चे, शंख, सीप बटोरते बच्चे। संग-संग धूप सेकते युवा और बूढे । तरह-तरह के लोगों से दिन भर बज-बज करता रहता था समुद्र का रेतीला किनारा। आराम कुरसी पर तो कई तौलिया बिछाए रेत पर लेटे लोग। एक दूसरे को तेल लगाते और फिर थोड़ी-थोड़ी देर बाद ही एक दूसरे का हाथ बग़ल में रखकर मिलाते, कि किसकी चमड़ी कितनी भूरी और सुनहरी हुई, हुई भी या नहीं!…
उसके देशों में भूरे गोरा होना चाहते हैं और ये हमारी तरह से ‘टैन्ड ब्राउन’…हंसी आती थी कभी-कभी तो – आदमी का स्वभाव ही ऐसा है, जो नही है, उसी के पीछे भागना स्वभाव है इसका।
खाने-पीने का सामान लेने और बेटी को ताजी हवा देने के बहाने रोज़ ही पहुँच जाती थी वह। फिर कुछ घटों के लिए दूर बैठी देखती रहती सभी को, मानो एक चिड़िया ऊँची डाल पर बैठकर निहार रही हो आस-पास फैली हरियाली को।
नया-नया ही तो था सब कुछ उसके लिए। देश, जगह, लोग, सभी कुछ।
उसके शहर में नदी थी, समंदर नहीं। और उस नदी की पूजा होती थी, मनोरंजन का अड्डा नहीं थी नदी। अंतिम यात्रा पर आए लोगों की चिता जलती थी वहाँ दिन रात। उन्हें भी तो पर वह ऐसे ही इसी तन्मयता से देखा करती थी। आदतें कब बदलती हैं। देखती ही नहीं, सोखती रहती थी सब कुछ अंदर-ही-अंदर वहाँ भी। समुद्र और उसकी लहरें भी और भागते-दौड़ते, हँसते-खेलते, लेटे-लेटे ही पूरा दिन बिताने वाले सोते-जगते अलसाए लोगों को भी।
चेहरों को चुपचाप दूर से पढ़ते जाना उसे अच्छा लगता है। कभी-कभी तो उनके मन में क्या चल रहा है…यह सब जानना भी।
यह पश्चिम का मेला और जीवन का उच्छृंखल उत्स और नग्नता नहीं देखी थी पर पहले उसने, अपने दबे-ढके पूर्व के उस छोटे-से शहर की दबी-ढकी संस्कृति में। विचलित कर दें दृश्य, इतनी संकीर्ण तो नहीं थी उसकी मानसिकता, पर आश्चर्य अवश्य होता था, कि इतना अंतर कैसे दोनो संस्कृतियों में? नदी में नहाती तो औरतें वहाँ भी थीं, कई बार अंदर के कपड़े उतारकर भी। परन्तु एक झीना आवरण रहता था हमेशा गीले शरीरों पर। पर यहाँ युवा तो युवा, वृद्धा भी अक्सर सब उतार कर उलटी-सीधी, आड़ी-तिरझी पड़ी चमकती रहती हैं धूप में। झुर्रीदार शरीरों को देखकर कभी-कभी तो एक वितृस्णा-सी भी होती थी उसे । फिर भी उसका ध्यान तो खींचती ही थीं । और उनकी बातें तो उनसे भी ज्यादा।…
बूढ़ी, बहुत बूढ़ी औरतें, अपने महँगे और आधुनिक वस्त्रों में सजी, कभी नए-नए आए लिपिस्टिक के रंग पर चर्चा करने लग जातीं तो कभी नए बौय-फ्रैंड की। कभी किशोरियों सा मज़ाक़ उड़ातीं प्रेमी की दीवानगी का तो कभी बग़ल से निकलते अनजान बूढों के कपडों का और उनकी बेतुकी रुचि का । अधिकांश अमीर विधवाएँ थीं। कुछ ऐसी भी जिन्होंने कभी शादी ही नहीं की थी। पर हंसी-ठहाके और इरादे सभी के बेहद मनचले ही। जीने की ललक पूरी ज्यों-की-त्यों दिखती। सिर्फ़ भगवान और भजन में ही सिमटकर नहीं रह गई थी उनकी ज़िन्दगी। और यह बात अच्छी लगती थी उसे। उसके देश में तो विधवा माने ज़िन्दा लाशें…हर रंग और रूप से रिक्त, जीवन के स्पंदन से रिक्त।
फिर वह क्यों उन सबसे अलग थी? उसे ही तो देखे जा रही थी नीलोफर एकटक।
झुंड में नहीं, अकेली वह औरत सबसे दूर बैठी, अपनी गहरी नीली आँखों से नीले समंदर में घंटों से जाने क्या ढूँढे जा रही थी? जाने क्या डूब गया था उसका! नीला आकाश और उसकी नीले रंग की शिफौन की हवा में उड़ती
ड्रेस, सुनहरे उसके बाल, एक तस्बीर-सा ही तो सुंदर था उसका रूप और पूरा दृश्य ।
रंगों में बांधने को , कागज पर उतारने को मचलने लगा मन। पर शाम सुरमई हो चली थी और जाने का वक़्त भी।…
धीरे-धीरे सब उठते चले गए पर बड़े स्ट्रा के हैट के नीचे खूबसूरत और उदास चेहरा छुपाए वह रहस्यमय औरत नहीं उठी अपनी जगह से। वैसे ही बैठी रही, वहीं उसी गीली होती रेत पर।
लहरों ने दौड़-दौड़कर भिगोना शुरु कर दिया, पर उसे मानो कुछ खबर ही नहीं थी।
समुद्र का किनारा पूरा खाली हो चुका था और सभी अपना-अपना सामान उठाकर जा चुके थे ।
कोस्ट-गार्ड ने लम्बी और तेज़ सीटी भी बजा दी।
यह ख़तरे का और तेज़ फुँकारती लहरों के ज्वार का संकेत था। रेत से उठकर सुरक्षित किनारे पर जाने का संकेत था।
फिर भी ख़ुद में ही खोई उस औरत को उठता न देखा तो कोस्टगार्ड खुद वहाँ आया और बाँहों में भरकर किनारे पर ले गया उसे।
कार में बेटी के संग बैठते हुए नीलोफर ने भी मुड़कर देखा था, पर वहाँ हाहाकार करती लहरों के अलावा कुछ नहीं दिखा था उसे तब। आकाश में उड़ते चन्द समुद्री पक्षी थे, जो मझलियों के इंतज़ार में झुंड-के झुंड मंडराने लगे थे, मंडराते रहेते थे रोज ही देर शाम तक।
अगले दिन फिर पहुँच गई थी नीलोफर, उसी समय और उसी जगह पर। और वह नीली ड्रेस वाली औरत भी थोड़ी दूर, अपनी उसी जगह पर बैठी दिखी। व्यस्तता और ज़िम्मेदारियों के बीच भी घड़ी-सी नियमित ही तो है यह ज़िन्दगी। और हमारी आदतें भी। कुछ समय परिवार और काम-काज के लिए , तो कुछ नितांत अपने लिए भी तो। समंदर और किनारों के लिए , चारो तरफ फैले रंगों के लिए।… गहरा नीला समंदर, ऊपर स्वच्छ नीला आकाश जहाँ बादल अठखेलियाँ करते रहते थे निरंतर उसकी बेटी की तरह ही। बाज़ार की चहल-पहल से ज़्यादा अच्छा लगता था उसे यह एकांत और आपाधापी से चुराया वक़्त। धूप नहीं हो तो भीड़ भी नहीं होती थी। पर वह आती थी रोज ही, जैसे कि वह अकेली दूर बैठी उदास औरत भी आती थी रोज ही। परिचित-सी लगने लगी थी वह अब उसे।
उदास क्यों पर? एक सवाल अक्सर ही घुंघराली लट-सा समुद्री हवा के झोकों के साथ नीलोफर के माथे पर आ गिरता। और तब- इसलिए शायद, क्योंकि न तो अन्य औरतों की तरह चहकती थी, और ना ही टहलती-फिरती ही थी। बस समुद्र को घूरती, जाने क्या-क्या सोचती और याद करती रहती थी मन-ही-मन। नीलोफर जिद्दी सवाल को लट-सा ही हटाने की कोशिश करती, पर एक रहस्य, एक कौतूहल भी तो बनती जा रही वह थी औरत अब नीलोफर के लिए। मन करता कि पास जाए, बातें करे, पर शालीनता और शरम दोनों ही आड़े आ जाते।
ऐसे ही एक दोपहर दूर बैठी वह औरत एक ओर को लुढ़की और मुँह से झाग निकलने लगे। इस बार भी गार्ड ने ही सँभाला। मिनटों में एम्बुलेंस आई और अस्पताल भी ले गई। बात वहीं पर आई-गई हो जाती, अगर शाम को पति खाने पर पुनः ज़िक्र न छेड़ देते उसका, ‘ बुरा हाल है यहाँ पर बुजुर्गों का तो।…’
‘क्यों क्या हुआ?’
‘ आज बीच से एक औरत लाई गई थी मिरगी के दौरे के बाद। ठीक होने के बाद जब उसकी छुट्टी करनी चाही, तो फूट-फूटकर रोने लग गई। बोली, यहीं रहने दो, प्लीज़ मुझे। घर जाने से डर लगता है मुझे। बहुत अकेला महसूस करती हूँ। यहाँ कम-से-कम दूसरों की आवाज़ तो सुन पाती हूँ। दो दिन के लिए तो भरती कर लिया है मैंने बुढ्रढों के वार्ड में, पर इससे ज़्यादा तो नहीं रख सकता उसे। घर तो जाना ही पड़ेगा एक-न-एक दिन!’
‘किस वार्ड में है ?’ अचानक उसके मुँह से निकला।
‘वार्ड नं. तीन में । नीली व्हाइट नाम है। तुम तो ऐसे पूछ रही हो, जैसे मिलने जाओगी?’
‘ हाँ, सोच तो यही रही हूँ। क्या फ़र्क़ पड़ता है, अपने फ़्लैट और अस्पताल के बीच एक सड़क ही तो है पार करने को। अगर किसी का दुख, अकेलापन कम कर सकूँ, तो इसमें हर्ज भी क्या है!’
बेचैन नीलोफर तुरंत ही बोल पड़ी थी।
‘ मुझे कोई एतराज़ नहीं। पर देखना इस चक्कर में मेरी बेटी को कोई तकलीफ़ न हो!’
पति ने आधे मज़ाक़ और आधे मालिकाना हक़ के साथ अंततः उसकी इच्छा को स्वीकृति दे ही दी थी।
अगले दिन एक छोटे चौकलेट के डिब्बे और बेटी के साथ जा भी पहुँची थी नीलोफर अपरिचित नीली व्हाइट से मिलने और उसके एकाकीपन को दूर करने के इरादे से।
कोई उससे मिलने आया है सुनकर पहले तो नीली को आश्चर्य हुआ था, फिर कान तक खिंची मुस्कुराहट के साथ स्वागत किया था मिसेज़ व्हाइट ने नीलोफर का। फिर तो मित्र होते भी देर नहीं लगी थी दोनों को। डूबकर खेली थी नीली उसकी बेटी के साथ। आश्चर्य तो तब हुआ था, जब हाल ही ननिहाल से लौटी बेटी ने भी उसकी गोदी में वापस जाना चाहा था- और नाना कहकर भी पुकारा था अपरिचित नीली को।
उसकी नानी की ही उम्र की तो दिख रही थी नीली व्हाइट और उतना ही और वैसा ही लाड़ भी कर रही थी बेटी पर।
अगले दिन ११ बजे के क़रीब जब वह बेटी को लेकर समुद्र के किनारे और दैनिक फल सब्ज़ी के लिए निकलने वाली ही थी कि अचानक दरवाज़े की घंटी बजी। देखा तो वही नीली व्हाइट खड़ी थी दरवाज़े पर, एक सुंदर-सी गुड़िया और कुछ अन्य खिलौनों के साथ।
अंदर आने का आमंत्रण दिया तो तुरंत ही आ भी गई, मानो पुराना परिचय हो। बेटी को ऐसे सीने से लगाया, जैसे उसकी अपनी ही बेटी हो। मंत्रमुग्ध सी घंटों खेलती रही थीं दोनों एक-दूसरे के साथ। कभी नीली घोड़ा बनकर बेटी को पीठ पर बिठाती, तो कभी उसे अपने घुटनों पर बिठाकर झुलाने लग जाती।
रोका-टोका नही था उसने भी । नीली के चेहरे पर उदासी की जगह अब उल्लास और संतोष ने ले ली थी। फिर तो रोज़ का ही नियम बन गया था। अक्सर ही मिसेज़ नीली व्हाइट आने लगी थी उसके फ्लैट में । साथ समय बिताती और चली जाती। कभी-कभी तो साथ ही बीच पर भी जातीं दोनों। अब उनका दोपहर का वह खाली वक़्त साथ-साथ ही बीतने लगा था, चुपचाप नहीं, हंसते-बतियाते हुए।
वैसे भी ज़्यादा दूर नही थी नीली की कौटेज उसके फ्लैट से।
खुलने लगी थी मिसेज़ नीली व्हाइट अब नीलोफर के साथ। पति मज़ाक़ बनाते-‘ जैसे तैसे तो सास से पीछा छुड़ाया था, पर यहाँ भी एक माँ ढूँढ ही ली मेरी नीलू ने। एक नीलू और एक नीली, राम बनाई जोडी। हा.हा. हा… ‘
पर उसे क़तई न खलता पति का यह उलाहना भरा मज़ाक़ भी। नीली में सच में माँ ही नहीं, एक सखी भी नज़र आने लगी थी। इतना सहज हो चुका था रिश्ता।
एक दिन मिसेज़ व्हाइट कहकर बुलाने पर नीली ने समझाया कि अगर आपत्ति न हो तो सिर्फ मिस व्हाइट ही कहा करे नीलोफर उसे । मिसेज़ तो वह कभी बन ही नहीं पाई थी । शादी नहीं हो पाई थी उनकी। होने वाली थी, पर इसके पहले ही लड़ाई छिड़ गई थी और वह चला गया था, कभी लौटकर न आने को। एक बेटी का उपहार देकर उसे। पर वह बेटी भी तो पास नहीं रह पाई । सुरक्षा के नाम पर कई बच्चे आस्ट्रेलिया भेजे गए थे। उसकी आठ महीने की जेन भी छीन ली गई थी उससे।
‘ होती तो शायद तुम्हारी ही जितनी बड़ी होती…’ कहते-कहते नीलोफर ने देखा नीली ने अपनी नम आँखें चुपचाप दोबारा पोंछ ली थीं, ‘ कुँआरी माँ यहाँ भी उतना ही बड़ा टैबू था उन दिनों, जितना कि तुम्हारे देशों में अभी भी है। जितनी बड़ी तुम्हारी बेटी है इतनी ही बड़ी थी मेरी जेन भी तब। बस तभी मिली हूँ आख़िरी बार उससे। और उसकी वही शक्ल याद है आज भी मुझे। अब तो वह भी तुम्हारी तरह ही माँ बन चुकी होगी और उसका भी शायद अपना एक हँसता-खेलता घर परिवार भी होगा । पर मैंने तो देखा ही नहीं कुछ। अब तुम में ही मैं अपनी जेन को पा लेती हूँ थोड़ी देर के लिए ही सही।’
नीली ने एक बार फिर मुँह घुमाकर चुपचाप अपनी नम आँखें पोंछ लीं। पर नीलोफर अंदर तक भीग गई थी उनकी नमी से। समझ में नहीं आया कैसे और क्या सांत्वना दे। चौके में जाकर गरम-गरम चाय बना लाई और बेटी को उसकी गोदी में बिठाकर मन बहलाने की कोशिश करने लगी।
इस अप्रत्याशित लगाव और जुड़ाव के सारे रहस्य खुलने लगे थे। पर जैसे सूखी रेत हाथ से फिसल जाती है वापस नहीं ला सकती थी वह नीली के गुजरे वक्त को। कोई एतराज़ भी नहीं था पर उसे नीली के रोज-रोज आ जाने से। अगर वह और उसकी बेटी दोनों में ही नीली अपनी खोई बेटी की प्रतिछाया देख पा रही है, तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है! अच्छा था यह तो अकेली और उदास नीली के मानसिक स्वास्थ्य के लिए।
पर नीली और नीलोफर की यह खुशी ज्यादा दिन टिक न सकी ।
कुछ महीने बाद ही, अचानक एक दिन पति ने फिर अस्पताल से लौटते ही बताया, ‘ सुनो नीलू, तुम्हारी वह मिसेज़ व्हाइट तो फिर से अस्पताल में भरती हो गई है। इस बार तो घातक दिल के दौरे के साथ। लगता है बचेगी नहीं। बस एक ही रट है पर उसे-जेन को देख लूँ, जेन से मिल लूँ। जेन में ही जान अटकी है उसकी। चैन से मर भी नहीं पा रही बेचारी। पर हम कहाँ से ढूँढें अब उसकी जेन को। फिर भी यहाँ की सरकार बहुत सहायता करती है। पूरी कोशिश की जा रही है, जेन को ढूँढने की। तुम्हें पहले इस लिए नहीं बताया कि तुम तो सब कुछ भूलकर, लग जाओगी उसकी सेवा में। और लोग समझेंगे कि प्रौपर्टी का लालच है ।’
‘ऐसे कैसे?’
नीलोफर अब वाकई में व्यग्र और रुँआसी हो चली थी।
‘ तुम्हें कबसे परवाह होने लगी कि लोग क्या कहेंगे!’
तसल्ली देते पति उठकर अब खुद उसके आँसू पोंछने लगे थे।
अगले दिन ही वह फिर अस्पताल में मिस व्हाइट को ढूँढ रही थी। वार्ड में पहुँची तो आस्ट्रेलिया से आई तीन-तीन जेन खड़ी थीं नीली के आगे पर नीली की आंसू-भीगी आँखें अभी भी दरवाज़े पर अटकी अपनी जेन का ही इंतज़ार कर रही थीं।
नीलोफर को देखते ही तुरंत आँसू पोंछकर बाँहें पसार दीं नीली ने ।
वह भी दौड़कर लिपट गई । दोनों ही जानते थीं कि उसकी असंभव उस चाह का पूरा हो पाना कभी संभव ही नहीं। फिर भी एक शांत और संतुष्ट समझौता था उनकी गलबहियों में और बहते आँसुओं में एक ग़ज़ब का संतोष। अवर्चनीय सुख में डूबी रहीं दोनों, जबतक कि आलिंगन शिथिल न पड़ने लगा और शरीर की गर्मी ठंडे अहसास में पलटनी न शुरु हो गई।
मिलन कहीं अंतिम विछोह का ही तो क्रूर अहसास नहीं? नीलोफर ने पलटकर ध्यान से देखा नीली को।
बाल सहलाने को नीली का उठा दाहिना हाथ, अभी आधा ही उठ पाया था कि झूल गया एक ओर और नजर भी ऊलटी पलट चुकी थी। पर नीली पड़ती चमड़ी के साथ नीली अभी भी पूर्णतः शांत और संतुष्ट ही दिख रही थी।
एक खूबसूरत और उदास कहानी का अप्रत्याशित अंत था वह। अच्छे मित्र को खोना कभी आसान नहीं ।
दोनों हाथों की बन्द मुठ्ठियों से अनियंत्रित रुलाई रोकती नीलोफर, उलटे पैर कमरे से बाहर निकल आई। अब उसके लिए वहाँ उस कमरे में कुछ नहीं था। सिवाय असह्य पीड़ा के।…
कमरे में उपस्थित सभी का मुंह आश्चर्य से वैसे ही खुला छोड़ती, ‘नहीं मैं जेन नहीं।’ . बुदबुदाती तीर-सी मिनटों में ही नीलोफर सब कुछ वहीं पीछे छोड़ती, अपने फ्लैट में वापस आ गई।
पर नीली ने नहीं छोड़ा उसे। रात के सन्नाटे में नीली की आवाज़ सुनाई देने लग जाती अक्सर । और शांत समुद्र के किनारे बसे उस शहर की सांय-सांय करती हवा तक उसे ही पुकारने लग जाती अक्सर ही। इतनी प्रचंड हो जाती थी यादे कि कभी-कभी तो कि आदमी तक को ले उड़ें। वह खुद उड़ चुकी थी उस दिन जमीन से चार-पांच फीट ऊपर और चार-पांच फीट दूर तक, जब साढे पांच फीट के गढ्ढे में नीली को सदा के लिए अकेला छोड़कर आई थी । न तो तब विश्वास हुआ था और ना ही आज तक हो पाया है कि नीली नहीं है अब उसके आसपास। एक कहानी ही तो है यह जिन्दगी भी ! विशेषतः तब जब बस यादें ही रह जाएँ और यादें भी ऐसी जो खुद को दोहराती ही रहें, जैसे कि एक पसंदीदा धुन! वह एक चेहरा आँसू भरा और आँसुओं में भीगी-डूबी वह अंतिम मुस्कान….जैसे डाली से झरता सूखा हुआ कोमल गुलाब, बस इतनी ही तो कहानी थी नीली की भी अब उसके पास।
ता-उम्र साथ रहने की उम्मीद लेकर आई थी नीली उसके जीवन में और तीन महीने में ही छोड़ भी गई उसे! पर उदास नही होती नीलोफर अब नीली को याद करके। एक पूरी कहानी लिख सकती है वह नीली पर…छोटी ही सही पर बहुत अपनेपन से भरी हैं नीली और उस शहर की सारी यादें आज भी नीलोफर के लिए ।…
हाँ, नीली पड़ती नीली को देखने के बाद ऐसा जरूर होता है कि नीला रंग अब उसे उतना नहीं भाता। विशेषतः तब जब थोड़ा मटमैला और सिलेटी-सा भी मिल जाए इसमें।
चाहे समुद्र हो या फिर आकाश, सभी उस दिन देखे अंतिम नीली के चेहरे-से ही तो दिखने लग जाते हैं उसे। कभी-कभी तो वह यह भी सोचने लग जाती है कि कौन-सा अंतिम पल था उन दोनों की मुलाकात का, वह जब नीली ने अंतिम सांस ली थी या फिर वह जब वह खुद अंतिम सांस लेगी!
समुद्र से तो माना भाग भी ले वह, पर आकाश से कैसे और कब भाग जा सकता है!…
शैल अग्रवाल
बरमिंघम यूँ.के.०
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