कहानी समकालीनः उत्सव-सूर्यबाला

पर्व वेला पर रोशनी की कतारें अभी उतरी नहीं हैं। जब उतरेंगीं तो सागर तट की पंद्रहवीं मंजिल पर मेरा फ्लैट कंदील-सा झिलमिला उठेगा।
रंग-रोगन, झाड़-पोंछ, सिल्वो, ब्रासो से चमचमाती पीतल, चांदी और कांसे की नायाब नक्काशियाँ। धूप-दीप, नैवेद्य और फूल, गजरे। दीपपर्व पर लक्ष्मी की पूजा का विशेष विधि-विधान।
इसलिए शाम को फिर से नहाई और बाथरूम से निकल कालोन, लैवेंडर छिड़के लहराते बालों के लच्छे झटक दिए हैं। कमरे में खुशबू का सोता सा फूट पड़ा है। तब बालों को बड़े प्यार से समेट, धुले कुरकुरे तौलिए से सहला-सहलाकर पोंछती हुई मैं उसकी ओर पलटती हूँ। वह उसी तरह समूचे माहौल की मोहकता में सराबोर हकबकी-सी खड़ी है। चारों ओर बिखरी हुई रोशनी में चौंधियाई-सी, जैसे इस लोक में नहीं, किसी अपार कौतुक-भरे अतींद्रिय लोक में खड़ी हो।
मैंने स्वर्ण पंखी साड़ी का पल्लू सँवार कलाइयों के कंकण पीछे किए और उस बौड़म-सी खड़ी हुई को टहोका दिया है कि ऐसी खड़ी-खड़ी वह कैसे काम निपटाएगी? एँ ? इधर पूजा की चौकी के पास पोंछा लगा।
वह चौंककर झटपट काम में जुट गई और पूजावाला सुवासित कोना बड़े यत्न से रगड़-रगड़कर पोंछने लगती है। कभी मुझे, कभी मेरे पूजा-स्थल को देखती हुई…उसकी आँखों में अपार श्रद्धाभाव है- मेरे ईश्वर के प्रति नहीं- मेरे प्रति और मेरे पूजा स्थल के प्रति।
ठीक उसी समय मैं भी मन-ही-मन पूजा की चौकी की ओर देखकर आभार प्रकट करती हूँ जो ऐन दीपावली के दो दिन पहले, नई-नई पास के गाँव से कमाने-खाने आई यह औरत मेरे सुपुर्द कर दी; नहीं तो रंग-रंगोली मंडित पूरा त्योहार अक्षत, कुमकुम और झाड़-पोंछ के बीच संतुलन बिठाने में ही बीत जाता। न काजू कतली और मलाई पाक बन पाता, न चूड़ी-कंकड़ और स्वर्ण पंखी साड़ी से लैस यह पूजा हो पाती। अब सुगंधाबाई मिल गई है न, तो जरा चैन से अर्चन-अभिनंदन हो पाएगा, सुख सौभाग्य और श्री की देवी लक्ष्मी का…आओ देवी ! पांव धरो, इस स्वर्ण पंखी साड़ी के जरी-जटित पल्लू पर सुख-सुविधा उपादानों के वृक्षारोपण करो। इस कुमकुम, अक्षत, फूल, धूप, दीप-नैवेद्य की क्यारी में !
दरवाजे की बेल बजी है। वह झटपट मुस्तैदी से दौड़ी है। उसे यह काम बड़ा मनभाया है। हर थोड़ी देर पर दरवाजे की घंटी बजती है। कोई एक आदमी एक बड़ा-सा रंगीन पैकेट लिए खड़ा होता है। संकेत पाते ही मैं दरवाजे तक आती हूँ।
कौन ? तनेजा साहब ? दीपावली मुबारक आपको भी- अरे इसकी क्या जरूरत थी ? पर वाकई है बेहद खूबसूरत! कहाँ से मँगवाया ? कटक से ? हाँ चाँदी की नक्काशी तो वहीं की लगती है…अच्छा थैंक्स !
अरे खुल्लर भाई। यूँ बाहर खड़े दीपावली मुबारक कैसी ? दो मिनट बैठिए तो—देखिए, इस फारमैलिटी की क्या जरूरत थी—मिठाइयां तो काफी थीं—रिंग, विंग नहीं चलेगी—आप तो जिद करते हैं। अच्छा जी—थैंक्यू वेरी मच।
येस ? कहां से आए हैं ? ए.के. इंटरप्राइजेज से ? ओ.के. थैंक्यू। हैप्पी दीपावली टु यू आलसो…
जी? साहब ? साहब नहीं हैं…दीपावली का गिफ्ट? थैंक्यू, नमस्ते।
मगन भाई, आप हैं ? तो अंदर तो आइये—मैने समझा कोई और है। ये बाई नई है न ! इसे क्या मालूम किसे अंदर आने देना है, किसे बाहर से टरकाना है…अरे नहीं जी, कृपा कैसी ? आप लोग तो इतने पुराने ‘ वैल-विशर ‘ ठहरे, अब बताइये इतनी बड़ी-सी कीमती चीज आप उठा लाए। और नहीं कहूँ तो जानती हूँ आपको तहेदिल से दुःख होगा। ऊपर से आप कहते हैं, भाभीजी ने अपने पैसे से खरीदी मेरे लिए….थैंक्यू—थैंक्यू अ लाट।
हाs sय मिस्टर तन्खावाला… !
थैंक्यू चड्ढा साहब…हैप्पी दीपावली आपको भी। नमस्ते जी। एक पांव से दौड़ रही हूँ मैं सुबह से; पर थकान का नामोनिशान नहीं। उसकी आँखों में अपार प्रशंसाभाव है मेरे लिए। मैं कितना अच्छा बोलती हूँ, कितनी बार अंदर से दरवाजे तक आती हूँ और रंगीन चमचमाते पैकेट लेकर अंदर जाती हूँ। वह झाड़-पोंछ करते-करते ही, बीच में जब मौका मिलता है, उन रंगीन पैकेटों पर हाथ फेरकर अपार आनंद अनुभव कर लेती है, और वापस अक्षत कुमकुम के थाल सजाने लगती है।उसका उत्साह देखकर दया आ गई। सो चार-पांच बार मैने उसे ही ‘ पैकेट्स ‘ अंलमारी में रखने के लिए कह दिया। बस, वह निहाल हो गई। पैकेट्स खूब सहेजकर रखती-रखती मुझसे बड़े गद्गद भाव से पूछ बैठी—
‘ ये लोग पूजा का सामान लाता न ? ‘
गूढ़ रहस्य में भरकर मैं शरारत से मुस्कुरा पड़ी हूँ। लेकिन तभी मैं जैसे मैं अपनी ही मुस्कुराहट से भयभीत हो उठी हूँ। मुझमें एक अनजाना भय-सा समा जाता है। मैं बारबार इस भय से आतंकित, ईश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना करने लगती हूँ कि मुझे किसी भी तरह के दुर्भाग्य से बचाना, सब कुछ हमेशा ऐसा ही भरा-पूरा रखना। इस सरकारी नौकरी को कभी आँच न आए; जिसकी बदौलत दीपावली के दिन एक पूरा बड़ा लौफ्ट और एक अलमारी खाली करनी पड़ी है, उपहारों के पैकेट्स ठूँस-ठूँसकर भरने के लिए…आह देवी…सुख, सौभाग्य, ऐश्वर्य और समृद्धि की देवी ! हमपर सदैव ऐसी ही कृपादृष्टि करना।
रोमरोम भक्तिभाव से पूर जाता है। तब भी संतोष नहीं होता तो अचानक ही कह पड़ती हूँ—
‘ सुगन्धा ! यह तेल नहीं, जाकर देशी घी लाकर डाल दियों में…’ और बड़ी एकाग्रता से सुगंधा से रूई लेकर एक-दो बत्तियां खुद पूरने लगती हूँ। देशी घी से लबालब दीये और भक्तिभाव से लबालब हृदय मुझे अतिरिक्त दयाभाव से भर देते हैं। आह ! कितने दुखी-दरिद्र हैं ये सब। क्यों न ज्ञानामृत की दो-चार घूंटें इस नादान, अकिंचन सुगंधा के गले में उतारने की चेष्टा करूँ ? इस गरीब का भला होगा। काम करते जाने की बोरियत भी दूर होगी। कुछ विनोद मनबहलाव भी।
सो अतिरिक्त कृपाभाव से पूछा—
’ तू पूजा करती है दीपावली पर ? ’
’ न ! ’
’ अरे, फिर क्या करती है ? ’
’ मैं ? ’ उसने एक क्षण अचकचा कर सोचा; जैसे अपनी दिनचर्या का कैसेट रिबांइड किया हो और कहा—
’ मैं सब बाई लोगों का झाड़ू-लादी करती…’
अजीब ऊटपटांग-सा उत्तर था। प्रश्न से कोई तालमेल ही नहीं। मैं अंदर तक चिड़चिड़ा-सी उठी। भक्ति-दर्शन पर बात करने का सारा मजा ही बदमजा हो गया। लेकिन तभी ध्यान आया—न, मेरा इस तरह सोचना अनुचित है। इस मूढ़ अविवेकी में इतना ज्ञान, विवेक होता तो यह झाड़ू-फटका करतीअपनी जिन्दगी गुजारती होती ? नहीं न ! यह तो हम जैसों का फर्ज है, इस ऊसर पडे खेत में बुद्धि-विवेक की खाद डालना। इस अज्ञान की अंधेरी खोह में ज्ञान का अलख जगाना। इसलिए वापस आ डटी—
’ अरे झाड़ू-पोंछा तो रोज ही करती है—उसकी कोई बात नहीं; पर दीपावली भी तो मनाती होगी, मनाती है कि नहीं… ? ’
उसने कुछ सोचा और सहमे भाव से ’ हां ’ में सिर हिलाया।
’ अच्छा तो कैसे मनाती है दीपावली ? ’
’ मेरा छोटा लड़का है न, वह एक पाकिट फुलझड़ी और दो अनार लाता–’ फिर जैसे सूत्र उसकी पकड़ में आ गया हो, इस तरह खुश होकर बोली–’उसके साथ मइ भी अनार छोड़ती—वो छोटा हइ न! ’
’ हां, लेकिन पूजा ? पूजा भी तो करनी चाहिए भगवान की…अच्छा, दीपावली को किसकी पूजा की जाती है, तुझे मालूम है ? ’
वह पहले अचकचाई, फिर थोड़े आत्मविश्वास के साथ बोली—
’ भगवान की… ’
’ हाँ-हाँ, लेकिन किस भगवान की ? ’
उसने फिर मेरी तरफ हैरानी से देखा—मेरे अंतस्तल से दया का स्रोत फूट पड़ा। हे ईश्वर! ये अपढ़, नादान कुछ भी तो नहीं जानते! यह भी नहीं कि देवी-देवता कौन-कौन से हैं—उनके क्या-क्या काम, कौन-कौन से विभाग हैं। कब, किस दिन, किसकी पूजा की जाती है और उसका क्या विधि-विधान तथा फल मिलता है। इन्ही मूढ़ों के लिए ही तो संस्कृत में वह श्लोक है कि विद्या, तप, दान, ज्ञान, शील और धर्म से हीन ऐसे व्यक्ति भूमंडल के भारस्वरूप होते हैं। मनुष्य के रूप में पशुओं से भी गए-बीते। बहुत दुष्कर है इनके भीतर ज्ञान का अलख जगाना। कहां से शुरु किया जाए ? लेकिन अब तो ओखली में सिर दिया ही है तो बात पूरी करनी होगी । कितना अच्छा होता अगर इस बीच कोई उपहार के पैकेटवाला आ गया होता, तो इस प्रवचन की कड़ी आप से आप टूट जाती।
’हां तो सुन !’ ’ भगवान तो कई होते हैं, कोई पैदा करता है, कोई पालन-पोषण करता है, कोई विद्या-बुद्धि देता है, कोई धन-संपत्ति देता है, कोई विघ्न-संकटों से रक्षा करता है, समझ में आया ? ’
लेकिन उसने जिस तरह सिर हिलाया, उससे साफ लगा कि समझ तो वह खाक-भर भी नहीं रही; लेकिन चूंकि मैं कह रही हूँ, इसलिए बात कुछ पते की ही होगी। एकाएक, जैसे बच्चे कक्षा में पढ़ाई की बोरियत से ऊबकर इधर-उधऱ ध्यान बंटाने लगते हैं, वैसे ही वह मेरी पूजा की चौकी पर रखी लक्ष्मी की चाँदी की प्रतिमा की ओर इशारा करके बोली—
’ तुम्हारा भगवान काए का है? चाँदी का ? ’
’हाँ, ये देवी लक्ष्मी की मूर्ति है न—इन्ही की पूजा आज होती है। तुझे मालूम है, लक्ष्मी काहे के भगवान हैं ? लक्ष्मी धन-संपत्ति, सुख-सौभाग्य की देवी हैं, समझी ? ’
उसने ’ हाँ ’ में सिर हिलाया और जैसे यह सोचकर खुश हुई, पूरा पाठ समझ में आए चाहे नहीं; लेकिन ’ हाँ ’ में सिर हिला देने से मास्टर छुट्टी जरूर दे देंगे।
सब कुछ रख-रखाकर वह जाने लगी तो मैने कहा—
’रात में एक बार आ जाना…यहीं पास में ही रहती है न तू.. ’
उसने सोत्साह ’ हाँ ’ कहकर सामने फैली दस बारह मैली-कुचैली चीथड़ों से ढाँपी, झोपड़ियों की तरफ इशारा कर दिया; जैसे अपना पता-ठिकाना नहीं, शहर का कोई दर्शनीय स्थल दिखा रही हो। अपना ’ घर ’ दिखाने का गर्व उसके चेहरे से छलका जाता था।
’ सुन तू भी अपने मरद से कहकर रात में भगवान की पूजा करना । ’ मन में सोचा—मैं भी अपनी पूजा के समय अपने भगवान से थोड़ी पैरवी कर दूंगी, इनके सुख चैन के लिए।
’मेरा मरद नई… ’ उसने एक तटस्थ-सी सूचना देने के लहजे में बताया।
’ क्या ? ’ एक झटका-सा लगा। मैं जैसे सन्न-से नीचे आ गिरी।
’ क्या हुआ तेरे मरद को… ’
उसने उसी सूचना देने के से लहजे में किसी तरह अपनी टूटी-फूटी भाषा में समझाया कि उसका मरद गांव से काफी दूर नहर खुदाई का काम करते-करते वहीं गहरे गढ़े में गिरकर मर गया।
’ अरे…कैसे… ? ’ मेरे मुँह से अनायास ही निकला।
’ क्या मालूम? ’ उसने एक तटस्थ और शांत भाव से धीमे से कुछ बुदबुदाया—जिसमें मैं सिर्फ भगवान-भर ही समझ पाई।
मेरा दिल सहानुभूति-संवेदना से ऊपर तक लबालब था। मस्तिष्क में तमाम सारे संवेदना संदेशों की इबारतें घूम गईं। लेकिन संवेदना दें तो किसे ? लेने की फुरसत भी तो हो किसी को। वह तो जल्दी-जल्दी झाड़ू-ब्रुश और दूसरी आलतू-फालतू चीजें समेटे, वापस किचन में भागी; क्योंकि अभी उसे दो और फ्लैटों के फर्श चमकाने थे। झोंपड़े से काफी दूर, सड़क किनारे फटे पाइप से पानी लाना था, सुबह के बरतन साफ करने थे, इधर-उधर डाँव-डाँव करते, मारे-मारे अपने बेटे को ढूंढ़ उसे दाना-पानी देना था। क्यू में खड़े मेरे संवेदना-संदेश मुँह देखते रह गए। वह रेलगाड़ी-सी भागती निकल गई।
ढली शाम ये आए। मैने हुलसकर अगवानी की। लेकिन चेहरे पर अजीब-सी उधेड़बुन हावी थी। मैने सारे दिन की आवाजाही और रंग-बिरंगे पैकेटों का खुलासा बयान करना शुरु किया। उन्होंने किसी मातहत की रिपोर्ट की तरह सुना।…उकताकर चाय की तलब की और दो गहरे घूँट उतारने के बाद अपनी उद्विग्नता छुपाते-छुपाते भी पूछ बैठे—
’मजीठिया आया था ? ’ — ’ मजीठिया ’ का मतलब मुझे मालूम था। सप्लायरों में सबसे कीमती नगीना। और फिर दीपावली पर मजीठिया का पर्याय था, बेल्जियन कट गिलासों का पूरा सेट, शैंडीलीयर, मसूर की दालों से माणिक की ऐसे ही थमा दी गई पुड़िया, या फिर बेशकीमती हीरे की छोटी-सी अँगूठी।
मेरे ’न…नहीं तो ’ कहने पर बेचैनी थोड़ी और बढ़ी सी लगी।
’क्यों ? क्या बात हो गई ? ’
’ कुछ नहीं…यूँ ही पूछा था… ’ फिर जैसे रोकते-न-रोकते अपनी उधेड़बुन जोड़ गए–’ ऑफिस में उसका ड्राइवर तो दिखा था…इसका मतलब आया था…’
’कोई जरूरी नहीं कि आया ही हो—हो सकता है कि अपने ड्राइवर और गुमाश्तों को ही पैकेट्स लेकर भेज दिया हो… ’
मेरी बात से न्हें बल मिला। चाय के दो-चार घूंट और शान्ति से उतरे। लेकिन तभी बेचैनी फिर हावी—
’ तो भी…मेरे पास आए बिन… ’
’अरे, हो सकता है, आपसे घर पर मिलना चाहता हो खुल्लर, मगन औरह लाकड़वाला की तरह…मगन भाई बड़ी खूबसूरत तनछोई की साड़ी लाया है, दिखाऊँ ? ’
उन्होंने जैसे सुना ही नहीं।
’फिर भी—घर पर भी आना होता तो भी, अब तक तो आ जाना चाहिए था…समझ में नहीं आता इस मजीठिए के बच्चे को हुआ क्या–’
’ कौन, पापा ?’ छोटे मिंटू ने अभी-अभी आए पिस्ता-बादामवाले बिस्कुटों के रंगीन पेपर को नोचते-नोचते पूछा।
’कुछ…।’ मैंने छोटे बेटे को टोका– ’ ये बच्चों के सुननेवाली बातें नहीं। ’ और इनके पास आकर सहानुभूति पूर्वक पूछा कि क्या चाय और लेंगे? जवाब में उन्होंने एक अनमनी-सी ना कर दी और सिगरेट सुलगाकर बालकनी पर टहलने लगे।
मैं बीच-बीच में किसी-न-किसी बहाने कुछ बोलने-बतियाने की कोशिश करती। दिमाग इधर-उधर बहकाने की भी। लेकिन इनके जवाब के अंत के साथ जुड़ता– ’ समझ में नहीं आता, इस मजीठिया के बच्चे को क्या हुआ ? ’
मैं अपना सहधर्मिणी का रोल अदा करने में जी-जान से जुटी थी। वैसे भी इनका दुःख और बेचैनी इनसे ज्यादा मेरी थी। मजीठिया हर साल सबसे पहले ही आया करता था और इ साल तो इनका प्रमोशन भी हो गया था। प्रमोशन के बाद खुशी-खुशी सारे साल की आमदनी का अंदाजा लगाते हुए मजीठिया को हमने सबसे ऊपरी पादान पर रखा था। और उसी मजीठिया का दीपावली की शाम तक कहीं अता-पता नहीं था।
रोल अदा करते-करते एक भूल हो गई। एक बेहद लचर बचकानी-सी बात निकल गई मुँह से–
’सुनिए…आपके प्रमोशनवाली बात उसे मालूम है ?
ये भभक पड़े– ’ अजीब बेवकूफी की बात करती हो तुम भी ? अरे ! प्रमोशन की बात का इससे क्या लेना-देना…वह तो वैसे ही आता रहा है हर साल, उस तरह तो आता…’ लेकिन तभी जैसे कुछ खटका हो– ’ कहीं ऐसा तो नहीं कि इधर-उधर के छुटभइयों ने कान भर दिए हों उसके कि काम तो सारा मातहतों के थ्र्रू होता है; अब बेकार बड़े साहब के लिए माल ढोने का क्या मतलब…लेकिन अगर उस स्साले ने ऐसा सोचा है तो… ’
कहने के साथ ही इनके चेहरे पर जो आंवे की धधक उठी तो मैं सहम गई। फौरन ठंडे पानी के छींटे ताबड़तोड़ मारने लगी–’ अरे छोड़िए…बरसों से बिजनेस का पक्का खिलाड़ी है—ऐसी गलती भला कैसे कर सकता है वह… ’
और सचमुच ये फौरन ठीक तापमान पर आ गए।
’ हां, यह तो है ही…लेकिन फिर भी समझ में नहीं आता कि इस मजीठिया के बच्चे को… ’
दरवाजे की घंटी बजी । छोटा बेटा चट से उचककर बोला– ’ मैं देखूँ पापा ? शायद ’ मजीठिया ’ हो… ’
मेरे आने से पहले ही वह दरवाजा खोलने भागा और पलक झपकते लौटकर मेरे कानों में फुसफुसाया—
’ सुल्तान ब्रदर्स…खूब बड़ा-सा पैकेट है…
’धत् ! ’ मैं अंदर से मगन होते हुए, उसे बनावटी रोष से तरेरती हूँ। तभी मेरा ध्यान वापस इनकी ओर जाता है और मेरा उत्साह ठंडा पड़ जाता है। घंटी बजने पर सचमुच इन्होंने अपनी उतावली छुपाते-छुपाते भी बेचैनी से दरवाजे की तरफ देखा था ; लेकिन अब वापस चहलकदमी तेज हो गई।
अब ? मुझे कुछ नहीं सूझता तो बैठे-बैठे मजीठिया के बच्चे को कोसने लगती हूँ। बना-बनाया त्योहार बिगाड़ दिया। अरे आ जाता तो कौन-सा सोना झर जाता उसका। करोड़ों का आदमी है। हमारी साल-भर की खुशियों पर पानी फेरने से आखिर क्या मिला उसे ?—और मैं पाती हूँ कि इनका वाला सुरूर अब ठीक उसी तरह मेरे सिर पर चढ़कर बोल रहा है—आखिर मजीठिया के बच्चे को हुआ क्या ? क्यों नहीं आया हर साल की तरह।
घंटी फिर बजती है। इस बार बाकी दोनों बच्चे अनार, चर्खी, रॉकेट, फुलझड़ियों के बड़े-बड़े पैकेट से लदे-फंदे उछलते कूदते लौट आए हैं…छोटा बेटा उनके पास आता है…लेकिन मेरे और इनके चेहरे की ओर देखकर वे दोनों सहम गए। दोनों का एक साथ सवाल मिला है कि ’ क्या हुआ ? ’
और जब तक मैं कुछ सोचूँ या बोलूँ, छोटा मिंटू टप से बताता है– ’ वो मजीठिया इस साल आया ही नहीं…
’शटअप-! ’ ये जोर से दहाड़ते हैं !
थोड़ी देर इन्तजार करने के बाद मैं चाहती हूँ कि इनसे कहूँ, गोली मारिए उस मजीठिया को…आइये चलिए पूजा करें…लेकिन जानती हूँ, पूजा करते हुए भी क्या मजीठिया चैन लेने देगा ? उसी की लाई आधा किलो ठोस चाँदी की लक्ष्मी की ही तो हम हर दीपावली पर पूजा करते आए हैं। यों ऐसा कोई रिवाज या रूढ़ि नहीं थी…परिवार में तो पहले हमेशा मिट्टी की गणेश और लक्ष्मी की छोटी-सी प्रतिमा और चार आने के माला-फूल-बतासे में ही हँसी-खुशी लक्ष्मीपूजा की आरती हो जाती। लेकिन अब चाँदी की ठोस लक्ष्मी पधारने लगीं तो मिट्टी की मूर्ति पूजने की बेवकूफी कौन करता—इसलिए वह आदत ही छूट गई। गणेश लक्ष्मी की नई मूरत ही नहीं ।
’ बाई ! ’
ओह ! सुगन्धा को आने के लिए कहा था । लेकिन अभई तो कुछ हुआ ही नहीं। मैने बेमन से मिठाइयों का एक पैकेट उसकी ओर बढ़ा दिया।
उसने उत्सुक आँखों से एक बार पूजा की चौकी की ओर देखा और बड़े प्रेम से हाथ जोड़कर मिठाई का पैकेट माथे से लगाते हुए बोली—
’ पूजा संपली ? (हो गई?) ’
’ नहीं—पूजा अभी नहीं हुई। ये प्रसाद नहीं, ऐसे ही मिठाई है। तू जा अब… ’ मैं किसी तरह जल्दी-से जल्दी उसे टरकाना चाहती थी।
लेकिन उसकी आँखों में अपार विस्मय झाँक उठा; जैसे विश्वास ही नहीं कर पा रही हो कि भला यह कैसे हो सकता है ? अब तक पूजा नहीं हुई ? मुझसे उसकी हकबकी, विस्मय-भरी उपस्थिति सही नहीं जा रही थी । किसी तरह एकदम रुक्ष स्वर में बोली—
‘ कहा न…लेके जा सुबह आना, हम पूजा देर से करते हैं । ‘
कुछ न समझते हुए भी वह मेरी आवाज की तुर्शी से सहमकर धीमे-धीमे सीढ़ियाँ उतर गई।
इसी के साथ सब कुछ शांत और निस्तब्ध होता चला गया । हालाँकि अब चारों तरफ से छूटते बमों और पटाखों की तेज आवाजें आ रही थी। सड़क पर शोर-शराबा, हो-हुल्लड़ बढ़ रहा था। रोशनी की कतारों में जबरदस्त होड़ाहोड़ी-सी चल रही थी; लेकिन सागर तट की पंद्रहवीं मंजिल के मेरे फ्लैट में एक अजीब-सा सन्नाटा था। बम छूटते तो सन्नाटा और ज्यादा महसूस होता।
अंततः।
पूजा हुई । बच्चों ने पटाखे भी छोड़े…इन्होंने वापस बालकनी में जाकर सिगरेट सुलगा ली । मुझे कुछ न सूझा तो इन्हें ज्यादा डिस्टर्ब करना ठीक न समझ, चुपचाप निस्तब्ध सन्नाटे में पिछले कमरे की खिड़की से जा लगी—
सामने—
पंद्रहवीं मंजिल से बहुत नीचे, काफी दूर, सागर तट से लगी, मैले-कुचैले चीथड़ों से ढँपी, झोपड़ी की एक कतार थी। उस कतार में एक अँधेरी-सी झोंपड़ी के सामने सुनहरे, हरे और सफेद बूँटोवाला छोटा-सा अनार छूट रहा था और उसमें घुली थीं दो मुक्त, मगन खिलखिलाहटें।

सूर्यबाला

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